जितेंद्र श्रीवास्तव से चैनसिंह मीना की बातचीत

 

जितेंद्र श्रीवास्तव

   

 

हिंदी कविता : कल और आज- प्रो. जितेंद्र श्रीवास्तव

 

 

परिचय : प्रो. जितेंद्र श्रीवास्तव

कविता संग्रह: इन दिनों हालचाल’, ‘अनभै कथा’, ‘असुंदर सुंदर’, ‘बिल्कुल तुम्हारी तरह’, ‘कायांतरण’, ‘कवि ने कहा’, ‘बेटियाँ’, ‘उजास’, ‘सूरज को अँगूठा। आपकी कविताएँ विविध भाषाओं यथा अंग्रेजी, उर्दू, मराठी, उड़िया और पंजाबी में अनुदित हैं।


आलोचनात्मक पुस्तकें:शब्दों में समय’, ‘आलोचना का मानुष-मर्म’, ‘भारतीय समाज, राष्ट्रवाद और प्रेमचंद’, ‘सर्जक का स्वप्न’, विचारधारा, नए विमर्श और समकालीन कविता’, ‘उपन्यास की परिधि’ ‘रचना का जीवदृव्य', कहानी का क्षितिजआदि। 

 

आप अभी तक भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार, देवीशंकर अवस्थी सम्मान, कृति सम्मान, रामचंद्र शुक्ल पुरस्कार, विजयदेव नारायण साही पुरस्कार, डॉ. रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान, परंपरा ऋतुराज सम्मान, भारतीय भाषा परिषद कोलकाता का युवा सम्मान आदि पुरस्कारों से सम्मानित किये जा चुके हैं।

 

प्रो. जितेंद्र श्रीवास्तव वर्तमान में इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू) में हिंदी के प्रोफेसर और पर्यटन एवं आतिथ्य सेवा प्रबंध विद्यापीठ के निदेशक हैं। पूर्व में इग्नू के कुलसचिव रह चुके हैं।

 


 

 

हिंदी कविता का दीर्घकालीन इतिहास है। हिंदी कविता ने अपनी भूमिका को बखूबी निभाया है। इस लिहाज से देखें तो कहा जा सकता है कि अलग-अलग युगों, परिस्थितियों में लिखी गयी कविता का अपना विशिष्ट महत्त्व है। हिंदी की समकालीन कविता भी अपने सरोकारों को ले कर मुखर है। समकालीन कविता के अंतर्गत भारतीय समाज में व्याप्त विसंगतियों और उसके यथार्थ को विविध आयामों में पाठकों के सम्मुख रखा गया है। लेकिन आधुनिकता और उससे भी आगे उत्तर-आधुनिकता के साथ भूमंडलीकरण एवं उदारीकरण के कोलाहल के बीच जो कविता लिखी गयी वह मानवीयता की स्थापना के लिहाज से कहीं न कहीं चूकती रही। निरंतर जटिल होती जा रही सामाजिक संरचना के दौर में हिंदी कविता के सम्मुख अनेक चुनौतियाँ मौजूद हैं। काव्य रचना में लीन कवि-कवयित्री क्या इन चुनौतियों से संघर्ष कर मनुष्य और समाज के लिए कोई बेहतर विकल्प दे पायेंगेसमकालीन हिंदी कविता के महत्त्वपूर्ण कवि जितेंद्र श्रीवास्तव का कवि कर्म भारतीय एवं वैश्विक मानवीय सरोकारों को व्यापकता से उकेरता है। कवि जितेंद्र श्रीवास्तव की समूची काव्य यात्रा का अवलोकन करने के बाद कहा जा सकता है कि यह काव्य मनुष्यता का संधान करता है। निश्चित तौर पर जितेंद्र श्रीवास्तव का कवि मानस और काव्य रचना-प्रक्रिया अपने समकालीनों से अलग है। ऐसे में हिंदी कविता के साथ-साथ स्वयं कवि के व्यक्तित्व और कृतित्व से जुड़े तमाम बिंदुओं को केंद्र में रख कर युवा आलोचक चैन सिंह मीणा ने प्रतिष्ठित कवि-आलोचक प्रो. जितेंद्र श्रीवास्तव से विस्तार से बातचीत की है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है जितेन्द्र श्रीवास्तव से चैन सिंह मीणा की बातचीत। 



 

 

सुप्रसिद्ध कवि-आलोचक जितेंद्र श्रीवास्तव से युवा आलोचक डॉ. चैनसिंह मीना की बातचीत

 


 

 

सर, आपका काव्य लेखन 1986 से आरंभ हुआ तथा उदारीकरण तक आते-आते परिपक्व कविताएँ आपने द्वारा रची जाने लगीं। छोटी उम्र में ही आपकी कविताओं को बड़ी साहित्यिक पत्रिकाओं में स्थान मिला। इस संदर्भ में आपसे पहला सवाल यह है कि भारतीय एवं वैश्विक परिदृश्य में घटित घटनाओं मसलन सोवियत संघ का विघटन, उदारीकरण, भूमंडलीकरण के प्रभाव आदि ने आपके कवि मानस को किस रूप में प्रभावित किया?


 

 

यह बहुत अच्छा सवाल है चैनसिंह। यह सही है कि मैंने बहुत कम उम्र में ही लिखना शुरू कर दिया था और मेरी पहली कविता 1986 में छपी थी। तब मैं बहुत छोटी उम्र का था। लेकिन विधिवत या कह सकते हो कि निरंतर जहाँ से मेरी कविताएँ छपनी शुरू हुईं वो 1990 का और उसके बाद का समय है। और यह भी वही कालखंड है जब कुछ समय बाद ही सोवियत संघ का विघटन हुआ। जब भूमंडलीकरण आया, उदारीकरण का दौर आया। बहुत कुछ भारत में भी बदलने लगा, दुनिया में तो बदल ही रहा था। तो निश्चित तौर पर उसका प्रभाव मुझ पर भी पड़ा, मेरी कविता पर भी पडा। हालाँकि उस दौर में मैंने दोनों तरह की कविताएँ लिखीं। आप देखेंगे कि कुछ ऐसी कविताएँ हैं जो लोक से गहरे जुड़ाव की कविताएँ हैं, लोक संपृक्ति जिनमें बहुत तीक्ष्ण है। ‘सोनचिरई’ जैसी कविता, ‘गोर्रा नदी’ जैसी कविता उसी दौर में मैंने लिखी। लेकिन उसी दौर में मैंने ऐसी कविताएँ भी लिखीं जिनमें बाजार का अस्वीकार भी है। और जब मैं बाजार का अस्वीकार कह रहा हूँ तो मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि बाजार नहीं होना चाहिए तब भी मेरा यह मानना था और आज भी मानना है कि बाजार मनुष्य की जरुरत के अनुसार होना चाहिए न कि बाजार मनुष्यों को अपनी जरूरतों के अनुसार ढाल ले। तो मेरी कविताओं में भी ये चीज उस दौर में आई। ‘इन दिनों हालचाल’ संग्रह की कुछ कविताओं में इसे आप देख सकते हैं। ‘अनभै कथा’ की कुछ कविताओं में भी आप इसे देख सकते हैं। और बाद में भी ये चीज जैसे-जैसे उदारीकरण और भूमंडलीकरण की मार तेज होती गई किसानों पर, मजदूरों पर, निम्न मध्य वर्ग पर-वो सब चीजें मेरी कविताओं में आई हैं। और आप मेरी कविताओं से परिचित हैं अच्छी तरह से और आपने इस बात को लक्षित भी किया है अपने लेखों में।


