ज्योति चावला का आलेख - 'ऐ लड़की' : अपनी महीन बुनावट में स्त्री विमर्श का तरल दस्तावेज़


कृष्णा सोबती


कृष्णा सोबती हिंदी की जानी-पहचानी वह रचनाकार हैं, जिन्होंने अपने लेखन से हिंदी के कथा साहित्य और कथा-भाषा को एक अलग स्वरुप और धार प्रदान किया है। विषयों के चुनाव से ले कर उसके ट्रीटमेंट तक कृष्णा जी की रचनात्मकता स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है। कृष्णा जी का उपन्यास 'ऐ लड़की' एक क्लासिकल उपन्यास है जिसके कथ्य और स्वरुप पर पर्याप्त चर्चाएं हुई हैं और आगे भी यह क्रम चलता रहेगा। हाल ही में कृष्णा जी को वर्ष २०१७ का ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया है। सच कहें तो ज्ञानपीठ कृष्णा जी को पुरस्कार दे कर खुद गौरन्वान्वित हुआ है। चर्चित कवयित्री और कहानीकार ज्योति चावला ने कृष्णा जी के उपन्यास 'ऐ लड़की' पर एक सुविचारित आलेख लिखा है जिसे हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं। तो आइए  आज पहली बार पर पढ़ते हैं ज्योति चावला का आलेख - 'ऐ लड़की' : अपनी महीन बुनावट में स्त्री विमर्श का तरल दस्तावेज़।   


'ऐ लड़की' : अपनी महीन बुनावट में स्त्री विमर्श का तरल दस्तावेज़


(कृष्णा सोबती के उपन्यास 'ऐ लड़की' पर एक लेख)



ज्योति चावला



कृष्णा सोबती की एक रचना है – ‘ऐ लड़की’। शीर्षक से ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि किसी खडूस के मुँह से निकला एक सम्बोधन है यह। ऐसा ही है भी। एक माँ के मुँह से अपनी बेटी के लिए प्रयुक्त। अजीब सी कहानी है यह। पलंग पर लंबे समय से बीमार पड़ी एक बूढ़ी औरत का आत्मालाप। अजीब बोझिल। जैसे सिर्फ खुद से ही बात कर रही हो। जैसे अपने खाली समय को बिताने के लिए किसी का बेहद कीमती समय बर्बाद कर रही हो। और उसके बावजूद भी शिकायतों का पुलिंदा। अजीब एकरसता। लेकिन अपने अन्त तक आते-आते कितना तो रीत जाता है भीतर से। जरा गौर से देखिये अपने चारों ओर कितनी ऐसी बुजुर्ग आपको मिल जाएंगे जो बिस्तर पर पड़े दिन गिन रहे हैं और हर पल अन्त की कल्पना कर रहे हैं। कभी अपने जीवन की असफलताओं का जिम्मेदार दूसरों को ठहराते कभी खुद ही उन पर गौर से विचार करते, कभी दुख में आकंठ डूबे दर्द से कराहते और कभी दूसरे ही पल मुस्कुरा देते। किसी पिछले पल को याद करते ऐसे जैसे जीवन के इस अन्तिम पल उनकी आँखों में कोई फिल्म चल रही हो जिसका रिमोट उनके हाथ में नहीं। जीवन के कितने ही बीत चुके पल उन्हें बार-बार सामने आकार चौंका देते हैं और वे उन पर कभी मन मसोस कर रह जाते हैं, कभी मुस्कुरा देते हैं कभी खुद से कोई शिकायत और फिर अगले ही पल अपनी ही अदालत में खुद को माफी। बिस्तर पर पड़े उस पल अपने असहनीय दर्द को अनदेखा कर पिछले बही-खातों का लेखा-जोखा टटोलने लगते हैं। ऐसी ही है ऐ लड़कीकी कहानी।


और जब यह मरणासन्न बुजुर्ग कोई स्त्री हो तो बहीखाते और मर्मस्पर्शी हो जाते हैं। ऐ लड़कीकी मुख्य किरदार अम्मू या मम्मू ऐसी ही एक किरदार हैं। खुद से जूझती, खुद से झगड़ती लेकिन ऊपर से बेहद सख्त। कभी अपनी बेटी को डांटती तो कभी अपनी नर्स को वह अपना पूरा रुतबा दिखती है लेकिन उनकी बेचारगी को बहुत बेहतर समझती है उनकी बेटी यानि वह स्त्री जिसे उसकी माँ ‘ऐ लड़की’ कह कर पुकारती है।


इस उपन्यास का प्रकाशन वर्ष 1991 है यानी 26 वर्ष पहले। कृष्णा जी ने कैसे उस समय एक बीमार बूढ़ी स्त्री की आत्मा में उतर कर इस कथा को जिया होगा, सोच कर ही सिहरन होने लगती है। एक बूढ़ी बीमार स्त्री के अन्तस को जैसे बेहद बारीकी से पकड़ लिया है उन्होंने। उसके भीतर की उधेड़-बुन, उसके भीतर के न जाने कितने कहे-अनकहे भाव, ये सब शायद उन्हें जी कर ही समझे जा सकते हैं। किसी बुजुर्ग को बिस्तर पर पड़े देख कर हमारे भीतर जो विचार आते हैं, उससे ठीक उलट लेखिका ने उस पात्र के भीतर के महीन धागों को पिरोने की कोशिश की है। कितना मुश्किल होगा उस मनःस्थिति तक पहुँच कर, उस भावभूमि तक पहुँच कर उससे एकाकार हो कर उसे शब्दों में उतारना। हालांकि यह कथा जितनी शब्दों में घटित होती है उससे कहीं ज्यादा यह हमारे भीतर चढती-उतरती है। और हम हर पल ठहर कर ठिठके से इसका दोहरा पाठ करने लगते हैं।


कहानी की प्रमुख किरदार मम्मू के कई रूप हैं - एक बेहद कठोर, एक बेहद नर्म, एक ठीक वैसा ही पितृसत्तात्मक जैसा कि अमूमन सबका होता है और एक बेहद स्त्रीवादी, जैसा कि हर स्त्री भीतर से हो सकती है, एक चिडचिडी मरणासन्न बुजुर्ग  और एक जीवन से भरी स्त्री जो जीवन को छक कर जी लेना चाहती है। जरूरत है तो थोड़ा सा कुरेद भर देने की। इन सारे रूपों के बहुत से उदाहरण लेख में भरे पड़े हैं। मम्मू के ये विभिन्न रूप एक दूसरे से ठीक उलट लगते हैं। एक रूप जहाँ पूरे हल्ले के साथ अपना प्रभुत्व स्थापित करता है, वहीं दूसरा रूप धीरे से बिल्कुल दबी आवाज में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता है। यह दबी आवाज कभी कभी इतनी मुखर हो जाती है कि मुखर आवाज के अस्तित्व पर शक होने लगता है और पाठक पाठ को पढ़ते हुए और सतर्क हो जाते हैं, उनकी सभी इंद्रियां कानों में तब्दील हो जाती हैं और उस दबी आवाज की हर ध्वनि को बारीकी से पढ़ने लगते हैं। इसी में पाठ और पाठक दोनों की सफलता है कि यह पाठ केवल उपरी सतह पर रहा या अंदरूनी सतह पर भी कुछ हलचल हुई। आइए, मम्मू के इन विभिन्न रूपों की बारीकी से पड़ताल करते हैं।


उपन्यास की शुरुआत बिना किसी भूमिका के सीधे संवाद से होती है और संवाद भी ऐेसा कि पहली ही पंक्ति में अपने शीर्षक का रहस्य खोल कर रख दे। एक बुजुर्ग स्त्री जो बिस्तर पर पड़ी अपनी मौत का इंतजार कर रही है –


ऐ लड़की, अंधेरा क्यों कर रखा है! बिजली पर कटौती! क्या सचमुच ऐसी नौबत आ गई!



