तिथि दानी की कविताएँ



तिथि दानी
इसमें आज हम तकनीकी रूप से सबसे विकसित युग में रह रहे हैं. हमने अपनी सुरक्षा के लिए तमाम इंतजाम किए हुए हैं. लेकिन डर है कि स्थायी भाव की तरह हमारे जेहन में बैठा हुआ है.तमाम तरह के डर भी हैं. यहाँ तक कि लावारिस चीजें भी डर का बायस बन जाती हैं. लोगों में तुरन्त अफरातफरी मच जाती है. युवा कवयित्री तिथि दानी की सजग सचेत नजरें अपने समय की इन परिस्थितियों पर हैं. उन्हें पता है कि सबसे बड़ा खतरा उस प्रेम के लिए है जो वस्तुतः इस दुनिया के लिए जरुरी है. वे लिखती हैं - "तरह-तरह के डर के बीच/ लोगों में है एक, सबसे बड़ा डर,/ प्रेम करने का डर।/ वे जानते हैं/ प्रेम में कुछ नहीं होता पाने को/ और सब कुछ छिन जाने का डर/ कर रहा होता है पीछा/ डरे हुए हैं लोग/ क्योंकि प्रेम भरी नज़रें कभी विस्मृत नहीं करतीं सौंदर्यबोध।" लेकिन प्रेम खतरे उठाने से कहाँ हिचकता है? तमाम दिक्कतों के बावजूद वह अपनी राह चला जाता है. कुछ इसी अंदाज की कविताओं के साथ आज प्रस्तुत है तिथि दानी की नयी कविताएँ.  
 
  
तिथि दानी की कविताएँ


डरे हुए लोग

डरे हुए हैं लोग
खिड़की से अंदर झांकती नज़रों से
रास्ते पर चलते हुए अचानक मिल गई नज़रों से
ट्रेन में सफ़र करते हुए ख़ूबसूरत पर्स पर पड़ती नज़रों से।
डरे हुए हैं लोग
घर में लगे सेवंती, गुलाब और गेंदों पर पड़ती नज़रों से
डरे हुए हैं वे अपनी सजीली पोशाक पर पड़ती नज़रों से
अपने छोटे बच्चे पर पड़ती नज़रों से

डर की कोई सीमा नज़र नहीं आती
डर लोगों के दिमाग़ों में आसमान,
दिलों में समंदर बनता जा रहा है।
लोगों को नज़र नहीं आती डर की कोई परिधि
कि, कम से कम निश्चित कर लें वे इक दूरी
खींच लें खांचे वे अपने ज़ेहन में

इसलिए डरे हुए हैं लोग
अपने खिलंदड़ स्वभाव से
अपनी खनकती हुई हंसी से
अपने उस संवाद से
जो अजनबियत दूर कर दे।
आश्चर्य नहीं लोगों को
कि
डरे हुए हैं वे
आईने में नज़र आती अपनी बेदाग़ छवि से
डरे हुए हैं वे 
अपने पास जमा सीमित पूंजी से
डरे हुए हैं वे
अपने छोटे-छोटे खेतों में लहराते  गेहूं और धान से
डरे हुए हैं 
लोग देश के सीमित क्षेत्रफल से

तरह-तरह के डर के बीच
लोगों में है एक, सबसे बड़ा डर,
प्रेम करने का डर।
वे जानते हैं  
प्रेम में कुछ नहीं होता पाने को
और सब कुछ छिन जाने का डर
कर रहा होता है पीछा
डरे हुए हैं लोग
क्योंकि प्रेम भरी नज़रें कभी विस्मृत नहीं करतीं सौंदर्यबोध।
 

                                                                     
सलाइयां

कभी-कभी अचानक कुछ उड़नतश्तरी ख़याल
कैसे उतर आते हैं हम में
समझना मुश्किल लगता है।
आंखें, दिमाग, मन, हृदय
इतने नाम बिना मेहनत के बना देते हैं सलाइयां
लेकिन एक अनाम, अपरिभाषित सा भी
कोई तत्व होता है इनमें
जिसने घेरा होता है इन सलाइयों का सबसे ज़्यादा हिस्सा
शुरू हो जाती है एक बुनावट
और बन जाती है इक श्रृंखला सी संरचना
जिसके आर-पार देखने की कोशिश में
हम तमाम मनोरंजक शोरगुल से
निकल पड़ते हैं नीरव और सुखद बीहड़ की ओर
जहां अक्सर बुद्धपुरुष असंख्य तपस्याओं के बाद पहुंचते थे।

इस यात्रा के दौरान
हम निकलते हैं अपनी परिधि से बाहर
और देखते हैं- और भी लोग अलग-अलग मौकों पर किस क़दर ख़ुश हैं,
स्वयं के अलावा भी -किस क़दर दुखी भी हैं और लोग
तब प्रश्न स्फुरित होता है
सोचो ज़रा...
हर खुशगवार मौके पर हम भी महसूसें किसी और ख़ुश की ख़ुशी
और दुखद त्रासद मौकों पर
हमारा मौजूद होना
कुछ कम करे औरों का दुखना
तो कैसा हो

