इसाबेले एलेंदे की कहानी 'आखिर हम सब मिट्टी के ही बने हैं।' अनुवाद और प्रस्तुति यादवेन्द्र



इसाबेले एलेंदे


इंसानियत से बढ़ कर इस दुनिया में कुछ भी नहीं है। यह इंसानियत ही है जब किसी अजनबी में हम अपनापन महसूस करने लगते हैं। कीचड़ के दलदल में फंसी आसूसेनु के घटना की रिपोर्टिंग करने गया रोल्फ अन्ततः वेदना भरे उसके मासूम चेहरे से इस कदर द्रवित होता है कि अपना काम भूल कर उसे बचाने में लग जाता है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है इसाबेले एलेंदे की कहानी 'आखिर हम सब मिट्टी के ही बने हैं।' अनुवाद और प्रस्तुति यादवेन्द्र जी की है। यह कहानी भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित उनके संकलन "तंग गलियों से भी दिखता है आकाश" से साभार ली गयी है।  



आखिर हम सब मिट्टी के ही बने हैं
                   

इसाबेले एलेंदे



उन लोगों को  लड़की का सिर मिट्टी के गड्ढे से थोड़ा सा बाहर निकला हुआ दिखाई पड़ा। आँखें चौड़ी खुली हुई चारों ओर ख़ामोशी से देखती हुईं। उसका नाम था : आसूसेनू (स्थानीय  भाषा में जिसका अर्थ हुआ लिली का फूल)। लिली... इस विशालकाय कब्रगाह में जिस से उठती हुई मौत की बदबू दूर से ही गिद्धों को न्योता दे रही हो। जहाँ अनाथ हुए बच्चों और घायलों की चीख पुकार से सारा माहौल अफरातफरी वाला हो उसमें जीवन के लिए जूझ रही वो छोटी सी लड़की एक तरह से पूरे हादसे  का प्रतीक बन गयी थी। दुनिया भर के टेलीविजन कैमरे इतनी  बार दलदल के अन्दर से काले गोल लोंदे जैसे सिर का बाहर उभरना दिखा चुके थे कि सब लोग उसको पहचान गये थे और नाम भी उनकी जुबान पर आ चुका था। जितनी बार भी मैंने उसको स्क्रीन पर देखा उसके ठीक पीछे रोल्फ़ कार्ले दिखाई दिया। उसकी टेलीविजन कम्पनी ने कार्ले को उस घटना को कवर करने के लिए वहाँ भेजा था पर उसको इस बात का कतई अंदेशा नहीं था कि वहाँ उसको अपने तीस बरस पुराने अतीत की कुछ झलकियाँ दिखाई दे जाएँगी। 


कपास के खेतों में सबसे पहले जमीन के अन्दर से कुछ आवाज सुनाई दी जो थोड़े-थोड़े अन्तर से तरंगों जैसी उठती थीं। भूगर्भशास्त्रियों के एक दल ने वहाँ सिस्मोग्राफ करीब हफ्ते भर पहले ही लगा दिए थे और लोगों को बताया भी था कि लगता है यह पहाड़ एक बार फिर से जाग रहा है। उन्होंने यह भविष्यवाणी भी कि ज्वालामुखी के फूटने पर इतना ताप निकलेगा कि पहाड़ की चोटियों पर सदा छाई रहने वाली बर्फीली परत पिघल कर तेज गति से  नीचे आ जाएगी पर किसी ने उनकी बातों पर यकीन नहीं किया। लोग-बाग मजाक में उनकी बातों को डरी हुई बुढ़िया का प्रलाप कह रहे थे। घाटी के शहरों में जीवन धरती के रुदन की ओर से बेखबर अपनी पुरानी रफ़्तार से चलता रहा। जब तक कि नवम्बर की वह मनहूस बुधवार की रात आ नहीं धमकी। काफी देर तक धरती के अन्दर से शक्तिशाली गर्जन उठता रहा। जैसे क़यामत की रात आ गयी हो। बर्फ की ऊँची दीवारें एकदम से फिसल कर पानी बन गयीं और  मिट्टी से मिल कर दलदल का दरिया बन कर चट्टानों और जो भी रास्ते में आता उसको अपने आगोश में समाती चली गयीं। अकस्मात् आये इस कहर से गाँव के गाँव कई मंजिल ऊँची दलदल की परत के अन्दर दफन हो  गये।


इस दुर्घटना के पहले झटके से जैसे ही लोग-बाग उबरे उन्होंने देखा कि घर, बाजार, चर्च, कपास के खेत, काफी के बगीचे, मवेशियों के बथान सब के सब नजर से ओझल हो गये हैं। धीरे धीरे जब सैनिक और अन्य दूसरे राहतकर्मी घायल लोगों को बचाने और विनाश का वास्तविक जायजा लेने के लिए वहाँ पहुंचे तो पता चला कि बीस हजार से ज्यादा लोग और अनगिनत जीव जंतु पलक झपकते ही दलदले काल के गाल में समा गये। यहाँ तक कि जंगल और नदियाँ भी नहीं बच पाए। जैसे किसी ने उन्हें झाड़ू से बुहार कर कहीं बाहर फेंक दिया हो। जहाँ तक निगाह जाती थी कुछ भी नहीं दिखाई देता था सिवा दलदल से भरे रेगिस्तान के।


जब भोर से थोड़ा पहले आफिस से फ़ोन आया तो मैं और रोल्फ़  कार्ले साथ-साथ ही थे। मैं कुनमुनाती हुई बिस्तर से उठी, नींद से भारी ऑंखें मींचते  हुए काफी बनायी तब तक रोल्फ़ ने जैसे तैसे कपड़े डाल लिए। उसने अपना सामान (उपकरण) हर बार की तरह पीठ पर डालने वाले हरे रंग के कैनवास बैग में डाल लिए। विदा होते हुए हमने सलामती की खातिर एक दूसरे के साथ दुआ सलाम की। सच कहूँ तो मेरे मन में इस अभियान को ले कर कोई भावनात्मक बात नहीं आयी। मैं सहज भाव से किचेन में बैठ कर अपनी काफी पी रही थी और सोच रही थी कि रोल्फ़ के आने तक मैं अकेली क्या क्या करुँगी। मुझे भरोसा था कि अगले दिन ही वह वापस लौट आयेगा।