कमरे की जलती रौशनी पर उसके भीतर का अंधेरा हावी है और दंभ यह कि सभी को झूठा ठहरा रही है। बीमारी का दर्द और वह सब कुछ छूट जाने का भय जिसे छक कर प्यार किया और मन भर जी लेने की दबी इच्छा उसके अन्त को बेहद कठोर बना देते हैं। अपनी ही जायी बेटी से कठोर व्यवहार से शुरू होता यह उपन्यास धीरे-धीरे परत-दर-परत उधडता चलता है। चूंकि यह उपन्यास घटना प्रधान नहीं बल्कि एक घटना घटने के इंतजार के पलों का दस्तावेज़ है इसलिए इसमें घटनाएं नहीं सिर्फ अनुभूतियां हैं, मनोवैज्ञानिक हलचल है जो उपर से बिल्कुल थिर दिखता है लेकिन जिसके भीतर एक उछाह खाता तूफान है। ऐसा तूफान जिसे एक ओर तो बिल्कुल शान्त हो जाना है और दूसरे छोर पर उस लड़की के सीने में ही दफन रहना है।


बुजुर्ग अम्मू को हर पल अपने जाने का एहसास है और उस पल का अनचाहा इंतजार भी। बीमारी से उपजा चिड़चिड़ापन, उम्र बीत जाने का दुख, मनचाहा न जी पाने की अदम्य ईच्छाएं सबने मिल कर उन्हें इतना चिड़चिड़ा बना दिया है कि उनकी ज़बान से मीठा बोल निकलता ही नहीं।


मेरी देहरी की सांकल तो खुल चुकी! दरवाजे पर खटखट हुई नहीं कि मैं बाहर!
एक घटने वाली घटना की तैयारी और फिर अगले ही पल जी लेने की चाहत।
भला कहाँ देखे थे बड़े-बड़े गुलाब!


दरअसल यह उपन्यास नहीं हमारे भीतर का आइना है जिसमें हम पल-पल बदलते अपने मनोभावों को देख सकते हैं। इस उपन्यास की सफलता इसकी फ्लैशबैक तकनीक है। कहानी बार-बार फ्लैशबैक में जाती और लौटती है ऐसे जैसे कोई फिल्म चल रही हो और जिसका रिमोट किसी बच्चे के हाथ में हो या फिर हम एक ऐसा चलचित्र देख रहे हों जहाँ दृश्य एकरेखीय न चल कर अरेखीय (non linear)  मोड में चल रहे हों। कहीं से भी स्मृतियों की एलबम का कोई पन्ना खुल जाता है और अम्मू के चेहरे पर अनेक भाव आते-जाते रहते हैं। कभी वे खुद को शिमला की चढाई पर महसूस कर रही हैं जहाँ वे उत्सुक निगाहों से खिड़की के बाहर देख रही हैं। वे खुश हैं कि तभी अपने ब्याहता होकर आने का एहसास उन्हें होता है जहाँ अपने मन पर भी अपना नहीं पति का अधिकार होता है कभी उनके सपने में उनकी माँ का झिलमिलाता चेहरा दिख जाता है। सपने में भी वे वही मूंगिया जोड़ा पहने खड़ी हैं। ऐसा दृश्य जो बरसों पहले उनकी आंखों में स्टिल फोटो की तरह थम गया था, उनके सपनें में जीवंत हो जाता है। वे फिर छोटी बच्ची बन जाती हैं जहाँ उनकी माँ उन्हें अपने स्तन से दूध पिला रही है। कभी उन्हें याद आ जाता है शादी के बाद का वह पल जब वे ब्याह कर आई हैं और उनकी गोद में उनके छोटे से देवर को बैठा दिया जाता है। दुल्हन के भेस में शरमाई सी प्यार से वे उसके गाल को चूम लेती हैं और फिर लौट आती हैं कि वही देवर अब हफ्ते में एक दिन हालचाल जानने के लिए फोन कर लेता है और वे ताना मारते हुए कहती है –


वैसे बूढे-बीमारों का हाल-चाल पूछना हफ्ते में एक बार भी काफी होता है।


यदि आपने किसी नवजात शिशु को करीब से देखा हो तो नोटिस किया होगा कि बच्चे सोए-सोए कभी मुस्कुराने लगते हैं, कभी रोने सा मुँह बना देते हैं और कभी डर कर उठ जाते हैं। पंजाबी लोक-कथाओं में यह माना जाता है कि बच्चे के सपने में विदविदाई माता आती है जो उसके कान में धीरे से कुछ कहती है और बच्चे उसी के अनुसार भाव बदलते हैं। जैसे विदविदाई माता कहती है कि तेरी माँ मर गई तो बच्चा रोने लगता है और फिर कहती है कि नहीं-नहीं! तेरी माँ सही सलामत है तो बच्चा मुस्कुरा देता है। अम्मू का अन्तस भी उसी बच्चे जैसा है जिसमें कई भाव स्मृतियों के पिटारे से निकल कर आते-जाते रहते हैं और वे ठीक नवजात शिशु की तरह अम्मू के चेहरे पर आते-जाते रहते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि बच्चे इसे कह नहीं पाते और अम्मू सब कुछ अपनी जबां से कहती जाती हैं। (विदविदाई माता का चरित्र कहीं पंजाबी लोककथाओं से आया होगा जिस पर विस्तार से बातचीत की यहाँ आवश्यकता नहीं है)।


ये कुछ उदाहरण थे जिनसे अम्मू के भीतर की दुनिया दिखाई देती है। अब इस कहानी का थोड़ा और विश्लेषण करते हैं। इस उपन्यास को पढ़ते हुए शुरू में लगता है कि इसकी कोई कथा नहीं, कोई खास शिल्प नहीं, कोई दृश्य नहीं, अधिक पात्र नहीं, कोई रोमाँच नहीं। कुल मिला कर चमत्कार के सारे उपकरण नदारद हैं। एकरसता में डूबा आदि से अन्त तक एकालाप, कहीं-कहीं दो लोगों के बीच का संवाद..... कुछ खास नहीं। लेकिन जैसे-जैसे इस उपन्यास के पन्ने पलटते जाते हैं यह एकालाप, यह एकरसता इस उपन्यास का जरूरी तत्व बन जाता है। ऐसे कि यदि यह उपन्यास ऐसे न लिखा जाता तो असफल होता। या कि इसे ऐसे ही लिखा जा सकता था। इतना ही नीरस, इतना ही एकरस, मन को बोझिल कर देने वाला। कितना कुछ खोलता है हमारे भीतर अम्मू का चरित्र और चरित्र उस लड़की का जिसे अम्मू ‘ऐ लड़की’ कह कर पुकारती है। विचारणीय यह है कि जिसे निष्क्रिय रख कर यह उपन्यास लिखा गया और जो एक बेहद अहम किरदार है इस उपन्यास की, उसका नाम तक देने की जरूरत महसूस नहीं की उपन्यासकारा ने। शायद जरूरत थी ही नहीं। अम्मू के भीतर सूख चुके सोतों को ‘ऐ लड़की’ के संबोधन से ही अभिव्यक्त किया जा सकता था। इसी संबोधन की तह में तो पाठक को गोते लगाना है कि जिस लड़की के प्रति अम्मू का व्यवहार इतना तिरस्कार भरा है उससे उनका संबंध कैसा है। और वह लड़की ही क्या अम्मू के चरित्र का भी तो कोई नाम नहीं है इस कथा में ऐसे जैसे स्त्री के लिए उसके नाम से उसकी पहचान होना कोई अतिरिक्त सी चीज़ है। अम्मू जैसी बुजुर्ग जो जीवन भर किसी की पत्नी, किसी की बहू, किसी की माँ, किसी की नानी बन कर रही और इस पूरी प्रक्रिया में उनका अपना नाम कहीं खो सा गया। और दूसरी ओर लड़की जैसा चरित्र जो न किसी की माँ है, न किसी की बहू, न किसी की पत्नी - फिर भी उसके हिस्से पूरी कथा में कोई नाम नहीं आया। अम्मू उसे लड़की कह कर ही पुकारती हैं जैसे न जाने किस प्रतिरोध में उसके व्यक्तित्व को नकार रही हैं।


