शाहनाज़ इमरानी के कविता संग्रह 'दृश्य के बाहर' पर बसन्त जेतली की समीक्षा
इधर के जिन कवियों ने अपनी कविताओं से ध्यान आकृष्ट किया है उसमें शाहनाज़ इमरानी का नाम प्रमुख है। शाहनाज़ का पहला कविता संग्रह "दृश्य के बाहर" दखल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। कवि आलोचक बसन्त जेतली ने इस संग्रह की समीक्षा की है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है इस संग्रह की बसन्त जेतली द्वारा की गयी समीक्षा।
जुगनू की रौशनी से काम नहीं चलने वाला
बसन्त जेतली
बहुत कुछ है इस
दुनिया में और जो है वह प्रायः युग्म में है। खुशी है तो ग़म है, प्रेम है तो घृणा है, दोस्ती है तो दुश्मनी है और
उमंग है तो हताशा भी है। हम यह सब देखते हैं, झेलते हैं। इस सब में बहुत कुछ ऐसा भी
है जो हम रोज़ देखते हैं। कुछ ऐसा है जो नज़रों से चूक जाता है और कुछ ऐसा
भी है जो हम देख कर भी अदेखा कर देते हैं या उसे महज़ अपने नज़रिए से देखते हैं। याने दृश्य तो
बहुत कुछ है लेकिन वह हमारी रूचि–अरुचि, सतर्कता और उदासीनता से जुड़ा हुआ है। सीधे शब्दों में
यह सब होते हुए भी”दृश्य के बाहर है”और इसी सब की तरफ़ हमारा ध्यान खींचने की कोशिश
करता हुआ शाहनाज़ इमरानी का यह पहला कविता संग्रह है। शाहनाज़ को बेहद नाराज़गी है कि लोग बस अपने
नज़रिए को ही सच मानें...।
मुश्किल है पहचान
का अनपहचान होना
मगर पहचान का अर्थ
यह तो नहीं है
कि उसे दृश्य मान लूँ
जो तुम्हें दिखाई
देता है।
शाहनाज की कविताएँ हमारे आज की कविताएँ हैं। वे देश की उस
राजनीति से हताश हैं जो महज़ वोट का
सौदा करने पर टिकी हुई है। जिसे हाशिये के लोग केवल चुनाव के समय ही नज़र
आते है। आम विकास की बात
महज़ एक नारा है।आर्थिक और सामाजिक विद्रूपता
आज़ादी के इतने दशकों के बाद भी कायम है। शाहनाज़ का कवि इन समस्त षड्यंत्रों को उजागर
करता है।
चुनाव जीतना भी
दहशतगर्दी का
लाइसेंस मिल जाने जैसा है
देशवासियों को खाना
नसीब नहीं
और वे पार्टी के
बाद का खाना ट्रकों में भर कर फेंकते हैं
रोज़ाना कई लोग
सरकारी अस्पतालों
के फ़र्श पर
बिना दावा इलाज़ के
दम तोड़ते हैं
पहले से ज़्यादा
होते हैं।
इतना आम हो गया है
यह सब कि अब यह चलता–फिरता जीवन नहीं रहा बल्कि किसी “स्टिल लाइफ़” सा ठहरा हुआ है। कहीं कोई बदलाव
नहीं, कोई संवेदना नहीं। आज़ादी महज़ एक शब्द रह गया है। हर बार सरकारें
बनती है लेकिन चुनावी वायदे बस राजनीतिक जुमले भर साबित होते हैं।
वे जाते हैं
नाक पर रूमाल रख कर
