हिमांशु मिश्र की पहली कहानी 'निर्मोचन'





आज जब ऐसा लगता है कि सारे मानवीय मूल्य क्षरित होते जा रहे हैं ऐसे में मानवीय संवेदनाओं को बारीकी से प्रतिबिम्बित करती हिमांशु मिश्र की यह कहानी ताजे हवा के झोंके की तरह नजर आती हैI हिमांशु की भाषा परिपक्व दिखाई पड़ती हैI इसी के चलते कहानी का शिल्प इतना सुगठित है कि लगता ही नहीं कि यह किसी लेखक की पहली कहानी हैI यह कहानी इस कदर सुगठित है कि इसमें से कुछ भी अलगा पाना संभव ही नहींI ज्यादा कुछ न कहते हुए इस नवागत का स्वागत करते हुए प्रस्तुत कर रहे हैं यह कहानीI  

निर्मोचन 

हिमांशु मिश्र
      
अम्मा अपनी ‘सिल’ से बड़ा लगाव रखतीं थीI बात–बात में क़िस्सा कहते हुए उनका जी भर आया और अम्मा बिसरी यादों की शहतीर पकड़ समय की धारा में डूबती– उतराती जाने कहाँ तक हो आयीं…….I ‘मानो कल की ही बात हो ………  ….

ये ‘सिल’ ‘बाबू’ चिलबिला से गढ़वा कर अपने साथ लाये थे’ और इसे अपनी पीठ पर लादकर किराये के उस घर की  सीढियों से ऊपर तक पहुँचाया था, जहाँ से अम्मा ने अपनी शहरी गृहस्थी बस शुरू ही की थीI साथ ही अम्मा ने अपनी भीगी चमकती आँखों से चहक कर कहा – ‘बाबू’ ने दूसरे हाथ में सरसों के तेल का एक बड़ा कनस्तर भी थाम रखा थाI जिसे वे अपने घर या यूँ कहें ‘अम्मा के मायके’ से लेकर आये थेI
  
हमारे नाना के लिए इतना सामान एक साथ उठा कर घर के ऊपरी तल तक पंहुचा देना कोई बड़ी या हैरान कर देने वाली बात नहीं थी, उनके जैसा डील- डौल, व्यक्तित्व विरले ही होता हैI उनमे एक चुम्बकीय आकर्षण था, सो इस कथा के सारे तथ्य भी नाना के अस्तित्व जितने ही तार्किक थेI


अम्मा की ये प्यारी ‘सिल’ वाकई बहुत भारी थीI समय के साथ अम्मा किराये के घर को छोड़ कर अपने छोटे से नए घर और शहरी जीवन, बच्चों, पड़ोसियों में रच बस गयींI ‘सिल’ ने  भी अम्मा की रसोई और उनके ह्रदय दोनों में एक कोना अपना लियाI मसाले-चटनी, दालें तब तक सिल –बट्टे के बीच रस देते रहे जब तक अम्मा का हाथ उनपर बना रहाI

एक बरस अम्मा थोड़ी बीमार सी पड़ी और हमने जिद करके एक मिक्स़र जूसर उस साल की धन तेरस पर ले ही लियाI मिक्स़र जूसर का इस्तेमाल शुरू में अम्मा ने कुछ नाराजगी से किया, अक्सर ही कह देती इस मसाले में स्वाद नहीं है, ‘सिल’ का काम सिल का ही होता है…. स्वाद तो वहीँ रह गया’I

धीरे-धीरे अम्मा मिक्स़र जूसर की अभ्यस्त हो गयीं , फिर भी, हमारे घर सिल कभी उपेक्षित नहीं रही गाहे-बगाहे अम्मा का मन होता तो लहसुन- मिर्चा, दही-बड़े की दाल पीस ही लिया करतीं और उनकी  तुलनात्मक तराजू में मशीन हमेशा मात खा जातीI
 
     सिल की आयु मेरी अपनी आयु के लगभग आस –पास ही थी कोई बत्तीस बरस से थोड़ा ज्यादा…. पर शायद ही अम्मा ने उसे कभी सिल–बट्टे कूटने वाले से कुटवाया होI मैंने उस पर छेनी हथौड़ी की कोई चोट पड़ते नहीं देखा…. कभी ऐसा हुआ हो..! तो याद नहींI हां .... अम्मा का मन  इस सिल के बहाने अपने मायके तक जरूर हो आताI नाना से सिल का भावुक संबंध अम्मा की आँखों के किनारे टिके आँसू ही बताने को पर्याप्त थेI
  
     नाना अपनी आयु पूर्ण कर स्वर्गवासी हुए तो रसोई के कोने रखी सिल से अम्मा का रिश्ता और भी भावुक और प्रगाढ़ हो गयाI अम्मा की आँखों के आँसू नाना को याद कर अब छलक ही आते थेI

                                                                                             
समय हर टीस को धीरे धीरे हर लेता हैI सिल का प्रयोग अम्मा के ढलते स्वास्थ्य और मिक्स़र-ग्राइंडर की सुलभता से कम हो चला थाI घर की नयी बहुएँ नए संस्कार व् समय की पलीं बढीं थी, उनके फ़ूड प्रोसेसर के आगे सिल का क्या औचित्य ?.. अम्मा भी अब सब स्वीकारती हुयी बुढ़ापे को ओढ़ने की तैयारी में थींI