कृष्णा सोबती ने भी शायद इसी प्रतिरोध के स्वरूप लड़की को कोई नाम नहीं दिया ताकि पढ़ने से पहले पाठक इसके शीर्षक पर चौकें और फिर सोचने को मजबूर हो कि हमारे आस-पास कितनी ऐसी स्त्रियां हैं जो उम्र गुज़ार देती हैं लेकिन एक बार भी ठीक से अपने नाम से परिचित तक नहीं हो पातीं।


उपन्यास में प्रत्यक्ष रूप से तीन स्त्री पात्र हैं - अम्मू, लड़की और सूसन (अम्मू की नर्स)। इनके अलावा कई अन्य पात्र अम्मू के संवादों के माध्यम से कथा में आते-जाते रहते हैं जिनमें अम्मू के पति, उनकी माँ, उनका बेटा, उनकी बड़ी बेटी, उनकी नातिन आदि। किंतु यह उपन्यास इन तीनों के संवाद और अम्मू के बार-बार फ्लैशबैक में जाने पर घटित होता है। सूसन की भूमिका केवल सहायक यानी फेसिलिटेटर की है जो बीच-बीच में आ रही जड़ता को तोड़ती रहती है। बाकी बचे दो चरित्र - अम्मू और लड़की। कथा का सही पाठ करने के लिए इन दोनों ही चरित्रों को बारीकी से समझे जाने की जरूरत है। तभी इसके ताने-बाने को ठीक से पकड़ा जा सकता है।


अम्मू एक ऐसी बुजुर्ग हैं जो जीवन के अन्तिम समय में हैं और बीमार हैं। कथा में इसके अलावा उनके व्यक्तित्व के विषय में कुछ खास नहीं कहा गया। वे बेहद बीमार हैं और बिस्तर पर हैं और उनकी सेवा के लिए एक नर्स है - सूसन। बेटी उनकी दिन-रात सेवा करती है। यहीं से कहानी की शुरुआत होती है। इसके बाद अम्मू के बारे में जो भी पता चलता है वह अम्मू के आत्मालाप या लड़की से उनके संवाद के माध्यम से ही। संवादों को एक किनारे रख कर अम्मू के व्यक्तित्व का खाका खींचा जाए तो एक बेहद उर्जावान स्त्री, जो घुड़सवारी करती है, अकेली मीलों की यात्रा करती है। उसका विवाह होता है और यहीं से शुरुआत होती है घोड़ों पर काबू करने वाली लड़की को काबू करने की कवायद। अम्मू को आज भी याद है वे वाक्य जो उनके पति ने कहे थे –


अपने को संवारने के लिए बहुत-कुछ सीखना पड़ता है। सिर्फ घोड़े की सवारी से काम नहीं चलता। लड़की, मर्द का दबदबा रहना ही चाहिए। उसका स्थान नीचे नहीं, उपर है। (पृ.18)


दरअसल यह कवायद इतनी धीमी और सतत होती है कि कोई भी स्त्री न उसे समझ पाती है और यदि समझ भी पाए तो नियंत्रण नहीं कर पाती और जब तक आँख खुलती है वक्त बीत चुका होता है। अम्मू के संवाद धीरे-धीरे उनके व्यक्तित्व की कलई खोलते हैं। अम्मू के संवाद पूरी उस प्रक्रिया के गवाह हैं जिसमें एक स्वतन्त्र मन को काबू किया जाता है। इस काबू करने की प्रक्रिया में न जंजीर होती है, न लगाम, न कोई बाहरी ताकत बल्कि रीति, समाज, संस्कार, संस्कृति के कोमल, रेशमी और रंगीन धागों से उसे जकड़ दिया जाता है और स्त्री इन कोमल धागों को छू-छू कर धर्म और समाज के प्रति नतमस्तक हुई जाती है। अम्मू को स्मृति में है वह दृश्य –


सपने में देखती हूँ, गाढी धुंध में चली जा रही हूँ। कभी लगे जाखू राउंड वाली चढाई पर हूँ। कभी भान हो टूटी कंडी वाली उतराई उतर रही हूँ।

और अगली ही पंक्ति में


चल अकेले रही थी, पर कोई आहट मेरे पीछे-पीछे भागती आती रही। पहचान करने की कोशिश की तो एडीदार जूती की आवाज पीछा कर रही थी...


एकाएक पहचान लेती हूँ कि यह आवाज़ तो मेंरी अपनी जूती की है। (पृ. 18-19)

यह आवाज हर आगे बढ़ती लड़की के पीछे चुपचाप चली आती है। उसकी अपनी ही जूती की आवाज जो उसे कभी भी मुक्त नहीं होने देती। और यह आवाज जो एक बार पीछा करना शुरू करती है तो जीवन भर नहीं छोड़ती। अम्मू के पीछे चल रही यह आवाज हर बार उनके मन से आ रही आवाज को दबाने की कोशिश करती रहती है। इसे ही प्रसिद्ध मार्क्सवादी समाजशास्त्री अंतोनियो ग्राम्शी ने ‘कल्चरल हेजेमनी’ यानी सांस्कृतिक प्रभुत्व कहा है जिसके तहत प्रभुत्वशाली वर्ग कमजोर वर्ग पर अपना प्रभुत्व स्थापित तो करता है लेकिन यह प्रक्रिया इतनी सूक्ष्म होती है कि कमजोर वर्ग को इसका प्रत्यक्ष एहसास तक नहीं होता।


अम्मू का व्यक्तित्व पर भी इसका सीधा असर देखा जा सकता है। यहाँ अम्मू का व्यक्तित्व दो व्यक्तित्वों के घालमेल से बना है। एक निरा पितृसत्तात्मक और दूसरा बेहद स्त्रीवादी। जब वे अपनी बेटी को ताने देती हैं तो वे कुछ और नहीं उसी बड़ी व्यवस्था का एक अंग होती हैं जिसमें कमजोर वर्ग पर सांस्कृतिक पकड़ बनाकर उस पर शासन किया जाता है और जब वे स्त्रीवादी हो कर अपनी बेटी के अकेलेपन के चुनाव को चुनौती की तरह सराहती हैं तब वे उस बड़ी व्यवस्था में धीरे से सेंध लगाने की कोशिश करती हैं। एक तीसरा रूप भी हैं यहाँ अम्मू का। वह रूप जहाँ अम्मू बेटी के चुनाव को सराहती भी हैं, उसके त्याग का, उसकी हिम्मत का सम्मान भी करती हैं लेकिन फिर उसी व्यवस्था के सामने कमजोर पड़ उसका हिस्सा बन जाती हैं। बेटी को सराहने वाली अम्मू फिर अपने चेतन में बेटे के पक्ष में खड़ी नजर आती हैं। बेटे को जायदाद सौंपना, उसे ही अपना उत्तराधिकारी मानना ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं। अम्मू का यूं लाचार होना दिखलाता है कि सांस्कृतिक सत्ता की दीवारें इतनी मौजूद हैं कि इसे साहस कर के भी तोड़ा नहीं जा सकता।


अम्मू के चरित्र को पढ़ते-पढ़ते आंखें अचानक चौंधिया जाती हैं कि यह इस चरित्र का कौन सा रूप है। एक ओर वे ऐसी स्त्री हैं जो अपनी बेटी को सिर्फ इसलिए नापसंद करती हैं कि उसने शादी नहीं की, परिवार नहीं बसाया। वह केवल अपने मन की सुनती है। उसके ऐसा करने के लिए अम्मू उसे बार-बार नीचा दिखाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़तीं। और दूसरी ओर, अम्मू का वह चरित्र जहाँ वे बेहद स्त्रीवादी हो जाती हैं। इतनी कि जैसे सीमोन द बोउवार को पढ़ कर आई हों। बेहद किताबी लेकिन जीवन से उपजा ज्ञान, अपने निजी अनुभवों से निकला ज्ञान। एक ओर वे अपनी बेटी के उस सारे त्याग की तारीफ करती हैं जो उसने उनके लिए किया। बीमार बूढ़ी माँ की सेवा करना, उसके एकालापों को दिन-भर सुनना और दूसरी ओर उनकी आँख अन्त तक अपने बेटे के दरस के लिए तरसती रहती है। अपने ही भीतर-बाहर आती-जाती अम्मू फ्रायड के मनोविश्लेषणवाद के सिद्धांत की याद दिलाती रहती है। मनुष्य का मन तीन भागों में बंटा रहता है - चेतन, अवचेतन, अचेतन। अम्मू इन तीनों ही स्तरों पर जाती-आती रहती हैं।