 

 

 

आपके प्रेरणा-स्रोत कौन-कौन हैं? महान रचनाकारों का स्मरण बार-बार आपके काव्य में आता है। हिंदी के किस कवि ने आपको सबसे अधिक प्रभावित किया है

 

 

यह एक अच्छा और जरुरी सवाल है लेकिन मुश्किल भी है। बहुत सारे प्रभाव हैं जैसे वैचारिक रूप से उस तरह से बहुत सारी चीजें चलती रहती हैं। लेकिन मुझे लगता है कि हर कवि को कविता सीखने के लिए गोस्वामी जी के पास जाना चाहिए। विचारधारा की बात अपनी जगह हो सकती है कि कुछ लोगों को वहाँ समस्या हो, कुछ लोगों को न भी हो। लेकिन काव्य कला जो है वो वहाँ सीखने के लिए हर कवि को जाना चाहिए। कबीर से भी मैंने बहुत कुछ सीखा। यदि थोडा हिंदी-उर्दू के विवाद को ख़त्म करें तो मिर्जा ग़ालिब और मीर से मैंने बहुत सीखा। मिर्ज़ा ग़ालिब को संबोधित मेरी एक कविता भी है जिस पर मुझे ‘भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार’ मिला था। उसके बाद के कवियों में मैंने अज्ञेय, केदारनाथ सिंह बल्कि इस क्रम को आप ऐसे कह सकते हैं कि अज्ञेय, शमशेर बहादुर सिंह और केदारनाथ सिंह से मैंने सबसे ज्यादा सीखा। बड़ा कवि मैं रघुवीर सहाय को भी मानता हूँ। मुक्तिबोध तो बड़े कवि हैं ही। और भी बहुत सारे लोग हैं लेकिन जिनसे मैंने सीखा वो अज्ञेय, शमशेर बहादुर सिंह और केदारनाथ सिंह हैं।



 

 

आप रचना-प्रक्रिया में किन बिंदुओं को महत्त्वपूर्ण मानते हैं? आपके काव्य की रचना-प्रक्रिया का स्वरुप क्या है?

 

 

चैनसिंह, रचना-प्रक्रिया पर बात करना बहुत मुश्किल है। क्योंकि कोई एक मन:स्थिति नहीं होती कविता लिखने की। कोई कविता लिखते हुए हम अलग मन:स्थिति में होते हैं तो उसकी रचना-प्रक्रिया बिल्कुल भिन्न हो जाती है। जैसे गोर्रा नदीजैसी कविता जब मैंने लिखी थी तो एक अलग मन:स्थिति थी मेरी। बाढ़ का समय था। गाँव डूबे हुए थे। किसान बदहाल थे, मजदूर बदहाल थे। जो भी लोग थे गाँव में, जो मध्यवर्ग था वो भी बदहाल था। ऐसे में जाहिर है कि वो रचना-प्रक्रिया बिल्कुल अलग थी। ‘सोनचिरई’ जब मैं लिख रहा था तो स्त्री की जो लंबी दासता है, स्त्रियों का जो शोषण है वो सब मेरे जेहन में था। एक सोहर जिस पर वो आधारित है, वो भी था। और बहुत सारी चीजें उसमें थीं तो उस कविता की रचना-प्रक्रिया बिल्कुल अलग हो गयी। तो कोई एक मानक नहीं हैं रचना-प्रक्रिया का कि उसे बताया जा सके कि मेरी रचना-प्रक्रिया ठीक-ठीक ऐसी है। मेरा तो कोई निश्चित समय भी नहीं है जैसे बहुत सारे लोग कहते हैं कि मैं प्रातः काल में कविताएँ लिखता हूँ| कुछ लोग सायं काल में लिखते हैं, कुछ दोपहर में लिखते हैं। मेरा ऐसा कोई समय भी नहीं रहा कविता लिखने का। मेरे भीतर ये जरुर है जिसे अगर रचना-प्रक्रिया के तहत लिया जाये तो कि कोई घटना, कोई विषय जब मुझे प्रभावित करता है, कहीं मेरे हृदय और मेरे मष्तिष्क को छूता है तो बहुत दिन तक मैं उस पर विचार करता हूँ। और भीतर ही भीतर कविता पकती रहती है। और जब वो पक जाती है तो मैं उसे कागज़ पर उतार लेता हूँ, टाइप कर लेता हूँ और फिर जब संतुष्ट हो जाता हूँ कि ये मुकम्मल हो गई है तो फिर मैं किसी पत्र-पत्रिका में उसे प्रकाशित करवा देता हूँ, किसी संग्रह में उसे ले लेता हूँ। तो रचना-प्रक्रिया का एक हिस्सा यह भी है। 


 

 

 लोक जीवन का कोई पक्ष  आपके काव्य में नहीं छूटा है। आप जहाँ भी रहे वहाँ के लोक जीवन की विविध छवियाँ आपके यहाँ है। अन्य समकालीन कवि लोक जीवन को उकेरने में जूझते हैं वहीं आपके यहाँ लोक का समावेश अनायास और व्यापक स्तर पर कैसे संभव हो पाता है?

 

 