रोल्फ़ घटनास्थल पर पहुँचने वाला पहला पत्रकार था क्योंकि बाकी सभी उस दलदल तक  पहुँचने के लिए जीप और साईकिल का इंतजाम करने को आपस में झगड़ रहे थे। रोल्फ़ को टेलीविजन कम्पनी के हेलीकाप्टर का सहारा मिल गया जिस से वो हादसे के बिलकुल केंद्र तक  फ़ौरन ही पहुँच गया। हमें उसके सहायक के कैमरे से खींची गयी तस्वीरें अपने टेलीविजन में देखने को लगातार मिल रही थीं। वो घुटनों तक दलदल में घुस कर खड़ा हुआ था। उसके हाथ में माइक्रोफोन, और उसके चारों ओर परिवार से बिछुड़े हुए बच्चों, चोट से कराहते घायल लोगों, लाशों और विनाश का तांडव नृत्य हो रहा था। इन सबसे विचलित हुए बगैर रोल्फ़ अपनी सधी हुई आवाज में आस-पास के दृश्यों का वर्णन कर रहा था। सालों से दर्शकों का वह एक जाना पहचाना रिपोर्टर रहा है जिसने युद्ध से ले कर दिल दहला देने वाली विभीषिकाओं के बारे में लोगों को घटनास्थल पर खड़े हो कर आँखों देखा हाल सुनाया है। ऐसी कोई घटना होते ही उसके ऊपर वहाँ पहुँचने की धुन सवार हो जाती है। और चाहे खतरा सिर पर मंडराए या बड़ी दुर्घटना हो गयी हो मुझे हमेशा से इनको ले कर उसका उद्वेगरहित समभाव अचंभित करता रहा है। ऐसा लगता था जैसे चुनौती चाहे जितनी बड़ी या जानलेवा हो न तो उसकी जिज्ञासा को मार सकती है और न ही उसके दृढ निश्चय को पराजित कर सकती है।



डर तो जैसे रोल्फ़ को छू ही नहीं गया। हालांकि मेरे साथ के अपने निजी क्षणों में उसने एकाधिक बार यह साझा किया था कि वो अंदर से कोई साहसी प्रवृत्ति का बंदा नहीं था, बल्कि वास्तव में इससे उलट ही था। मुझे उसके साथ रहते हुए यही समझ आया कि जैसे ही वह कैमरे की लेंस में से झांकता था उसकी पूरी शख्सियत बदल जाती थी। लगता था जैसे वह लेंस उसको बिलकुल अलग एक ऐसे काल खंड में ले कर चला जाता था जहाँ से वह बिलकुल निर्लिप्त भाव से सारा नजारा देख तो सकता था पर उसमें शामिल नहीं होता था। जैसे-जैसे मैं उसको ज्यादा निकटता से जानती गयी मेरा यह विश्वास और पक्का होता गया कि यह आभासी दूरी रोल्फ़ को अपने उद्वेगों की वास्तविक तहों तक पहुँचने में एक उद्देश्यपूर्ण दीवार की तरह रोके रखती है।


रोल्फ़ कार्ले शुरू से ही आसूसेनू की कहानी के पीछे पड़ा हुआ था। जिन स्थानीय कार्यकर्ताओं की सबसे पहले उसकी ओर निगाह पड़ी उनकी उसने फिल्म बनायी। इसी तरह जो पहला आदमी कोशिश करके उस तक पहुँचने में कामयाब रहा। उसकी भी... बार-बार उसका कैमरा उस लड़की की ओर ही घूम घाम कर पहुँच जाता था। उसका काला पड़ गया चेहरा, उसकी सारी आस खो चुकी बड़ी-बड़ी आँखें, कीचड़ से सनी उलझी हुई थक्का थक्का लटें। जहाँ वो लड़की फँसी पड़ी थी उसके आस-पास की मिट्टी किसी गहरे सूखे कुंए जैसा बर्ताव कर रही थी कि जो भी पास पहुँचने की कोशिश करता वहीँ अन्दर धँसने लगता।                       


लोगों ने उसकी तरफ रस्सा भी फेंका पर जब तक चिल्ला कर लोगों ने उसको रस्सा पकड़ने को बताया नहीं उस लड़की ने रस्से की ओर ताका भी नहीं। उसने दलदल के अंदर से एक हाथ किसी तरह खींच कर बाहर निकाला और रस्से की ओर झुकने की कोशिश की। पर ऐसा करते हुए और भी अंदर धंसने लगी। रोल्फ़ ने तब कंधे से उतार कर अपना बैग अलग फेंका, अपने हाथ में लिए उपकरण भी फेंके और दलदल में लड़की की तरफ आगे बढ़ने लगा। साथ-साथ वह अपने साथी के माईक्रोफोन पर बोलता भी जा रहा था कि अन्दर खूब ठंडा लग रहा है और रह-रह कर अब आस-पास से लाशों की सड़ांध उस तक पहुँचने लगी है।


तुम्हारा नाम क्या है? रोल्फ़ ने लड़की से पूछा तो लड़की ने अपना फूल वाला नाम बताया।

जहाँ खड़ी हो वहीं खड़ी रहो, आगे बढ़ने की कोशिश मत करो  आसूसेनू। रोल्फ़ कार्ले ने हिदायत दी और उसके साथ बतियाने लगा। उसको नहीं मालूम था कि वो क्या क्या बोले जा रहा है पर उसका असली मकसद लड़की का ध्यान बँटाये रखना था। रोल्फ़ दलदल में आगे की ओर बढ़ता जा रहा था और देखते ही देखते सीने तक अंदर धंस  गया। उसको लगने लगा कि अब उसकी साँस के साथ दलदल भी अन्दर खिंची  चली आने वाली है।