अम्मू का चेतन मन पूरी तरह से पितृसत्तात्मक है। वह अपने परिवार और अपनी बेटी को वैसे ही देखना चाहती है जैसी इस समाज के द्धारा उनकी सोशल कंडीशनिंग हुई है। वह अपने पति के व्यक्तित्व की तारीफ करती हैं। उनके महान व्यक्तित्व के गुण गाती हैं।


बेटी को अनब्याही होने के कारण ताने मारती है चूंकि समाज ने हमें यह सिखाया है कि ब्याह और संतानोत्पत्ति के बिना स्त्री का जीवन अधूरा है। वह उसके अकेले और अपने मन का जीवन जीने की सराहना नहीं करती अपितु उसे हमेशा उसके अधूरेपन की याद दिलाती रहती है-


इतना बता दो कि खुदमुखत्यारी चलाओगी किस पर! तेरी पंक्ति में कोई नहीं!
न किसी की माँ, न दादी, न नानी। लड़की, तुम हो वनस्पति-कुश-घास-तिनका! जो कह रही हूँ वह समझती तो हो! (पृ. 24)

इसके हाथ पर आंखों की निगरानी नहीं।

परिवार लगता है तो हाथ पहचान करता है। आप ही संयम बांध लेता है। (पृ. 25)
लड़की मेरे जाने तुम्हें दीमक लग चुकी है। अब तक तो तेरा अन्दर-बाहर सब चाट गई होंगीं।! (पृ. 29)


वे अपनी बड़ी बेटी के प्यार और छोटी बेटी की सेवा की तारीफ तो करती हैं और दबे स्वर में बेटे की बुराई भी करती है। लेकिन उनका साफ मानना है कि माँ को अन्तिम आग देने का कर्तव्य और अधिकार दोनों बेटे का है। वे अपनी बेटी से ऐसा पूछती भी हैं कि उनके मरने पर उनका बेटा उनके अन्तिम संस्कार के लिए भी आएगा या नहीं।


दूसरी ओर उनका अवचेतन मन उनकी आत्मा की बात कहता है। वह चेतन मन से पुरज़ोर दबा है लेकिन कहीं कहीं बीच-बीच में वह अपनी बात रखता है और वहीं अम्मू के व्यक्तित्व का सबसे प्रबल पक्ष सामने आता है जहाँ वे जीवन और जहाँ की लादी सारी गठरियां उतार कर खालिस स्त्री के रूप में सामने आती हैं।


स्त्री के स्त्रीत्व की सुन्दर व्याख्या वे यहाँ करती हैं। सृजन की महत्ता समझाती हैं और लेखिका अम्मू के माध्यम से बिना कोई शोर मचाए, बिना कोई परचम उठाए स्त्रीत्व के संपूर्णत्व की ओर संकेत करती है कि एक नए जीवन को जन्म देने की शक्ति कैसे स्त्री को एक दूसरे ही पायदान पर ला खड़ा करती है जहाँ कोई दूसरा उसका सानी नहीं –


लड़की, बच्चा बनाना एक तरह का यज्ञ ही है री! इन दिनों औरत पूरे ब्रह्मांड से शक्ति के कण खींच कर अपनी उर्जा ज्वलित कर लेती है। अपने में कुछ विशिष्ट ही जीती है। अपने अन्दर का आकाश निरखती है। जीव उत्पन्न करने में उसकी गूंथ-गूंज कुदरत से मिली रहती है। (पृ. 42)


अम्मू जब यह कहती है कि –

अपनी समरूपा उत्पन्न करना माँ के लिए बडा महत्वकारी है। पुण्य है। बेटी के पैदा होते ही माँ सदाजीवी हो जाती है। वह कभी नहीं मरती। हो उठती है वह निरंतरा। वह आज है, कल भी रहेगी। माँ से बेटी तक। बेटी से उसकी बेटी, उसकी बेटी से भी अगली बेटी। अगली से भी अगली। वही सृष्टि का स्रोत है। (पृ. 43)


तो उस समय वह पूरी तरह से एक स्त्री होती है। संबंधों के सभी दायरों से परे, मर्यादा के सभी बंधनों से मुक्त, समाज की सभी परिभाषाओं से अनजान वे एक स्त्री होती हैं - आदिम स्त्री। अपने विराटत्व में अपनी ही देह को देखती, अपने ही अंगों को निहारती, उस पर मोहित होती, उसका सही-सही मोल समझती। सृष्टि के निर्माण में अपनी भूमिका को ठीक-ठीक आंकती स्त्री।


ऐसा नहीं है कि कृष्णा सोबती ने अम्मू के मुँह से केवल स्त्री की भूमिका को ही व्याख्यायित किया है अपितु यहाँ पिता अर्थात् पुरुष की भूमिका की भी चर्चा की है। या यूं कहें कि सृष्टि के निर्माण में स्त्री और पुरुष दोनों की भूमिका को सही-सही आंका है। लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि यह एक स्त्री तब बोल रही है जब वह्र अपने जीवन के बिल्कुल अन्तिम पडाव पर है, जहाँ अब कुछ भी दांव पर नहीं। जहाँ वह वो बोल रही है जो उसकी आत्मा कह रही है, न कि वह कि जो समाज कहलवाता रहा है। यहाँ अम्मू एक आदिम स्त्री है जो सृष्टि में स्त्री और पुरुष के महत्व को ठीक-ठीक आंक रही है - न कम न ज़्यादा। वह समाज, दुनिया, मर्यादा, परिवार के दायरों से बाहर खड़ी एक निर्द्वन्द्व स्त्री है जहाँ कोई पक्षपात नहीं, कोई ऊँच-नीच नहीं। वे कहती हैं –


इनसान के बच्चों में दौड़ता है लहू पिताओं का ही। .....परिवार की ज्योति उसी के वरदान से जलती है। कुदरत के नियम देखो। पिता को सत्य सामर्थ दी मनुष्य का अंश प्रदान करने की और काया घड़ने में उसे बाहर रख दिया।

पिता बाहर खड़ा रहता है और माँ अन्दर बच्चा जनती है। इसी से माँ जननी कहलाती है। वही अपने तन-मन में बच्चे की काया उगाती है। (पृ. 43)


कृष्णा सोबती का उपन्यास ‘ऐ लड़की’ न जाने एक साथ कितना कुछ कह जाता है। एक तरफ तो यह एक बूढ़ी-बीमार औरत के अन्तिम उद्गार हैं, आत्मालाप हैं जिन्हें बिस्तर पर पड़ी वह बोलती रहती हैं। दूसरी तरफ, तकनीक की दृष्टि से महत्वपूर्ण रचना है कि पूरी तरह से फ्लैशबैक में आती-जाती, यादों के पिटारे में गोते लगाती जिस पर शिल्प की दृष्टि से अलग तरह से बात की जा सकती है। और एक तरफ यह कुछ बिखरे हुए संवाद हैं, जो अम्मू अपने चेतन-अवचेतन में बोलती रहती हैं जिन्हें उनकी बेटी और नर्स सुनती रहती हैं जिन्हें एक साथ संजो कर रख दिया जाए, या कि उनका कोलाज बना दिया जाए तो वे स्त्री विमर्श का मुकम्मल पाठ हैं। यहाँ मैं कुछ संवादों को एक साथ रखने की कोशिश कर रही हूँ जिन्हें यूं ही रख कर देखा जाना जरूरी है। इन संवादों से अम्मू का एक ऐसा चरित्र उभर कर सामने आता है जो उनके ही बनाए अपने चरित्र को खारिज करता चलता हैं। अपनी बेटी और नर्स से किए गए उनके इन संवादों का पुनर्पाठ किया जाना बेहद जरूरी है –