इसका सबसे बड़ा कारण यह है चैनसिंह कि मेरे जीवन का जो आरंभिक हिस्सा है लगभग 14-15 वर्षों का, जब एक तरह से जब चेतना का निर्माण होता है वह समय मैंने ठेठ गाँव में गुजारा है, लोक के बीच गुजारा है, प्रकृति के बीच गुजारा है। नदी थी, खेत थे, मैदान थे, मित्र थे, किसान थे, मजदूर थे, निम्न मध्यवर्गीय लोग थे, उनका जीवन था, उनके झगडे थे, उनका संघर्ष था, उनकी पीड़ा थी, उनके छोटे-छोटे सुख भी थे। उन सबको मैंने बहुत करीब से देखा और महसूस किया। एकदम अपनी चेतना के निर्माण के आरंभिक दिनों में। तो कभी वो मेरे भीतर से गया ही नहीं। और अब भी मैं लगातार अपने गाँव से जुड़ा हुआ हूँ। अपने समाज से जुड़ा हुआ हूँ तो जाता रहता हूँ। तो ऐसा भी नहीं है कि वो सब कुछ सिर्फ मेरी 15 वर्ष तक की उम्र तक का है। जो कुछ भी वहाँ बदलाव आया है -सकारात्मक या नकारात्मक- वह भी मेरी चेतना ने दर्ज किया है। और ये आपने लक्षित किया होगा कि मेरी कविताओं में वो चीजें आयी हैं। मैंने गाँव पर कविता रचते हुए लिखा है कि वहाँ आने-दाने की लड़ाई है, इंच-इंच का झगडा है। ‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है!’ इस तरह की कविताएँ मेरी नहीं हैं। ‘गोर्रा नदी’ जिस कविता का जिक्र आया, आप देखें वो एक तरह से विषाद की कविता है, किसानों के विषाद की कविता है। ग्रामीण जीवन के विषाद की कविता है वो। लेकिन लोक है वो। लोक वही है। चूँकि चेतना के निर्माण के आरंभिक दिनों में कह सकते हैं कि लोक मेरी आत्मा का रसायन बन गया। इसलिए जब मैं पहाड़ पर गया तो पहाड़ भी उसी तरह मेरे जीवन का हिस्सा बन गया। उसका लोक मेरे जीवन का हिस्सा बन गया। मैं जब बुंदेलखंड पहुँचा तो वहाँ पर यही घटित हुआ। दिल्ली आया तो दिल्ली भी इसी तरह मेरे जीवन का हिस्सा बन गयी। मैंने कभी बहुत कटे भाव से उन जगहों को नहीं देखा जहाँ-जहाँ मैं गया और रहा। मैंने गहरी संलग्नता महसूस की उनके साथ। जैसे वो मेरी ही मिट्टी हो, जैसे मेरी ही हवा हो। मैं वहीं पर पैदा हुआ, पला-बड़ा। इस लगाव के साथ मैंने उन जगहों को जिया, उस लोक को जिया इसलिए मेरी कविता में भी वो उसी रूप में आया हैं। कोई वायवीय चीज आपको वहाँ नहीं दिखाई देगी। कोई अजनबीपन आपको वहाँ नहीं दिखाई देगा। चाहे वो पहाड़ पर लिखी कविताएँ हों या बुंदेलखंड पर कविताएँ हों या मेरे अपने अंचल पर लिखी कविताएँ हों या दिल्ली पर लिखी गई कविताएँ हों। दिल्ली का भी एक लोक है| और लोक का मतलब मैं बराबर यह मानता हूँ कि लोक का जो सीधा मतलब है वो श्रम की संस्कृति से है। जहाँ भी श्रम की संस्कृति है वो लोक है। आप देखें महानगरों में भी श्रम की संस्कृति है। मजदूरों की बस्तियाँ हैं। सुबह शाम खटते हुए लोग हैं। वह भी एक लोक सृजित करते हैं। अंग्रेजी का जो ‘फोक’ है वो लोक का एक हिस्सा है बस। वो पूरा लोक नहीं है। तो इस तरह से मुझे लगता है कि जो जीवन मैंने जिस तरह जिया उसी कारण से मेरा लोक अधिक विश्वसनीय बन पड़ा है। मैंने कभी अतिरिक्त आग्रह के साथ लोक के शब्दों को ले कर के कविता नहीं लिखी कि कोई एक शब्द ले लूँ और कविता लिखूँ कि लोक आ गया। मेरी कविता में जो शब्द तद्भव रूप में आते हैं वो एकदम मेरी भाषा में घुले हुए हैं। मेरे भीतर घुले हुए हैं और इसीलिए उनमें प्रवाह बाधित नहीं होता है। यह आपने देखा होगा मेरी कविताओं में। 

 

 

 

युवा कवि अपने आरंभिक दौर में अनेक पुरस्कारों से सम्मानित होते हैं। लेकिन कुछ समय बाद उनमें से कई कवि परिदृश्य से लगभग गायब हो जाते हैं या उनकी रचनाओं को बाद में उतना महत्त्व नहीं मिलता। इस स्थिति के पीछे क्या कारण हैं?

 

 

उसका कारण ये है चैनसिंह कि दो चीजें होती हैं। ये सही है कि युवा कवियों को प्रोत्साहन मिलना चाहिए। और जब उन्हें पुरस्कार मिलता है तो प्रोत्साहन मिलता है। लोग उनकी कविताओं को और अधिक ध्यान से पढने लगते हैं। उन पर गौर करने लगते हैं। लेकिन यह भी सही है कि बहुत से युवा कवि जब महत्त्व मिलता है तो रास्ते से भटक जाते हैं। जिन कारणों से उन्हें महत्त्व मिला था उसे धीरे-धीरे भूलने लगते हैं। कविता में भी वो आसान रास्ता चुनने लगते हैं। और उनको लगता है कि अब वो जो भी लिखेंगे वो सब कविता है। लेकिन पाठक उसको अस्वीकार कर देता है। साहित्य समाज उसे अस्वीकार कर देता है। ऐसे में वे कुंठित भी होते हैं और कई तो फिर कविता लिखना भी बंद कर देते हैं। कुछ जिनमें प्रतिभा होती है वे संभल जाते हैं और दुबारा बहुत मजबूत ढंग से, परिपक्व ढंग से फिर कविता में आते हैं और अपनी जगह बनाते हैं। लेकिन जो कवि भीतर से मजबूत होता है और जो मुकम्मल कवि होता है वह कभी पुरस्कारों से प्रभावित नहीं होता। पुरस्कार अच्छे लगते हैं इसमें कोई दो राय नहीं है। किसी भी प्रकार की स्वीकृति अच्छी लगती है। लेकिन जिसमें परिपक्वता होती है वह उसे पचा लेता है। इसलिए कभी वो विचलित नहीं होता और क्रमश: वह युवा से प्रौढ़ और प्रौढ़ से वरिष्ठ की यात्रा कर लेता है और अपनी जगह बना लेता है। 


 

 


 

 

समकालीन हिंदी कविता में आपका विशिष्ट स्थान है। अपने विशद अनुभव के आधार पर आप युवा कवियों को क्या संदेश देना चाहेंगे?

 

 

चैनसिंह संदेश तो क्या दिया जा सकता है? मेरा ये बराबर कहना है किसी भी कवि से, युवा हो या कोई हो, कि सच्चा कवि वही है जो अपने समय को दर्ज करे। जो अपने समय को दर्ज नहीं कर पायेगा आने वाली पीढ़ियाँ उसके साथ कोई जुड़ाव महसूस नहीं करेंगी। हम देखें तो जिन कवियों का मैंने नाम लिया अज्ञेय हों, मुक्तिबोध हों, रघुवीर सहाय हों, शमशेर बहादुर सिंह हों, केदारनाथ सिंह हों, नागार्जुन हों-इनको याद कीजिए, त्रिलोचन को याद कीजिए, राजेश जोशी, अरुण कमल ये सारे लोग इसलिए महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि इन्होंने अपने समय को दर्ज किया है। जब हम इनकी तीस साल पहले की कविता पढ़ते हैं तो वो समय हमारे सामने जीवंत हो उठता है। प्रेमचंद के बारे में यह कहा जाता है कि समाजशास्त्रियों के लिए सबसे विश्वसनीय सामग्री जो है वो प्रेमचंद का साहित्य है। अगर वो 1901 से लेकर 1936 तक के भारतीय समाज को, खास कर के जो हिंदी बेल्ट का समाज है इसको, समझना चाहें तो वो वह बहुत विश्वसनीय दस्तावेज की तरह आता है। ये चीज तभी संभव है जब अपने समय को कोई दर्ज करे। तो मुझे लगता है कि हम सब जो कविता लिखते हैं, हमें अपने समय को दर्ज करना चाहिए। विश्वसनीय ढंग से दर्ज करना चाहिए। चमत्कारों के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए। जो जितना सहज, सरल और विश्वसनीय होगा उसकी कविता का जीवन उतना लंबा होगा। हो सकता है उन्हीं में से कुछ लोग कालजयी होने की ओर बढ़ें। 


 

 

 

 स्त्री जीवन पर अनेकानेक प्रभावी कविताएँ आपने रची हैं। आपके काव्य में अन्तर्निहित स्त्री जीवन के प्रति सूक्ष्म संवेदना का स्रोत क्या है


 

 