रोल्फ़ जिस रास्ते से आगे बढ़ रहा था जाहिर है उस से लड़की तक पहुंचना संभव नहीं था। इसी लिए वो पीछे मुड़ा और सख्त जमीन की खोज में एक पूरा चक्कर घूम गया। जैसे-तैसे जब वो करीब पहुँचने में सफल हुआ तो रस्सा ले कर लड़की की बांह के नीचे लपेट दिया जिस से उसको कम से कम खींच कर बाहर निकाला जा सके। वह लड़की की ओर देख कर किसी बच्चे की तरह मुस्कुरा पड़ा। बोला भी कि घबराना नहीं, सब सही सलामत है। मैं अब तुम्हारे पास पहुँच गया हूँ, ईश्वर तुम्हारे ऊपर कृपा करेगा और बहुत जल्दी लोग तुम्हें यहाँ इस दलदल से निकाल कर सुरक्षित बाहर ले जायेंगे। रोल्फ़ ने लोगों से रस्सा खींचने को कहा पर जैसे ही वे रस्सा खींचते लड़की जोर-जोर से चिल्लाना शुरू कर देती। दुबारा ऐसा करने पर लड़की के कंधे और टाँगें दलदल से ऊपर आए भी पर उसको और आगे खींचना संभव नहीं हुआ। किसी ने सुझाया कि हो सकता है उसकी टाँगें घर की दीवारों के ढहने से उसके नीचे आ कर दब गयी हों। थोड़ी देर बाद उस लड़की ने बताया कि उसकी टाँगें सिर्फ मलबे के अंदर नहीं दबी हैं बल्कि उसके भाई और बहनों ने भी कस कर उनको पकड़ रखा है।


रोल्फ़ ने उसको दिलासा दिया। फ़िक्र मत करो, जल्दी ही हम तुम्हें यहाँ से निकाल कर बाहर ले जायेंगे। टेलीविजन पर सब कुछ दिख तो रहा था पर आवाज क्षीण हो रही थी। पर मुझे रोल्फ़ के  स्वर का टूटना एकदम साफ सुनाई पड़ रहा था। मुझे उस पर पहले से भी ज्यादा प्यार आने लगा। आसूसेनू टकटकी लगा कर रोल्फ़ को ही देख रही थी पर बोली एक शब्द भी नहीं।


रोल्फ़ कार्ले के पास जो कुछ भी साधन थे शुरू के कुछ घंटों में ही उसने उस लड़की को बचाने में उन्हें झोंक दिया था। उसने रस्सों और डंडों का सहारा लिया पर दलदल में मौत से जूझती उस लड़की को उनसे कोई सहायता नहीं मिली बल्कि तकलीफ और बढ़ ही गयी। उसने एक डंडे को लीवर की तरह इस्तेमाल करने की तरकीब भी भिड़ायी पर पूरी तरह नाकामयाब रहा। साथ में बचाव कार्य करने आए कुछ फौजियों से भी वो कुछ सलाह लेता रहा पर थोड़ी देर में ही उन्हें किसी और ने वहाँ से अलग जाने का हुक्म दे दिया। लड़की अपनी जगह से एक इंच भी आगे पीछे नहीं जा पा रही थी, सिर्फ उसकी सांसें धीरे धीरे चल रही थीं। पर इस हाल में भी वो जीवन से बिलकुल हताश नहीं लग रही थी जैसे पूर्वजों का कोई शाप उसको इस हाल तक ले आया  हो और अब सिवा इसको स्वीकार कर लेने के उसके पास और कोई विकल्प नहीं बचा था।


दूसरी तरफ रोल्फ़ उसको मौत के मुँह से खींच कर बाहर निकाल लेने पर आमादा था। तभी कोई उसको एक टायर दे गया और रोल्फ़ ने उसको लड़की की बाँहों के नीचे लाइफगार्ड की तरह फंसा दिया। उसने एक लकड़ी का तख्ता लिया और टायर के बीचों बीच रख लिया जिस से वह उसके पास बिना डूबे टिका रहे। दो तीन बार उसने दलदल में घुस कर लड़की की टाँगों को फंसाए हुए मलबे को हटाने की कोशिश भी की पर बात बन नहीं पाई। अन्त में उसको समझ में आया कि जब तक पम्प से दलदल का पानी खींच कर बाहर नहीं निकाला जायेगा तब तक अभियान में सफलता मिलना संभव नहीं है। उसने इसके लिए कंट्रोल को खबर भेजी पर जवाब यह आया कि वहाँ तक पम्प पहुँचाने के लिए कोई साधन कल सुबह से पहले नहीं मिल पायेगा सो इंतजार करो।



हम इतनी देर तक इंतजार कैसे कर सकते हैं। रोल्फ़ जवाब सुन कर गुस्से से चीख पड़ा पर अफरातफरी के उस माहौल में उसके पक्ष में कोई और स्वर नहीं सुनाई पड़ा। कई घंटे और इसी तरह बिताने के बाद उसको लगने लगा कि समय जैसे ठहर गया हो और सच्चाई को जैसे किसी ने क्षत विक्षत कर डाला हो। इस बीच एक फौजी डाक्टर लड़की की जाँच करने आया।उसने बताया कि लड़की का दिल तो सही सलामत ढंग से काम कर रहा है पर ठंडी दलदल से उसको सर्दी लगने का अंदेशा है। यदि वो इस ठण्ड को झेल गयी तो कल सुबह तक कोई खतरा नहीं होना चाहिए।


हिम्मत से डटी रहो आसूसेनू। कल हमें पम्प मिल जायेगा। रोल्फ़ ने लड़की को दिलासा देने की कोशिश की। मुझे अकेले छोड़ कर मत चले जाना। लड़की ने मिन्नत की।


ऐसा भला कैसे हो सकता है?