नर-मृग में पुत्र की गहरी लालसा! उसके तन-मन में व्याप्त है। उसकी प्रकृति और प्रवृत्ति दोनों में पैवस्त है।.....पुत्र-पौत्र-प्रपौत्र पिता बन कर वह आगे से आगे की सोचता है। (पृ. 44)

दिल बडा दांव-पेंची है। पाक-साफ तो आत्मा ही है। चेतन और चैतन्य। चैतन्य होता है पानी के रंग जैसा। निर्मल। वही इस देह का ईश्वर है।(पृ. 45)

वे एक ओर तो बेटी को परिवार का महात्म्य समझाती है –


नर जिस जल में स्नान करता है, नारी उसी को धारण कर हरियाती है। वह रात के टुकडे कर डालता है और यह इसे पिरो कर गले में डाल लेती है। बच्चा बनाया कि गले में मणका डाल लिया। माँ को इसी का वरदान है। उसी के एकांत सरोवर से निथर कर आत्मा देह में प्रवेश करती है तो बच्चा घटित होता है।

लड़की, इस तरह माँ करती है मृत्यु को पराजित! समझी! जिसके हाथ में फल का पुण्य नही, वह नाशवान है।


कहाँ ताक रही हो? कहीं कुछ नही रखा है तो ढूंढोगी कहाँ। जो किताब तुम्हारे हिस्से में आई है, वही पढ़ो और वही लिखो। तुम्हें उम्र-भर यही करना है। तुम इतना ही करोगी। (पृ. 426)



और फिर दूसरी ओर वे अपनी बेटी के निर्णय का सम्मान करती है और उसे अपने मन की संतान कहती है। यानी जिसने अम्मू के मन को पढ़ा। जिसने वह नहीं किया जो अम्मू चेतन में कर रही हैं बल्कि वह चुना जो अम्मू अपने चौकीदार मस्तिष्क से छिप कर सोचती हैं, वह जो उनके भीतर चलता है और जिसे उन्होंने सात तालों के पीछे दबा रखा है। अम्मू कहती हैं –


तुम मेरे मन की संतान हो। जानती हूँ, इस पथरीली कड़ी तह-तले पानी के सोते जरूर होंगे।
तुम-सी निजकारी गूंज के लिए बडा आकाश और बड़ी धरती चाहिए। छोटी बातों का ध्यान नहीं करना।
जो दिलों पर अर्गलाएं चढ़ा लेते हैं, उनका आकाश उन्हीं तक रह जाता है। उनकी दौड़ भी उनके घर तक ही समाप्त। बस उसी के आस-पास थई-थई रोटियां सेंकते जाओ, मकड़ी का जाल बुनते जाओ। सुन रही हो न, वहाँ भी कुछ नहीं रखा। (पृ. 49)


उनके चेतन-अवचेतन के बीच चल रही लड़ाई बार-बार कभी फ्लैशबैक तो कभी यूं ही उनके सामने आ खड़ी होती है और वे चेतन-अवचेतन में डूबती-उतराती बोलती चली जाती हैं। स्पष्ट है कि उनका अवचेतन ही उनका मानस है, सच है जो न जाने कितनी परतों को उधेड़ कर, कितना कुछ झेल कर उपर आया होगा –


चले जाने के बाद तुम्हे कहने नहीं आऊँगी।
तुम किसी के अधीन नहीं। स्वाधीन हो। लड़की, यह ताकत है। सामर्थ्य। शक्ति। समझ रही हो न?
उम्र-भर तुम्हारे घर वालों की जी-जी सुनती आई हूँ।
मुलायम बातें। इस असलियत की रग-रग से वाकिफ़ हूँ। अट्ठारह साल की थी जब शादी हुई थी। तुम्हारे पिता बड़े सुंदर, सुडौल। दिल के साफ। बड़ी अच्छी निभी। ज़रा सोचो, मैं कहाँ से कब चली थी।
लड़की के पिता की तारीफ करते हुए भी अम्मू कहीं भीतर गोते लगा रही हैं और उनकी ज़बान पर आए शब्द उन्हीं की ओर शक की निगाह से देखने लगते हैं। अम्मू जो कह रही है और जो भीतर चल रहा है, उसमें द्वंद्व है -
देखो, लेटी हुई हूँ न तुम्हारे सामने। कहीं से ले तो आओ उस ताज़ी लड़की को, जिसने शादी का जोड़ा पहन रखा था। ला सकती हो कहीं से उसे! नहीं ला सकती न! (पृ. 50)


बिस्तर पर पड़ी अम्मू को वक्त के बीत जाने का दुख है। वक्त जिसमें वे अपने मन का न कर पाई। जीवन के इस अन्तिम दौर में, जब किसी के प्रति कोई जवाबदेही नहीं, जब जिम्मेदारियों के सारे बोझ उतर चुके, जब उन्हें देखने-सुनने वाला कोई नहीं, जब एक-एक कर सारी परतें उतर चुकीं, तब जा कर एक स्त्री को अपने होने का एहसास होता है। जीवन खप जाता है जीवन के उतार-चढाव में और जब होश आता है तो सब कुछ बीत चुका रहता है-


लड़की, अपने आप में आप होना परम है, श्रेष्ठ है!

चलाई होती न परिवार की गाड़ी तुमने भी, तो अब तक समझ गई होती कि गृहस्थी में सारी शोभा नामों की है। यह उसकी पत्नी है, बहू है, माँ है, नानी है, दादी है! फिर वही खाना, पहनना और गहना! लड़की, वह नाम की ही महारानी है। सबकुछ पोंछ-पांछ के उसे बिठा दिया जाता है अपनी जगह पर! (पृ. 57)

लड़की, सबकी यात्रा इसी तरह घात-प्रतिघात में गुज़रती है। घर का यह खेल बराबरी का नहीं, ऊपर-नीचे का है। घर का स्वामी कमाई से परिवार के लिए सुविधाएं जुटाता है। साथ ही अपनी ताकत कमाता-बनाता है। इसी प्रभुताई के आगे गिरवी पड़ी रहती है बच्चों की माँ। (पृ. 55)

हां, शादी के बाद औरत पूरे परिवार के लिए शिकारे की माँझी बन जाती है। झील में तिरती नाव और शिकारे तो देखे हैं न तुमने! उन पर सवार परिवार मज़े-मज़े झूमते हैं और चप्पू चलाती है औरत। उम्र-भर चलाती जाती है। (पृ. 55-56)


अम्मू के ये कथन स्त्रीवाद का एक अनन्य पाठ हैं जो बेहद व्यावहारिक जीवन से निकल कर आया है। सब कुछ पोंछ पांछ के उसे बिठा दिया जाता है अपनी जगह पर! बहुत देर तक खुद को कुरेदने पर भी अपना नाम याद नहीं आता। रिश्तों के बोझ तले दबी स्त्री स्वत्व को इस कद्र भूल जाती है कि उसे यह भी मालूम नहीं रहता कि जो जीवन वह जी रही है वह भी उसका है या नहीं।


जीवन के इस अन्तिम पडाव पर जहाँ अम्मू को अपने परिवार से, खुद से शिकायतें हैं वहीं अम्मू का यह भी मानना है कि इस स्थिति से तभी निकला जा सकता है जब स्त्री पुरुष के अधीन न हो। वह अपनी जीविका खुद कमाए। एक बीमार बूढ़ी औरत जिसके बड़े-बड़े नाती -पोते हैं वह जब इस तरह की बात करती है तो लगने लगता है कि यह बात सिर्फ वह नहीं लगभग हर औरत कहना चाहती है चाहे वह किसी भी उम्र या पृष्ठभूमि की क्यों न हो।


अम्मू के संवाद उनके भीतर चल रही उथल-पुथल को बयां करते हैं। अम्मू एक ऐसी स्त्री जिसका पूरा जीवन परिवार और परिवार की जरूरतों के लिए खर्च हुआ। अम्मू, जो खुल कर अपने मन मुताबिक जीवन जीना चाहती थी। अब जब वे बिस्तर पर पड़ी मरने का इंतजार कर रही हैं तब जीने की तमन्ना भीतर से कुलाचे मार रही है और उसे न जी पाने की खीझ ने उन्हें बेहद चिड़चिड़ा बना दिया है। वे बड़बड़ा रही हैं, अदृश्य की ओर तांक रही हैं –