वो भी मेरा अपना जीवन है चैनसिंह। क्योंकि मेरा ये मानना है कि कवि सबसे पहले अपने जीवन से ही सीखता है। मैं जिस परिवेश से आया वहाँ मेरी माँ थीं, मेरी नानी थीं, मेरी बड़ी बहनें थीं और इन सबके सानिध्य में मैं बड़ा हुआ। मैंने उनके सुख देखे, मैंने उनके दुःख देखे, मैंने उनका संघर्ष देखा, मैंने उनकी जीवंतता देखीं, मैंने उनकी ईमानदारी देखी। और मैंने बाद में भी, जब मैं अपने वैवाहिक जीवन में आया, मेरी पत्नी मेरे जीवन में आईं फिर दो बेटियाँ आईं। तो मैंने अपने घर में नानी के साथ, माँ के साथ, बहनों के साथ देखा कि स्त्रियाँ मूल रूप से बहुत ईमानदार होती हैं। बहुत संघर्षशील होती हैं। जीवट होता है उनमें। वो जल्दी हार नहीं मानतीं। वो मुश्किलों से, मतलब कई बार पुरुषों को मुश्किलों से निजात वही दिलाती हैं। मुक्ति वही दिलाती हैं। तो मेरे जीवन के निर्माण में स्त्रियों का बड़ा योगदान रहा है। शायद यही कारण है कि मैं स्त्रियों के सुख और दुःख को वाणी दे सका। मेरी पहचान के साथ जुडी कविता जिसका बार-बार जिक्र आता है- ‘सोनचिरई’ जैसी कविता मैं लिख ही इसलिए पाया कि स्त्री जीवन को मैंने बहुत करीब से देखा और महसूस किया है। 


 

 

 

हिंदी साहित्य में आपने ही संभवतः बेटियों पर सबसे अधिक कविताएँ रची हैं। जटिल सामाजिक संरचना और स्त्री विरोधी समय में बेटियाँकाव्य संग्रह का प्रकाशन नि:संदेह साहित्य जगत की एक अमूल्य धरोहर है। इस महत्त्वपूर्ण काव्य संग्रह के प्रकाशन पर आपकी प्रतिक्रिया क्या थी?

 

 

ये अच्छा प्रश्न है और जो पिछला प्रश्न आपने किया है एक तरह से उसके क्रम में ही है ये। बेटियों पर कविताएं जो हैं वो स्त्री जीवन का एक तरह से विस्तार हैं। और इस अर्थ में बहुत महत्त्वपूर्ण हैं कि स्त्री विषयक कविताओं की एक सीमा हो सकती है लेकिन बेटियों पर लिखी कविताओं को अगर देखें तो स्त्री विमर्श का एक नया स्वर वहाँ से निकलता है। देखिये, कभी बात कीजिए सामान्य स्त्री के बारे में तो प्रत्येक व्यक्ति आपसे बहस कर लेगा लेकिन बेटियों को ले कर के सब लोग बहुत संवेदनशील होते हैं। तो हमें लगता है कि स्त्री विमर्श को नए ढंग से समझने के लिए जरुरी है कि बेटियों के प्रति लोगों के मन में सकारात्मक भाव पैदा किये जाएँ क्योंकि बेटियाँ सबकी अपनी कमजोरी होती हैं। बेटियों का सुख सब चाहते हैं। सामान्य स्त्री की जैसे ही चर्चा कीजिए तब तरह-तरह की बातें हो जाती हैं। तो पहली बात तो यही थी और दूसरी ये थी कि मैं स्वयं दो बेटियों का पिता हूँ। और बेटियों पर कविताएँ ये करीब 23-25 वर्षों की लंबी अवधि में मैंने लिखी हैं। समय-समय पर लिखी हैं मैंने। एक झटके में या किसी आवेग में नहीं लिखीं हैं। और यह मेरे लिए प्रसन्नता की बात है कि जो कविताएँ हो सकता है कि मैंने अपने निजी कारणों से लिखी हों वो व्यष्टि की नहीं रहीं समष्टि की कविताएँ बन गईं। वो मेरी निजी कविताएँ नहीं रहीं। वो सिर्फ मेरी बेटियों को संबोधित कविताएँ नहीं रह गईं। वो समाज को संबोधित सभी बेटियों की कविताएँ बन गईं। और यह सचमुच बहुत सुख की बात है कि यह हिंदी में बेटी केंद्रित कविताओं का पहला संग्रह है। मेरे मित्र कमलेश वर्मा जो कि बहुत ही अच्छे आलोचक हैं, कोश निर्माता हैं, संपादक हैं, उन्होंने और उनकी जो जीवनसंगिनी हैं, सुपरिचित आलोचक हैं सुचिता वर्मा, इन लोगों ने उसका संपादन किया। मेरी कविताओं में से उन कविताओं को निकाला। उसकी भूमिका लिखी, संकलित किया। तो उन लोगों के प्रति भी मैं आभारी हूँ। ये सुखद है कि हिंदी का ये पहला संग्रह है बेटी केंद्रित कविताओं का। तो सुख ही सुख महसूस किया मैंने। प्रसन्नता महसूस की मैंने। और मुझे लगता है कि शायद इसके बाद हिंदी कविता का सुर भी बदलेगा। और मैंने देखा कि पिछले वर्ष- डेढ़ वर्ष के भीतर बहुत सारे युवा कवियों-कवयित्रियों के वहाँ बेटी केंद्रित कविताएँ पत्रिकाओं में दिखने लगी हैं। तो यह अच्छी बात है।


 

 

 


 

 

 दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक आदि के जीवन पर रची गई आपकी कविताएँ वंचित मानवता को बल प्रदान करती हैं? अखिल भारतीय परिदृश्य में अस्मिता के लिए संघर्षरत समुदाय किस प्रकार शोषण मुक्त हो सकते हैं? इस शोषण के मूल में स्थित आंतरिक अंतर्विरोध कैसे दूर हों?  

 

 

चैनसिंह, जो कविताएँ मैंने लिखी हैं उनका मैंने स्रोत बताया। चूँकि मैं जिस लोक में पैदा हुआ मैंने सब देखा। वंचित जीवन के प्रति मेरे भीतर गहरा राग है। मैं चाहता हूँ कि एक ऐसा समाज बने जो शोषण मुक्त समाज हो। और हर प्रकार से शोषण मुक्त समाज हो। धर्म, जाति, क्षेत्र, जेंडर हर तरह से शोषण मुक्त समाज हो। लेकिन इतनी आसानी से यह नहीं होगा। अलग-अलग समूह अपना संघर्ष कर रहे हैं। स्त्रियाँ संघर्ष कर रहीं हैं, स्त्री विमर्श का दौर है। दलित संघर्ष कर रहे हैं, डॉ. भीमराव अंबेडकर की वैचारिकी है। आदिवासी समाज के लोग संघर्ष कर रहे हैं, उनकी अपनी वैचारिकी है। बिरसा मुंडा से ले कर के राजस्थान तक जिन लोगों ने भी आदिवासी मुक्ति के लिए काम किया वो उनके आदर्श हैं। डॉ. अंबेडकर भी उनके आदर्श हैं। तो लोग काम कर रहे है। अभी पिछड़ा विमर्श भी पिछले दिनों आया। वहाँ पर भी काम हो रहा है। मुझे लगता है कि अलग-अलग ग्रुपों में बँट कर काम करने से मुक्ति तो मिलेगी लेकिन स्थायी निदान नहीं होगा। जब तक सभी जो शोषित लोग हैं चाहे वे स्त्रियाँ हों, आदिवासी हों, दलित हों, पिछड़े हो, थर्ड जेंडर हों - सबका जब तक कोई संयुक्त मोर्चा नहीं होगा और इनकी जो भी वैचारिकी हैं उनमें से जो ठोस चीजें हैं उनको निकाल कर के एक रास्ता नहीं बनाया जायेगा तब तक शायद मुक्ति संभव नहीं होगी पूरी तरह। पूरी तरह नहीं होगी, अलग-अलग गुटों में रह कर के हो तो जाएगी। वैचारिक धाराओं के साथ रह कर कुछ हद तक तो मुक्ति हो सकती है और हुई है। संविधान ने सुविधाएँ दी हैं। संविधान के नाते शोषण पर लगाम लगी है। वंचना के शिकार लगभग हर समुदाय को संविधान ने फायदा पहुँचाया है। मुझे लगता है कि एकीकृत होने की जरुरत है यदि हम वास्तव में मुक्ति चाहते हैं।