कोई कहीं से उसके लिए काफी का एक प्याला ले कर आया पर उसने घूंट-घूंट कर के काफी उस लड़की को पिला दी। गर्म काफी शरीर के अंदर जाने के बाद लड़की की जान में जान आयी और उसने धीरे-धीरे खुद अपने बारे में, परिवार के बारे में और स्कूल के बारे में उसको बताना शुरू किया कि ज्वालामुखी फूटने से पहले कैसी थी उस लड़की की दुनिया? तेरह साल की वो प्यारी सी लड़की अपने गाँव से बाहर कभी नहीं गयी। जाने ये सब सुन के रोल्फ़ का यह भरोसा और क्यों पक्का हो गया कि उस लड़की के साथ कुछ भी अनिष्ट नहीं घट सकता। थोड़ी देर की ही तो बात है, पम्प यहाँ पहुँच जायेगा, इसकी मदद से पानी बाहर निकाल लिया जायेगा, नीचे जमा हुआ मलबा हटा दिया जायेगा और आसूसेनू को यहाँ से निकाल कर हेलीकाप्टर से पास के अस्पताल तक ले जाना संभव हो पायेगा। जहाँ से वो जल्दी ही स्वस्थ हो कर निकल  आयेगी। रोल्फ़ ने यहाँ तक सोच लिया था कि वो आसूसेनू के घर जब उस से मिलने जायेगा तो क्या-क्या गिफ्ट ले कर जायेगा। उसको लगता था कि आसूसेनू की उम्र अब गुड़िया खेलने की तो है नहीं सो उसको कुछ और सामान ले कर जाना होगा। जाने उसको क्या क्या पसंद है? हो सकता है नए नए कपड़े देख के वो खुश हो जाये। रोल्फ़ को लगने लगा कि उसको स्त्रियों की अंदरूनी दुनिया के बारे में कितना कम पता है जबकि अब तक की उम्र में अनेक स्त्रियाँ उसके जीवन में शामिल रही हैं। समय बिताने की गरज से रोल्फ़ लड़की को अपने पत्रकार जीवन की रोमांचक घटनाओं के बारे में बताता रहा। जब असल घटनाएँ चुक गयीं तो उसने कल्पना का सहारा लिया और वैसी मनगढ़ंत बातें उसको सुनाता रहा जिस से उसको लगता था कि आसूसेनू को मजा आयेगा। बीच बीच में उसने देखा कि लड़की को झपकी भी आ गयी पर अँधेरे में वो निरंतर बोलता ही रहा। यह सोच कर कि उसके चुप होते ही लड़की को अकेले छोड़ दिए जाने का वहम घेर सकता है।



रात थी कि बिताये नहीं बीत रही थी। जाने कितनी लम्बी रात...।


घटनास्थल से सैकड़ों मील दूर मैं बैठ कर टेलीविजन स्क्रीन के ऊपर रोल्फ़ कार्ले और उस लड़की को देख रही थी। अकेले बैठे हुए मैं ऊबने लगी थी सो उठ कर वहाँ जा बैठी जहाँ रात-रात भर बैठ कर रोल्फ़ अपनी फिल्मों का संपादन किया करता है। वहाँ पहुँच कर मुझे उसके आस-पास होने का एहसास हुआ और मैं पिछले तीन दिनों में रोल्फ़ ने जो कुछ भी झेला उसका कुछ भाव साझा करने की कोशिश करने लगी। वहीँ बैठे हुए मैंने शहर के तमाम बड़े लोगों को फोन किये।  सीनेटरों को, फौजी कमांडरों को, अमरीकी राजदूत को, नेशनल पेट्रोलियम के प्रेसिडेंट को और उन सब से एक पम्प का इंतजाम कर देने की मिन्नतें करती रही जिस से दलदल और मलबा हटाने में मदद मिल सके। बदले में मुझे मिला तो सिर्फ मौखिक आश्वासन। मैं टेलीविजन और रेडियो के माध्यम से भी यह अपील जारी करती रही कि  शायद कहीं कोई निकल आए जो ऐसी मदद कर सके। बीच-बीच में सेटेलाईट से आती ताज़ा अपडेट्स भी लेती जाती थी। हालांकि तमाम रिपोर्टर हेडलाइंस पर फोकस कर रहे थे पर मुझे तो उन फुटेज की तलाश थी जिनमें रोल्फ़ और दलदल में फँसी वो लड़की दिख जाएँ। टेलीविजन के दृश्य मुझे बार-बार यह एहसास दिला रहे थे कि मैं रोल्फ़ से सैकड़ों मील दूर हूँ। पर वास्तव में मैं उस से दूर थी भी कहाँ।



घटनास्थल पर मौजूद रोल्फ़ को आसूसेनू की हर चोट जैसे आहत कर रही थी वैसे ही मुझे भी इतनी दूर रह कर उसकी चोट से चोट लग रही थी। मैं उसकी खीझ-बेचारगी को उसके चेहरे पर बखूबी देख पा रही थी। जब मैं इस मुश्किल घड़ी में उसके साथ संवाद स्थापित करने में अपने आपको असहाय पाने लगी थी तो अचानक मन में कौंधा कि क्यों न मन के तार उसके साथ जोड़ लूँ  और इस नेक काम के लिए उसको दिलासा और प्रोत्साहन देती रहूँ। जब तक मैं असमंजस में रही तब तक तो परेशान थी पर जब यह ख्याल मन में बस गया तो तसल्ली मिली। बीच-बीच में गहरी करुणा के पल भी मन पर हावी हुए जब मैं खुद को सुबकने से रोक नहीं पाई। कभी-कभी तो हताशा में यह लगने लगता था कि मैं टेलिस्कोप के अंदर झाँक कर वह प्रकाश पुंज देखने की नाकाम  कोशिश कर रही हूँ जो उस से लाखों करोड़ों प्रकाशवर्ष दूर है।



दरअसल मैंने नरक के मंजर तो पहली ही सुबह देख लिए थे। आदमियों और मवेशियों की लाशें उस नयी बनी नदी में सब ओर तैरती हुई दिखाई पड़ रही थीं जो कुछ घंटे पहले ही बर्फ पिघलने से निर्मित हुई थी। दलदल की मोटी परत में ऊपर मुँह उठाये जो दिख रहा था वो था उखड़े हुए दरख्तों का सिरा और चर्च का घंटाघर जिसको अब भी जान बचाने के लिए कई लोग कस कर पकड़े हुए थे। उन सबको किसी न किसी बचाव दल के अवतरित हो जाने की उम्मीद बँधी हुई थी। फौजियों और सिविल डिफेंस के सैकड़ों कार्यकर्ता दलदल को मथ के लोगों को बाहर निकलने की कोशिश कर रहे थे और भूत प्रेत कतार बांधे इन्सान के गर्मागर्म लहू का स्वप्न देखते हुए लार टपका रहे थे। रेडियो कम्पनियाँ बार-बार घोषणा कर रही थीं कि अनाथ हो चुके बच्चों को पालने का प्रस्ताव करने के लिए उनके पास इतने फोन आ रहे हैं कि सारी लाइनें जाम हो गयीं। खाने और पेट्रोल के साथ-साथ पानी की भयंकर कमी हो गयी। डाक्टर एनेस्थेशिया की परवाह किये बगैर अनवरत भाव से घायलों की परवरिश में लगे हुए थे और बार-बार राहतकर्मियों और सरकार से दवाओं और पट्टियों की माँग कर रहे थे। ज्यादातर सड़कें ध्वस्त हो चुकी थीं पर जो बची हुई थीं उन पर सरकारी अमला इस कदर छाया हुआ था कि जरुरी आवाजाही बुरी तरह बाधित हो रही थी। इन सब के ऊपर दलदल में फँसी हुई सड़ रही लाशों के कारण महामारी फैल जाने का अंदेशा प्रबल था।