कुछ भय और कुछ उत्कंठा से चाहता है ये दिल
महसूसना हर ज़र्रे पर, हर शख्स में मौजूद हर ग़म- हर ख़ुशी
दरअसल कुछ सिद्धान्तों को करना चाहता है प्रमाणित....
सब का, सब में, सब जगह सब हाल में मौजूद होना
यानि
सलाई का लहराते-बलखाते फंदों को बिनते जाना
अपने आखिरी फंदे से लगी गांठ से
कल्पनातीत, अनंत ब्रह्मांडों से एकाकार हो जाना
सबकी आत्माओं का परमात्मा हो जाना। 


सपनों की वजह

कुलाँचे मारता एक हिरण
बढ़ता जाता है,
बढ़ता जाता है,
अचानक वह मुड़ जाता है,
उस दिशा में

जहाँ से मैं उसे

चोरी छुपे देख कर

ख़ुश हो रही हूँ।



उसके शरीर के चकत्तों में

मुझे दिख रहे हैं

आसमान के तारे,

और भी ख़ूबसूरत हो कर



इस क़दर वह मेरे नज़दीक आया,

कि अपनी आँखो से

नामुमक़िन हो गया

उसे देख पाना,

क्योंकि मेरे आज्ञा चक्र को चीरता,

समा गया था वह मुझमें।



मुझे दिखने वाले

रंगीन, अलौकिक अवास्तविक

सपनों की वजह

समझ आ रही थी अब मुझे

मालूम हो चुका था मुझे

इन सपनों का साकार ना होना।



स्त्रियां जुगनू बन जाएं
                                                                
जब भी मौका मिले
स्त्रियां प्रार्थना करती हैं।
पलक झपकते ही जोड़ लेती हैं
वे ईश्वर से अपने तार।
स्त्रियों की प्रार्थनाएं
वाकई होती हैं काफी अलग
वे खुद के लिए नहीं मांगती सब कुछ

सब कुछ मांगती हैं वे
सब के लिए।
सब कुछ के एवज में
होती है उन्हें ये दरकार
कि
ईश्वर उन्हें मुक्त कर दे
हर तरह के भय से
और रूपांतरण के बाद
उनके शरीर और आत्मा
परमशक्तिशाली, अदम्य साहसी,
अक्षय और निर्भय हो जाएं।

स्त्रियों की प्रार्थनाओं में
पक्षियों के कलरव की
मिठास ज़रूर होती है
पर उनमें निरंतरता होती है
नदी के पानी की।
आत्मा की निश्छल
परतों से ये अपनी मंज़िल
तक पहुंचती हैं

इस कलयुग में स्त्रियां
विलुप्तप्राय होते सतोगुण के पेड़ों की नहीं
सिर्फ उसकी परछाई में आकर बैठने की रखती हैं चाहत
स्त्रियां जानती हैं कि
इतना कर पाना
उस पेड़ की रासायनिक संरचना के
इक परमाणु जितना ही है

लेकिन जाने कौन सा है
उन्हें अंतर्ज्ञान
और अटल विश्वास
कि
विश्व के बाग को
प्रलय के पतझड़ से
बचाएगी एक दिन
इसी पेड़ की परछाई
इसीलिए
इस परछाई को दूर से देख पाने के लिए
वे  ईश्वर से मांगती हैं
एक जादुई दूरबीन।
वे जानती हैं कि इसके बाद भी उन्हें
करते रहने होंगे प्रयोग
ताकि पुनः जीवन की ओर लौट सकें
वे सतोगुणी पेड़

स्त्रियां अपनी प्रार्थनाओं में परिभाषित
उस असीमित अनंत सब कुछ के
समुद्र में सतोगुणी
द्वीपों की अखंडता और अस्तित्व के लिए
करती हैं प्रार्थनाएं
जबकि वे जानती हैं कि
हर वक्त मंडरा रहा है
अघोषित सुनामी का खतरा

स्त्रियां इस भौतिकवादी संसार के  
हर उस शहर के लिए प्रार्थनारत हैं
जहां आतंक की इमारत में
पेशावर जैसे स्कूल
और उसमें अपने बच्चों को खोने वाली मांएं हैं।

स्त्रियां इरोम शर्मिला 
और उसके परिवार,
यहां तक कि उसे कैद में रखने वाले
पुलिसकर्मियों के लिए भी प्रार्थनारत हैं।

स्त्रियां
जहां भी अंधेरा, अवसाद,
उन्माद, विषाद और क्रोध है
वहां आलोक, प्रफुल्लता, विनोद,
संतुलन, मर्यादा और शांति की,
व्याप्ति के लिए प्रार्थनारत हैं।
स्त्रियां हर उस विलुप्त, मृत
भावनाओं, कामनाओं और आकांक्षाओं को
सहेजने और पुनर्जीवित करने प्रार्थनारत हैं
जिनके साथ मनुष्यता का आरंभ हुआ था।

स्त्रियां जन्म से जानती हैं
उस बागडोर को,
जो ईश्वर ने उन्हें थमायी है
ताकि
इस ब्रह्मांड के
आपातकाल में भी
जब सूरज अपनी धूप बांटना
और चांद अपनी चांदनी फैलाना
भूल जाए
तो
मनुष्य के अस्तित्व के लिए
स्त्रियां जुगनू बन जाएं। 



सम्पर्क
ई-मेल : tithidani@hotmail.com
फोन - +447440315754


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (02-04-2016) को "फर्ज और कर्ज" (चर्चा अंक-2300) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    मूर्ख दिवस की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
  2. गजब की रचनाये ... जैसे इनमे खो कर निशब्द हो गयी ...हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाये :)

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'।

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'