 

 

वर्तमान परिदृश्य में कोरोना महामारी की विभीषिका सबसे ज्यादा संघर्षरत मनुष्य को भोगनी पड़ रही है। वंचित मनुष्य का जीवन निश्चित तौर पर और अधिक दुष्कर होने वाला है। क्या इस संदर्भ में आपने कविताएँ लिखी हैं

 

 

कोरोना केंद्रित मैंने कुछ कविताएँ तो कुछ समय पहले लिखी थीं। उनमें से एक कविता थी वो पीछे काफी जगहों पर चली भी। फेसबुक पर भी आई । पोस्टर बने उसके। ‘कोरोना और जीवन का हाइवे’ शीर्षक से। एक गजल भी मैंने कोरोना केंद्रित लिखी है। उसके बाद जब मैं स्वयं कोविड का शिकार हुआ, कोरोना का शिकार हुआ तब उस अवधि में मैंने एक लंबी कविता लिखी - अथ कोरोना कथा: कोई सीधी रेखा नहीं हैं जीवन। पच्चीस खण्डों की यह कविता है जो बहुत जल्द प्रकाशित होगी। उसमें मेरा व्यक्तिगत अनुभव भी है और सामाजिक अनुभव भी। लेकिन ये सही कह रहे हैं आप कि कोरोना का सबसे अधिक प्रभाव वंचित लोगों पर ही पड़ा है। जो दिन भर कमा कर शाम और सुबह की रोटी की व्यवस्था करते थे उनके पास कोई साधन नहीं रह गया था बीच के दिनों में। फिर जीवन पटरी पर लौटने लगा है हालाँकि अक्टूबर-नवंबर तक आते-आते। लेकिन मार्च-अप्रैल-मई-जून वगैरह का समय तो बहुत भयानक ढंग से मजदूरों, किसानों पर वज्रपात की तरह से गिरा था। बहुत कष्टकर समय रहा। तो वंचित जनता को तो इसने बहुत कष्ट दिया है। जो लोग संपन्न जीवन जी रहे थे उनको भी दिया है इसने। मल्टीनेशनल कम्पनियों से लोगों की नौकरियाँ चली गईं। तमाम जगह छटनी हुई प्राइवेट सेक्टर में। तो कोरोना ने शारीरिक क्षति तो पहुँचाई ही है, इसने आर्थिक और मानसिक क्षति भी पहुँचाई है। हमारे सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुँचाया है। अब लोग किसी से मिलना नहीं चाहते। गले लगने की एक परंपरा थी। गले लगना तो दूर अब हाथ नहीं मिला सकते। करीब नहीं आ सकते। एक व्यक्ति को कोरोना हो जाये तो लोग इतने भयभीत हो जाते हैं कि उसको बयान करना मुश्किल है। लेकिन उनकी मजबूरियाँ भी समझ में आती हैं। उनको लगता है कि उनको न हो जाये। सबकी अपनी जिम्मेदारियाँ हैं। कोरोना से मौतें भी हुईं हैं इसलिए और भी भय है लोगों के मन में। तो कोरोना ने मुश्किलें पैदा की हैं। हिंदी में तो बड़ी संख्या में कोरोना केंद्रित कविताएँ पिछले दिनों लिखी गईं। उनमें कुछ अच्छी कविताएँ भी कवियों ने लिखी हैं। मुझे लगता है कि आने वाले दिनों में कुछ कहानियाँ भी अच्छी आएँगी। शायद कोई उपन्यास भी आए।   



 

 

कृषक जीवन पर आपकी कई कविताएँ हैं? भारतीय जीवन का मूल आधार कृषक संस्कृति आज किन समस्याओं से युक्त है?

 

 

चैनसिंह, कृषक तो निश्चित तौर पर समस्याओं से घिरे हुए हैं। आप देखिए औपनिवेशिक काल में भी कृषक बदहाल था। आजादी के बाद भी बदहाल है। जिन प्रांतों को हम हरित क्रांति का प्रांत कहते रहे हैं उन प्रांतों में किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं। खेती है उनके पास, फसलें हैं लेकिन कर्ज बहुत बढ़ गया है उनके ऊपर। उसका कोई रास्ता नहीं मिल रहा है। इसका मतलब जो फसलें आ रही हैं वो कर्ज को ख़त्म करने में सहयोगी नहीं हो पा रही हैं। यानि इतना उत्पादन नहीं है। तो किसान तो बदहाल है। आज की तारीख में कोई सिर्फ खेती कर के अपने परिवार की परवरिश नहीं कर सकता है। वो फॉर्महाउस चलाने वाले लोग अलग हैं क्योंकि उनके पास आर्थिक साधन दूसरे ढंग के भी हैं जहाँ पर वो व्यवस्था कर लेते हैं। तो ये देखना होगा हम लोगों को कि किसान तो बदहाल हैं। सरकार उनके बारे में, बल्कि सरकार नहीं कह कर सरकारें कहना चाहिए, केंद्र की सरकार और राज्य की सरकारें किसानों के बारे में बातें करती रहती हैं लेकिन उनके जो भी फैसलें आते हैं उनमें अक्सर यह देखा गया है कि वो किसानों के हित में नहीं जाते हैं। अभी हाल-फिलहाल में किसानों को लेकर जो निर्णय हुए हैं उनमें जो गैर बीजेपी पार्टियाँ हैं वो लगातार उनका विरोध कर रही हैं। कुछ प्रान्तों के लोग यहाँ जंतर-मंतर पर प्रदर्शन कर रहे हैं। तो कुछ उसमें अच्छी चीजें भी हैं जो अभी नीतियाँ आईं हैं। लेकिन कुछ ऐसी चीजें भी हैं जिनसे लोगों को भय लग रहा है। आज भी किसान कर्ज में दबा हुआ है। छोटे-छोटे कर्ज में दबा हुआ है। आज भी जो छोटे किसान हैं, आप देखें तो उनके शरीर पर पूरे वस्त्र नहीं हैं। दो वक्त का पौष्टिक भोजन नहीं है। बच्चे पढ़ नहीं पा रहे हैं। फीस कहाँ से दें और खिलाएं कहाँ से! तो ये सारी चीजें हैं। इसलिए कृषक जीवन तो निश्चित तौर पर कष्ट में है। प्रेमचंद किसानों को ले कर सपना देखते रहे। हर संवेदनशील कवि कथाकार ने किसानों के बारे में सोचा है, विचारा है। भारत का एक बड़ा हिस्सा कृषि पर आधारित है। उसी से उनका जीवन चलता है। और जो मैं कह रहा था कि आज भी किसी छोटे किसान के वहाँ जाइये तो आपको उसके शरीर पर पूरे वस्त्र नहीं मिलेंगे। गरीबी एकदम दिखाई दे जाती है। गरीबी-बदहाली दिख जाती है। तो कष्टकर तो है। ऐसे में कवि की जिम्मेदारी बनती है कि जहाँ दुःख है, जहाँ कष्ट है वो उसको वाणी दे ताकि स्थितियाँ बदलें और सकारात्मक चीजें वहाँ हों।


 

 


 

 

 

आपके काव्य में अन्तर्निहित राजनीतिक चेतना और सरोकार बहुत गहरे हैं। राजनीतिक विसंगतियाँ कैसे मनुष्य के वर्तमान जीवन को प्रभावित कर रही हैं?

