संजय गौतम के कहानी संग्रह 'आखिरी टुकड़ा' की अवनीश यादव द्वारा की गई समीक्षा

 



आज के गांव काफी बदल गए हैं। उनके सरोकार और परिस्थितियां बदल गई हैं। शहरों के विकास का शिकार बन रहे हैं गांव। किसानों के खेतों पर रियल एस्टेट क्षेत्र के ठेकेदारों और दलालों की नजर है। वे खेत को प्लॉट बना देने की कला में माहिर हैं। कहानीकार संजय गौतम ने इस दुरूह समय को अपनी कहानियों में दर्ज करने का सफल प्रयास किया है। संजय गौतम का हाल ही में 'आखिरी टुकड़ा' नाम से एक कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह की समीक्षा की है युवा कवि अवनीश ने। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं संजय गौतम के कहानी संग्रह 'आखिरी टुकड़ा' पर अवनीश की समीक्षा 'दर्द आखिरी टुकड़ा का'। 



दर्द 'आखिरी टुकड़ा' का 



अवनीश 

 

'हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास' में रामस्वरूप चतुर्वेदी ने लिखा है, 'संसार को समझना दर्शन का काम है, उसे बदलना राजनीति का, और उसकी पुनर्रचना साहित्य का दायित्व है।' ऐसे में किसी भी भाषा के साहित्यकार से यह अपेक्षा होती है मानवीय मूल्य और उसके सरोकार को बचाए और बनाए रखने के लिए, जिनमें समय के साथ विकार उत्पन्न हो जाते हैं, रचनाकार अपनी कृतियों के मार्फ़त इन्हीं दोषों का विरेचन करे, जिससे पाठक समाज के सापेक्ष अपनी पक्षधरता को और मजबूती से महसूस कर सके। कुछ ऐसी ही प्रतिबद्धता कहानीकार संजय गौतम के प्रथम कहानी संग्रह 'आख़िरी टुकड़ा' से गुजरते वक्त महसूस की जा सकती है।


जीवन के विविध राग-रंग को समेटे 'आखिरी टुकड़ा' में कुल जमा पच्चीस कहानियां हैं। संजय गौतम एक संवेदनशील, जिम्मेदार लेखक के तौर पर अपनी पहचान बना चुके हैं। इनकी रचनाएं साहित्य की महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकीं हैं, यद्यपि संग्रह के लिहाज़ से यह प्रथम है। कहना अतिश्योक्ति न होगा कि इन कहानियों में उत्तर भारतीय समाज अपनी पूरी सरंचना और स्वरूप के साथ पैबस्त है। संग्रह की प्रथम कहानी कुछ अधिक जिम्मेदारी लिए हुए है, संचयन के प्रतीक का भी। इस कहानी का नायक निम्नमध्यवर्गीय किसान बिसेसर है, जिसके पास अपने और परिवार के लिए खाने चबाने भर का खेत है। इसी खेत से जुड़ा है समाज में बिसेसर का मान-मरजाद। ग्रामीण श्रम-संस्कृति का वाहक बिसेसर कैसे ही अपने ही गांव के नई पीढ़ी की नज़र में अपने कर्म से त्याज्य प्रतीत होता है, नई पीढ़ी कहती है कि 'गोबर से देह बस्सा रही है।' प्रतिक्रिया में बिसेसर कह उठते हैं, "जाओ ससुर दलाली करके खाओ। बेचो अपने बाप-दादा का मौरुसी और लो मजा जिंदगी का। किसी के हाथ झऊआ-खुरपी नहीं दिख रहा है। किसी के दरवाजे गोरु-चउआ नहीं रह गया है। सब दुआर चिक्कन करके सुत रहे हैं गद्दा पर। ससुरे बिला जाएंगे जल्लदिए--।" नायक की इस चिंता में सन्निहित है ग्रामीण संस्कृति। याद करिए प्रेमचंद ने भी कहा था, "यदि किसान के बेटे को गोबर से बदबू आने लगे तो समझिए कि अकाल पड़ने वाला है।" इसका यह निहितार्थ कतई न निकाले कि प्रेमचंद और आखिरी टुकडा के बिसेसर दोनों खिलाफ़ है किसान के उन्नयन में। खिलाफ़ नहीं, बल्कि इस पक्ष में कि व्यक्ति के विकास की हर राह खुले पर अपनी संस्कृतियों की अवहेलना के दरवाजे से नहीं। बिसेसर का दुःख निम्न मध्य वर्गीय किसान का दुःख है। तेजी से बदलते समय और बढ़ती पूंजी की डालियों की धूप-छांह गांव-गिराव तक पहुंचने लगी, और बाजार-व्यापार की तिकड़म से दूर किसान को अपनी गिरफ्त में लेने लगी। बिसेसर का लड़का जयप्रकाश गांव में प्लाटिंग का कार्य शुरू करता है, यद्यपि पिता इसके खिलाफ़ हैं पर उनकी एक न सुनता, "--कौन बेचने को कह रहे हैं, जैसे रेहन, वैसे एग्रीमेंट। कुछ प्लॉट बिकेगा, कुछ अपने पास रहेगा, महंगा हो जायेगा तो दो चार प्लॉट बेचने से ही घर भी बन जायेगा और हमारा रोज़ी रोज़गार भी चल जायेगा। नहीं करना है एग्रीमेंट तो हमारा हिस्सा अलग कर दें।" बिसेसर के लिए भला इससे कठिन समय और क्या हो सकता है? वे करें तो क्या सिवाय हृदय पर पत्थर रखने के अतिरिक्त।