यह भारी परदे बदल दो। ताज़ी हवा अन्दर आने दो।
लड़की, कुछ देर मुझे चुप रहने दो। मेरे अन्दर मेरी अपनी गठरी खुल रही है। (पृ. 56)


न जाने कौन से भारी परदे वे हटाना चाहती हैं? परदे, जो इस समय खिड़कियों पर हैं जो उन तक ताज़ी हवा आने नहीं दे रहे हैं या फिर वे परदे जो उन पर सदियों तक पड़े रहे जिससे ताज़े झोंके उन तक पहुँच ही नहीं पाएं और वे उमस भरा जीवन, घुटन भरा जीवन ताउम्र जीती रही। अम्मू के व्यक्तित्व को केवल एक बूढ़ी-बीमार औरत कह कर खारिज नहीं किया जा सकता। यह वास्तव में एक स्त्री का अपने भीतर की असली स्त्री से मिलन है, संवाद है, उससे उपजी खीज है जो गुस्से और बड़बड़ाहट का रूप ले कर बाहर निकलता है। वे कहती हैं –


इस परिवार को मैंने घड़ी मुताबिक चलाया, पर अपना निज का कोई काम न संवारा।
लड़की, इस समय इस बात का बड़ा कष्ट है मुझे। (पृ. 58)


लड़की के पूछने पर अम्मू कहती हैं कि मैं पहाडों पर चढना चाहती थी, दूर तक अकेले सफर करना चाहती थी लेकिन परिवार की दिनचर्या में यह सब फिट नहीं होता था। मैं तुम्हारे पिता और परिवार के लिए दीवार पर टंगी घडी बन कर रह गई और पिता ने गृहस्थी बसाई तो सही लेकिन उसके सारे झमेले मुझ पर छोड़ दिए।

दरअसल पुरुष अपने परिवार को अपनी विरासत के तौर पर देखता है। जितनी इच्छा हुई, किया, जहाँ छोड़ने का मन किया, छोड़ दिया। लेकिन स्त्री उसे अपनी जिम्मेदारी की तरह उम्र भर ढोती है। इस प्रभुत्व स्थापन की सूक्ष्म राजनीति में स्त्री ठगी ही रह जाती है।


अम्मू के संवाद हर जगह दोहरे मायने रखते हैं। अम्मू ही नहीं, कृष्णा सोबती के स्त्री पात्र हर जगह अपने मन की बात कहते दिखते है। चाहे किसी भी रूप में सही। ‘ऐ लड़की’ की अम्मू हो या लड़की,डार से बिछुडी’ की पाषो और उसकी माँ या फिर ‘मित्रो मरजानी’ की मित्रो - स्त्री मन की बेहतरीन पैरोकार हैं। कहीं चुप रहकर, कहीं चिल्लाकर, झल्लाकर या फिर कहीं असर्ट करके (मित्रो) - अपनी बात कहती ज़रूर हैं। अम्मू का यह आत्मालाप इसका एक सटीक उदाहरण है –


तुम लोग मुझे क्यों तंग कर रहे हो? खींच दो! परदे उठा दो! हवा आने दो! जल्दी करो! मेरा दम घुंट रहा है! चुप क्यों हो? मेंरी बात सुनो ध्यान से। मैं तितली नहीं माँग रही, अपना हक़ माँग रही हूँ। मुझे दे दो। ताज़ी हवा में सांस लेने दो।

गुफा है यह गुफा! तुमने मुझे बंद क्यों कर रखा है? खोल दो कपाट! किसने सांकल चढ़ाई है! बुलाओ उसे जो मेरे साथ यह खेल खेल रहा है। (पृ. 59)


अपने हक की यह माँग करते कृष्णा सोबती के ये पात्र ही उन्हें कृष्णा सोबती बनाते हैं। अम्मू यहाँ विक्षिप्तावस्था में ही सही लेकिन अपने अधिकारों की माँग कर रही है। अम्मू का बोल्ड चरित्र यहाँ आ कर कितना दयनीय हो जाता है जब वे जीवन के बिल्कुल अन्तिम क्षण में खुद पर पश्चाताप कर रही है। लगभग विक्षिप्तावस्था की स्थिति में अम्मू का यह आत्मालाप यह सोचने को मजबूर करता है कि केवल विक्षिप्तावस्था में ही स्त्री अपने मन की बात बोल पाती है। चेतन अवस्था में तो वह खुद इन सांकलों में बंधी छिपी रह कर वह सब करती रहती है जो प्यार के नाम, स्नेह के नाम पर और न जाने कितने छिपे रूपों के भेस में परिवार या समाज उससे करवाता हैं। इस गुफा से, इस सांकल से, इस बंधन से स्त्री सिर्फ मर कर ही मुक्त हो सकती है और अम्मू खुशनसीब हैं कि वे मुक्त हो रही हैं।


बिस्तर पर पड़ी अम्मू अपने जीवन भर के कर्मो का लेखा-जोखा कर रही है। जीवन भर परिवार के नाम पर, भाई के नाम पर, पिता के नाम पर, बच्चों के नाम पर कुर्बान होती रही वह और जब हिसाब-किताब करने बैठी तो आंचल की गांठ में रत्ती भर अपना नहीं –


ज़रा सोचो, मैं अपने भाई की तरह पढ़ती तो क्या बनती! क्या होती मैं और क्या होते मेरे बच्चे! सच तो यह है कि लड़कियों को तैयार ही जानमारी के लिए किया जाता है - भाई पढ़ रहा है, जाओ दूध दे आओ। भाई सो रहा है, जाओ कंबल ओढ़ा दो। जल्दी से भाई की थाली परस दो। उसे भूख लगी है। भाई खा चुका है। लो, अब तुम भी खा लो।(पृ. 68)


पढ़ते हुए अनामिका की कविता ‘बेजगह’ दिमाग में कौंध जाती है और विश्वास हो जाता है कि यह दर्द हर स्त्री का दर्द है। इस अनुभव से हर स्त्री को गुज़रना पड़ता है 


याद था हमें एक-एक क्षण/ आरंभिक पाठों का-/ राम, पाठशाला जा/ राधा, खाना पका/ राम, आ बताशा खा/ राधा, झाड़ू लगा/ भैया अब सोएगा/ जा कर बिस्तर बिछा/ अहा, नया घर है/ राम, देख यह तेरा कमरा है/ और मेरा?/ ओ पगली/ लड़कियां हवा, धूप, मिट्टी होती हैं/ उनका कोई घर नहीं होता/ जिनका कोई घर नहीं होता/ उनकी होती है भला कौन-सी जगह? (बेजगह’ कविता से)



जीवन के इस अन्तिम छोर पर जब दूर कहीं से रेलगाड़ी की आवाज सुनाई देने लगती है जैसे अन्तिम मंज़िल तक पहुँचाने के लिए वह आ खड़ी हुई हो, तब अम्मू के मन की अधूरी इच्छाएं, उनके अधूरे स्वप्न, पूर्ण स्त्री हो कर, अपनी शर्तों पर जीने की अदम्य इच्छा ......ऐसा लगता है जैसे सब कुछ मन में ही रह गया हो। इस लोक को छोड़ कर जाने की उनकी पीड़ा को महसूस करने के लिए उसी धरातल पर उतरने की जरूरत है जिस पर लेखिका अपने पूरे सामर्थ्य के साथ उतरी हैं। अम्मू एक जगह कहती हैं –



हवाएं-धूप-छांह-बारिश-उजाला-अंधेरा-चांद-सितारे - इस लोक की तो लीला ही अनोखी है। अद्भुत्! (पृ. 41)

अम्मू को एक तरफ यह इच्छा है कि दूसरा जन्म हो तो वे मुड़ कर अपने बनाए इसी घर में आना चाहेंगी तो दूसरी तरफ इस बात की तकलीफ कि इतनी लम्बी तो जी उम्र कुछ सार्थक भी जी ली होती-


