विमल कुमार से महेश चन्द्र पुनेठा की बातचीत
साहित्य की भूमिका और साहित्यकार
के दायित्व के सवाल को ले कर दुनिया का हर रचनाकार कभी न कभी खुद से बावस्ता होता
है। रचनाकारों ने इस सवाल पर अपने विचार भी खुले तौर पर व्यक्त किए हैं। बावजूद इसके
यह सवाल आज भी मौजू है। इसी सवाल को ले कर युवा कवि और ‘शैक्षिक दखल’ जैसी
महत्वपूर्ण पत्रिका के सम्पादक महेश पुनेठा ने वरिष्ठ कवि विमल कुमार से एक लम्बी
बातचीत की है। आज पहली बार प्रस्तुत है यह बातचीत।
वरिष्ठ कवि विमल कुमार से शैक्षिक दखल के सम्पादक महेश चन्द्र पुनेठा
की बातचीत
विमल कुमार हिन्दी के जितने अच्छे कवि हैं, उतने ही अच्छे व्यंग्यकार और पत्रकार भी। इसके
अलावा समय-समय कहानियाँ और उपन्यास भी लिखते रहे हैं। एक पत्रकार के रूप में विमल कुमार ने हमेशा जन-मुद्दों
को उठाने का काम किया। पिछले 32 वर्षों से पत्रकारिता में हैं। बेवाक और ईमानदार
व्यक्ति हैं। जोड़-जुगुत से हमेशा दूर रहने वाले, इसलिए दिल्ली में रहते हुए भी उनके परिचय में बहुत अधिक पुरस्कार या
सम्मान दर्ज नहीं हैं। कविता की वापसी के दौर के महत्वपूर्ण कवि माने जाते हैं।
जनपक्षधरता इनके लेखन की विशेषता रही है। पिछले तीन दशकों से कविता में अपनी
सक्रियता को बनाए हुए हैं। अब तक तीन कविता संग्रह- ‘सपने में एक औरत से बातचीत’, ‘यह मुखौटा किसका है’, और ‘पानी का दुखड़ा’, एक कहानी संग्रह – ‘कार्लगर्ल’ और एक उपन्यास- ‘चाँद/आसमान.कॉम’
प्रकाशित। ‘चोर पुराण’ उनकी बहुत चर्चित कृति है। राजनीति, समाज और संस्कृति के सवालों पर सत्ता, समाज और बाजार लेख संग्रह। भारत भूषण अग्रवाल
पुरस्कार, प्रकाश जैन स्मृति पुरस्कार, बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान, शरद बिल्लौरे सम्मान आदि से सम्मानित।
महेश चन्द्र पुनेठा - विमल जी, सर्वप्रथम अपने जीवन और लेखन के
बारे में कुछ बताइए। आपके लेखन की शुरूआत किस विधा से हुई और कैसे?
विमल कुमार - मैं पटना में मिलर हाईस्कूल में पढता था। पाठ्यक्रम में
निराला, पन्त, प्रसाद शिव पूजन सहाय राहुल जी आदि को पढ़ने से साहित्य में दिलचस्पी
पैदा हुई। उन्हीं दिनों प्रकाश पंडित द्वारा सम्पादित पुस्तकों में उर्दू के सभी
शायरों की शायरी पढ़ी जिसने मुझे आकृष्ट
किया। इसके अलावा डॉ. कुमार विमल की पुस्तक ‘छायावाद
का सौन्दर्यशास्त्रीय अध्ययन’ नामक
पुस्तक ने मुझे निराला, पन्त, प्रसाद, महादेवी की कविताओं में मेंरी विशेष दिलचस्पी
जगाई। घर में पड़ी अंग्रेजी साहित्य के इतिहास की एक पुस्तक ने भी साहित्य के प्रति
ललक पैदा की। तब अंग्रेजी के रोमांटिक कवि
मुझे इतने भा गए कि मैं ब्रिटिश लाइब्रेरी जा कर शेली, बायरन, कीट्स की जीवनियाँ पढ़ता था और उनकी तस्वीरों को फ्रेम
करा कर घर में रखा था। मेंरे पिता एक क्लर्क थे। वे मुझे आई. ए. एस. बनाना चाहते
थे इसलिए वे मुझे साहित्य से दूर रहने की सलाह देते थे। लेकिन मेंरा मन साहित्य की किताब में लगता था। पन्त की जीवनी
ने मुझे आकृष्ट किया। उसे शांता जोशी ने लिखा था, जो पन्त की भगिनी थीं शायद। पन्त उनके साथ रहते भी थे। मैं पहले
स्कूल में जहर के नाम से शायरी करता था। जय प्रकाश नारायण पर एक कविता लिख कर
पोस्ट कर दिया। कुछ दिन में उनका जवाब भी आ गया। उन्होंने मेंरी तारीफ की। इससे मेंरा
प्रोत्साहन हुआ। यह घटना मैं कभी नहीं भूलता। उनका वह पत्र पटना में बाढ़ में डूब
गया। डॉ. विमल प्रसाद ने जिन्होंने जय प्रकाश जी की सम्पूर्ण रचनावली का सम्पादन
किया है। एक बार मुझसे वह पत्र माँगा। वह उनकी जीवनी लिखना चाह रहे थे, लेकिन बाढ़ में बह जाने के कारण नहीं दे सका।
पटना से प्रकाशित ‘पहुँच’, ‘मुक्त कंठ’ जैसी पत्रिकाओं में मेंरी आरंभिक कविताएँ
छपी थीं।
महेश चन्द्र पुनेठा - आपका
कविता-आलोचना और पत्रकारिता, तीनों क्षेत्रों में बराबर हस्तक्षेप है। लेकिन आपका मन
सबसे अधिक किस विधा में रमता है और क्यों?