 

 

राजनीतिक चेतना का सबसे बड़ा कारण यही है चैनसिंह कि जब मैं छोटा था, ऊपर जिसका मैं जिक्र कर रहा था उन दिनों मेरे घर में महात्मा गाँधी, डॉ. अंबेडकर, डॉ. लोहिया का साहित्य था और मुझे बचपन में ही उस साहित्य को पढ़ने का सुअवसर मिला। पिता बहुत चेतना संपन्न व्यक्ति थे| लगातार वंचितों के पक्ष में संघर्ष करते थे, मेरे नाना भी। तो इन सबका मेरी चेतना पर बहुत गहरा असर पड़ा और वो आज तक है। फिर बाद में जैसे-जैसे अध्ययन बढ़ता गया, तमाम तरह की जो प्रतिरोधी वैचारिकी है उससे मेरा परिचय हुआ। देशभक्ति की चेतना से भी मेरा परिचय हुआ। राष्ट्र महत्त्वपूर्ण है इस चेतना से भी मेरा परिचय हुआ। तो ये सारी चीजें कहीं-न-कहीं मेरे निर्माण में भूमिका निभाती रही हैं। राजनीतिक विसंगतियाँ सदा से रही हैं, अब भी हैं। राजनीतिक विसंगति का नतीजा ये होता है कि आप देखिए जब जाति केंद्रित राजनीति होने लगेगी तो एक जाति के लोग वर्चस्व में आ जाते हैं। दूसरी जातियों का वो दमन करने लगते हैं। धर्म के साथ भी यही है। तो ये विसंगति है। बड़ी विसंगति यह हो गई है कि लोकतंत्र में अब केंद्रीय पार्टियों का महत्त्व घटने लगा है बहुत तेजी से। बीजेपी है इस समय। उसका महत्त्व है जैसा कभी कांग्रेस का था। लेकिन समानांतर कोई दूसरी राष्ट्रीय पार्टी नहीं दिखाई देती जो टक्कर ले सके। छोटी-छोटी क्षेत्रीय पार्टियाँ हैं। और क्षेत्रीय पार्टियों के अपने गुण और दोष हैं जो विसंगति पैदा करते हैं। क्योंकि उनका सारा फोकस देश पर नहीं अपने प्रदेश पर रह जाता है। प्रदेश के भीतर भी वे जिस वर्ग को बिलोंग करते हैं, जिस जाति को बिलोंग करते हैं उस पर रह जाता है। तो हमें लगता है कि भारतीय राजनीति से इन विसंगतियों को दूर करने के लिए सबसे जरुरी तो यही है कि यह जो क्षेत्र की और जाति की बात है इससे मुक्ति पायी जाए। इससे मुक्ति पाए बिना हम विसंगति को दूर नहीं कर सकते। और एक प्रखर राष्ट्रीय चेतना का विकास भी होना चाहिए जिसमें हम समाज और राष्ट्र के प्रति जिम्मेदारी महसूस करें। महसूस करें की ये प्राथमिक चीज है। अगर ऐसा होगा तो हमें लगता है कि हम कोई गलत काम नहीं करेंगे। अगर समाज के प्रति जिम्मेदारी महसूस करेंगे तो निश्चित तौर पर हम लोग कुछ गलत नहीं करेंगे।



 

 

स्मृतियाँ बार-बार आपके काव्य का विषय बनती हैं। ये स्मृतियाँ आपके काव्य का प्राण हैं। प्रत्येक पाठक इन स्मृतियों में कुछ अपना पा लेता है। आप एक कवि के लिए स्मृतियाँ कितनी आवश्यक मानते हैं

 

बहुत आवश्यक हैं। मेरा मानना है कि स्मृतिहीन व्यक्ति कवि नहीं हो सकता। वो अच्छा मनुष्य भी नहीं हो सकता है। कवि होने के लिए तो वो अनिवार्य है| एक तरह से प्राणतत्व की तरह है। क्योंकि स्मृति के आधार पर ही आप अपने वर्तमान को समझते हैं। स्मृति के आधार पर ही आप भविष्य की कोई रूपरेखा तैयार करते हैं। और आप देखें कि जिन समाजों के पास, जिन राष्ट्रों के पास कोई स्मृति नहीं होती वो बहुत कंगाल हो जाते हैं। तो स्मृति तो एक बहुत जरुरी चीज है। वो एक तरह से मानसिक और बौद्धिक सम्पन्नता का सूचक है। तो कवि के लिए तो बहुत जरुरी चीज है स्मृति। जिस कवि की स्मृति जितनी तीक्ष्ण होती है, जितनी गहरी होती है समझो कि उसकी कविता की ताकत उतनी ही बढ़ जाती है। उसकी स्प्रिट उतनी बढ़ जाती है। परिधि बढ़ती चली जाती है। घनत्व बढ़ जाता है उसकी कविता का। 


 

 

 


 

 

 

आज हिंदी कविता के सम्मुख कौन-कौनसी चुनौतियाँ मौजूद हैं?

 

 