बरसों-सालों-साल इस दुनिया में रही हूँ पर इन दिनों बार-बार यही मन में कि इतना जीना था तो कुछ ढंग का काम ही किया होता। इतनी बड़ी दुनिया है, उसे ही देख डालती। पर गृहस्थी के ताने-बाने में ही उम्र गुज़र गई।
और बेटी के यह जिरह करने पर कि आपने परिवार को बनाया है, अम्मू उखड़ कर जवाब देती है -
मुझे बढ़ा-चढ़ा कर मत बता, लड़की! मैं तुम सबकी माँ ज़रूर हूँ, पर अलग हूँ। मैं मैं हूँ। मैं तुम नहीं और तुम मैं नहीं।

अम्मू के उपर के ये संवाद केवल संवाद नहीं अम्मू के चेतन और अवचेतन में चल रही बहस के उदाहरण हैं। इसे चाहें तो स्त्री की अंतः और बाह्य संरचना के रूप में भी देखा जा सकता है।


अम्मू के अन्तस में चेतन और अवचेतन के बीच चल रही खींचतान के अन्य उदाहरण भी देखे जा सकते हैं। बाहरी बंधनों को उघाडती जब एक स्त्री उनके भीतर से बाहर झांकती है तो वह कोई परंपरागत स्त्री नही होती। वह अपनी बेटी की आजादी को सराहती है, अपनी नर्स को सीख देती है कि वह अपने प्रेमी के हाथ में अपना स्वत्व न सौंप दे, अपनी अस्मिता, अपनी सत्ता सदैव बनाए रखे। जीवन को मनमर्जी न जी पाने का उसे मलाल है। लेकिन पारंपरिक समाज की बुनावट इतनी जटिल है, या यूं कहें कि पित्सत्तात्मक समाज में रहते-रहते स्त्री की कंडीशनिंग इतनी जबर्दस्त हो जाती है कि जकड़नें तोड़ते-तोड़ते वह खुद भी एक अपराध-बोध से ग्रसित रहती है। यह बुनावट इतनी महीन है कि अन्त तक उसके धागे पैरों को कस कर बांधे रहते हैं। अम्मू के जीवन के ये अन्तिम दिन कई तरह के फेर-बदल के उदाहरण हैं जहाँ अपनी बेटी के प्रति रूखापन रखने वाली अम्मू उसके प्रति भावुक दिखाई देती हैं –


इस लड़की को सर्द न समझना, इसके पानी में अंगारे हैं। अपने को काबू किए रहती है, जाने कैसे। (पृ. 69)
उसके साथ अपने जीवन में बीत चुके पलों को बांटती हैं, उस पर अपना अधिकार जताती हैं लेकिन इस सबके बावजूद भी अन्तिम सांस तक उन्हें अपने बेटे की याद सताती रहती है क्योंकि भारतीय समाज का नियम है कि बेटा ही माँ-पिता को अन्तिम आग देगा।
अम्मू को उम्र भर यह शिकायत रही कि उनके पिता को अन्तिम समय तक पुत्र-मोह क्यो रहा (पृ. 67)


लेकिन पिता तो पिता, स्त्री हो कर भी समाज की इस जटिल संरचना की शिकार अम्मू भी रहीं जो आखिरी पल तक जीवन का ठीक-ठीक हिसाब-किताब नहीं लगा पाती और पहले से तय नियमों की जकड़न उनके गले में फांस बन कर पड़ी रहती है –

लड़की, कुल की सरदारी बेटियों को नहीं जाती।
सगुण शास्त्र से तुम्हारा भाई ही पगड़ी बांधेगा। (पृ. 78)


उपन्यास का अन्तिम पृष्ठ जहाँ अम्मू की सांसों का परिंदा उडने को बेचैन है, लेकिन चेतन वहीं अभी भी पितृसत्ता की खूंटी से बंधा है। सांसों को उड़ा ले जाने वाली आंधी भी इस खूंटी को उखाड नहीं पाती और अम्मू बेबशी में कराहती है –


लड़की, अपने भाई को आवाज़ दो!
उसे जल्दी बुला लो!
खूंटे पर से मेरा घोड़ा खोल देगा।
उसे समुद्र-पार दौड़ा ले जाउंगी मैं! (पृ. 89)


दरअसल इसमें कुसूर अम्मू का भी नहीं, यह तो यह पूरी व्यवस्था है जिसे हम सभ्यता कहते हैं जिसने मातृसत्तात्मक समाज से पितृसत्तात्मक समाज तक मनुष्य को ठेला और ठेला भी ऐसा कि चिन्तन की पूरी पद्धति ही बदल कर रख दी। फ्रेडरिक एंगेल्स अपनी पुस्तक The Origin of The Family, Private Property and The State में लिखते हैं कि जीवन की प्रारंभिक अवस्था में मनुष्य का जीवन दो तरह से आगे बढा - पहला वन्य जीवन जिसे अंग्रेजी में  Savagery कहते हैं और दूसरा बर्बरता जिसें Barbarism कहते हैं। इन दोनों ही स्थितियों में समाज में मातृसत्ता थी और परिवार में बच्चों को माँ के नाम से जाना जाता था। चूंकि स्त्री के पास प्रजनन की क्षमता है इसलिए संतान का सीधा संबंध स्त्री से जोड़ कर देखा जाता था। लेकिन सभ्यता के विकास के साथ-साथ ज्यों-ज्यों परिवार की अवधारणा बदली और निजी संपत्ति की अवधारणा का उद्भव हुआ और संतान को निजी संपत्ति के उत्तराधिकारी के रूप में देखा जाने लगा तब स्त्री की प्रजनन क्षमता को नियंत्रण में किए जाने की आवश्यकता महसूस हुई। एंगेल्स लिखते हैं - The overthrow of mother right was the world-historic defeat of the female sex. The men seized the reins in the house also, the woman was degraded, enthralled, the slave of the man’s lust, a mere instrument for breeding children.(Pg no. 57)


यहीं से स्त्री की मानसिक गुलामी की शुरुआत होती है और परिवार में उसका स्थान केवल एक परिचारिका या facilitator का रह जाता है। उसे इस तरह से तैयार किया जाता है कि उसका काम पुरुष की संतान को जन्म देना है। वह इस कार्य के लिए एक माध्यम भर है। इस तथ्य की पुष्टि के लिए साहित्य से लेकर फिल्में और इतिहास सब कुछ की कंडीशनिंग की जाती है। सामाजिक-पारिवारिक रीति-रिवाजों से ले कर पर्व-त्यौहार तक में पुरुष और पुरुष की सत्ता का महिमामंडन किया जाता है। तब ऐसे में अम्मू या अम्मू जैसी कोई भी स्त्री कैसे केवल अपने दम पर इतने बड़े सांस्कृतिक संजाल से बाहर आ सकती है। कोशिश करते-करते भी कहीं न कहीं वापस पांव इसकी संरचना में उलझ जाता है और बड़ी-बड़ी स्त्रीवादी बातें करते हुए, अपने पिता को पुत्रमोह के लिए दोषी ठहराती अम्मू भी अन्त में आ कर उसी का शिकार हो जाती है और अपने बेटे को पुकारती है क्योंकि शास्त्रों के मुताबिक वही अधिकारी है जीवन के खूंटे से उनका घोडा खोलने के लिए। यदि ऐसा न हुआ तो उन्हें मोक्ष न मिल पाएगा।


एंगेल्स उस समय की परिवार की व्याख्या करते हुए आगे लिखते हैं –

The word familia did not only signify the ideal of our modern philistine, which is a compound of sentimentality and domestic discord. Among the Romans, in the beginning, it did not even refer to the married couple and their children, but to the slaves alone. Famulus means a household slave and familia signifies the totality of slaves belonging to the individual. (pg 58)


जहाँ शब्द की अवधारणा में ही परिवार से अभिप्राय पुरुष की आंतरिक सत्ता से है, वहाँ एक स्त्री को अपनी जगह पुनः तलाशने के लिए कितना संधर्ष करना पड़ेगा, इसका स्वतः अनुमान लगाया जा सकता है।