आसूसेनू टायर के अंदर ठंडी दलदल में फँसी हुई थी पर कम से कम टायर उसको डूबने से बचाने में तो कारगर था। हिलडुल न पाने की मज़बूरी और मानसिक तनाव उसको और अशक्त बना रहा था। पर वह चैतन्य थी और जब भी उसकी ओर माइक्रोफोन किया जाता तो उसका बोलना सुनाई पड़ता था। उसका टोन इतना नरम था जैसे उसको ग्लानि हो रही हो कि उसी की किसी गलती से ये सारा विनाश हुआ हो। रोल्फ़ के इन तीन दिनों में दाढ़ी उगने लगी थी और आँखों के नीचे नींद की कमी से गहरे काले धब्बे दिखाई पड़ने लगे थे। उसको देख कर लगता था जैसे अब बेहोश होकर बेचारा रोल्फ़ गिर पड़ेगा। इतनी दूर रह कर भी मैं पहले के अभियानों की थकान से बिलकुल ही अलग उसकी इस दफे की थकान को देख समझ पा रही थी। जैसे वो भूल ही चुका था कि उसके पास कैमरा भी है। कैमरे के लेंस से उस लड़की को देखने का साहस वो बिलकुल नहीं जुटा पा रहा था। टेलीविजन पर हम अब जो तस्वीरें देख रहे थे वो न तो रोल्फ़ की खींची हुई थीं न ही उसके सहायक थी। वो सभी दूसरे पत्रकारों के भेजे हुए चित्र थे। ताज्जुब है कि रोल्फ़ की तरह ही उन सब को भी उस विभीषिका के प्रतीक के तौर पर आसूसेनू ही दिखाई दे रही थी।



रोल्फ़ ने एक बार फिर से उस मलबे को हटाने की कोशिश की जिसके अंदर वो लड़की दफन होती जा रही थी पर इस वक्त हाथ के सिवा उसके शरीर का कोई और अंग काम नहीं कर पा रहा था और किसी औजार का इस्तेमाल वो इस डर से नहीं कर रहा था जिस से लड़की को और चोट न पहुंचे। फौजियों ने मुश्किल में फंसे लोगों को खाने के लिए मक्के की जो खिचड़ी और केला बाँटा था वो रोल्फ़ ने लड़की को खिला दिया पर ये उस से हजम नहीं हुआ और फ़ौरन उसने उलटी कर दी। मौके पर मौजूद एक डाक्टर ने उसको देख कर बताया कि तेज बुखार है पर उसको देने के लिए कोई दवाई उसके पास नहीं बची थी। एंटीबायोटिक जो थोड़ी बहुत थी भी उसको गैंगरीन के मरीजों के लिए बचा कर रखा गया था। तभी उधर से एक पादरी गुजरा और लड़की के गले में वर्जिन मेरी की माला डाल कर बोला : ईश्वर इसकी रक्षा करेगा। शाम होते-होते आसमान से फुहारें गिरने लगीं।



देखो अब तो आसमान भी रोने लगा। हौले से आसूसेनू बोली। फिर रोने से खुद को भी रोक न पाई।



डरो मत। हिम्मत रखो और चुप हो जाओ मेरी बच्ची। सब कुछ ठीक हो जायेगा। मैं हूँ न तुम्हारे साथ। चाहे जैसे भी हो तुम्हें यहाँ से निकाल कर बाहर ले ही जाऊंगा। रोल्फ़ ने रुआँसा होते हुए उसको दिलासा दिया।  


   

बाकी रिपोर्टर बार-बार लौट कर उसी लड़की के पास आते थे और उस से वही सवाल पूछते थे जिसका जवाब देने में उसकी कोई रूचि नहीं थी। देखते-देखते जाने कहाँ से और कई पत्रकारों की टोलियाँ पूरे तामझाम के साथ आ गयीं। एकबारगी आसूसेनू के चेहरे पर कई कई फ्लैश चमके और दुनिया भर के टेलीविजन स्क्रीन पर उसका चेहरा दिखाई देने लगा। इधर रोल्फ़ था कि सबसे एक अदद पम्प वहाँ भेज देने की गुजारिश करता रहा। मेरे सामने भी पहले से कहीं ज्यादा शार्प तस्वीरें दिखाई देने लगीं। मुझे लगा मेरे और रोल्फ़ के बीच की दूरी जैसे एकदम से सिमट गयी हो। मुझे यह एहसास होने लगा कि रोल्फ़ और आसूसेनू एकदम मेरे इर्द-गिर्द आ कर बैठ गये हैं और महज शीशे की एक दीवार है जो मुझे उन तक पहुँचने नहीं दे रही है। मुझे पल-पल की खबर मिल रही थी। मुझे एकदम से यह भरोसा होने लगा था कि उस लड़की के लिए मेरे प्यार में इतनी ताकत है कि वो न सिर्फ मुश्किलों की अपनी कैद से बाहर निकलेगी बल्कि कष्ट को सहन करने की शक्ति भी मिलेगी। मुझे वो कुछ कुछ सुनाई दे रहा था जो लोग आपस में बात  कर रहे थे, बाकी का मैं कयास लगा लेती थी. आसूसेनू जब रोल्फ़ को प्रार्थना करना सिखा रही थी तो इधर से मैं सब देख रही थी। और वो था कि हजारों रातों में मैंने जो कहानियाँ उसको सुनाई थीं एक-एक कर के वो उस लड़की को सुनाये जा रहा था। बगैर यह देखे कि उसका कोई ध्यान उधर नहीं है।