बहुत-सी चुनौतियाँ हैं चैनसिंह! सबसे बड़ी चुनौती तो यही है कि पूँजीवाद ने मनुष्य की कल्पना पर प्रहार किया है। अब हम विज्ञापनों में कल्पना ढूँढने लगे हैं। टेलीविजन पर जो विज्ञापन आते हैं हम लोग उनमें कल्पना ढूँढने लगे हैं। जो एक स्वाभाविक कल्पना थी वो कहीं खो गयी है। जबकि कल्पना के बिना तो हम साहित्य के बारे में नहीं सोच सकते। और जब मैं कल्पना कह रहा हूँ तो इसका यह आशय नहीं है कि मैं किसी वायवीय कल्पना की बात कह रहा हूँ। वो कल्पना ही है जो हमें एक यथार्थ और दूसरे यथार्थ में अंतर करना सिखाती है। यथार्थ के भीतर जो कई परतें होती हैं उन्हें भी समझने के लिए कल्पना शक्ति की जरुरत होती है। तो यथार्थ की तमाम परतों को आप कल्पना से ही अलगा पाते हैं। दूसरी जो सबसे बड़ी चुनौती है कविता के सामने वो पाठकों की समस्या है| उसे अधिक से अधिक पाठकों तक पहुँचना है लेकिन यह नहीं हो पा रहा है। हुआ यह है कि जो सुनने वाली कविता है, जो पाठकों तक पहुँच रही है, श्रोताओं तक पहुँच रही है वो पढने लायक नहीं रह गई है। और जो पढ़ने वाली कविता है वो श्रोताओं और पाठकों तक नहीं पहुँच रही है। तो हमें इस पर विचार करना होगा कि यह सुनने वाली और पढ़ने वाली कविता के बीच की दूरी ख़त्म हो। यह बहुत महत्त्वपूर्ण चीज है जिस पर ध्यान देना होगा। संप्रेषणीयता का मामला इससे जुड़ा हुआ है। कविता में प्रयोग अच्छी चीज है लेकिन प्रयोग ऐसे नहीं होने चाहिए कि संप्रेषणीयता ही ख़त्म हो जाए। आप जिनके लिए कविता लिख रहे हैं उन तक कविता पहुँच ही नहीं पाए कभी तो कविता सिर्फ एक साहित्यिक प्रयास होकर रह जाएगी। उसका जो एक सामाजिक दायित्व है वो उससे विरत रह जाएगी। एक बड़ी चुनौती यह भी रही है हिंदी कविता के सामने कि समय रहते कवियों ने जाति की समस्या पर ध्यान नहीं दिया। वो वर्ग की बात करते रहे। चूँकि मार्क्सवाद का बहुत दबाव रहा हिंदी आलोचना पर, हिंदी कविता पर तो वो लोग वर्ग की बात करते रहे। जबकि भारतीय समाज की सच्चाई जाति भी रही है। हिंदी कविता ने उसको हल्के में लिया। फिर अंबेडकरवाद के साथ दलित विमर्श आया तो चीजें बदल गईं।  और अब जो तमाम मार्क्सवादी कवि  हैं वे लोग जाति को केंद्र में रख कर कविताएँ लिखने लगे हैं। यदि सही समय पर इन लोगों ने ध्यान दिया होता इन विषयों पर तो हमें लगता है कि शायद अलग से दलित विमर्श की जरुरत नहीं पड़ती। कविता में, मतलब साहित्य में, वो सब लोग जो दलित रचनाकार भी हैं वो आते और मुख्यधारा में सीधे शामिल होते। उन समस्याओं पर गम्भीर चर्चा होती। लेकिन एक कमी रह गई इसलिए दलित विमर्श आया और दलित विमर्श ने उसको प्रभावी ढंग से पूरा किया। यही स्थिति स्त्री विमर्श के साथ भी हुई। हालाँकि स्त्री केंद्रित कविताएँ हिंदी में बहुत लिखी गईं हैं। लेकिन दृष्टिकोण का प्रश्न था तो उसके तहत स्त्री विमर्श आया। आदिवासी विमर्श के साथ भी यही हुआ। तो ये मानना होगा एक बड़ी चुनौती के तौर पर कि जो गैर दलित-आदिवासी रचनाकार हैं उन्होंने बहुत कम कविताएँ लिखी दलित जीवन को ले कर, आदिवासी जीवन को ले कर। वो बचते रहे या इस भय में रहे कि वो लिखेंगे तो दलित रचनाकार और आदिवासी रचनाकार उन्हें खारिज कर देंगे। हमें लगता है कि कवि को इस भय से बाहर आना चाहिए। खारिज होना या स्वीकृत होना, ये बाद की बात होती है। कहना चाहिए एक बड़ी चुनौती यह भी रही हिंदी कविता की। इसके अलावा जो शहरों की बहुत सारी बिडंबनाएँ हैं वे भी ठीक ढंग से कविता में नहीं पाई हैं। उनके वहाँ भी नहीं जो शहरी मध्यवर्ग की कविताएँ लिखते रहे हैं । शहरों में जो जमीन जायदाद का लंबा-चौड़ा खेल है वो हिंदी कविता में बहुत कम आया है। जो बिल्डर्स आए हैं, जिन्होंने बड़े-बड़े महानगरों का एक तरह से कह सकते हैं कि पूरा नक्शा बदल दिया है, ढाँचा बदल दिया है, सब कुछ धुंधला कर दिया है, इस पर बहुत कम ध्यान गया है लोगों का, हिंदी कवियों का। इस पर ध्यान दिए जाने की जरुरत है। तो बहुत सारी समस्याएँ हैं हिंदी कविता की। कोई एक-दो समस्याएँ नहीं हैं हिंदी कविता के सामने। बहुत सारे पहलू हैं जिन पर हमें विचार करने की जरुरत है। 


 

 


 

 

 

आप बदली हुई जीवन परिस्थितियों में लेखक, प्रकाशक और पाठक के संबंध को किस रूप में देखते हैं? 

 

 

ये लेखक और पाठक का संबंध तो सदा से बहुत जरुरी संबंध रहा है। क्योंकि अगर पाठक है तो लिखने का कोई मतलब है। और लेखक है तभी पाठक को कुछ लिखा हुआ मिलेगा। प्रकाशक की भूमिका इसमें इसलिए महत्त्वपूर्ण रही है कि जो लिखा गया है उसे पाठक तक पहुँचायेगा कौन? तो प्रकाशक उसे पहुँचाता रहा है। लेकिन हर काल खंड में लेखक और प्रकाशक के संबंध अच्छे नहीं रहे। खासकर हिंदी में तो यही रहा है। अंग्रेजी वगैरह की स्थिति भिन्न है। हिंदी में प्रेमचंद के अपने समय में भी दिक्कत थी। प्रेमचंद को खुद अपना प्रकाशन खोलना पड़ा। जैनेन्द्र को अपना प्रकाशन खोलना पड़ा। मैथिली शरण गुप्त अपनी किताबें स्वयं छापते थे। यशपाल अपनी किताबें स्वयं छापते थे। जबकि ये लोग बिकने वाले लेखक थे। काफी बिक्री होती थी इनके द्वारा रचे साहित्य की। लेकिन प्रकाशकों के साथ इनकी बात नहीं बन रही थी। प्रकाशक और लेखक का संबंध अगर अच्छा हो तो निश्चित तौर पर पाठकों को अच्छे साहित्य की कमी महसूस नहीं होगी। लेखक और प्रकाशक के ख़राब संबंध कई बार अच्छे साहित्य से भी पाठक को दूर कर देते हैं। किताबें डंप कर दी जाती हैं। सरकारी खरीद की तरफ प्रकाशक भेज देते हैं उसको। बुक सेलर को वो 40 प्रतिशत की छूट दे देंगे। 50 प्रतिशत की छूट दे देंगे। सीधे पाठक को 10 प्रतिशत की छूट नहीं देते हैं। जबकि कायदे से तो 40 प्रतिशत की सीधी छूट पाठक को मिलनी चाहिए कि वो किताब घर ले कर जाए और पढ़े। बुक सेलर को भी दीजिए कोई दिक्कत नहीं है। क्योंकि दुकानों का होना बहुत जरुरी है। ठीक है कि अब अमेजन आ गया, फ्लिपकार्ट आ गया। सीधे अपने प्रकाशकों की वेबसाइट है जहाँ से लोग किताबें मंगा लेते हैं। लेकिन अब भी कुछ पुराने ढंग के लोग हैं जो अपने-अपने शहरों में किताब की दुकानों पर जाते हैं और वहाँ से किताब पलट कर देखते हैं और खरीदते हैं। तो किताब की दुकानों का रहना जरुरी है लेकिन जो छूट आप किताब की दुकान वालों को देते हैं वही छूट दे दीजिए सीधे-सीधे पाठक को पुस्तक मेलों में और अन्य जगहों पर। तो मुझे लगता है ये रिश्ता और मधुर हो जायेगा। लेखक, पाठक और प्रकाशक के बीच का रिश्ता और मधुर हो जाएगा और इसे मधुर होना ही चाहिए। ये जितना मधुर होगा, साहित्य का पाठकों का लेखक का और प्रकाशक का सबका भला होगा। 



 

 

 आपके काव्य से पाठक आसानी से जुड़ते हैं। आपके काव्य की अंतर्पाठीयता बेहद प्रभावी है। काव्यभाषा और सौंदर्य को ले कर आपके विचार क्या हैं?