     फिर कुछ बरसों बाद एक बरस अम्मा के कानों में एक स्त्री की पुकार पड़ी – ‘सिल कुंटवा लो, चैन ठीक करवा लो’ ………….अम्मा जैसे जागृत हो उठींI
 
     ‘सुनो सिल कूंटने का क्या लोगी?’’
     ‘25 रूपये माता जी’, एक कृशकाय काली पड़ रही महिला गेट के पास आते हुए बोलीI

अम्मा तुरन्त सोफे से उठ गेट तक आ गयीं ’25 तो ज्यादा है ठीक- ठीक बताओ..
     15 ले लो…..’
‘’इतने में मिलतै का है... इ दिनन... माँ ’’
     ‘’..20 में करवा ल्यो...’’
 
अम्मा तैयार हो गयीं और स्त्री ने सिल का निरीक्षण कर अपने झोले से औजार निकाल सिल कूंटना शुरू कर दियाI थोड़ी ही देर बाद बोली, ‘ माँ कुछ खाने को है रुखा सूखा............

 
''..कल पूरा और आज दुपहरी तक दाना नसीब नाहीं.......... आंत पीठ सब एक्क्के हुआ जाता है…. माँ…’’
अम्मा जो अब तक छेनी हथौड़ी की ताल में खो सी गयी थीं,…. जैसे नींद से जागीं
‘’भूखी हो?, बहू मोटी मोटी चार रोटियां सेंक दो थोड़ी सब्जी भी रख कर ले आओ’ अम्मा ने आदेश दियाI
 
स्त्री सिल कूंटती रही अम्मा उसे ही निहारती रहींI  

खाना देखते ही स्त्री ने कातर दृष्टि से अम्मा को निहारा और बोली – ‘’माँ.. थोड़ा लहसुन और हरा मिर्चा और हो तो बड़ी किरपा..!‘’
 
अम्मा स्वयं ही लहसुन मिर्च ले आयींI स्त्री ने लहसुन मिर्च से सिल के किनारे पर बट्टे से मार कर चटनी तैयार की और खाना शुरू कर दिया अम्मा उसे ध्यान से देखती रहींI
‘सिल कुंटवा लो..........’, एक मर्दाना आवाज़ कहीं दूर से आती प्रतीत हो रही थीI
                                                              
 अचानक स्त्री ने भोजन बंद कर दिया और शेष बची ढाई रोटियां लपेट कर सब्जी चटनी के साथ जल्दी जल्दी सहेजने लगी और नज़र बचाते हुए उसे अपने आँचल से ढक कर कमर में खोंस लियाI
 
अम्मा कुछ ताड़ गयीं और पूछा – ‘’क्या हुआ ठीक से खा ले….बचा कर क्यूँ रखती है?’’
‘’एक साथ इत्ता नहीं खाया जाता माँ’’ ‘’...थोड़ी बेर में फिर ज्यूँ लेब....’’
‘सिल कुंटवा लो..........’,  वही मर्दाना आवाज़ फेरी लेती सुनाई पड़ रही थीI
‘’लो माँ सिल कुंट गयी ....जल्दी रूपये धरो .......बड़ी गरम दुपहरी हैI’’

अम्मा का अनुभव स्त्री की छटपटाहट से ज्यादा था वह एकाएक बोली-
‘’आदमी है तेरा ………जो फेरी लगा रहा है?’’
स्त्री लजा कर खड़ी हो गयी- ‘’हां ...माँ’’
 
‘’उसे भी ........ आज दुपहरी तक दाना नसीब....नाही’’ कहते – कहते गला रूँध गयाI
अम्मा सिल निहारती रही..... आँखों में आँसू टिक गए..... नाना की याद का प्रतिबिम्ब उस स्त्री और उसके आदमी को घर के नजदीक के हैंडपंप पर उन्हीं रोटियों को खाते तब तक देखता रहा.. जब तक दोनों ओझल नहीं हो गए .... अम्मा वापस सोफ़े पर टिक गयीं ...और भरी आँखों से फिर कूटी हुई सिल निहारने लगीं... आज कितने बरस बाद .... अम्मा ने अपने हिस्से का पितृ-ऋण चुका दिया थाI   

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैंI)


(सम्प्रति- समीक्षा अधिकारी, माननीय उच्च न्यायालय, इलाहाबाद)

सम्पर्क- 
9/1, L.I.G., 
TYPE-A गोविन्दपुर कॉलोनी,
इलाहाबाद
मो. : 8004996785

Email: mishrahim@gmail.com 
  

टिप्पणियाँ

  1. आदरणीय संतोष जी को ह्रदय से आभार -हिमांशु

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  2. कहानी बहुत अच्छी है। पहली कहानी इतनी परिपक्व। सुन्दर

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  3. खूबसूरत!! रचना बेमिसाल है। करारा ब्यंग्य है धनतेरस पर मिक्सर लाने के इस बिम्ब मे कि हम एक पारम्परिक बस्तु से किस तरह पीछा छुडा लेते हैं एक पारंपरिक अवसर पर वह भी खुशियां मनाते हुए।शुक्रिया पहली बार!! पाठ तक पहुंचाने के लिए!!

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