   

अगले दिन जब अँधियारा घिरने लगा तो रोल्फ़ आसूसेनू को अपनी माँ से सुने आस्ट्रियाई लोक-गीत उसे सुनाने लगा पर जहाँ तक लड़की का सवाल था नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी। भूख, थकान और ठण्ड के मारे वे दोनों लगभग पूरी रात कुछ कुछ बतियाते ही रहे। उस रात धीरे-धीरे करके रोल्फ़ के अतीत की तमाम स्मृतियाँ बरसों बरस की कैद भुगतने के बाद अचानक खुलने लगीं। मन की अतल गहराई में जतन से दबा कर रखी हुई स्मृतियों की स्वच्छंद आवाजाही पर जैसे रोल्फ़ का अख्तियार बिलकुल रहा ही नहीं। आसूसेनू को उसने अपनी विवशता के बारे में नहीं बताया। उस बेचारी के लिए इस सैलाब और समय से आगे या पीछे देखने या कल्पना करने का कोई मतलब था ही नहीं। फिर वो भला कैसे समझ पाती कि युद्ध के दिनों में यूरोप कैसा था। उसको तो पराजित देशों या फिर रूसियों के यातना कैम्पों में भूख से तड़प तड़प कर मर रहे लोगों की  सामूहिक कब्रों के बारे में बताना भी बेकार था। वो बेचारी खुद मौत से जूझ रही बच्ची कैसे समझ पायेगी कि कैम्पों में लावारिस पड़ी नंगी लाशों का ढेर दूर से ऐसा दिखाई देता था जैसे चीनी मिट्टी के टूटे बर्तनों का ढूह हो। रोल्फ़ भला इसको कैसे समझाए जान लेने वाली भट्टियाँ और फाँसी देने वाले तख्ते कैसे होते हैं। उसको वो भयानक काली रात एकदम से याद आ गयी जब उसने अपनी माँ को एंडीदार लाल जूतियाँ पहने और कोने में पड़े-पड़े अपमान और शर्म से सुबगते हुए निर्वस्त्र देखा था। उस क्षण कुछ भी बोलने की उसकी हालत नहीं थी पर फिल्म की रील की तरह सारी घटनाएँ उसके सामने खुलती चली गयीं जबकि सालों साल से वो स्मृति से उनको मिटाने की बड़ी कोशिशें करता रहा था। आसूसेनू ने अपने सारे डर उसके हवाले कर दिए थे पर उसको क्या पता कि इस प्रक्रिया में रोल्फ़ के अन्दर सोये पड़े डर एकदम से जाग उठे थे।



दलदल के इस समुन्दर से रोल्फ़ के लिए जैसे अपने शरीर को निकालना नामुमकिन था उसी तरह से अब उसके मन से उन दुःस्वप्नों को बाहर निकालना संभव नहीं था। बल्कि जिस भावनात्मक आतंक के साए तले उसका बचपन बीता था वो ज्यादा विकराल रूप में अब उसके सामने मुँह बाये खड़ा दिखाई दे रहा था। वो खुद उस उम्र में पहुँच गया जिसमें आज आसूसेनू थी। और उसी की तरह खुद को एक ऐसे गड्ढे में गिरा हुआ पाया जिस से निकलने का कोई रास्ता नहीं था। दलदल के विशाल ढेर में डूबता उतराता हुआ। सिर कभी कभार ऊपर निकल आता। बार-बार उसके सामने बूट पहने हुए आक्रामक पिता की छवि आ खड़ी होती जिसमें वो अपना चमड़े का मोटा सा बेल्ट निकाल कर हवा में लहराते हुए पटकते। बेल्ट से निकलती हुई ध्वनि बिलकुल आक्रमण करने को तैयार किसी विशालकाय सांप के फुंफकारने जैसी सुनाई देती जिसको भुला पाना संभव नहीं था। गहरी पीड़ा उसको घेरती चली गयी जैसे काफी समय से वो अंदर दुबकी बैठी थी और आक्रमण करने का सुयोग्य अवसर ढूंढ़ रही थी। इतने दिनों बाद एक बार फिर से वो उस संकरी सी अँधेरी आलमारी के अंदर पहुँच गया जहाँ उसके पिता ने सुनी-सुनाई मनगढ़ंत शिकायतों का बहाना बनाकर सजा के तौर पर बन्द कर रखा था। उसने कस कर अपनी आँखें बंद कर लीं जिससे अँधेरा दिखाई न दे, अपनी दोनों हथेलियों से कान कस कर ढँक लिए जिससे कुछ भी यहाँ तक कि अपने दिल की धड़कन तक भी सुनाई न दे। जाने कितने घंटों तक वो वहाँ वैसे ही निकृष्ट जंतुओं जैसे बंद हो कर थर-थर कांपता रहा। अपनी स्मृतियों की भटकन में ही उसको बहन कैथरीना मिल गयी। बेहद खूबसूरत प्यारी पर अवसादग्रस्त बच्ची जो सारी जिन्दगी इस उम्मीद में पिता से बचती छिपती रही कि एक दिन ऐसा जरुर आयेगा जब वे भूल जायेंगे कि लड़की के जन्म होने से समाज में उनकी तौहीनी हुई है। उसको एकदम से याद आ गया कि घंटों वे दोनों भाई बहन एक-दूसरे से चिपके हुए टेबुल के नीचे लम्बी मेजपोश की आड़ लेकर छुपे रहते। बस उनके कान लगे रहते तो क़दमों की आहटों और कमरे से आती हुई आवाजों पर। इस अजीबोगरीब लुकाछिपी में कैथरीना की लुभावनी सेंट अक्सर उसके पसीने की गंध के साथ मिल जाती। फिर किचेन से आती हुई लहसुन, सब्जी की तरी, ताज़ा सिंकती रोटियों और आस-पास पानी जमने से बास देती हुई कीचड़ की गंध भी उसमें शामिल हो जातीं। छोटी बहन का हाथ उसके हाथ में और उसकी दहशत के मारे उखड़ी-उखड़ी सांसें, सिल्क जैसे चिकने उसके बालों की छुअन रोल्फ़ अपने गालों पर महसूस कर रहा था... कैथरीना... कैथरीना। उन क्षणों में कैथरीना वहाँ साक्षात् उपस्थित हो गयी। ...हवा में किसी परचम जैसा लहराती हुई। सफ़ेद मेजपोश से लिपटी हुई। दुपट्टे सा उड़ती हुई। और यह सब आँखों के सामने घटता देख वो फूट-फूट कर रो पड़ा। उसकी मौत पर और उस से भी ज्यादा इस अपराध बोध से दब कर कि कैथरीना को उसने उसके हाल पर मरने के लिए छोड़ दिया था। उसको बड़ी शिद्दत से महसूस हुआ कि अब तक की उसकी तमाम शोहरत और उपलब्धियों के पीछे मन से उस आदिम डर को परे रखने की ही कोशिश और जुगाड़बाजी थी। एक बार लेंस के पीछे आँखें गड़ा लो तो सामने खड़ी सच्चाई थोड़ी कम भयावह और क्रूर दिखाई देने लगती है।



