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आशुतोष कुमार का आलेख 'एक विसर्जित 'स्त्री' की कहानी'

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  कुणाल सिंह  नित्य नवीनता की चाह मनुष्य की प्रवृत्ति है। रोजमर्रा की जिन्दगी से अलग हट कर वह कुछ नया परिवेश चाहता है। यह नयापन उसमें भविष्य के लिए वह ऊर्जा प्रदान करता है, जो जीवन के लिए आवश्यक है। तीज-त्यौहार हमारी एकरस जिन्दगी को एक नया आयाम प्रदान करते हैं। यह महज धार्मिक रस्म नहीं होता है, बल्कि इसके पीछे एक सांस्कृतिक परम्परा भी होती है। आस्था निजी होती है, चाहें वह जिस तरह की हो। आजकल जो वाहियात और भोंडे प्रदर्शन धार्मिक आयोजनों के दौरान किए जा रहे हैं, आजकल जिस तरह धर्म को उन्माद का विषय बना दिया जा रहा है, उसका आस्था से कुछ भी नहीं लेना देना। आस्था आन्तरिक रूप से मजबूत करती है और यही उसे समीचीन बनाए रखती है।  जिस तरह कविता को दो पंक्तियों के बीच पढ़ा जाता है ठीक उसी तरह कहानी भी अपने ब्यौरों के बीच गम्भीरता से पढ़े जाने की मांग करती है। अन्यथा अर्थ का अनर्थ हो सकता है या फिर अनर्थ का भी अर्थ निकाला जा सजाता है। हाल ही में चन्दन पाण्डेय और महेश वर्मा ने एक नेट पत्रिका 'सम्मुख' की शुरुआत की है, जिसमें चर्चित कथाकार कुणाल सिंह की कहानी 'विसर्जन' छपी है। इस कहान...

सुशोभित का आलेख 'महात्मा गांधी का अंतिम उपवास'

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  महात्मा गांधी ने अपने जीवन में जो प्रयोग किए उनमें उपवास का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अहिंसा और सत्याग्रह के अपने दर्शन के एक साधन के रूप में गांधी जी द्वारा उपवास को अपनाया गया। गांधी जी लिखते हैं 'मेरा धर्म मुझे सिखाता है कि जब भी कोई ऐसा संकट आए जिसे दूर न किया जा सके, तो उपवास और प्रार्थना अवश्य करनी चाहिए।' उपवास के हथियार को इस्तेमाल करना भी एक कला मानने वाले गांधी जी लिखते हैं कि 'मैं जानता हूँ कि उपवास के हथियार का इस्तेमाल आसानी से नहीं किया जा सकता। जब तक इसका इस्तेमाल इस कला में निपुण व्यक्ति द्वारा न किया जाए, तब तक यह आसानी से हिंसा का रूप ले सकता है। मैं इस विषय में ऐसा ही एक कलाकार होने का दावा करता हूँ।' भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान गांधी जी ने कुल 18 उपवास किए । उनका सबसे लंबा उपवास 21 दिनों का था, जो उन्होंने हिन्दू मुस्लिम एकता स्थापित करने के लिए 18 सितंबर से 8 अक्टूबर 1924 के बीच किया था।  आजादी के बाद का उनका दूसरा उपवास 13 से 18 जनवरी 1948 के तक 123 घण्टे चला, जो उपवासों की कड़ी में उनका अन्तिम उपवास साबित हुआ। इस उपवास का उनका लक्ष्य यह था ...

चन्द्रभूषण का आलेख प्राचीन नागार्जुन दो थे या एक'

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  चन्द्रभूषण प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा में नागार्जुन का नाम अत्यन्त महत्वपूर्ण है। अभी तक परंपरागत रूप से यह बात मानी जाती रही है कि नागार्जुन नाम के एक ही व्यक्ति हुए हैं जो प्रख्यात दार्शनिक हुआ करते थे। इन नागार्जुन को हम शून्यवाद की प्रस्थापना और माध्यमिक दर्शन के लिए जानते हैं। लेकिन एक दूसरे भी नागार्जुन हुए हैं जो जाने माने रसायनशास्त्री थे जिनका उल्लेख पाल शासक राम पाल (1069-1122 ई.) के समकालीन वैद्यराज चक्रपाणि दत्त ने अपने चर्चित ग्रंथ ‘सर्वसारसंग्रह’ में बार-बार किया है।  आयुर्वेदाचार्य नागार्जुन, सिद्धों की परम्परा में हुए। इनका समय 8वीं -9वीं शती है। यह समय आयुर्वेद में रसचिकित्सा, धातुवाद का है। प्रबंधचिंतामणि से पता चलता है कि नागार्जुन पादलिप्त सूरि के शिष्य थे। इसी पुस्तक के अनुसार ये पारद से स्वर्ण बनाने में सफल हुए थे। नागार्जुन के नाम से कई योग आयुर्वेद में प्रचलित हैं। नागार्जुन एक थे या दो,  इस तथ्य की तहकीकात करते हुए चन्द्रभूषण लिखते हैं "दार्शनिक नागार्जुन और रसायनशास्त्री नागार्जुन की पहचान में अंतहीन घपले की कई वजहें हैं, ...

सौम्य मालवीय की कविताएं

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  सौम्य मालवीय  सौम्य मालवीय का जन्म  25 मई, 1987 को इलाहाबाद में  हुआ। इन्हें बचपन से ही कविता का परिवेश और संस्कार मिला है जो इनकी कविताओं में सहज ही देखा जा सकता है। कविताएँ लिखने के  अतिरिक्त अनुवाद में भी इनकी रुचि है। दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकॉनॉमिक्स के समाजशास्त्र विभाग से उन्होंने गणितीय ज्ञान के समाजशास्त्र पर पी-एच.डी. की डिग्री प्राप्त की है और इसी विषय पर आजकल अंग्रेज़ी में सतत लेखन करते रहे हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के कई महाविद्यालयों में अध्यापन के बाद वे भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मंडी हिमाचल प्रदेश के मानविकी एवं समाज विज्ञान विभाग में सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत हैं। ''घर एक नामुमकिन जगह है' (2021) नामक उनके कविता संग्रह को 2022 के भारत भूषण अग्रवाल कविता पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। हाल ही में  उनका दूसरा कविता संग्रह  'एक परित्यक्त पुल का सपना' (2024)  प्रकाशित हुआ है। सुनने सुनाने में पहाड़ भव्य लगता है लेकिन इस भव्य के भी अपने दुःख हुआ करते हैं। इस समय दुनिया में जो प्राणी, जो चीजें अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं उनम...

संतोष भदौरिया का आलेख 'औपनिवेशिकता, प्रतिबंधन और पग-पग प्रतिवाद'

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  सन्तोष भदौरिया भारत के स्वतन्त्रता संघर्ष में प्रेस की भूमिका अहम रही है। शायद ही कोई ऐसा स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी हो जो कोई पत्र, पत्रिका न निकालता हो या पत्र पत्रिकाओं में लेख न लिखता हो। इस तरह हमारे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी बौद्धिक तौर पर भी बेहद जागरूक थे और पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से ब्रिटिश शासन के विरुद्ध अपना आक्रोश व्यक्त करते थे। इन्हें दबाने के लिए ब्रिटिश शासन को कई बार दमनकारी कानून बनाने पड़े। फिर भी प्रतिरोध की ज्वाला कभी थमी नहीं, बल्कि प्रतिरोध निरन्तर चलता ही रहा। चांद, स्वदेश, सैनिक, वर्तमान आदि पत्र पत्रिकाओं का प्रतिरोध प्रबल था। कुछ पर ब्रिटिश शासन को प्रतिबंध भी लगाना पड़ा। हिन्दी की प्रतिबंधित पत्रकारिता पर प्रोफेसर सन्तोष भदौरिया का महत्त्वपूर्ण काम है। आज पहली बार पर हम उनका आलेख 'औपनिवेशिकता, प्रतिबंधन और पग-पग प्रतिवाद' प्रस्तुत कर रहे हैं। 'औपनिवेशिकता, प्रतिबंधन और पग-पग प्रतिवाद'                                           संतोष भदौरिया ...