विमल कुमार - आज भी मेंरा दिल कविता में ही लगता है। पत्रकारिता में 32
साल से जरुर हूँ लेकिन वह मेंरे लिए सिर्फ नौकरी है। मैं खुद को पत्रकार कहता भी
नहीं। इतने सालों से सत्ता के गलियारे में भारतीय राजनीति और राजनीतिज्ञों को
देखा। मेंरा मोह-भंग हो गया बहुत पहले ही। अब तो पत्रकारिता में भी बहुत
बदलाव आया। उसमें बहुत बंदिशें भी हैं। भाषा प्रस्तुति से ले कर
विषय तक में भी। राजनीति की तरह पत्रकारिता
में बहुत गिरावट भी आयी है। वह एक कारोबार बन गया है। उसका मूल मकसद विज्ञापन
बटोरना है। वह कोई चौथा स्तम्भ नहीं है फिर भी जब-तब वह सत्ता को एक्सपोज करता है
लेकिन एक सीमा तक। पत्रकारिता का इस्तेमाल उसका मालिक नेता पूँजीपति और कई बार
पत्रकार भी करता है। लेखन में एक आजादी है। आप किसी कहानी में लिख सकते हैं कि
राजा या मंत्री या न्यायाधीश, चोर
है लम्पट है लेकिन पत्रकारिता में यह लिखना मुश्किल है, वहाँ सबूत चाहिए या किसी के हवाले से आप खबर
लिखेंगे। पत्रकारिता पर बाजार का दवाब है। स्पेस का दवाब। समय का दवाब। इसलिए
कविता में अधिक मन लगता है लेकिन कहानियाँ भी लिखीं, व्यंग्य भी और उपन्यास भी
लिखा है। अखबारों में लेख भी लिखे लेकिन
अपने लेखन से सन्तुष्ट नहीं हूँ। समय का इतना अभाव रहता है कि लिख नहीं पाता हूँ।
महेश चन्द्र पुनेठा - आपकी नजर में
वह कौन-सी बात है जो किसी लिखे को साहित्य का दर्जा प्रदान करती है? आजकल जो लिखा जा रहा है उसमें से
कितना आपको इस कोटि में लगता है?
विमल कुमार - जो कुछ भी पढ़ने को मिलता है छपता है वह सब साहित्य नहीं
है। साहित्य में एक ईमानदारी पहले अपने प्रति और फिर समाज के प्रति होनी चाहिए। वह
न्याय के पक्ष में हो संवेदना के साथ हो ताकत के खिलाफ हो, वर्चस्व के खिलाफ हो। उसमें दुःख-सुख हो मगर
उसमें प्रदर्शनवाद न हो। उसमें आक्रोश और बेचैनी हो लेकिन अहंकार न हो। किताब छप
जाने से, पुरस्कार मिलने से आदमी लेखक
नहीं होता है।
महेश चन्द्र पुनेठा - एक साहित्यकार
जो रचता है, यदि वह उसे अपने जीवन में उतारता नहीं है तो क्या यह अपने लिखे के
प्रति ही बेईमानी नहीं है? रचने से पहले जीना जरूरी नहीं है क्या? एक साहित्यकार अपने जीवन में तमाम
बुराइयों से ग्रस्त है, लेकिन साहित्य में बड़ी-बड़ी बातें करता है ऐसे में उसके
साहित्य की क्या सार्थकता रह जाती है?