 

 

मेरा बराबर से मानना है चैनसिंह जो मैंने पहले भी एक वाक्य कहा था बीच में कि कवि को चमत्कारों से बचना चाहिए। जो कवि चमत्कार करता है वो कवि बहुत लंबी यात्रा नहीं करता है। और इसी के साथ वो अपने पाठक को उलझाता भी है। कविता को सहज होना चाहिए। उसकी भाषा को बोधगम्य होना चाहिए। जो बात आप कह रहे हैं वो संप्रेषणीय होनी चाहिए। और यही तो कवि की विशेषता है कि एक साधारण आदमी जो बात कह रहा है चूँकि आप कविता में उसको कह रहे हैं तो आप उसे संश्लिष्ट बना लीजिए। उसकी परत-दर-परत बनाना आपका काम है लेकिन यह काम आप कबीर की तरह बहुत सहज ढंग से भी कर सकते हैं। आप देखें कबीर कितनी सहजता के साथ बड़ी से बड़ी बात कहते हैं, सहज ढंग से कह देते हैं। तुलसी बहुत सहज ढंग से कह देते हैं। इसलिए ये लोग कंठ में समा गये। लेकिन रीतिकाल के कवि उसी को चमत्कार के साथ कहते थे वो कंठ में नहीं समा पाये। तो मुझे बराबर लगता है कि हमें कबीर के रास्ते पर जाना चाहिए। काव्यभाषा के स्तर पर, कविता के कलात्मक स्तर पर कबीर और तुलसी के रास्ते पर जाना चाहिए। शेष वैचारिकी तो अपने समय की होती है। विचारधारा और अन्य जरुरी जो औजार हैं वो तो कवि को अपने समय से मिलते हैं और वे उनके साथ चलते हैं।  

 

 

 

 

 सर! अब तक आपके नौ काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं। इस दीर्घकालीन अवधि की काव्य यात्रा को आप स्वयं किस रूप में देखते हैं

 

 

 चैनसिंह मेरे कुल छ: कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं अभी तक। अन्य तो चयन हैं। यानि कि ‘कवि ने कहा’ एक चयन है। ‘उजास’ में मेरे आरंभिक तीन संग्रह फिर से एक जिल्द में आए हैं। और ‘बेटियाँ’ भी प्रकाशित कविताओं में से ही चुनी गई कविताएँ हैं। अब सातवाँ संग्रह ‘जितनी हँसी तुम्हारे होंठों पर’ आने वाला संग्रह है जो जनवरी में आ जाएगा। एक और चयन आईसेक्ट पब्लिकेशन, भोपाल से इसी महीने ‘रक्त सा लाल एक फूल’ आ गया है। तो जो ये यात्रा है मेरी तीस वर्षों से कुछ अधिक समय की कविता की, जब मैं पलट कर इसे देखता हूँ तो मुझे संतोष का अनुभव होता है। मुझे लगता है कि मैंने जब ये तय किया कि मुझे कविताएँ लिखनी हैं, कवि बनना है तो ये रूमानी निर्णय नहीं था मेरा। यदि रूमानी निर्णय होता तो शायद पाँच-दस वर्ष में मैं थक जाता। तीस वर्ष एक लंबा समय होता है और इस लंबे समय में मैंने अपने भीतर के कवि को जीवित रखा। जितनी ताकत उसे दे सकता था वो ताकत भी मैंने उसको दी और मेरे कवि ने भी मुझको ताकत दी। एक मनुष्य के रूप में मेरी जीवन दृष्टि को बदला। मेरी सौंदर्य दृष्टि को बदला। समाज को किस नजरिये से मैं देखूँ ये दृष्टि भी मुझे मेरी कविताओं से मिली, मेरे कवि से मिली। तो बहुत सुखकर है ये मेरा कवि होना, मेरा कवि जीवन। क्योंकि मुझे लगता है कि मैं अगर कुछ और हुआ होता तो शायद मेरा जीवन इतना सुंदर नहीं होता। मेरी दृष्टि इतनी साफ़ नहीं होती समाज को देखने की, समाज की समस्याओं को देखने की। ये सब मेरे कवि के नाते संभव हुआ है। 

 


 

 

 अंत में एक सवाल यह है कि एक कवि और आलोचक के तौर पर आपकी नजर में हिंदी कविता का भविष्य कैसा है? क्या आने वाले समय में कविता के माध्यम से मनुष्यता के संधान का स्वप्न साकार होगा?

 

 

चैनसिंह अगर अंतिम हिस्से से उत्तर दूँ तो निश्चित होगा। कविता मनुष्यता का अनिवार्य मित्र है। कह सकते हैं कि कविता और मनुष्यता में न समाप्त होने वाली मित्रता है। इसलिए मनुष्यता का संधान तो संभव होगा और उसमें कविता की बड़ी भूमिका होगी। साहित्य मात्र की बड़ी भूमिका होगी, ये कहा जाना  चाहिए। इसी के साथ मैं ये कहना चाहता हूँ कि जब तक मनुष्य रहेंगे, जब तक सृष्टि रहेगी तब तक किसी न किसी रूप में कविता रहेगी, साहित्य रहेगा। क्योंकि मनुष्य एकदम यंत्र नहीं बन सकता, एकदम मशीन नहीं बन सकता। और जब वो यंत्र नहीं बनेगा, मशीन नहीं बनेगा तो उसे साहित्य की जरुरत पड़ेगी, कलाओं की जरुरत पड़ेगी, कविता की जरुरत पड़ेगी। आप देखें जब लिखने-पढ़ने के साधन उपलब्ध नहीं थे तब भी लोकगीत हमारे साथ थे, तब भी लोककथाएँ थीं। और लोकगीत तो उन्हीं श्रमजीवी लोगों ने रचा होगा। स्त्रियों ने रचा होगा अपने एकांत को सार्वजनिक करते हुए, व्यष्टि को समष्टि से जोड़ते हुए। तब छंद के नियम नहीं थे लेकिन वो छंद पर आधृत रचनाएँ हैं। बिल्कुल सघन छंद पर आधृत रचनाएँ हैं। निश्चय ही बाद में जब छंदों का विकास हुआ होगा तो ये रचनाएँ काम आईं होंगी। तो मुझे लगता है कि जब तक सृष्टि रहेगी तब तक कविता रहेगी, साहित्य रहेगा। और जब तक साहित्य रहेगा मनुष्यता पूरी तरह नष्ट नहीं होगी। मनुष्यता किसी-न-किसी रूप में बची रहेगी। सद्भाव बचा रहेगा। तमाम बुरी स्थितियों के बीच भी जीने की संभावनाएँ बची रहेंगी। जीने की इच्छाएँ बची रहेंगी। 

 

 

 

धन्यवाद सर! आपने अपने व्यस्ततम कार्यक्रमों के बावजूद साक्षात्कार हेतु समय निकाला इसके लिए आपका बहुत-बहुत आभार। इस बातचीत के माध्यम से समकालीन हिंदी काव्य की स्थिति और उसके समक्ष चुनौतियों पर समझ बनी। आपके द्वारा लंबी अवधि में रचे गए काव्य की रचना-प्रक्रिया के विविध आयाम सामने आए। आपका रचनात्मक लेखन इसी ऊर्जा के साथ आगे जारी रहे इसके लिए आपको हार्दिक शुभकामनायें।

 


 

(डॉ चैनसिंह मीना युवा आलोचक हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रतिष्ठित महाविद्यालय में प्राध्यापक हैं। कुछ समय पूर्व दलित कविता पर आई उनकी पुस्तक चर्चा में है।)



सम्पर्क : 08010081419


 

चैनसिंह

 

 

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