रामजी तिवारी के उपन्यास पर यतीश कुमार की समीक्षा

 




यतीश कुमार


 
तवे को रोटी का इंतज़ार और प्लेट को रोटी का इसके बीच खाने वाली टेबल को बाबूजी का। इंतज़ार में ज़िद की कुनमुनाहट के साथ प्रार्थना का विलंब घोलते हुए एक टेर आती है “यहाँ तो सारा खेल ही दो तीन सालों का है।” पहले पन्ने में ही यह किताब अपनी दिशा निर्धारित करती नज़र आती है। जद्दोजहद की रोटी और विडंबना की चटनी पाठक की थाली में परोसी जाएगी, ऐसा मैं सोच रहा हूँ पढ़ते हुए। भोगा हुआ यथार्थ रचना, गाँव-घर की असल समस्याओं को रिश्तों और भावनाओं के चश्मे से देखने का हुनर, जीवंत किरदारों को यूँ रचने का हुनर, जो आपको आपके बचपन आपके परिवेश में स्वतः ले जाए यह सब पूरी आत्मीयता के साथ मौजूद मिलेगा, जिसमें जीवन के खट्टे-मीठे, तीखे अनुभव की बाँच दिखेगी। 


उपन्यास में सामान्य से दिखते लोगों के बीच की असामान्यता को सहजता से प्रस्तुत किया गया है। कोई भी वाक़या थोपा हुआ नहीं अपितु भोगा हुआ सा प्रतीत होता है। सफ़ाई को ले कर स्त्री-पुरुष के बीच के अंतर के जिस तार्किक पक्ष लेखक ने रखा है, वह उनकी तटस्थ दृष्टि का भी सूचक है। यहाँ लेखक ने जस का तस रखने की कोशिश की या यूँ कहूँ इसमें भी तटस्थता बरती है। हाँ, यह कह सकता हूँ कि अक्सर घटनाओं का ज़िक्र करते हुए वे ख़ुद से बातें करने लगते हैं, लगभग स्वचिंतन मनन। पढ़ते हुए लगा, लेखक के भीतर का गाँधी भी रह-रह कर बात कर लेता है। 


जीवन के अनुभव और उसका परिवेश आदमी को कैसे बदल देते हैं, इस समीकरण को यहाँ सुलझते-समझाते देखा जा सकता है। यहाँ उम्र के मनोविज्ञान का खेल भी रचा गया है। अलग-अलग उम्र की हरकतें, कोफ़्त, ग्लानि, हिक़ारतें, अवज्ञा और सामंजस्य सब अलग-अलग घटनाओं के मार्फ़त देखने-समझने को मिलता है, इस किताब में। बासुदेव जी और उनके बेटों के बीच की घटनाओं को रच कर लेखक ने आज के गाँव और उसके आज की हालत को व्यक्त किया है। रिश्तों की खोखल पर चढ़ा बनावटी ऊन का स्वेटर धागा दर धागा उतरते हुए आप महसूस करेंगे। लगेगा हमारे घर की हमारे पड़ोस की ही तो बात है। सच में ऐसा ही तो हुआ था फलनवा के साथ। एक बूढ़े मन के भीतर झाँकने और वयोवृद्ध लोगों के मनोविज्ञान को समझने-समझाने की एक सुंदर कोशिश है यह किताब। आदमी कैसे ख़ुद को भूलने लगता है, कैसे उसके भीतर कई आदमी का मन घर करने लगता है। संशय के आयतन अपना विस्तार कैसे करते हैं। धैर्य की नदी उफान कैसे पाती है, पश्चात्ताप के भाप में कैसी जलन होती है और इन सब को निभाते हुए युवा जोड़ी का मन कैसे बुढ़ाने लगता है। ये सब कड़ियाँ इस किताब में बहुत सलीके से सजायी हुई हैं। 