मुसलमानों के
मोहल्लों में
जब वोट माँगना होता
है।
कुछ न कुछ किसी
बहाने, भूलती गयीं सरकारें भी
स्टिल लाइफ़ पेंटिंग
पर पर्दा पड़ा हुआ नकार का
दुनिया के तमाम भूल–भुलैयों
में
आज भी याद आजाते
हैं चुनाव के समय
हाशिये से बाहर के
लोग।
शाहानाज़ की कविताओं
में आलोचना चुकती नहीं। वह बहुमुखी आलोचना है। राजनीति, समाज,
धर्म सभी के विद्रूप पर उनकी नज़र है।
बढ़ती उम्र के साथ
मेरे डर भी बड़े हुए
अब डर लगता है
लोगों की चालाक
मुस्कानों से
दोस्ती में छुपी
चालों से
ज़िस्म को नापती
आँखों से
नफरतों से, इंसानी
जिस्म के टुकड़ों और खून से
पुलिस, नेताओं,
चुनाव और फसाद से
अल्लाहो अकबर और हर
हर महादेव के नारों से।
पुरुषसत्तात्मक
हमारे इस समाज में स्त्री विमर्श होना ही था। शाहनाज़ इमरानी की
कलम से निकली हुई “गुम हो जाती लडकी”, “सभ्यता बनाए रखने
के लिए”, “तापमान 47 डिग्री
सेल्सियस” या “बेचैनी की टूटती
हुई हद” कोई भी कविता हो
लेकिन हर कविता में विमर्श का सशक्त स्वर नज़र आता है। इस सबके बावजूद यह
केवल पाठक को उलझाए रखने वाला कोरा जटिल विमर्श नहीं है अपितु इसमें भी कविता प्रमुख
है क्योंकि यहाँ उनका कवि केवल विमर्श के लिए कविता नहीं लिख रहा अपितु यह विमर्श
उसकी कविताओं का विषय मात्र है। यही कारण है ये कविताएँ विमर्श के कारण
बोझिल नहीं लगतीं बल्कि अपने पाठक को काव्य के माध्यम से अनायास विमर्श में खींच
लेती हैं।
बारिश की धूप
सर्दी की दोपहर
गर्मी की शाम होती
है लडकी,
दरख़्त पर खिला फूल
आसमान में उड़ती
पतंग
शोर मचाती नदी होती
है लड़की,
बीतते दिन, बीतती
लड़की
धीमी सी आँच में
पकते हुए सपने
बदल जाते हैं एक
मुहावरे में
“लडकियाँ तो पराया
धन होती हैं।”
शाहनाज़ की नज़र में
कवि के लिए ज़रूरी फैलाव है यही कारण है उनकी कविताएँ खाँचे में बंधी
हुई नहीं हैं।
उनकी नज़र में धर्म
है, स्त्री है, स्मृतियाँ हैं, परिवार है, राजनीति है, शोषण है और यह सब उनकी
दृष्टि को एक व्यापकता देता है। बचपन के गलियारे में भटकती हुई वह अनेक रिश्तों –
सम्बन्धों को पुनः जीती हैं। “नानी के बाद”, “अब्बू की याद में” और “मेरा शहर भोपाल” कुछ ऐसी ही नायब कविताएँ हैं।
प्रगतिशील परिवार
में जन्म लेने वाली इस कवियित्री के लिए आर्थिक समानता उसके खून में है। “सुनो कामरेड” में वामपंथ से
उनकी जायज़ शिकायत है।
कामरेड
बदलते समाज के साथ
आसपास भी बदलाव
लाज़मी है न...
मुझे समझाओ कामरेड
कैसे भ्रष्ट होती
है भाषा...
कोई जिम्मेवारी
नहीं लेता हर कोई तटस्थ रहता है...