अपने काम के सिलसिले में वो ज्यादा से ज्यादा जोखिम उठाता। दिन में साहस का मुखौटा लगाये हुए रात तक अपने को इतना तैयार कर लेता था कि अँधेरे में उसको जिन्दा निगलने को आतुर दैत्य पर जैसे तैसे काबू किया जा सके। पर यहाँ तो निर्मम सच उसके सामने मुँह बाये खड़ा हो गया है। अब अतीत की स्मृतियों से भला वो कैसे भागे? असलियत ये थी की वो स्वयं आसूसेनू बन गया था। गहरे दलदल के सैलाब में डूबता उतराता हुआ... और उसका भय कहीं दूर बचपन में छुप कर बैठा हुआ भय नहीं था बल्कि इस समय गले में अटका हुआ उसको लगभग घोंटता हुआ लोथड़ा था। धारासार बहते आंसुओं के बीच काला परिधान पहने उसकी माँ की छवि उभरी, ...घड़ियाल के नकली चमड़े की जिल्द वाली कापी सीने में भींचे हुए। उसने आखिरी बार माँ को इसी तरह देखा था जब वो उसको बंदरगाह पर साऊथ अमेरिका जाने वाले जहाज पर हमेशा-हमेशा के लिए छोड़ कर जाने के लिए आयी हुई थी। विडंबना ये कि माँ उसके आंसू पोंछने नहीं आयी थी बल्कि ये कहने आयी थी कि अब फावड़ा उठाने का समय है। युद्ध तभी ख़तम हुआ था और अब मृतकों को दफ़नाने की बारी थी।



तुम इस तरह रोने क्यों लगे। मैंने तुम्हारा दिल तो नहीं दुखाया। देखो, मैं भी अब ठीक हूँ। भोर होने लगी तो आसूसेनू ने कहा।


मैं तुम्हारे लिए नहीं रो रहा हूँ मेरी बच्ची। खुद पर रोना आ रहा है। जाने किस-किस को दुःख दिए। मुस्कुरा कर रोल्फ़ बोला। 



इस विनाशकारी मंजर का तीसरा दिन काले बादलों के बीच से किरणों के छन कर बाहर आने से शुरू हुआ। देश के राष्ट्रपति ने महंगे सफारी सूट में घटनास्थल का दौरा किया सिर्फ यह घोषणा करने के लिए कि इस सदी की यह सबसे बड़ी त्रासदी है और सारा मुल्क मातम में डूबा हुआ है। मित्र देशों ने मदद का प्रस्ताव किया है, देश के अन्दर आपातकाल घोषित कर के सेनाओं को हुड़दंगियों से सख्ती से निबटने का आदेश दे दिया गया है, मौके का फायदा उठाने कि कोशिश करने वालों को देखते ही गोली मार देने का आदेश दिया गया है इत्यादि इत्यादि। आगे उन्होंने पते की बात कही कि सभी लाशों की गिनती करना या मौके से तुरन्त हटा देना इन गंभीर हालातों में संभव नहीं होगा सो पूरी घाटी को ही पवित्र स्थल घोषित किया जा रहा है और राजधानी से पादरियों का एक जत्था भेजा जा रहा है जो सामूहिक तौर पर सभी मृतकों को दफ़नाने की कारवाई पूरी करेगा। इसके बाद राष्ट्रपति ने पीड़ितों के लिए तमाम घोषणाएँ कीं और अंत में अस्थायी तौर पर बनाये गये अस्पताल में जा कर डाक्टरों और नर्सों की पीठ थपथपाई।



इसके बाद उन्होंने दुनिया भर में तब तक मशहूर हो चुकी आसूसेनू से मिलने की इच्छा जाहिर की। एक उम्रदराज राजनेता के कांपते हाथ उस लड़की को देख कर हिले और माइक्रोफोन पर उनका यह सन्देश सुनाई दिया कि देश की जनता के लिए तुम्हारी हिम्मत और बहादुरी एक आदर्श मिसाल बनेगी। तभी रोल्फ़ ने बीच में घुस कर फ़ौरन एक पम्प की मांग सामने रख दी। राष्ट्रपति ने वापस जा कर फ़ौरन इसका इंतजाम करने का वायदा किया और चले गये। इसी समय काफी देर बाद मैंने रोल्फ़ की शक्ल पल भर को देखी, वो कीचड़ से भरे गड्ढे के अंदर झुका हुआ था। शाम को समाचार के वक्त भी वो उसी मुद्रा में दिखा। मैं टेलीविजन स्क्रीन से चिपकी हुई थी और मुझे उस समय एकदम से ऐसा महसूस हुआ कि रोल्फ़ में अचानक कोई बुनियादी तबदीली आ गयी है, अब वो पहले जैसा नहीं दिख रहा था। लगता है बीती रात उसके बचाव के तमाम ढाल ध्वस्त हो गये और उसको दुःख पूरी तरह से घेरते जा रहे हैं। इतने लम्बे साथ के बाद अब मैं देख पा रही थी कि वो कितना असहाय और निरुपाय हो गया है। उस लड़की ने उसके अंदर का वो कोना छू दिया जिसकी वो खुद भी सालों साल से जतनपूर्वक हिफाजत करता आया था। दरअसल उसकी पहुँच भी उस कोने तक कहाँ थी, मेरे साथ साझा करना तो बहुत दूर, रोल्फ़ आसूसेनू को दिलासा देने पहुंचा था पर हुआ बिलकुल उल्टा। वो बच्ची उसके लिए दिलासा बन गयी।