ऐ लड़की में लड़की का चरित्र चुपचाप उसी दिशा में बढ़ता चरित्र है जहाँ वह विवाह न कर के पुरुष की उसी सत्ता को चुनौती देती है। न वह विवाह करती है और न पुरुष के लिए संतानोत्पत्ति का माध्यम बनती है चूंकि रेडिकल स्त्रीवाद का मानना है कि स्त्री की गुलामी का मुख्य कारण उसका गर्भ यानी प्रजनन की क्षमता है। संतान उत्पन्न कर के वह पुरुष की सत्ता में एक ईंट और जोड़ देती है। एंगेल्स के इस कथन से रेडिकल नारीवाद के इस विचार की और अधिक पुष्टि हो जाती है –


Such a form of the family shows the transition of the pairing family to monogamy. In order to guarantee the fidelity of the wife, that is, the paternity of the children, the woman is placed in the man’s absolute power; if he kills her, he is but exercising his right.(Pg. 58)


लड़की का चरित्र हाशिये पर पडा हुआ चरित्र है जिसके माध्यम से अम्मू अपने जीवन की फिल्म को देखती है। लड़की एक चुप, शान्त चरित्र है जिसके हिस्से बहुत कम संवाद पूरी कथा में आ पाए हैं लेकिन ध्यान से देखा जाए तो उसका चरित्र एक बेहद मजबूत चरित्र है। उसकी संवादहीनता ही उसकी ताकत है। लड़की जानती है कि माँ जो भी बोल रही है या उसके खिलाफ माँ के जो भी विचार हैं वे माँ के स्वनिर्मित न हो कर उसी जड़ पितृसत्ता की देन हैं। माँ से जिरह करना, उसे गलत कहना माँ को दोहरी सज़ा देना है। वह एक बेहद आधुनिक स्त्री है जिसने पूरे प्रयास से यह हासिल किया है कि सदियों से ढोई जा रही पितृसत्तात्मक सामाजिक बुनावट को वह नहीं ढोएगी। वह जीवन को अपनी शर्तों पर जीएगी। माँ के लाख ताने मारने के बावजूद भी वह अपने निर्णय पर जस की तस बनी रहती है।


वह अपनी बूढ़ी बीमार माँ की पूरे तन-मन से सेवा करती है। और तो और अकेले रहने और जीवन अपने अनुसार जीने के लिए उसे अपनी माँ की शिकायतों का भी हर पल सामना करना होता है। लेकिन उसके व्यक्तित्व में कहीं कोई उद्वेग नहीं आता। ऐसे जैसे उसके निर्णय से उपर कुछ नहीं। बेहद शान्त व्यक्तित्व की लड़की को अपनी माँ से किसी बात की कोई षिकायत नहीं। माँ की ही तरह इस बात की भी नहीं कि अन्तिम पल तक वे अपने उस बेटे को याद करती रही जिसने शायद उसके बारे में कभी सोचा तक नहीं। लड़की जानती हैं कि अम्मू का प्रतिरोध अम्मू का अपना नहीं अपितु उस समाज का है जिसने उन्हें या किसी भी स्त्री को ऐसा बना दिया है। इतना परतन्त्र कि वे अपने मन से सोच भी नहीं सकती। बड़ी-बड़ी बातें करने वाली अम्मू भी अपने चेतन के हाथों मजबूर हैं तो फिर किसी का क्या कसूर। वह शान्त भाव बिना किसी अपेक्षा के अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करती चलती है।


अपने अन्तिम समय स्त्री-मन की बात करने वाली अम्मू इस कदर इस पितृसत्तात्मक बंधन में जकड़ी हुई है कि अपने पति की मृत्यु के इतने वर्ष पश्चात भी उस पुरुष शासित मानसिकता से बाहर निकल नहीं पाती है। अम्मू लड़की से पूछती है –


लड़की, तुम से एक बात पूछ लूं!
हां, अम्मी!
भला यह फ्लैट किसके नाम है!
मेरे गैरहाज़िर होने पर आपके नाम है अम्मू!
तो लड़की, यह मैंने तुम्हे दिया।
दोनों एक साथ हँसती है। (पृ. 80)


लड़की जानती है कि अन्तिम दम तक अम्मू अपने बेटे के लिए तरस रही है लेकिन उसे एक पल के लिए भी अम्मू पर गुस्सा नहीं आता क्योंकि वह जानती है कि यह अम्मू नहीं अम्मू के भीतर बैठा वह पुरुष बोल रहा है जिसे सदियों के प्रयास से पूरी संरचना में गूंथा गया है। वह अपनी लड़ाई में किसी को भी शामिल नहीं करती, अम्मू को भी नहीं। लड़की की लड़ाई इसी सदियों से स्थापित घिसी-पिटी पितृ-सत्ता से है। स्पष्ट तो कहीं नहीं और न ही पूरी कथा में इस ओर कोई संकेत किया गया है कि लड़की कहीं किसी खास चिन्तन से प्रभावित है लेकिन लड़की के व्यक्तित्व से गुजरते हुए ऐसा लगता है कि उसका भी सीमोन द बोउवार की तरह मानना है कि विवाह केवल स्त्री की दैहिक संतुष्टि के लिए है जो उसकी आजादी और वैयक्तिकता को सबसे पहले प्रभावित करता है। ¼Bouveir 2009, pg 592½  और लड़की के लिए दैहिक सुख से उपर उसकी आजादी और उसकी वैयक्तिकता है जिनसे वह किसी भी स्थिति में समझौता नहीं करना चाहती।


निष्कर्षतः कृष्णा सोबती की यह कथा जिसे शिल्प की दृष्टि से लम्बी कहानी कहा जाए, कहानी कहा जाए या उपन्यास, अपने आप में दो पीढियों के आपसी द्वंद्व की कथा बन कर रह जाती है जहाँ पहली पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को अपने अनुसार न होने के लिए कोसती है किंतु बीच-बीच में चेतन पर अवचेतन हावी हो जाता है और वह समाज का दिया रूढिवादी चोला उतारती तो है लेकिन यह परत, यह बुनावट इतनी गहरी है कि रह-रह कर अपने अस्तित्व के साथ सामने आ जाती है। दूसरी ओर, लड़की के रूप में दूसरी पीढ़ी है जो पुरजोर इस बुनावट, इस संरचना को अपने पर हावी होने देने से रोकने का प्रयास कर रही है। बूढ़ी-बीमार अम्मू के आत्मालापों से शुरू हो कर यह कहानी स्त्री-विमर्श के मूल चिन्तन पर आ केन्द्रित हो जाती है जिसकी मुनादी लेखिका कहीं भी करती हुई नहीं दिखाई देती। अंडरटोन में लिखी यह कहानी कहीं-कहीं इतनी जोर से चीखती दिखाई देने लगती है कि उसे अनदेखा करना मुश्किल हो जाता है। अम्मू का चरित्र इस द्वंद्व से उपजा ऐसा चरित्र है जो जीवन भर इसमें जकड़ा रहा, जिसका विरोध करने का पूरा प्रयास अम्मू अपनी गहन बीमारी में भी करती है लेकिन अन्त तक यह बुनावट अपने मकड़जाल में अम्मू को इस कदर जकड़ लेती है कि वह उसी पुरुषसत्ता की बेहद मजबूर लेकिन पैरोकार दिखाई देने लगती है। बेहद जटिल द्वंद्व से उपजी यह लम्बी कहानी अपने पुनर्पाठ की माँग दोहराती जाती है।

(इस पोस्ट में प्रयुक्त सभी चित्र गूगल से साभार लिए गए हैं




ज्योति चावला 




सम्पर्क


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नई दिल्ली-68

मोबाईल - 9871819666
ई-मेल : jtchawla@gmail.com


टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (17-02-2017) को "कूटनीति की बात" (चर्चा अंक-2883) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत ही सारगर्भित तरीके से इस रचना की बारीकियों को समझाया है। धन्यवाद!

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