विमल कुमार - आदर्श स्थिति तो यह है कि लेखक जो लिखता है, उसे जी कर दिखाए लेकिन उसके लिए उसे बहुत कष्ट
उठाना पड़ेगा। संघर्ष करना पड़ेगा। लेखक भी
मनुष्य है, उसे जीना होता है। उसके भीतर भी
लालच-क्रोध-कामना-वासना है। यह मनुष्यगत कमजोरियां हैं लेकिन उसको अपनी कमजोरियों
को भी स्वीकारना चाहिए। एक कॉन्फेशन भी होना चाहिए। उसे सहज सरल होना चाहिए, बनावटी नहीं होना चाहिए। पाखण्ड को स्वीकारना
चाहिए। लेखक को अगर जीवन की कसौटी पर कसने लगे तो बड़ा से बडा लेखक बौना दिखेगा।
इसलिए लेखक को उसकी रचनाओं के आधार पर आंका जाना चाहिए अन्यथा गलत निष्कर्ष
निकलेंगे। किसी का जीवन किसी की नजर में सही किसी की नजर में गलत, हम लेखक के जीवन को भी कहाँ जान पाते हैं। यह अन्तर्विरोध
तो रहता है। इसके तमाम उदाहरण साहित्य में हैं। तोलस्ताय और प्रेमचंद तक लेकिन
हमें उसकी रचना को ही आधार बनाना चाहिए। लोग तो गाँधी के जीवन में भी खोट देख लेते
हैं, लेकिन उनका सन्देश ही हमारे लिए महत्वपूर्ण
है। साहित्य की साथर्कता अपने समय और समाज के अन्तर्विरोधों की पड़ताल करने की
दृष्टि में निहित है। दरअसल साहित्य पाँचवाँ स्तम्भ है। वह सारे स्तम्भों का
क्रिटिक भी है। वह खुद को भी कठघरे में खड़ा करता है।
महेश चन्द्र पुनेठा - हिन्दी साहित्य
जनता के कुछ लोगों का मानना है कि हिन्दी में अभी आलोचना विकसित हुई ही नहीं।
आलोचना के नाम पर जो विकसित हुआ है वह साहित्य का इतिहास है। राम विलास शर्मा का
महत्व भी आलोचना से ज्यादा साहित्य के इतिहास लेखक के रूप में है। आलोचना का सार-तत्व
अभी विकसित नहीं हो पाया है। इस पर आपका क्या कहना है?
विमल कुमार - आलोचना के कुछ मूल्य तो शुक्ल जी ने भी बनाये, नन्द दुलारे वाजपेयी, हजारी प्रसाद द्विवेदी, मुक्तिबोध और राम विलास शर्मा तथा नामवर सिंह
ने भी। लेकिन हिन्दी आलोचना कविता, कहानी
की तरह उतनी विकसित नहीं हुई। शुक्ल जी और हजारी प्रसाद जी ने भक्ति आन्दोलन के
कवियों की विशेषताएँ बताईं। नन्दुलारे वाजपेयी ने छायावाद का विश्लेषण तो किया राम
विलास जी ने निराला प्रेमचंद-भारतेंदु और महावीर प्रसाद द्विवेदी के बहाने नवजागरण
का मूल्यांकन तो किया ही, नामवर जी ने भी छायावाद, कहानी और कविताओं की आलोचना की लेकिन हिन्दी
में मुक्तिबोध की तरह ईमानदार आलोचक कम हुए। द्विवेदी जी की ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’ और मुक्तिबोध की ‘कामायनी एक पुनर्मूल्यांकन’ साही जी की ‘जायसी’ पर लिखी पुस्तक जैसी
कृतियाँ कम हैं। हिन्दी में सैद्धांतिक आलोचना अधिक है, कृति की आलोचना कम है। समकालीन आलोचना विकसित
कम है फिर भी जब तब विश्वनाथ प्रसाद त्रिपाठी, नित्या
नन्द तिवारी, आनन्द प्रकाश, नन्द किशोर नवल, खगेन्द्र ठाकुर, अशोक वाजपेयी, वीर
भारत तलवार, सुधीश पचौरी, पुरुषोत्तम अग्रवाल, कर्ण सिंह
चौहान आदि के लिखे में मेंरी दिलचस्पी रहती है। उसके बाद विजय कुमार, असद जैदी, मनमोहन, कर्मेंदु शिशिर, वैभव सिंह, आशीष त्रिपाठी और रोहिणी अग्रवाल में भी मेंरी
दिलचस्पी है।
महेश चन्द्र पुनेठा - हिन्दी आलोचना
ने भारतीय आलोचना-परम्परा को कितना आत्मसात किया है? क्या हम पाश्चात्य आलोचना परम्परा
से अलग अपनी कोई आलोचना-परम्परा विकसित कर पाने में सफल हो पाए हैं? यह आलोचना कितनी जनोन्मुखी है?
विमल कुमार - भारतीय आलोचना परम्परा को हमने कम आत्मसात किया है।
पश्चिम अधिक हावी है लेकिन यह मेंरा विषय नहीं इसलिए इस पर दावे के साथ नहीं
बोल सकता हूँ। यह मेंरे ज्ञान की सीमा है
लेकिन संस्कृत काव्य-शास्त्र की तरह हम हिन्दी में कोई काव्य-शास्त्र विकसित नहीं
कर पाए। मम्मट, अभिनवगुप्त की आधुनिक परम्परा विकसित नहीं हुई। हिन्दी आलोचना के
औजार भी पश्चिम के हैं। किताबों में क्रोचे, इलियट, रिचर्ड्स, रिमांड
विलियम्स, राल फाक्स, क्रिस्टोफर
काडवेल आदि के उद्धरण पढ़ता रहता हूँ। मुझे लगता है आलोचक को अपनी बात कहनी चाहिए।
महेश चन्द्र पुनेठा - हिन्दी साहित्य
में आज वरिष्ठ पीढ़ी के बहुत कम रचनाकार
ऐसे होंगे जो मौजूदा आलोचना की स्थिति से सन्तुष्ट हों ,जिससे भी पूछो वह आलोचना-कर्म पर
पक्षपात का आरोप लगाता है। आप इस स्थिति के लिए आलोचकों के जिम्मेदार मानते हैं या
यह रचनाकारों का स्वयं को जरूरत से ज्यादा ऑंकना है? या फिर वास्तव में हिन्दी आलोचना गुटबन्दी, हदबन्दी, चकबन्दी और व्यक्तिगत आग्रहों-पूर्वाग्रहों
से ग्रस्त है?