   

    

फलत: खेत बिक गया, मकान बना, पर मकान में बिसेसर के लिए जगह नहीं। पनाह मिली भी तो मकान से बाहर अलग इकलौती कोठरी में। 'बेटे खेत बेच कर जितना नहीं मारते उससे अधिक उनसे मुंह फेर कर।' ज़मीन बेचने का ताना जहां कहीं भी वह सुनते, लगता है कि उन्हें ही दिया जा रहा। वे विक्षिप्त से हो गए रात में सिवान में लेट कर गाते - 


"चुग गई चिड़िया खेत रे सब, 

चुग गई चिड़िया खेत

आयो बड़ो व्यापारी भइया, लुट गयो से सब खेत

लुट गयो रे सब खेत, ओ भइया---।" 


"फूलगेन, फूलगेन, तुम यहां क्यों आई फूलगेन, क्षमा करो पुरखो।" पत्नी फूलगेन उन्हें सहारा देती। पर इस मुखड़े और वाक्य में छिपी तड़प और पीड़ा को पहचानिए, यह दुःख महज़ बिसेसर का दुःख नहीं; निम्न मध्यवर्गीय किसान का दुःख है। नई पीढ़ी के समक्ष पुरानी पीढ़ी का दुःख, पूंजी के समक्ष श्रम का दुःख, असंवेदनशीलता के समक्ष संवेदनशीलता का दुःख। कहानी का आख़री सिरा लेखक उस धरातल तक ले जाता है जहां पाठक ठहर कर सोचने के लिए विवश होता है, "मदद के लिए कितनी तेज चिल्लाए, किसको पुकारे फूलगेन। पथरीले हो गए घरों तक क्या उसकी आवाज पहुंचेगी?" यह महज़ वाक्य नहीं वाकया है, इक्कीसवीं सदी में ग्लोबल होते गांव का, जिसकी बुनियाद में पूंजी और असंवेदनशीलता है। इस अंतिम वाक्य की संवेदना शिवमूर्ति की कहानी 'सिरी उपमा जोग' कथानक पृथक होने के बावजूद भी कहानी के अंतिम संवाद से संम्पृक्त होती नज़र आती है। बकौल शिवमूर्ति 'सुबह देखा तो चबूतरे पर गांव नहीं था।' यहां शहर  में पिता तक संदेशा लाया हुआ गांव अपनी ही शहरीली बहन के हाथों माथे पर चोट खा कर वापस लौट जाता है और आखिरी टुकड़े का गांव उससे आगे क़दम बढ़ा कर कंक्रीट (असंवेदनशील) होता जा रहा।


संजय गौतम 


   