समय निर्णायक
भूमिका में कब तक खड़ा रहेगा
अब अन्याय के खिलाफ
बात होनी चाहिए।
स्त्री विमर्श की
बात करते समय भी उनका ध्यान सामजिक और आर्थिक दोनों ही असमानताओं की तरफ जाता है। “तापमान 47 डिग्री
सेल्सियस” में साफ़ सवाल करती
हैं। “बराबर मेहनत कर के
भी मिलती है मज़दूरी कम जिसे, वह क्यों नहीं कर सकती वार आदमी पर?” इस सबके बावजूद
उनकी आस्था जुगनू की रौशनी को मुट्ठी में बंद कर लेती है। रौशनी की एक बूँद
को भी छिपा लेती है लेकिन बरकरार रहता है यह सवाल कि “क्यों नहीं पहुँचता
सूरज वहाँ, जहाँ कई सदियों से बैठा
है अँधेरा” क्योंकि वे जानती
हैं कि जुगनू की रौशनी से काम नहीं चलने वाला। रौशनी का काम है
उसका आज़ाद हो कर अँधेरे में भी
जगमगाना। रौशनी कोने–कोने
में फैलनी चाहिए। मुट्ठी में कैद
रौशनी का क्या? “जब खोली मुट्ठी उड़
गया जुगनू खो गया जंगल में।”
शाहनाज़ की कविताएँ गढ़े गए चमत्कार से
दूर है। वे बहुत आलंकारिक
भी नहीं हैं। उनकी भाषा आम
प्रायः आम बोल–चाल की हिन्दी–उर्दू का मिश्रण है लेकिन कभी वे मोहज़ब जैसे शब्द का
प्रयोग भी सभ्य आदमी के लिए करती हैं जो आम पाठक की समझ से दूर है। “मेरे देश में” कविता में वह
लिखती हैं “जो राजनीति के बारे
में नहीं जानता, वह ही तो नेता बन जाता है।” यह एकान्तिक सत्य नहीं है शाहनाज़ सो यहाँ वह ही
तो की जगह वह भी का प्रयोग बेहतर रहता। इसी तरह “दृश्य के बाहर” कविता में सन्नाटा
और अँधेरा के बहुवचन की ज़रुरत मुझे महसूस नहीं हुई। इसी तरह “रोज़ बदलती हैं
तारीखें” में मन्दिर और
मस्जिद का बहुवचानांत प्रयोग गैर ज़रूरी है। “हम आख़िरी गवाह हैं” कविता में
रिश्तेदारों के नाम का परिगणन ज़रूरी नहीं है। “सभ्यता बचाए रखने
के लिए” कविता में के अन्त
में सर्वनाम बदल जाता है। यहाँ “तुम्हारी” की जगह उसकी का प्रयोग होना चाहिए था। कुछ सम्पादन के
प्रति यदि वे सजग रहें तो व्यर्थ के जो और हम जैसे अनेक शब्दों से वे कविता को बचा
सकती हैं, “बातों के छोटे–छोटे
टुकड़े” में यदि “ज़िन्दगी में फैला
दर्द, जो तुम्हारी बातों में खो गया” की जगह तुम्हारी बातों में खो गया, ज़िंदगी में
फैला दर्द लिखना शायद अधिक बेहतर होता। इस सबके बाद भी यह
ध्यान रखना ज़रूरी है कि यह और ऐसी कुछ कमियाँ किसी भी तरह से इन कविताओं के
महत्त्व को कम नहीं करतीं। यह शाहनाज़ का पहला संकलन है और इस में संग्रहित
48 कविताएँ पढी कविता के
पाठकों को पसंद आयेंगी इसमें मुझे संदेह नहीं है। संकलन में प्रूफ़
की गलतियाँ प्रायः न होना प्रकाशक की सजगता का प्रतीक है। मुझे यह कहने में
कोई संकोच नहीं है कि “दृश्य के बाहर” सरीखा पहला संकलन
शाहनाज़ इमरानी के भविष्य के प्रति आश्वस्त करता है। अस्सी पृष्ठ के इस
संकलन के लिए 125 रुपये की कीमत कुछ अधिक लगती है लेकिन इसे पढ़ने पर पाठकों को
असंतोष नहीं होगा।
दृश्य के बाहर (कविता संकलन) शाहनाज़ इमरानी
दख़ल प्रकाशन, दिल्ली : मूल्य 125 रुपये
सम्पर्क
ई-मेल : bjaitly@gmail.com
समीक्षा के लिए तह - दिल से शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (10-09-2018) को "हिमाकत में निजामत है" (चर्चा अंक- 3090) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
बहुत सुन्दर
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