विमल कुमार - लेखकों का काम लिखना है। उसे आलोचकों की परवाह नहीं
करनी चाहिए। हम इसलिए थोड़े लिख रहे कि आलोचक पढ़े, उसका मूल्यांकन करे। लेखक के लिए
पाठक अधिक महत्वपूर्ण है। हमारा अधिकांश लेखन आलोचनक केन्द्रित है। कई रचनाकार भी खुद को श्रेष्ठ
समझते हैं। दरअसल उन्हें हिन्दी साहित्य की परम्परा का ज्ञान नहीं है। हिन्दी में
एक से एक बढ़िया कविता और कहानियाँ लिखी जा चुकी हैं। हिन्दी में आग्रह पूर्वाग्रह
काफी है। आलोचक को तो पहले अपने आग्रहों से मुक्त होना चाहिए।
महेश चन्द्र पुनेठा - क्या आपको नहीं
लगता है कि आज की आलोचना कुछ शहरों और महानगरों के मध्यवर्गीय मानसिकता वाले
कवि-लेखकों तक केन्द्रित हो कर रह गयी है। लोक तथा जनपदों की घोर उपेक्षा हो रही
है, जबकि साहित्य की पूरी परम्परा के केन्द्र
में हमेशा लोक ही रहा है। लेकिन आज लोक को पलायनवादियों की आरामगाह कहा जा रहा है।
इस पर आपका क्या कहना है?
विमल कुमार - अच्छी आलोचना हो कहाँ रही है इसलिए किसी पर केन्द्रित
होने का सवाल नहीं। फुटकर लेख और पुस्तक समीक्षाएँ आलोचना नहीं है। जहाँ तक लोक का
सवाल है , वह खुद खतरे में है। नयी आर्थिक नीति और भूमण्डलीकरण
तथा सूचना-प्रोद्योगिकी के दौर में लोक भी अब वह लोक नहीं रहा। लोक का स्वरुप बदल
रहा। क्या रेणु का ‘मैला आँचल’ या शिव पूजन सहाय की देहाती दुनिया का वही लोक है
आज गाँव में है। भारतीय राजनीति का लोक पर भी प्रभाव है। लोक भी स्थिर और पवित्र
चीज नहीं लेकिन लोक की चिन्ता की जानी चाहिए। आज बाजार से लोक और नागर दोनों
परेशान है। आलोचना तो नहीं केवल अखबारी या पत्र-पत्रिकाओं में चर्चा होती है पर यह
पानी का बबूला है। कुछ देर में शान्त हो
जाता है और यह हर दौर में होता है। शहर या
महानगर की बजाय सत्ता केन्द्रित आलोचना कहना ठीक होगा। वैसे साहित्य में
सत्ता विमर्श भी हर दौर में रहा है।
साहित्य का काम हर तरह की सत्ता का विरोध करना है।
महेश चन्द्र पुनेठा - कुछ लेखक आलोचक
लोक को बड़े संकुचित अर्थों में लेते हैं। उनके लिए लोक का मतलब दूरस्थ गॉव में
रहने वाले लोगों के मेंले-खेले, नाच-गान, तीज-त्योहार, वनस्पति, बोली-बानी मात्र रह गया है। इन सब को रचना में ले आना
उनके लिए लोकधर्मी होना है। लोक के नाम पर वे उसकी कमजोरियों, अंधविश्वासों और रूढ़ियों को भी
महिमामंडित करने लग जाते हैं। इस प्रवृत्ति पर आपका क्या कहना है?
विमल कुमार - आपका कहना सही है। लोक के नाम पर अवैज्ञानिकता सही नहीं
है। लोक के भी अन्तर्विरोध हैं, सत्ता
विमर्श हैं, अन्याय है, दमन
है, सुख-दुःख हैं, लोक केवल अलंकरण नहीं है। वह साहित्य का पर्यटन-स्थल नहीं है।
महेश चन्द्र पुनेठा - कुछ रचनाकार ’अनुभूतियों के प्रति ईमानदारी’ के
नाम पर साहित्य में मध्यवर्गीय व्यक्तिमानस के अकेलेपन, छटपटाहट, ऊब, उदासी, विक्षोभ तथा अनास्था को ही आकर्षक शैली
में प्रस्तुत करते हैं। यह बात सही है लेकिन ऐसा करने वाले रचनाकारों का कहना रहता
है कि जब आज के दौर का सामाजिक यथार्थ यही है। समाज में चारों ओर यही व्याप्त है
तो फिर साहित्य में इससे परहेज क्यों? साहित्यकार तो वही दिखाता है, जो समाज में घटित हो रहा है। इसमें
गलत क्या है? फिर सच्चे आधुनिक-बोध और श्रेष्ठ कला के नाम पर बड़े-बड़े आलोचक भी ऐसी
कृतियों और रचनाकारों को ही श्रेष्ठ घोषित कर रहे है। इस पर आपकी क्या टिप्पणी है?