गांव और गांव की राजनीति को केंद्र में रख कर इस संग्रह में कुल तीन कहानियां हैं। मसलन 'बसंता का दुख', 'मुक्ति' और 'मास्टर सुलेमान'। जिसमें से प्रथम दो पूरी तरह से गांव की उठापटक राजनीति पर, मास्टर सुलेमान में क्षेत्रीय स्तर की राजनीति और उसकी दुरभिसंधि देख सकते हैं। बसंता के दुख का हेतु यह कि कभी संकट में साथ निकले विभिन्न जातियों के लोग कैसे अलग-अलग जातियों की बस्ती में तब्दील हो गए और यही जातिगत समीकरण आज मुख्य रीढ़ बन गई ग्रामीण राजनीति की। नायक बसंता जाति का राजभर और अपनी बस्ती का पहला ग्रेजुएट है। सरपंची का चुनाव लड़ता है, कभी सुरक्षित सीट आरक्षित होने से मार खाता है, तो कभी मौका आने पर राजनीति में पैसे के समीकरण से। जब वोट की गिनती हुई तो बसंता को गवई गणित समझ में आई। भेद खोला रघुनंदन काका ने। "अरे बसंता जमाना क हवा बदलत हौ। दल्लू क आदमी आधी रात के हमरे परिवार में घुस के डाका डाल दिहेन अउर हमहन के हवा न लागल। सबेरे हम जनलीं कि वोट पीछे एक-एक हजार रुपया मुट्ठी में आयल हौ, इ जोखना भयल हौ नया अगुवा, दगाबाज।" इस तरह बसंता अपनों से ही भरोसे की पटखनी खाता है, ऐसे में उसकी हार केवल चुनावी हार नहीं होती, यह हार शिक्षा-संस्कार और स्वस्थ लोकतंत्र की हार भी है, जो राजनीति में आई विकृति को स्पष्ट तौर पर इंगित करती है। अब आगे 'मुक्ति' कहानी में गंवई राजनीति का दूसरा चेहरा देखिए। इस कहानी का मुख्य चरित्र 'बिरखू' है जिसके दामन में चोरी और खून के कई दफा दर्ज़ हैं। जमानत पर छूट कर आया है। इसका आतंक इतना कि भयवश अन्य प्रत्याशी परचा दाखिल नहीं करते, और यह निर्विरोध ग्राम प्रधान चुन लिया जाता है। पूरे ब्लॉक में  निर्विरोध प्रधान बिरखू सिंह। आगे पांच साल तक बिरखू का व्यवहार गांव वालों के प्रति अत्याचार और अन्याय का होता है। अगले अवसर पर गांव का अतिसाधारण व्यक्ति रामधनी प्रतिद्वंदी की तमाम धमकियों को दरकिनार कर पर्चा दाखिल करता है, "ए परधान, देखा धमकी-ओमकी मत दा हमके। हम परचा भर देहले हई त उठाइब न। गोली मारे के हो तो अब्बै मार दा, हो जा निश्चिंत। तोहरे आगे हम का हई। सब पागलौ, बकलोल कहैला काहे से कि हम खर बात बोलीला। वोट क जमाना हौ, चाहे लड़के जीत ला, चाहे गोली मार दा।" साधारण व्यक्ति की यह असाधारण हिम्मत बदलाव के लिए काफ़ी है। इस साहस के आगे दबंग बिरखू के पांव नहीं टिकते। बिरखू ब्लॉक पर से ही शहर चले जाते हैं। ऐसे में कहानीकार यह दिखाने की कोशिश करता है कि राजनीति में घुस आए अपराधिक प्रवृत्तियों से समाज को मुक्ति तो मिल सकती है पर ज़रूरी है रामधनी जैसे साहसी व्यक्ति का होना। इस वातारण की तीसरी कहानी 'मास्टर सुलेमान' राजनेता और आम आदमी में चुनाव के दिनों में और आम दिनों में संबंध और आत्मीयता के ग्राफ में साफ़ फ़र्क को जाहिर करती है। कहानी का केंद्रीय चरित्र सुलेमान पेशे से साधारण दर्जी है, जिसकी दुकान बाजार के सबसे आख़िरी में है। राजा साहब के चुनावी जनसभा में, बाजार में सुलेमान की आखिरी दुकान की बुनियाद पर इन्हें गांधी जी का आख़िरी व्यक्ति माना जाता है। उपहार के तौर पर मोबाइल दिया जाता है, जिस पर संदेश भी आता है कभी कोई कष्ट हो तो वे स्वयं राजा साहब से मिलें। मिलन की जद्दोजहद और परिणाम सुलेमान को आइना दिखाता है कि दरअसल आम आदमी अभी आम आदमी ही है, चुनाव के ऋतु को छोड़ कर।