गाँव की राजनीति, उसकी रंजिश, कोर्ट-कचहरी, पट्टीदारों-भागीदारों के बीच की उधेड़ बुन, रिश्तों की तरह के कच्चे-पक्के रास्ते और उसके मरम्मत की पंचायत और फिर उसकी बेहतरी की कोशिशें सब यहाँ मौजूद हैं, जिसमें ग्रामीण समाज के ताने-बाने और उसकी जटिलताओं को प्रतिबिंबित किया गया है । यह किताब तरह-तरह के व्यक्तित्व और उनकी मानसिकता को समझने का प्रयास भी है। उनके भीतर झाँकना और फिर एक सकारात्मक प्रयास करना, कि उनके भीतर की नकारात्मकता का अंधकार थोड़ा कम किया जा सके, थोड़ी लौ मानवता की करुणा की जलाई-बढ़ाई जा सके। एक जगह मोहन की पत्नी उमा मोहन से कहती है “मैं तुम्हें दास बाबू बनते नहीं देख सकती।” इस एक पंक्ति में कितना सारा प्यार, चिंता, ध्यान और किसी और के घर का पूरा इतिहास निहित है। इसी के साथ आगे की पंक्तियों में उमा ने बातों-बातों में बहुत प्रैक्टिकल और ज़रूरी सुझाव भी दिए हैं, जिसे बुजुर्गों की देखभाल करते समय के बेहद ज़रूरी टिप्स भी मान सकते हैं। काका और काकी के बीच की बातें बहुत ही मौलिक तरीक़े से लिखी गई हैं जो बेहद रोचक भी हैं। बुढ़ापे की बातें एक ही गोलचक्कर के इर्द-गिर्द कई दिनों तक घूमती हैं। इन बातों का रोज़नामचा है यह किताब। भूलना और फिर ख़ुद को ढूँढते हुए नई कहानी रचना। रिश्तेदारों का इस खेल में अपनी गोटी चलाना, खेल का मज़ा लेना, कितना पीड़ादायक हो सकता है उन लोगों के लिए, जो ख़्याल के सही मायने समझते हैं। 


इस किताब के किरदार रह-रह कर एक दूसरे को किस्सा सुनाते रहते हैं, जिसका तात्पर्य उनकी बात-चीत के हिस्से से ही है। इस प्रयोग में अनकही बात संदेश बन कर पाठकों तक पहुँचती है। इन्हीं किस्सों कहानियों के बीच जाति प्रथा, राजनीति, सामाजिक बदलाव, गोतियावाद सब शामिल है। रामजी तिवारी के जीवनानुभवों से उपजी दास्तान होने से मौलिकता की सोंधी गंध मिलेगी यहाँ आपको, किस्सागोई में चमक नहीं, कोई लंबी टेर नहीं, बल्कि आत्मा के भीतर से उठती शान्त आवाज़ आपको भीतर से बेचैन करती मिलेगी। “हर कोई जानता है कि उसे एक दिन जाना है मगर वह ऐसा जीता है जैसे कि अमर हो…।” ऐसी महीन बातें बहुत आसान शब्दों में कही गई हैं। अपनापे की ऐसी जाल, अनुभव के रेशे से बुनी गई है। ख़ासकर पूर्वी उत्तर प्रदेश की ज़मीन के अलग-अलग किरदारों की ज़िंदगी के क़िस्सों को यहाँ बुना गया है, पर दूसरी नज़र से देखें तो यह घर-घर की, हर गाँव, हर प्रदेश की कहानी है। 


इन कहानियों को पढ़ते हुए बेटे-बहू की मनःस्थिति के साथ-साथ वृद्ध लोगों का मनोविज्ञान समझने में भी मदद मिलती है। तरह-तरह की परिस्थिति को हर अध्याय में अलग से केंद्र में रखा गया है। कमासुत पिता से ले कर कमासुत पूत और न कमाने वाले पिता से लेकर नालायक बेटे सभी तरह के परिवार की परिस्थितियों को बाँधने की कोशिश की गई है। गाँव टोला में जो समाज मिल कर एक दूसरे के दुःख-सुख में शामिल होता है, उसको भी यहाँ दर्ज किया गया है। इस उपन्यास में जीवन के लगभग हर पहलू को दिखाया गया है। गाँव की पंचायत, घर की पंचायत, रिश्तेदारों की दखलंदाज़ी, जातीय विषमता, धार्मिक कट्टरता और समाज की कुरीतियों के विरोध के बीच आपसी प्रेम, समझ, एक दूसरे के प्रति सम्मान, समर्पण और आदमी में होते परिवर्तन सभी कुछ दर्ज हैं। बुज़ुर्गों के प्रति कर्तव्य बोध और देखभाल को ले कर परिवारों की असहजता भी दिखाई गई है, जिसे लेखक ने कई परिवारों का उदाहरण प्रस्तुत दे कर किया है। 


कुछ एक जगह संवेदना का दोहराव है। लगता है, एक ही बिंदु को बार-बार लाया जा रहा है। इसके इतर किताब अत्यंत पठनीय है। अगले संस्करण में इस बिंदु पर लेखक काम करेंगे तो यह और भी रोचक व पठनीय हो जाएगी। रामजी तिवारी को एक अच्छी किताब के लिए विशेष बधाई।


तुरपाई भरपाई (उपन्यास)

रामजी तिवारी 

संभावना प्रकाशन

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