विमल कुमार - हर लेखक अपने तरीके से लिखता है। उसे निर्देश नहीं दिया जा सकता। उसका अनुभव अलग है। देखा यह
जाना चाहिए कि वह न्याय के साथ है या नहीं। अपने समय की गहरी पड़ताल की है या नहीं।
अन्तर्विरोधों की पहचान है या नहीं। कितनी ईमानदारी उसके लेखन में है। उसका लेखन बनावटी तो नहीं। पाखण्ड
तो नहीं है उसमें। हर लेखक आशावादी हो कोई जरुरी नहीं, वह निराशा में भी सुन्दर काव्य देता है। इसके
कई उदाहरण हैं।
महेश चन्द्र पुनेठा - क्या आपको नहीं
लगता है कि साहित्य के नाम पर मध्यवर्गीय संत्रास, कुंठा, निराशा, एकाकीपन और ऊब को प्रस्तुत
करने के लिए रचनाकारों की अपेक्षा महानगरीय और सेठाश्रयी पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक
तथा आधुनिकतावादी आलोचक अधिक जिम्मेदार हैं जो ऐसी रचनाओं को प्रकाशित एवं
प्रोत्साहित करते हैं?
विमल कुमार - संत्रास-कुंठा भी सृजनात्मक हो सकती है। एक दौर में ऐसा
पूरे विश्व में साहित्य लिखा गया। साहित्य अपने समय और परिस्थितियों का ही प्रतिफल
है। हर तरह की रचनाएँ छापनी चाहिए साहित्य में। पाठक खुद उनमें अपने लिए काम की
चीजें ले लेगा। हर साहित्य में क्रान्ति हो यह जरूरी नहीं।
महेश चन्द्र पुनेठा - सौन्दर्य के सम्बन्ध
में आलोचकों की अलग-अलग राय है। कुछ सौन्दर्य को आत्मगत मानते हैं तो कुछ अन्य वस्तुगत। आचार्य शुक्ल ने भीषण में भी सौन्दर्य को देखने वाले को ही
सच्चा कवि कहा है। उनका यह कहना कहीं न कहीं इस बात की ओर ही संकेत करता है कि सौन्दर्य-बोध आत्मगत होता है। इस संदर्भ में आपकी क्या
मान्यता है?
विमल कुमार - सौन्दर्य तो
आपकी दृष्टि में है। सौन्दर्य के मानक भी बनते बिगड़ते हैं। ‘चाँद का मुँह
टेढा है’ यह एक नए सौन्दर्य-बोध का
प्रतीक है। हर जाति, सम्प्रदाय, नस्ल अपने
लिए सौन्दर्य के मानक बनाता है। सौन्दर्य भी सापेक्ष है। कवि किस चीज में सौन्दर्य
खोजता है यह महत्वपूर्ण हैं। असुन्दर में
सुन्दर की खोज ही सृजन है। वर्चस्ववादी सौन्दर्य की अवधारणा को चुनौती दे कर एक
नया सौन्दर्य बनाया जा सकता है। यह आत्मगत और वस्तुगत दोनों है।
महेश चन्द्र पुनेठा - कुछ आलोचकों का
प्रगतिशील आलोचना पर आरोप है कि श्रेष्ठ सर्जनात्मक प्रतिभा तथा महत्तर कृतित्व के
वावजूद नागार्जुन, त्रिलोचन तथा केदार और मुक्तिबोध अपनी पूरी अहमियत के साथ नहीं पहचाने
गए, जबकि उनकी तुलना में कमजोर और हल्की प्रतिभा
के, यहॉ तक की प्रतिगामी दृष्टि वाले
रचनाकार एक संगठित आलोचनात्मक प्रयास के तहत श्रेष्ठ और प्रथम श्रेणी के सर्जकों
के रूप में प्रचारित, विज्ञापित और प्रतिष्ठित हुए और आज भी उसी प्रचार के तहत
कमोवेश अपनी पताका फहराते हुए देखे जा सकते हैं। आप इस आरोप से कितना सहमत हैं?
विमल कुमार - अब तो नागार्जुन, त्रिलोचन, मुक्तिबोध
का ही जमाना है। प्रेमचंद-निराला के बाद मुक्तिबोध ही तीसरे बड़े प्रतीक हैं।
नागार्जुन भी विद्रोह के प्रतीक बने तो त्रिलोचन सादगी के प्रतीक बने। साहित्य में
सत्ता जिसके पास होती है, चर्चा उसकी होती है। विचारधारा की भी एक सत्ता
होती है। अज्ञेय की जन्मशती को ले कर सौ समारोह हुए। इतने तो प्रेमचंद जन्मशती में
भी नहीं। इस से क्या फर्क पड़ता है, लेकिन
लेखकों का मूल्यांकन उनके योगदान के आधार पर भी होना चाहिए केवल विचारधारा के नाम
पर नहीं।
महेश चन्द्र पुनेठा - कुछ रचनाकारों
का मानना है कि साहित्य सृजन जैसे एकान्त कर्म के लिए किसी मंच, किसी समूह, किसी वैचारिक प्रतिबद्धता की कोई
जरूरत नहीं है। इससे रचनाकार की मौलिकता प्रभावित होती है। आप इस तर्क में कितना बल देखते हैं?
विमल कुमार - कोई जरुरी नहीं कि मौलिकता प्रभावित हो। कुछ लेखक अन्तर्मुखी
होते हैं। वे एकान्त पसन्द होते हैं। दरअसल दोनों तरह के उदाहरण हमारे सामने हैं।
सत्य को ले कर प्रतिबद्धता होनी चाहिए। हिन्दी में प्रेमचंद, प्रसाद, शिव
पूजन सहाय, राहुल जी निराला-पन्त-बेनीपुरी भी हैं। अज्ञेय
भी हैं। मुक्तिबोध भी रेणु भी, हजारी प्रसाद दिवेदी भी, निर्मल वर्मा भी,
नागार्जुन भी हैं। सबका अलग अन्दाज है। यह साहित्य का लोकतन्त्र है।
महेश चन्द्र पुनेठा - एक रचनाकार की
सचाई, ईमानदारी, यथार्थ-बोध तथा दायित्व-चेतना के
मुख्य आयाम आपकी दृष्टि में क्या होने चाहिए? एक रचनाकार को लिखने के साथ-साथ जीवन
संघर्षों में सक्रिय रूप से एक राजनैतिक-सामाजिक कार्यकर्त्ता के रूप में भी भाग लेना चाहिए?
विमल कुमार - सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता की तरह लेखक भाग ले सके तो
बेहतर ही है। न भाग ले पर सुन्दर रचना दे तो उसका योगदान है। लेकिन लेखक का पहला
काम लिखना है। अगर वह अपने समय को धारदार तरीके से लिखता है तो उसने अपना काम कर
दिया भले ही उसने धरना प्रदर्शन में भाग न लिया हो। सामाजिक कार्यकर्त्ता होने से
उसका लेखक महान नहीं हो जाता है। प्रेमचंद तो जेल नहीं गए आजादी की लड़ाई में, लेकिन लेखक तो बड़े हैं। बेनीपुरी जी, नवीन जी जेल गए, पर कहानी उपन्यास में प्रेमचंद
का योगदान बड़ा है। बेनीपुरी जी, नवीन
जी का योगदान दूसरे क्षेत्र में है और वे भी बड़े लोग थे अपने समय में। इसलिए यह मूल्यांकन
का आधार नहीं हो सकता।
महेश चन्द्र पुनेठा - एक रचनाकार को
परम्परा के प्रति कैसा दृष्टिकोण रखना चाहिए? एक रचनाकार के लिए अपनी परम्परा या
क्लैसिक्स की जानकारी क्यों जरूरी है? क्या आपको नहीं लगता है कि परम्परा या क्लैसिक्स हमारी
मौलिकता या नवीनता को प्रभावित करते हैं?
विमल कुमार - जैसे हम इतिहास को जानते है उसी तरह साहित्य के इतिहास
को, परम्परा को जानना चाहिए। परम्परा से विद्रोह करने के लिए भी तो परम्परा को
जानना जरुरी है। बिना परम्परा को जाने हम न तो सच्चे प्रगतिशील हो सकते हैं न ही आधुनिक। इसलिए
हिन्दी में अधकचरे तरीके से परम्परा का विरोध हुआ है। परम्परावादियों ने भी मूढ़ तरीके से प्रगतिशीलों पर हमले किये। विवेक
तर्क और वैज्ञानिक सोच समझ जरुरी है। परम्परा में हर चीज बुरी नहीं है और
प्रगतिशीलता के नाम पर हर चीज अच्छी नहीं। इस वर्ष राहुल जी, शिव पूजन जी की 125
वीं जयंती शुरू होगी। एक कम्युनिस्ट एक गाँधीवादी लेकिन दोनों मित्र। राहुल जी ने
शिव पूजन सहाय पर अभिनन्दन ग्रन्थ निकालने की योजना बनाई। राहुल जी की कई किताबें
शिव पूजन जी ने छापीं। दोनों में कोई संकीर्णता नहीं लेकिन आज यह सम्भव नहीं।
महेश चन्द्र पुनेठा - विमल जी, कविता खूब लिखी जा रही हैं। हर दूसरा लिखने वाला कवि है, लेकिन अधिकांश कविता, भावगत-शिल्पगत इकरसता की शिकार हैं।
यदि कविता से उसके रचनाकार का नाम हटा दिया जाय तो यह बता पाना मुश्किल होगा कि ये
कविताएँ एक ही व्यक्ति द्वारा लिखी गयी हैं या अलग-अलग के द्वारा। इस स्थिति के
पीछे आप क्या कारण देखते हैं?
विमल कुमार - सबके साथ ऐसा नहीं है। गीत चतुर्वेदी और अशोक पाण्डेय
की कविता में फर्क है। आलोक धन्वा और रब्बी की कविता में फर्क है। विष्णु नागर और
मंगलेश डबराल की कविता में फर्क है। अनामिका और कात्यायनी में भी फर्क है। सवाल
अच्छे-बुरे का है। चूँकि थोक के भाव से
लिखा जा रहा है और सम्पादक चयन नहीं करते कूड़ा कचरा भी छाप देते हैं, इसलिए यह भ्रम होता है। वैसे नरेश सक्सेना और
विष्णु खरे भी अलग हैं। लेकिन बहुत खराब कवि भी हैं। इसलिए ऐसा लगता है की सब एक
जैसे लिख रहे हैं।
महेश चन्द्र पुनेठा - लोगों का मानना
है कि छन्दहीनता के चलते कविता खराब गद्य लगने लगी है। आज गद्य और कविता में कोई अन्तर
ही नहीं रह गया है। क्या आपको भी लगता है कि आज कविता को छन्द की ओर लौटना चाहिए?
विमल कुमार - छन्द में भी खराब रचनाएँ होती हैं। यह सही है कि गद्य
कविता के रूप में कूड़ा कविताएँ छपती हैं। इनमें बड़े रचनाकार भी हैं। कुछ युवा
लेखकों ने भी नकल की है। इसके लिए सम्पादक दोषी हैं। हिन्दी में अच्छे सम्पादक कम
हैं।
महेश चन्द्र पुनेठा - हिन्दी के अनेक
कवि और पाठक अपनी बातचीत के दौरान बताते
हैं कि अक्सर हिन्दी कविताओं को पढ़ते हुए उनका मन उदास हो आता है। एक हीनता-बोध उन्हें
घेर लेता है। ऐसे क्षण कभी-कभी ही
आते हैं,
जबकि कविताओं को पढ़ते हुए गहरा पाठकीय सन्तोष होता है। क्या कभी ऐसा आपके साथ भी होता है या
कभी हुआ हो?
विमल कुमार - मेंरा ऐसा अनुभव नहीं है। हीनता किस बात की। उन्हें
अच्छे लेखकों को पढ़ना चाहिए । सम्भव हो उन्होंने अधिक बुरे लेखकों की रचनाएँ पढ़ी
हों।
महेश चन्द्र पुनेठा - आज एक ओर कविता
इतनी सरल-सपाट हो गयी है कि उसे किस कोण से कविता कहा जाय समझ में ही नहीं आता।
दूसरी ओर सांकेतिक व्यंजना और अर्थ की ध्वन्यात्मकता के नाम पर कविता इतनी दुर्बोध
और अगम हो गयी है कि सामान्य पाठक तो छोड़, दूसरे कवि या आलोचकों तथा प्रबुद्ध
पाठकों के समझ में भी नहीं आ रही है। क्या यह स्थिति कविता के समक्ष उत्पन्न
पाठकीय संकट के लिए जिम्मेदार नहीं है? आपके विचार से एक अच्छी कविता कैसी होनी चाहिए?
विमल कुमार - अच्छी कविता का कोई फार्मूला नहीं होता लेकिन कविता में
विचार के साथ संवेदना भी होनी चाहिए। दिल को छूने वाली रचना हो। कविता में ज्ञान
बघारना नहीं चाहिए। प्रदर्शन न हो और अधिक भावुकता भी न हो। उसमें एक बेचैनी दिखाई
दे। एक आक्रोश भी हो पर नकली न हो, बनावटी न हो।
महेश चन्द्र पुनेठा - आचार्य राम चन्द्र
शुक्ल कहते हैं कि कविता में अर्थ ग्रहण नहीं बिम्ब ग्रहण होता है। इस दृष्टि से
आज की कविता के बारे में क्या कहेंगे जिसमें से बिम्ब लगभग गायब होते जा रहे है?
विमल कुमार - बिम्ब बहुत देर तक मस्तिष्क में घूमते हैं। बिम्ब और
विचार दोनों महत्वपूर्ण हैं। यह सही है बिम्ब गायब होते जा रहे है, लेकिन समाज के बदलने से ये सब बदलते रहते हैं।
हमारी कल्पनाएँ भी बदलती हैं। सपने भी बदलते हैं, लेकिन बिम्ब होने चाहिए। इससे कविता में जान आती है पर अधिक दुरूह
बिम्ब से आम पाठक दूर होते हैं। कल्पना भाषा-शैली भी महत्वपूर्ण हैं, लेकिन कोई कविता किसी एक चीज से ही बहुत असर
कर जाती है। अच्छी कविता का कोई फार्मूला नहीं। कविता का स्ट्रक्चर भी महत्वपूर्ण
है।
महेश चन्द्र पुनेठा - आज की अधिकांश
रचनाएँ जनता के दुःख-दर्द, जीवन के उतार-चढ़ाव, शोषण-उत्पीड़न का तो गहराई से चित्रण
कर रही है परन्तु उनसे बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं बता रही है। क्या आपको नहीं
लगता एक जनवादी रचनाकार के लिए केवल जनता
के जीवन और संघर्षों का चित्रण करना ही पर्याप्त है या फिर जीवन-संघर्षों से
मुक्ति का रास्ता सुझाना भी जरूरी है?
विमल कुमार - रास्ता तो राजनीति भी नहीं बता पा रही है। लेखक खुद रास्ता खोज रहा है। वह
मुक्तिबोध के ‘अँधेरे में’
फंसा है, पूरी दुनिया में यह संकट है। रास्ता बताने पर
भी जनता उधर नहीं जाती है। ट्रम्प और मोदी की जीत क्यों हुई जो रास्ता है वह खुद बन्द
पड़ा है।
महेश चन्द्र पुनेठा - कुछ साल पूर्व
नामवर सिंह और राजेंद्र यादव ने आपसी बातचीत में स्वीकारा कि अब भविष्य का सपना या
विकल्प जैसी कोई चीज नहीं रह गयी है। दूसरे शब्दों में कहें तो दुनिया विकल्पहीन
हो गयी है। क्या आपको भी ऐसा महसूस होता है?
विमल कुमार - विकल्प की जरुरत तो है लेकिन भारतीय राजनीति में विकल्प
का संकट है। हर राजनीति कमोबेश वही कर रही है, वाम
दलों को छोड़ कर। लेकिन संघर्ष और संकट पहले से अधिक है। विकल्प तैयार करना भी
मुश्किल है। लेखक ने लिख कर अपना काम किया। अब राजनीति अपना काम करे।
महेश चन्द्र पुनेठा - आज यह अक्सर
सुनने को मिलता है कि क्या होना है इस
लेखन-वेखन से, कोई पढ़ने वाला ही नहीं है। चारों ओर आपाधापी है। हर एक पैसे के पीछे
भाग रहा है। मूल्य और नैतिकता की बात करने वाला बेवकूफ कहलाता है। लेखन से किसी
तरह के मानसिक परिवर्तन की आशा करना एक भ्रम में जीना है। जीवन के एक लम्बे अनुभव
से गुजरने के बाद जीवन के इस पड़़ाव में क्या कभी आपके मन में भी इस तरह के विचार
आते हैं? लेखन को ले कर क्या कोई व्यर्थता-बोध
महसूस होता है?
विमल कुमार - कई बार ऐसे विचार मन में आये हैं। यह सच भी है लेकिन लिखना बेचैनी है एक
जिद है मुक्ति का रास्ता। इसलिए लोग लिखते रहेंगे। समाज की दशा-दिशा तो खराब है ही
आजादी के बाद। संवेदनहीन क्रूर लालची समाज बना है।
महेश चन्द्र पुनेठा - साहित्य को हमेशा
सत्ता का प्रतिपक्ष ही माना जाता है। आखिर उसकी सहयोगी की भूमिका क्यों नहीं हो
सकती है?
विमल कुमार - साहित्य शाश्वत विपक्ष है। जिस दिन वह सत्ता के साथ
होगी उसकी विश्वसनीयता खतरे में होगी।
महेश चन्द्र पुनेठा - एक लेखक के लिए
किसी साहित्यिक संगठन से जुड़ना कितना जरूरी मानते हैं और क्यों?
विमल कुमार - कोई जरुरी नहीं।
पर उसे न्याय के साथ होना चाहिए हर वक्त। उसे संगठनों का साथ देना चाहिए।
मैं तीनों लेखक संगठनो एकता का समर्थक हूँ। लेखक संगठन चलने वाले ईमानदार लोग हैं।
पर आत्ममुग्ध और गैर-सृजनात्मक इसलिए बहुत से लेखक जुड़ नहीं पाते। वे नहीं जानते
कि इस बीच कितना पानी बह गया गंगा में। उनमें उदारता नहीं आक्रामकता संकीर्णता
बहुत है।
महेश चन्द्र पुनेठा |
सम्पर्क -
महेश चन्द्र पुनेठा, शिव कालोनी,
पियाना, पोस्ट-डिग्री कालेज, जिला-पिथौरागढ़, 262502, उत्तराखण्ड, फोन -
09411707470
विमल कुमार, सेक्टर, 13/1016, वसुंधरा, गाजियाबाद (उ. प्र.) फोन - 09968400416
(इस प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (04-09-2018) को "काश आज तुम होते कृष्ण" (चर्चा अंक-3084) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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श्री कृष्ण जन्माष्टमी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'