   

बकौल आइंस्टीन 'पर्यावरण मेरे अलावा सब कुछ है।' निःसंदेह इसी से जुड़ा है मानव जीवन का अस्तित्व। यह भी उतना ही सच है कि इस संपदा का जीवन से ताल्लुक न समझ और इसे नष्ट करने वाले इसी ग्रह के ही लोग हैं। जो पहाड़ों की दृढ़ता को निचोड़ लेना चाहते हैं , नदियों को दूषित, तालाबों-पोखरियों को पाट देना और वृक्षों को काट देना चाहते हैं| इसी चिंता के केंद्र में है 'गांव की गंगा' कहानी जिसमें पिता के रूप में आया चरित्र गांव वालों के पोखरी पाटने पर साफ़ कहता है, "तुम लोग समझ नही रहे हो, पोखरी पट जायेगी तो गांव से दाना-पानी उठ जायेगा। कुछ नहीं बचेगा गांव में - यह गांव की गंगा है।" और अंत में सामूहिक प्रयास से पोखरी को बचाया जाता है। आज सरकारी कागज में कितने पोखरे हैं? कितने वास्तविक धरातल पर हैं? और किस तरह इन्हें बचाने का उपक्रम कर रहीं हैं सरकारें? यह भी किसी से छिपा नहीं है। ख़ैर, कहानी 'अजन्मे की याद' बेरोजगारी के दंश की कथा है जिसमें युवक शादी तो कर लेता है पर बच्चा नहीं चाहता है। कारण स्पष्ट है एक बेरोजगार की मन: स्थिति तो देखिए, "फॉर्म भरते-भरते थक गया हूं, उसके लिए भी तो पैसा कौड़ी चाहिए न। यहां तो बस फटकचंद गिरधारी हो गए हैं।" परोक्ष रूप से 'अर्थराग' इसी संवेदनात्मक गलियारे की कहानी है, जो पाठक से इठलाती हुई संवाद करती चलती है और अंत में अपना मंतव्य कुछ इस लहज़े में स्पष्ट करती है, आप भी देखिए, "अपनाना पड़ेगा' जैसे हांफने लगा वह, अपनाना --अपनाना 'मतलब शादी। शादी के बिना नहीं, राग नहीं, राग के लिए अर्थ चाहिए, राग के लिए अर्थ या अर्थ के लिए राग --।" बहरहाल, 'तुम होती तो' कहानी लेखक की कल्पना लोक से जीवन के सत्यलोक के बीच का पसरा जीवन-राग कह सकते हैं। वहीं 'लखोटिया साहब' अब तक के चरित्रों से भिन्न  समय के पालन में कट्टर, यह कट्टरता कहीं न कहीं उन्हें संवेदनहीनता की जद में ले जाती है। इसके चरित्र से जूझते हुए उपेंद्र नाथ अश्क के 'अंजो दीदी' नाटक का स्मरण आना लाज़िमी है।


   

'वह अभी तक मरा नहीं' कहानी पाठक के सम्मुख हैरानी के साथ एक प्रश्न ले कर खड़ी होती है, जिसकी संवेदना वरिष्ठ कवि हरीश चंद्र पांडे की कविता 'अख़बार पढ़ते हुए', जिसका उल्लेख राजेंद्र यादव ने हंस, जनवरी 2004, की संपादकीय में नव वर्ष की शुभकामना देते हुए किया था, से जुड़ती नज़र आती है। प्रस्तुत कहानी में भी ऐसे अनेक हादसे मसलन रोड ऐक्सिडेंट, साम्प्रदायिक दंगे, भोपाल गैस त्रासदी आदि का जिक्र उससे भी बड़ी बात उसका बच निकलना। लेखक की नज़र में एक कौतूहल है, ठीक अखबार पढ़ते हुए कविता की इस पंक्ति की तरह 


'ये कल की तारीख में लोगों के मारे जाने का समाचार नहीं

कल की तारीख में मेरे बच निकल जाने का समाचार है।' 


बहरहाल, मनुष्य परिस्थितियों का दास होता है। 'दुर्घटना' कहानी इसी कथन की पुष्टि का प्रमाण प्रस्तुत करती है। इसमें लेखक का अपना आत्मसंघर्ष झाँक रहा है। अगली कहानी 'तुम्हारी कहानी में शामिल नहीं होऊंगा' के चरित्र नायक की दृढ़ता और जीवटता देखते ही बनती है, बिल्कुल प्रेमचंद के सूरदास के संवाद और चरित्र की याद दिलाता। लेखक संजय के लिए प्रस्तुत कहानी का चरित्र एक चुनौती भी है। कहानी के नायक की दृढ़ता देखिए, "संतू की मां घबड़ाना मत, लड़का है न, संतोष करना, जान चली जायेगी पर इ खेत नहीं जाने दूंगा। हाईकोर्ट तक लडूंगा --।" इसके साहस के साथ-साथ लेखक का उद्देश्य न्याय व्यवस्था में व्याप्त विकृति को दिखाना भी। दोनों दृष्टियों से लेखक पाठक को संतुष्ट करता है।


    

संजय गौतम एक साथ गांव और शहर दोनों के कथाकार हैं यद्यपि इनकी दृष्टि गांव के वातावरण में अधिक रमी है। ऐसा मैं इस आधार पर कह रहा हूं कि इनकी कथाओं में आए शहरी चरित्रों की अपेक्षा गांव के चरित्र अधिक जीवंत हैं। उनके संवाद अधिक आकर्षित करते हैं; जिसका लेखक की मन:स्थिति से सीधा संबंध है। इन बहुतेरे चरित्रों और संवादों के बीच बेवा 'सुग्गी की आंख' की ज्योति, जिसकी हत्या कर दी जाती है वसीयत के लिए, उस हत्यारे से निरंतर प्रतिरोध के साथ संवाद करती रहती है। अपनी अस्मिता और अपने अधिकार को बचाए रखने में विधवा रूपकल्ली के सहारे की प्रतीक बनी लाठी को नजरंदाज नहीं किया जा सकता है। 'एक था राजा' कहानी ग्यारह उपखंडों में विभक्त समय-समाज पर गहरा व्यंग्य है। और संग्रह की अंतिम दो कहानियां आम व्यक्ति के रोजमर्रा से दो चार कराती हैं। इनकी हलचलों का स्वर साफ़ है; जिसे हर व्यक्ति सुन और समझ सकता। यूं भी कहा जा सकता है कि संजय गौतम की कहानियों की यही केंद्रीय प्रवृत्ति है; जिसे महसूसने के लिए किसी आला (स्टेथेस्कोप) की जरूरत नहीं।


    

संजय गौतम के पास अपनी अलग कहन शैली और शब्द संपदा है। इनके बिम्ब, प्रतीक अधिकांशता गवई गंध से अभिसिंचित है। कुछ बिंब जो अलहदा लगे। मसलन - चने की झाड़ में घुंघुरू की तरह चने का बजना, आकाश में महुए की तरह बिछे हुए चटक तारे, फूलगेन मकान और कोठरी के बीच दचकता हुआ पुल (अब इसे पढ़ कर भला कौन न केदार नाथ सिंह की  कविता 'हीराभाई' को याद करे। और अंत में इतना ही कि यह प्रथम संग्रह पका हुआ आवां है; जिसमें कुम्हार भी मझा हुआ है और माटी भी करइल है।



समीक्षित पुस्तक

आखिरी टुकडा (कहानी-संग्रह)

लेखक - संजय गौतम

प्रकाशक - प्रतिश्रुति, कोलकाता

मूल्य -220



सम्पर्क 

हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय

संपर्क 

मोबाइल -9598677625

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