और किसी ने शायद न देखा हो पर मुझे फ़ौरन महसूस हो गया कि अब इस पल रोल्फ़ ने जिन्दगी के लिए अपना सारा संघर्ष छोड़ दिया। उसके पास अब उस बच्ची को मौत के मुँह में समाते चले जाने को देखते रहने के सिवा कोई चारा नहीं बचा था। मैं उन दोनों के आसपास लगातार बनी रही। तीन दिन दो रातें...। जीवन के दूसरे छोर पर बैठी हुई उन की जानकारी के बगैर उनकी पल-पल की जासूसी करती रही। मैंने वो दृश्य भी देखा जब उस लड़की ने रोल्फ़ को भरोसे में लेते हुए बताया कि तेरह साल के उसके जीवन में किसी लड़के ने उसको प्यार नहीं किया और प्यार की अनुभूति के बिना दुनिया से सदा के लिए चले जाना कितना दुर्भाग्यपूर्ण है। रोल्फ़ ने उसको दिलासा दिया कि दुनिया में किसी और के मुकाबले वो उसको ज्यादा प्यार करता है। यहाँ तक कि अपनी माँ से, बहन से भी ज्यादा... उन तमाम औरतों से भी ज्यादा जिनको अपनी बाँहों में ले कर कभी न कभी वो सोया है। मुझसे, अपनी जीवन संगिनी से भी ज्यादा प्यार... और संभव होता तो उस लड़की की जगह वो खुद दलदल की कब्रगाह को गले लगा लेता। मैंने देखा इसके बाद रोल्फ़ ने झुक कर उस बेचारी बच्ची का माथा हौले से चूम लिया। उस पल उसके चेहरे पर कोमलता के साथ साथ गहरी उदासी के ऐसे अनदेखे भाव साफ उभर आये जिनको कोई नाम देना संभव नहीं था। मुझे लगा यही पल है जब दोनों के दोनों एकबारगी हताशा से उबर गये, उनके लिए दलदल के सैलाब का अस्तित्व ख़तम हो गया और गिद्धों और हेलीकाप्टरों को पीछे छोड़ते हुए ऊँची किसी अन्य दुनिया में सरक गये। अब उनके लिए भ्रष्टाचार लूट-खसोट और शिकवों के मायने क्या रह गये। इतनी लम्बी जद्दोजहद के बाद अंत में अब ऐसी घड़ी आ पहुंची जहाँ उन्होंने मौत को उसके असली स्वरुप के साथ स्वीकार कर लिया। रोल्फ़ सम्पूर्ण ख़ामोशी के साथ आसूसेनू की अविलम्ब मृत्यु के लिए प्रार्थना करता रहा। ऐसा न होने पर सब कुछ बर्दाश्त बाहर हो जाता।



तब तक किसी तरह मैंने एक पम्प का जुगाड़ कर लिया और एक जनरल को कह के अगली सुबह की पहली फ्लाईट से उसको घटना स्थल पर भेजने का प्रबंध करने लगी। पर तीसरी रात ही ढेर सारे तेज चमक वाले लैम्पों की चुंधिया देने वाली रौशनी तले आसूसेन जिंदगी की जंग आखिरकार हार गयी। अन्तिम साँस तक उसकी आँखें उस दोस्त पर ही टिकी रहीं जिसने उसका अन्तिम पल तक साथ निभाया। रोल्फ़ ने उसको टिकाये रखने वाली लकड़ी की तख्ती धीरे से खींच दी, उसकी पुतलियों को सावधानी से बंद किया, कुछ पलों तक उसको सीने से लगा कर रखा फिर उसको दलदल के हवाले कर दिया। आहिस्ता-आहिस्ता वो उसमें डूबती चली गयी। कीचड़ में तैरता हुआ एक फूल।


रोल्फ़, तुम मेरे पास लौट जरुर आए पर अब वो नहीं बिलकुल नहीं रहे जो इस घटना से पहले  हुआ करते थे। मैं अक्सर तुम्हारे साथ तुम्हारे स्टूडियो में जाती हूँ। हम साथ-साथ आसूसेनू की वीडियो भी देखते हैं पर तुम्हारी खोजी नजर उनके बीच अब भी ऐसा कोई विवरण ढूंढती रहती है, जिससे उस मौके पर गलती सुधार कर कुछ बेहतर किये जा सकने का सूत्र मिलता। अब तुम्हारे वो प्रिय कैमरे बगैर देखभाल के कहीं कोने अंतरे में पड़े रहते हैं। तुम अब न तो कुछ लिखते हो। पहले की तरह कुछ गुनगुनाते भी नहीं। खिड़की से टिक कर घंटों सूनी आँखों से आसमान और पर्वत की ओर ताकते रहते हो। तुमसे सट कर बैठी हुई मैं उस पल का बेसब्री से इन्तजार कर रही  हूँ जब अपने अंदर की यह दुर्गम यात्रा तुम पूरी कर लोगे। शायद उसके बाद पुराने घाव सूख सकें। मुझे पक्का भरोसा है जब भी तुम अपने इस दुःस्वप्न से उबर जाओगे। हम दोनों फिर से हाथ में हाथ डाल कर सैर को निकलेंगे। बिलकुल वैसे ही जैसे हम पहले किया करते थे।             


यादवेन्द्र

प्रस्तुति:  

यादवेन्द्र
72, आदित्य नगर कॉलोनी

मोबाइल : 9411100294



टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (27-08-2019) को "मिशन मंगल" (चर्चा अंक- 3440) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
  2. अंतरमन की हलचलों को दर्शाती एक मार्मिक कहानी। अनुवाद के लिए यादवेंद्र जी का आभार।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं