ओम प्रकाश की कविताएँ
ओम प्रकाश |
जन्म : 1 जनवरी 1988, को गाँव दानपुर, करमा इलाहाबाद (उ० प्र०) में। माता श्रीमती रन्नो देवी; पिता श्री राममूरत। मैट्रिक (2003), और इंटरमिडिएट (2005),
उ० प्र० माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, उ० प्र० से। 2008 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी और
राजनीति शास्त्र में स्नातक। 2010
में एम० ए०, अंग्रेजी साहित्य, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से। वर्तमान समय में डी०
फिल० अंग्रेजी में, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, विषय: “ द सोशल रियालिटी इन द स्टेज
प्लेज ऑफ़ महेश दत्तानी: अ क्रिटिकल स्टडी”।
अवार्ड :
राजीव गाँधी नॅशनल फ़ेलोशिप फॉर रिसर्च इन डी० फिल०
सम्मान :
प्रथम पुरस्कार “काव्यांजलि- पोएट्री कम्पटीशन” (2016), द्वारा लैब अकैडेमिया ट्रिपल आई टी साथ
में इलाहाबाद संग्रहालय, इलाहाबाद, अवसर- “स्मरण साहित्य सभा: अ ट्रिब्यूट टू श्री
हरिवंशराय बच्चन”
ओम प्रकाश अभी बिल्कुल युवा हैं। उनके पास वह युवा मन है जो प्यार-मुहब्बत से लबालब भरा होता है। युवा और युवा मन होने के साथ-साथ कवि भी हैं। इसमें कोई दो-राय नहीं कि इस युवा समय को ही हजार दिक्कतों से जूझना पड़ता है। इसके बावजूद वह प्यार की अलख जगाए रखता है। प्यार उसके लिए जिन्दगी की तरह ही होता है जिसके अभाव में जीवन बंजर जमीन में तब्दील हो जाता है। प्यार की अनुभूति ही जीवन की ज्योति को जलाए रखने के लिए काफी है। और सौभाग्यवश यह अनुभूति ओमप्रकाश के पास है। उनकी कविताओं में यह प्रेम-मुहब्बत अपनी समस्त अनुगूंजों के साथ सुनायी-दिखायी पड़ता है। आज इक्कीसवीं सदी में पहुँचने के बाद भी जब यह दुनिया बेहिसाब हिंसा, आतंक, घृणा, कट्टरतावाद, नस्लवाद का सामना कर रही है; ऐसे में यह मुहब्बत उस छाँव की तरह लगती है जिसकी दरकार तेज-चिलकती धूप का सामना करने वाले पथिक को होती है। समय के साथ ओम प्रकाश को अपने समय की विडंबनाओं को भी अपनी कविताओं में उकेरना सीखना होगा, जिसका अभी उनके पास अभाव है। लेकिन कहना न होगा कि उनके पास कविता करने की शैली है। उन्होंने अनुभूतियों का शब्दों में तर्जुमा करना सीख लिया है। 'प्यार और उसके साथ जुड़े विरह' ने उन्हें एक कवि के साँचे में ढाल दिया है। अब इस पर रूप गढ़ना उन्हें सीखना है। उन्हें समय की कठिन और टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों पर चलना सीखना है। क्योंकि वे जानते हैं कि जब गम में भी कोई लब मुस्कुराता है, जब कोई जख्म खिल जाता है तब क़यामत आ जाती है। प्रेम के अभिधार्थ में कही गयी ये पंक्तियाँ सचमुच गहरे मायने लिए हुए हैं।
प्रेम करना अपने आप में अपने समय और समाज से विद्रोह करना होता है। प्रेम करना एक बने-बनाए ढाँचे के खिलाफ विद्रोह करना होता है। समाज प्रेम को आसानी से स्वीकार भी कहाँ करता है। बल्कि प्रेमियों के खिलाफ तमाम तरह के षडयन्त्र करता रहता है। लेकिन प्रेमी वे जुनूनी होते हैं जो तमाम दिक्कतों के बावजूद अपनी हार स्वीकार नहीं करते। शायद इसी के मद्देनजर क्रांतिकारी चे ग्वारा ने कहा है कि एक सच्चा क्रांतिकारी प्रेम से पूरी तरह आप्लावित होता है। ओम प्रकाश में एक कवि के रूप में यह कतरा उठाने की ताकत है और यही ताकत उन्हें एक मजबूत कवि के रूप में बदलने के लिए पर्याप्त है। फिलहाल तो उन्होंने यह सफ़र अभी शुरू ही किया है।
यह सही है कि ओम प्रकाश ने मुक्त छन्द में कविताएँ लिखीं हैं। लेकिन उनकी कई कविताओं में काव्यगत लय और छन्द को पाने का प्रयास स्पष्ट तौर पर दिखाई पड़ता है। वे इस मामले में पूरी तरह सजग और सतर्क हैं। ओम प्रकाश का कवि मन वहाँ सचमुच दिखाई पड़ता है जहाँ वे सपाटबयानी से आगे बढ़ कर काव्य-मर्म को उद्घाटित करते हुए लिखते हैं - "मोहब्बत जंगलो में
नाचती मोरों की लय, / मोहब्बत बढ़ती
सर्दियों की धूप बनती है; / मोहब्बत हवाएं है,
मोहब्बत रंगीन फिज़ाएं है। / मोहब्बत अजनबियों की
दुनिया में/अपनी गाँव की तरह
है,/ मोहब्बत तड़प की धूप
में, / सुरीली छांव की तरह
है।" उनकी कविता ही यह उद्घाटित करती है कि वे गाँव से आए हुए हैं। गाँव जो अब बीराने होते जा रहे हैं। रोजी-रोजगार की तलाश युवाओं को शहरों की तरफ पलायन करने के लिए बाध्य करती है। वे प्रवासी बन कर जीने के लिए विवश हैं। ऐसे में प्यार की अनुभूति का उनके पास बचे रहना भी कम आश्वस्तिदायक नहीं है। किसी भी कवि की प्राथमिक कविताओं की तरह ही ओम प्रकाश की कविताएँ भी हैं। लेकिन इनमें ख़ास बात यह है कि ये प्रेम की उस भावना से आप्लावित हैं जो मनुष्य को वास्तव में मनुष्य बनाए रखता है। उबड़-खाबड़ पन के बावजूद इन कविताओं में एक नैसर्गिकता है। और कविता तो इस नैसर्गिकता में भी बची-बनी रहती है। गवई मन इस उबड़ खाबड़ से नहीं डरता बल्कि इसी से हो कर वह राह बनाता है जो उसे जिन्दगी के कठिन क्षणों के लिए अभ्यस्त करती है। यह सुकून की बात है कि यह कवि विडंबनाओं के दौर में भी यह कहने का साहस रखता है कि 'चलो मुहब्बत की बातें करें।'
ओमप्रकाश की कविताएँ
क़यामत आ जाएगी...
एक रोज़ तुमने पूछा
था ना,
कि क़यामत क्या होती
है!
चलो आज हम तुम्हें
बताते हैं कि...
सुनोगी ना... सुनो!
जब गम में भी कोई लब
मुस्कुरा जाए,
जब कोई ज़ख़्म खिल
जाए;
जब सूरज निकले और
खुद रोशनी को तरसे,
जब बादल बिन पानी के
बरसे;
जब चाँद निकले उसे
शीतल न मिले,
और जब दरख्तों को भी
आँचल न मिले;
तो समझना, कि बस अब
क़यामत आ जाएगी...
जब समंदर एक बूंद
पानी के लिए तड़पे,
जब हवा भी एक सांस
के लिए सिसके;
जब सड़क खुद रास्ता
भूल जाये कि जाना कहाँ है,
और जब परिंदे भूल
जाये कि उनका ठिकाना कहा है;
जब किसी को ख्वाबों
में सोचो,
और-और, और वो सच में
मिल जाये,
तो समझना, कि बस अब
क़यामत आ जाएगी...
जब फ़लक का ज़मीं से
कोई वास्ता ना होगा,
मिरा इस कदर तिरी
यादों से,
जब निकलने का कोई
रास्ता ना होगा;
जब घटायें खुद
सुन्दरता ढूढें,
जब आँखों से काज़ल छट जाएँ;
जब किसी को सोच कर,
घर से निकलो
और-और, और रास्ते
में हम मिल जाये,
तो समझना, कि बस अब
क़यामत आ जाएगी...
जब कोई फूल महक न
सके,
जब कोई परिंदा चहक न
सके;
जब निशा को खुद नींद
न आये,
जब आवाज़ को भी कोई न
बुलाये;
जब मेरी सारी
खुशियां लुट जाये,
और तेरा लब ख़ुशी से
खिल जाये;
और जब तुम, हथेली पर
मेंहदी लगाओ,
और-और, और नाम...
मेरा लिख जाये,
तो समझना, कि बस अब
क़यामत आ जाएगी...
फ़लक को छूना चाहते है
रोशनी तो सबको
प्यारी लगती है
मगर क्या कभी इन
अंधेरो को देखा है।
वो जो साधू बन बैठे
हैं भेष बदल कर
कभी इन तक़दीर के
मारे फ़कीरों को देखा है।
हम सभी ज़मीं पर रह कर
फ़लक को छूना चाहते है
जानते है न आयेगी
हाथ
फिर भी रेत को
मुट्ठी में कैद करना चाहते है।
शाम ढलने पर
परिन्दें भी अपने ठिकाने पर लौट आते है
मगर क्या कभी
ज़िन्दगी के राह में भटके राहगीरों को देखा है।
वो जो साधू बन बैठे
हैं...
उम्मीदों के साये
में हम मिट्टी के घर बनाया करते थे
ज़रा सी बात पर झगड़ते
थे,
छोटे से हिस्से के
लिए ढहा देते थे अपने खुशियों का महल
आंसू कब हंसी में
बदल जाते थे पता ही नहीं चलता था
मगर अब हम इतने
मुआफ़िक हो गए इन आंसूओं के
कि हँसना ही भूल गए
हैं
वो जो हर हाल में जी
लेते हैं ऐसे अमीरों को देखा है
क्या कभी न बदलने
वाले तकदीरों को देखा है
वो जो साधू बन बैठे
हैं भेष बदल कर
कभी इन तक़दीर के मरे
फ़कीरों को देखा है...
(मुआफ़िक= अनुकूल हो
जाना, आदी हो जाना)
उन्होंने तो साफ़ इन्कार दिया
उन्होंने तो साफ़ इन्कार कर दिया,
देख कर हालत मिरा,
जीना मिरा तार-तार कर दिया।
उन्होंने तो...
कहने लगे मैं तो
बेकसूर हूँ,
मुझ पर क्यों इल्ज़ाम
लगाते हो;
हालत तुमने खुद
बनाया है इस कदर,
फिर मुझको क्यों
बताते हो,
मैंने सोचा कि कुछ
तो हस्र निकलेगा,
पर वो थी मेरी
ग़लतफ़हमियाँ,
मैंने मान लिया कि,
मेरी ही हैं गुस्ताख़ियाँ;
पर उन सारी
गुस्ताख़ियों की कसम,
सारी नहीं हैं मेरी
गलतियाँ,
उन्होंने तो सारी
ख़ामियों की हद को, आर-पार कर दिया।
उन्होंने तो...
मैं तन्हा जी लेता,
अकेला मर जाता,
मगर कोई जानता तो ना
मुझे,
और-२, कोई पहचानता
तो ना मुझे,
पर उन्होंने दिल की
लगी लगा कर, पागल कर के
मुझको ला कर खड़ा बीच
बाज़ार कर दिया।
उन्होंने तो...
साफ़ बचना ही था तो
पहले बता देते,
पहले ही ना मिरा साथ
देते वो,
आज जब वक़्त मिला
उनसे हाल-ए-दिल बयां करने को,
तो उन्होंने इस
बर्क-साज़-ए-दिल का हाल सुनने से दर-निकार कर दिया.
उन्होंने तो...
मैं बेवजह ही
परेशां था,
और वो चैन से साँस
लेते रहे,
मिरे सांसे हर बार
उन्हीं का नाम लेती रहीं,
उन्हें खुद को जीना
ना आया,
मिरे दिल को जला कर,
मिरा जीना बेकार कर दिया।
उन्होंने तो साफ़
इन्कार कर दिया...
(बर्क-साज़-ए-दिल= टूटा
हुआ दिल)
उनके फ़िराक से वाकिफ़ न था
मुद्दतों बाद मिरे दिल के दहलीज़ के करीब
कोई शिरकत फ़रमाया
है,
ज़माने गुज़र गये, पर
कोई अज़ीज अजीब सा
शायद कोई फुर्क़त में
मिरे पास आया है।
रकीबों की बस्ती
में, फिरा करता था मैं
यकीं था सब पर
मगर उनके फ़िराक से
वाकिफ़ न था,
बेतकल्लुफ़ से जीता
था
मगर इत्तेफ़ाक से
वाकिफ़ न था.
आज नुमाईशों के भीड़
में कोई मुझे अपना बनाया है
ख़्वाहिशों की दुनिया
में इक सबब मिला,
चाहता रहा, फिर भी
बेबश मिला।
नौबत ना आये किसी
की, इस कदर जीने की
मुस्कान रहे होठों
पर, फ़ुरसत न मिले गम-ए-अश्क़ पीने की,
आज बिन मयकदे के,
जाम पी लिया मैंने
कोई दस्तक दिया इस
कदर, बस यही ख़ुशी पा लिया मैंने,
यादों की बस्ती में,
आग लगी है किससे कहूँ-
कि कौन आग लगाया है?
दर-ब-दर मैं फिरता
रहा मारा- मारा,
अपने हबीबों से भी
सहारा ना मिला,
ख़ामोश लबों को हम
सिल भी सकते थे
मगर इस कदर कोई
प्यारा ना मिला।
वफ़ा के चाहत में, आ
गये रुस्वाइयों के कगार पर
महफ़िलों में जगह
बनाता रहा,
पर संग हो लिए
तन्हाईयों के दरकार पर।
रोता हूँ अब मैं
सोचता हूँ,
कि वफ़ा कोई इस कदर
आज़माया है
निशां भी नही
मिलेगा,
यदि मिरी मय्यत जल
जायेगी
मनाये ना मानेगी, गर
इक बार तमन्ना मचल गयी
होश में आओगे जब,
सोचोगे या रब
कोई मिरे यार को इस
कदर जलाया है।
मुद्दतों बात मिरे
दिल के दहलीज़ के करीब
कोई शिरकत फ़रमाया
है...
(फ़ुर्कत= जुदाई,
वियोग, बेतकल्लुफ़= आराम से)
उनके यादों की ख़लिश
I
ये बारिश की बूंदें, ये दरिया, ये झील
किस काम के मेरे,
यदि मेरे आशियाँ में
आग लग जाये तो
ये आग बुझा सकती है,
मगर जो आग मेरे सीने
में लगी है
उनसे कह दो,
वो आग ऐसे बुझाई नही
जाती,
और,
ऐसे किसी के सीने
में आग लगायी नही जाती...
हम उनके दोस्त हैं,
कोई गैर तो नहीं,
थोड़ा सा रूठे क्या,
कोई बैर तो नहीं,
वो ऐसे भूल गए, कि
हमको ही भूल गए
उनकी यादों की ख़लिश
उनकी अदाओं की कशिश,
हम नहीं भूले,
किस तरह खायी थी
कसमें संग रहने की
कितने ख़्वाब दिखाई
थी मुझे,
पर मेरे ख़्वाबों की
बस्ती ही उजाड़ दी,
उनसे कह दो,
इस तरह ख़्वाबों की बस्ती
बसायी नही जाती
और,
इस तरह बसी हुई
बस्ती में आग लगायी नही जाती...
वो मुझे याद करें या
ना करें
मैं तो उनको ही याद
करूँगा,
किसी को यूँ याद
करना मेरा ज़ज्बात नही
उनको मैंने याद
किया,
उनको भुलाना, मेरे
बस की बात नही,
बिताया हूँ संग उनके
कई लम्हें, चन्द मुलाकात नही
ये चांदनी रात,
अँधेरी सी लगती है
ये बरसात, तपन सी
लगती है,
वो मुझको भूल गए, पर
मैं नही भूला
हिन्डोलें बहुत दिखे
पर मैं नही झूला,
आज मैं उनको याद
करता हूँ, कल भी करूँगा,
इसीलिए मैं चाहता
हूँ, कि
कोई उनसे कह दे,
इस तरह हर किसी की
याद बसायी नहीं जाती
और,
अब मुझसे उनकी याद
भुलायी नहीं जाती...
II
वो आहें भरे, मैं तड़पता रहूँ, मंजूर मुझे
हंसी उनके लबों पर
रहें,
वो खिलखिला कर हँसे,
मैं रोता रहूँ
वो हर पल खुश रहें,
मंजूर है मुझे।
मै सिसकता रहूँ
वो खुश रहे, कुछ भी
करें, चुप रहूँगा,
जी चाहे जितना गम दे
दे, सह लूँगा
उनकी याद में तन्हा
रह लूँगा,
उनकी रुस्वाई, उनकी
बेवफ़ाई
उनकी आशियाँ, उनकी
ज़ुदाई,
ये तन्हाई, ये
अंगड़ाई,
सब मंजूर है मुझे,
पर वो कैसे हैं,
कोई उनसे कह दे,
इस तरह रुलाया नही
जाता
और,
अपने दोस्त को इस
तरह सताया नही जाता।
एक दिन ये अश्क़ सूख जायेंगे
ये ज़ज्बात भी रूठ
जायेंगे,
ये सदियाँ गुजर
जायेंगे
मगर वो मुझको नज़र ना
आयेंगे,
मेरे हर मुस्कान
रोयेंगे
मेरे हर लफ्ज़ ख़ामोश
रहेंगे,
अल्फाज़ों का एक मंजर
होगा
ख़्वाबों का एक
समन्दर होगा,
ये मेरी किस्मत,
सारी सिद्दत करेगी
ये मेरी मोहब्बत, हर
इबादत करेगी,
रात भी होगी, नींद
भी होगी
पर उनके सिवा कोई
ख़्वाब ना होगा,
मगर मैं सो ना
सकूँगा
मैं सोचता हूँ
कि कोई उनसे कह दे,
कि
इस तरह, आँखों की
नींद चुराई नहीं जाती;
और,
इस तरह दोस्ती
निभायी नहीं जाती.
हमारा क्या हवा में
सिमट जायेंगे हम
उनको तो हर फिजाएँ
भी प्यार करेंगी,
मैं तो चुपके से चला
जाऊंगा
उनको तो हर घटायें
भी इकरार करेंगी।
सभी मजबूर करेंगे
उनको, अपना बनाने के लिए
हमसे दूर करेंगें इक
आशियाँ बसाने के लिए,
पर मैं चाहता हूँ,
कि
यदि मैं कभी याद आऊं
तो
ऑंखें बंद कर लेना,
बातें कुछ चंद कर
लेना
चलते- चलते यदि थक
जाना,
मेरे कंधे पर सर
रख कर आराम कर लेना,
दिल जब टूट कर चूर-चूर होने लगे तो
मुझसे लिपट कर रो
लेना,
फिर क्या जब चाहे
मुझे भूल जाना
मैं दूर चला जाऊंगा,
नज़र नही आऊंगा,
पर कौन बताएं उनको,
इस तरह किसी से नज़रे
चुराई नहीं जाती
इस तरह किसी की नींद
उड़ाई नहीं जाती,
और,
इस तरह, किसी की याद
भुलाई नहीं जाती
कोई उनसे कह दे, कि
इस तरह दिल की लगी
लगाई नहीं जाती,
और,
ऐसे किसी के सीने
में आग लगे नहीं जाती...
...तुमको ही खुदा बना बैठा
...तुमको ही खुदा बना बैठा
किससे दिल का राज़ बताऊँ, किससे हाल-ए-दिल सुनाऊँ,
करके उनसे मोहब्बत,
मैं दिल को गवां बैठा,
हाथ ना एक ख़ुशी, मैं
दुनिया से खफा हो बैठा।
किस तरह इसको
समझाऊँ,
कैसे अपने दिल को
मनाऊँ, करके उनसे मोहब्बत,
मैं तो खुद से
रुस्वा हो बैठा.
जीने का राह दिखता
था, मैं खुद का रास्ता भूल गया,
हर टूटे दिल की कभी
दवा बनता था मैं,
जब मेरा दिल टूट गया।
ना लोगों की दुवा,
ना कोई मलहम काम आयी,
देना था, जिन्हे
दवा, वही दर्द दे गए,
गर ये रोग ऐसा था,
तो क्यों ये मुझे मर्ज़ दे गए।
इंसानों की शक्ल में
हैं, कैसे-कैसे लोग यहाँ,
कभी बनाते हैं,
मोहब्बत के फरिश्ते,
और कभी भूल जाते
हैं, हर नाते-रिश्ते।
अब ना आये समझ, मैं
क्यों उनको अपना खुदा बना बैठा,
जो होते थे कभी हर
पल संग मेरे, उनसे जुदा क्यों हो बैठा।
उनकी बेवफाई की
शिकायत करूँ, या अपनी वफां की तौहीन,
ऐ खुदा कर कुछ ऐसा
सदा, की वो फिर से मेरा ताहिर बन जाये,
ना रोक सके कोई
दीवार हमें, फिर से उनका दीदार हो जाये,
खुद को सम्हाल लो,
दिल अपना है “ओम”,
ये जहाँ बेगाना है,
होश में रहोगे, खुश
रहोगे, फिर तुम्हारा ही ज़माना है,
राज़ यही है मेरे दिल
का, आ मैं तुमको सुनाऊं,
क्योकि ये दिल
तुम्ही पे फ़िदा हो बैठा,
सदियों से बस तुमको
ही अपना खुदा बना बैठा,
करके उनसे मोहब्बत,
मै दिल को गवां बैठा…
...तो दरिया बन जाये
अश्क़ गिरे जो मिरे आँखों से, तो दरिया बन जाये-२,
गर इक बार जो तू
मुस्कुरा दे, तो गुलशन की कलियाँ खिल जाये।
भौरें मडराते
रहेंगें, गुनगुनाते रहेंगें
इक बार छू कर बस यूँ
ही भूल जायेंगे।
अब तुमसे कोई शिकवा
या शिकायत नहीं है,
बस इतना ही कहना है,
प्यार के राहों पर
चलना सिखला कर
तूने मेरा साथ क्यों
छोड़ दिया।
तुम्हें मालूम था,
कि मेरा दिल बहुत नाज़ुक है
फिर भी तुमने इसको
तोड़ दिया।
अब ना कोई चाहत है,
ना ही कोई इबादत है,
बस अब एक ही मन्नत
है
कि कभी वक़्त मिले
तो,
मुझे भी याद कर लेना
शायद तिरे याद करने
से, मिरे सांस रुक जाये।
और शायद मेरी
ज़िन्दगी सम्भल जाये
और,
अश्क़ गिरे जो मिरे
आँखों से...
अपना सा हो गया है
ये शहर कभी हमारा हुआ करता था,
अब ये शहर भी मेरे
लिए बेगाना सा हो गया है;
जिससे भी पूछा, सब ने
तेरा ही नाम लिया
ऐ मेरे रूह को सुकूं
देने वाली,
तुमने ऐसा क्या
किया,
कि ये सारा शहर तेरा
दीवाना सा हो गया है...
ये शहर कभी...
मैंने सोचा कि सिर्फ
मैं ही तुम पर मरता हूँ,
मगर ये फूलों की
महक, ये घटायें, ये फिजाएँ
ये परिंदों की चहक,
ये मौसम, ये हवायें
ये भौंरा जो सिर्फ कलियों
के लिए मदमस्त रहता है,
ये कम्बख्त कलियों
को छोड़ कर तेरा परवाना हो गया है।
मैं जिन गलियों से
गुजरता था रात-दिन,
अब तेरे बिन ये
गलियां भी अन्जाना सा हो गया है....
ये शहर कभी...
तेरा नाम लिखा है हर
दीवारों पर
आसमां पर, समंदर के
किनारों पर;
दरख्तों के हर
पत्तों पर, ओस के बूंदों पर
अभी कुछ ही पल हुए
हैं तुमसे बिछड़े,
पर ऐसा लगता है,
कि तुमसे बिछड़े हुए
इक ज़माना हो गया है....
ये शहर कभी...
समझाता हूँ बहुत इस
दिल को
पर समझता ही नही;
बिन तेरे इक पल कहीं
ठहरता ही नही,
नींद से उठ-उठ कर
बैठ जाता हूँ
अपने वज़ूद से गुज़र
कर, ख़ुद से रूठ जाता हूँ,
तड़पता है ये दिल
तेरी याद में,
पर अब इस दिल को
मुश्किल मनाना हो गया है....
ये शहर कभी हमारा
हुआ करता था
अब ये शहर भी मेरे
लिए बेगाना सा हो गया है...
अपने नज़रों से दूर कर किया
जब से उसने मुझे, अपने नज़रों से दूर कर किया,
तब से उसने मुझे,
इतना मजबूर कर दिया।
कि मैंने-
इस मोहब्बत की बस्ती
में,
उनकी यादों की कब्र
में
उनके चाहतो के कफ़न
से ढक कर,
मैंने अपने इश्क़ को
दफ़न कर दिया.
जब से उसने...
अब हर रोज़ फूलों की
जगह पर,
आँसुओ को चढ़ा कर
पूजता हूँ उन्हें,
मन्नतें मांगता हूँ,
कि वो जहाँ भी रहे
महफ़ूज़ रहें,
सोचता हूँ शायद मिल
जाये कहीं
इसीलिए रोशनी में
भी, चरागों संग ढूढ़ता हूँ उन्हें,
काश! मिल जाये तो,
हर बात बयां कर दूँ,
अब भी है तुमसे
मोहब्बत, यह कह दूँ,
पर हाय रे! मेरी
किस्मत मेरी नसीब में नहीं,
जब से उसने मुझे
अपने नज़रों से दूर कर दिया-२,
तब से उसने तो मुझे,
चूर चूर कर दिया।
एक तस्वीर है उनकी
मेरे पास
जिसे हर पल सीने से
लगा कर रखता हूँ,
देख न ले कोई, चुरा
न ले कोई,
इसीलिए हर नज़रों से
बचा कर रखता हूँ।
पर वो संगदिल,
वायदा की थी हर कदम
संग- संग चलने की,
पर जब से उसने मुझे,
इस एहसास के दर्द
में छोड़ कर, हमको तन्हा कर दिया
तब से तड़प- तड़प कर
जिया,
ऐसा हाल, मेरा हर
लम्हा कर दिया।
जब से उसने मुझे
अपने नज़रों से दूर कर किया
तब से उसने मुझे
इतना मजबूर कर दिया...
तुम किसी की दुल्हन बन गयी हो
तुम किसी की दुल्हन बन गयी हो
आज तुम किसी की दुल्हन बन गयी हो,
और मेरी उलझन;-२,
मैं तेरे उलझनों में
इस कदर उलझा हूँ,
कि सुलझने का कोई
रास्ता ही नही है।
तुम मुझसे इस कदर
बिछड़ी,
जैसे, तेरे- मेरे
दरम्यां कोई वास्ता ही नहीं है।
हर फ़ासलों को मिटा कर
संग चला था तेरे,
पर अफ़सोस, रास्ते
में ही छूट गया।
साथ न दे सका, साथ न
चल सका मैं,
कोई आया चुपके से,
और- २, मेरी मंजिल
मुझसे ही लूट गया,
और आज तुम उन्हीं की
तन-मन बन गयी हो,
और मेरी उलझन...
तेरी मेंहदी और
काजल,
सदा एक सी रंगत में
रहे,
तेरी चूड़ियों की
खनक, मुझे जगाती रहे,
तेरी ख़ुशबू की महक,
मुझे महकाती रहे,
तेरी आवाज़ मुझे
बुलाती रहे,
और हर वक़्त तुम हमें
याद आती रहे,
तेरे भोलेपन की
सादगी थी कभी संग मेरे,
मगर आज तुम किसी और
की गुलशन बन गयी,
और मेरी उलझन...
आदत सी हो गयी है
उनके बिना ये दिल कहीं लगता ही नहीं
उनके सिवा अब कोई
दिखता ही नहीं,
हर तरफ़ उनका ही चेहरा
नज़र आता है;
जब भी कोशिश करता
हूँ पास जाने को
कोई चेहरा इक पल भी
ठहरता ही नहीं,
अब उन्ही के चेहरे
की चाहत सी हो गयी है
उनके लब से मेरी
मुस्कराहट हो गयी है.
सोचता हूँ हर पल
उनको
याद करता हूँ पल-पल
उनको
हर बेबशी में करार
सी देती थी वो;
हर ख़ामोशी में आवाज़
देती थी वो
मगर अब दर्द देती है
वो
अश्कों को पोछने
वाली रुला देती है अब
तकलीफ़ इतना बढ़ा दी
है कि
उफ़ भी नहीं कर पाता
हूँ,
अब ख़ामोशी इस कदर
बढ़ा दी है कि
एक लफ्ज़ भी नहीं कह
पाता हूँ
हर पल संग बिताने का
वादा किया था उसने
है प्यार जितना इस
जहाँ में
उस प्यार से ज्यादा
प्यार किया था उसने,
अब मेरे हाथ दर्द
लगे हैं
क्या करे ये दिल
बेचारा
ये तो प्यार करने का
सिला है,
शायद इसीलिए इस दिल
को
उनके ज़ख्मों की आदत
सी हो गयी है...
एक सवाल पूछता हूँ
आज मैं तुमसे एक सवाल पूछता हूँ,
जवाब दोगी ना, दोगी
ना जवाब?
सवाल ये हैं कि,
क्या तुम कभी तड़पती
हो, किसी से बातें करने के लिए?
क्या तुम कभी रोती
हो, किसी से मिलने के लिए?
क्या तुम कभी सिसकती
हो, किसी को देखने के लिए?
मैं तड़पता हूँ, मैं
रोता हूँ, मैं सिसकता हूँ-२,
सिर्फ,
तुम्हीं से बातें
करने के लिए,
सिर्फ,
तुम्हीं से मिलने के
लिए,
सिर्फ,
तुम्हीं को देखने के
लिए-२।
जानती हो?
शीशे की उम्र कितनी
छोटी होती है,
होती है ना?
प्यार का सफ़र कितना
थोड़ा होता है, होता है ना?
पर दोनों बहुत ही
नाज़ुक होते हैं,
शीशे को कितनी भी
हिफाज़त से रखा जाये,
एक दिन टूट ही जाता
है.
कितना भी सम्भल कर
चला जाये,
प्यार का सफ़र एक दिन
छूट ही जाता है।
मगर शीशा जब टूटता
है तो सबको पता चलता है,
लेकिन जब दिल टूटता
है तो सिर्फ दिल को ही पता चलता है।
ऐसे ही मेरा दिल
टूटा है-२,
ऐसे ही किसी ने मेरे
खुशियों लूटा है
ऐसे ही मेरे प्यार
का सफ़र छूटा है,
जो कि सिर्फ मुझे ही
पता चला है,
क्या तुम बता सकती
हो, ऐसा क्यों?
है कोई जवाब! दो ना
जवाब, जवाब दो ना..
एक सवाल पूछता
हूँ...
मुझे तड़प सहने का खूँ है
मुझे तड़प सहने का खूँ है
मुझे तड़प सहने का खूँ है,
बस अब यही जुस्तज़ू
है;
ज़रा याद कर लो वो
बीती बातें,
कभी आपसे में हुई जो
गुफ़्तगूँ है।
तमाशा-ए-मिरी
मोहब्बत बन गयी,
मगर उनको सुकूं
है...
तभी तो हँस लेता
हूँ, इस गम-ए-आज़ार में,
बस अब यही आरज़ू है.
उनके तगाफ़ुल को ज़िगर
से लगा लिया,
टूटे दिल को ग़मों को
देखने का आईना बना लिया,
अब खोने को मिरे पास
कुछ भी ना रहा,
पाने की कोई ख़्वाहिश
ना रही,
अब जीने का कोई
जरिया न रहा,
और मरने की कोई
फ़रमाईश ना रही।
उनकी याद ही काफी
है, मिरे जीने के लिए,
मिले जो गम हमें
उनसे, काफ़ी है मिरे मरने के लिए,
जब मैं सोचता हूँ ना
करूँ उन्हें याद,
फ़क़त ये दिल रूठ जाता
है।
सोचता हूँ जब किसी
और को ज़हन में बिठाना,
तो कम्बख़्त ये दिल
टूट जाता है,
अब तो उन्हें पाने
की मुझे जुनूं है,
वो मिल जाये मुझे,
बस यही जुस्तजू है...
होश सम्भाला है जब
से मैंने,
ग़र्दिश-ए-वाक्याँ
तमाम हुआ।
कुछ ख़बर ना मिली
मिरे माहताब की,
ना जाने कब दिन और
कब शाम हुआ।
बेदख़ल हुआ जिस वक़्त
मैं उनके दिल से,
यकीं करो मैं रोया
भी नहीं,
इतने दिन गुजार दिए
इंतज़ार में,
और आज तलक सोया भी
नहीं।
दिल-ए-नादां परेशां
है, उन्हें पाने के लिए,
इक खूँ अभी बाकी है, मिरे जीने के लिए,
काश! तू अब भी आ
जाये, बस यही आरजू है,
मुझे तड़प सहने का
खूँ है,
अब बस यही ज़ुस्त्जू
है...
(तगाफ़ुल= उपेक्षा)
चलो...मोहब्बत की बातें करते हैं
चलो...मोहब्बत की बातें करते हैं
I
चलो आज तुमसे मोहब्बत की बातें करते हैं
क्या होती है
मोहब्बत...!
और जब हो जाती है,
तो किससे और कैसे
होती है मोहब्बत?
वैसे हमने सुना तो
बहुत है...
कि लाखों जान गवाएं है
इस मोहब्बत में
वो शून्य में समां
गये, अब नही रहे,
फिर भी वो आज तलक
समायें हैं, इस मोहब्बत में.
चलो बताते है...कि
मोहब्बत एक जाट होती
है,
जो किसी जंगल में जा
ठहरे;
किसी बस्ती में बस
जायें,
मोहब्बत हमेशा साथ
होती है
खुशबू की लय की तरह,
मोहब्बत हमेशा याद रहती
है
मौसम की दम की तरह।
मोहब्बत दास्तानों
से निकलते वादियों की खुशबू
मोहब्बत जंगलो में
नाचती मोरों की लय,
मोहब्बत बढ़ती
सर्दियों की धूप बनती है;
मोहब्बत हवाएं है,
मोहब्बत रंगीन फिज़ाएं है।
मोहब्बत अजनबियों की
दुनिया में
अपनी गाँव की तरह
है,
मोहब्बत तड़प की धूप
में,
सुरीली छांव की तरह
है.
मोहब्बत दिल है,
मोहब्बत जाँ है
मोहब्बत हर रूह की
अरमां है,
मोहब्बत मूरत है, जो
दिल की मंदिर में रहती है
यदि मोहब्बत कही टूट
जाये तो,
ये कांच की गुडिया
की तरह है...
II
चलो बताते हैं...
मोहब्बत तड़प है, ये इक कसक है
मोहब्बत जुनूं है,
ये इक सुकूं है,
यदि किसी को हो जाये
किसी से मोहब्बत
तो उसके लिए खुदा है
मोहब्बत,
और उसके लिए सबसे
जुदा है मोहब्बत
मोहब्बत आरजू है, ये
जुस्तजूं है
मोहब्बत दिल की
मन्नत है,
और ख़्वाबों की ज़न्नत
है,
जो कही ढल जाये, तो
ये क़यामत है,
और कही मिल जाये, तो
ये इनायत है.
वक्त के दो पल में
हो जाती है मोहब्बत किसी से
संग में बिताये
प्यार के दो लम्हों में.
कोई बच जाता इससे,
तो
मै कब का बच गया
होता,
हो सकता मैं उनका,
तो
कब का उनका हो गया
होता.
मोहब्बत वो लहर जो,
जो दुनिया को बहा सकती है
मोहब्बत वो शहर है,
जो दुनिया को बसा सकती है,
मोहब्बत वो रौशनी है
जिसको किसी चरागों
की जरुरत नही होती,
मोहब्बत वो रिश्ता
है, जो
हो जाने पर, फिर
किसी और रिश्तों की जरुरत नही होती.
मोहब्बत किसी को मिल
जाये, तो
फिर कुछ कमी नही
होती,
यदि मोहब्बत किसी से
हो जाये, तो
फिर ऑंखें कभी नम
नही होती।
मोहब्बत बयां करना
इतना आसां काम नही
जो न माने मोहब्बत
को,
उसका इस जहाँ में
काम नही,
यदि ना होती मोहब्बत
इस जहाँ में,
तो ना कोई सुबह और
ना ही शाम होती...
मोहब्बत ज़ख़्म है तो
दवा भी है
मोहब्बत ख़ामोशी है
तो जुबां भी है,
मोहब्बत आशिकों की
जां है, ये इक एहसास है
मोहब्बत हज़िबों की
ख़्वाब है, ये दो दिलों की दास्ताँ है,
तुम इस तरह क्यों चली गयी
तुम इस तरह क्यों चली गयी
I
तुम इस तरह क्यों चली गयी
तुम्हें जाना ही था,
तो
क्यों इस तरह नज़रे
ही मिला गयी।
तुम क्या समझती हो
कि मैं सच में पागल
हूँ,
मैं कुछ भी नहीं
समझता
क्या समझती हो तुम
कि मैं तुम बिन रह
लूँगा,
तू मेरे पास ना रहे
और मैं चैन से जी
लूँगा,
किसने कहा कि मैं
चैन से रह सकता हूँ
किसने कहा कि मैं
तुम बिन जी सकता हूँ.
अरे... तुम्हें क्या
मालूम
मैं तेरे बिन नहीं
जी सकता,
अरे... मेरा जीना तो
दूर
तुमसे बिछड़कर मैं तो
मर भी नहीं सकता।
मेरी धड़कने तुम्हीं
से है
और मेरी धड़कन मुझसे
दूर जाये,
और मेरी सांसे आती
रहे, कहां मुमकिन है,
ये सब, किस तरह मैं
तुम्हे बताऊँ
कि मैं तुम्हें
कितना याद करता हूँ,
अच्छा छोड़ो ये सब,
सुनो ये बताओ
कि तुम इस तरह क्यों
चली गयी
तुम्हें जाना ही था,
तो
क्यों मुझसे इस तरह
नज़रे मिला गई..
तुम इस तरह...
II
सुनो, क्यों बेखुदी में इम्तहाँ लेती हो मेरी
क्यों बेबसी में जाँ
लेती हो मेरी,
इतनी हयापन आएगी
तुझमे
मैंने कभी सोचा ही
नहीं था,
मेरी धड़कनों की
बेबशी तुम ना समझोगी
और मैं तुमको समझा
भी ना सकूँगा,
क्योंकि मेरी
कमजोरियों को तुम जानती थी
तुम जानती थी
कि मैं तुम बिन कुछ
नही कर सकता,
तो फिर क्यों इस कदर
चली गई
अगर जब जाना ही था
तो क्यों इस कदर
नजरें मिला गई...
तुम इस तरह...
सुनो क्या तुम जानती
हो
दीवानेपन की तड़प
क्या होती है,
तुम्हारी याद क्या
होती है
तुम्हारी याद यदि
हंसा कर आती है
तो हंसाती ही रहती
है,
तुम्हारी याद यदि
रुलाकर आती है
तो रुलाती ही रहती
है।
और जब मुझे हँसाना
ही था
तो क्यों दो पल
हंसाकर चली गयी
बताओ ना... क्यों
चली गयी,
और जब जाना ही था
तो क्यों इस तरह
नजरें मिला गयी।
तुम इस तरह...
तुम मेरे वज़ूद से
वाकिफ़ थी
अगर ये बताना
मुनासिफ़ ना था,
तो बस इतना बता देते
कि तुम इस तरह क्यों
चली गयी...
तेरे गलियों में गया
तुम्हें देखने को दिल ने कहा
तेरे गलियों में
गया,
और रात भर सोचता रह
गया
सोचा, शायद इक झलक
तो मिलेगी
तुम्हें पता था, फिर
भी हम पर रहम ना आया,
सुबह हो गयी, फिर भी
तू ना आयी
तेरी राह तकता रह
गया
मैं सारी रात जगता
रह गया...
वैसे तो तुम रोज ज़ुल्फ़ें
सुखाने निकलती थी,
पर अब क्या तुमने
ज़ुल्फ़ों को धुलना बंद कर दिया.
क्या खता हुई मुझसे
जो तुमने मुझे देखना
नापसन्द कर दिया,
ओस की बूंदें छट गयी
धूप आ गया, पर तू ना
आयी,
पहले तो तुम्हें
ख़्वाबों में देख कर
तसल्ली मिल जाती थी,
पर तुम इतनी नाराज़
हो गयी हो, कि
ख़्वाबों में भी
तुमने आना बंद कर दिया...
कौन सी है मेरी ज़फ़ा
क्यों नहीं बताती
हो,
क्या मिलता है तुमको
क्यों इतना रुलाती
हो,
क्यों तेरा दिल
पत्थर का हो गया
क्यों इतना सताती
हो,
पहले तो तुम्हें याद
करके जी लेता था मैं
मगर, अब तो तुमने
यादों में आना ही बंद कर दिया...
मिलना बंद कर दी,
बातें भी नही करती
याद भी नही करती,
कुछ वादें भी नहीं करती,
मैं तो तुम्हें
मिलने तेरे गलियों में गया
पर तू ना आयी,
मैं सारी रात जगता
रह गया
तू खिड़की से झांकती
रही,
मैं तुम्हें देखने
को सिसकता रह गया
और, हर लम्हा तन्हा
तड़पता रह गया...
जानती हो?... तेरे
बिना क्या हाल है मेरा
अब तो...
सारी खुशियों ने
मुझसे रंजिश कर ली हैं
मेरी हंसी ने मुझ पर
ही बंदिश कर दी है,
चारों तरफ़ गर्दिश
नज़र आता है
मुश्किल तो इतना हो
गया है, कि
कोई मेरी दास्तां
सुनता ही नही है,
जिस किसी से बयां
करना चाहा हाल-ए-दिल
कोई मेरे पास बैठता
ही नही है,
सबने ठुकरा दिया,
तेरे चले जाने के बाद
पर मैं तुमसे मिलने
के लिए,
इंतजार करता रह गया
सारी रात जगता रह
गया
दिल ने तुम्हें
देखने को कहा,
तेरे गलियों में
गया,
...मज़ार बन गया
...मज़ार बन गया
ज़नाज़ा भी ना उठा, और मज़ार बन गया
उनसे तकाज़ा भी ना
हुआ, और मिरा जीना दुस्वार हो गया।
हकीकत बयां है इस
बर्क-ए-साजे-दिल से,
यकीकन वो देख ले,
मैं गुज़र रहा हूँ किस मुश्किल से।
सोचा था मर कर चैन
से सो जाउँगा,
हमें क्या खबर थी,
कि वो अब भी सतायेंगे।
सोचा था तन्हा रह
लूँगा अपनी क़ुर्बत में,
हमें क्या खबर थी,
कि वो आ जायेंगे किसी फुर्कत में।
आकर वो भी कभी
अश्कों से वफ़ा जताएंगे,
हमें क्या खबर थी,
कि, वो इस कदर आजमायेंगे।
आज बेवफ़ाई के मंज़र
में मिरा वफ़ा करना बेकार हो गया,
उनसे तकाज़ा भी ना
हुआ, और मिरा जीना दुस्वार हो गया।
ज़नाज़ा भी ना उठा, और
मज़ार बन गया...
ना जाने तू कहाँ रह गयी
मुझे ज़िन्दा ज़ला दो, या दफ़न कर दो
मेरी तो बस एक ही
ख्वाहिश रह गयी, कि
सभी तो चले गये,
मिरे ज़नाज़े पे फूल चढ़ाने
पर ऐ मेरी मोहब्बत!
ना जाने कहाँ तू रह गयी।
जब सबने देखा तो सिर
झुका लिए
दर्द था शायद मेरे
ज़नाज़े को देख कर,
मैं कब्र में पड़ा
सोचता रह गया
कि काश! तू भी आये,
पर ना जाने कहाँ तू रह गयी।
सभी आयें मिरे मज़ार
पर, दो फूल चढ़ा गये
कोई रोया जी भरके,
कोई अश्कों को पी गये,
सोचा था शायद, तू
अश्क के दो बूंद ही गिराये
पर ना जाने कैसे, तू
भी उन अश्क़ों को पी गयी।
ना जाने कहाँ तू रह
गयी...
दुआ करना कि अब कभी
सामना ना हो
सावन की घटा छाये,
पर बारिश ना हो,
मोहब्बत की बरसात
में सभी भीग गये
पर ना जाने कैसे तू
बच गयी।
ना जाने कहाँ तू रह
गयी...
ज़र्रे- ज़र्रे से इक
आवाज़ आती है, आज तक
सुकूं से सोया था,
मैं अपनी कब्र में,
पर तेरी याद जगाती
रही, आज तक
मैं सोचता हूँ,
शायद रात भर, तू भी
जगी होगी मेरी याद में,
पर ना जाने कैसे तू
सोती रही...
सभी तो चले गये,
मेरे ज़नाज़े पर फूल चढाने,
पर ऐ मेरी मोहब्बत!
ना जाने कहाँ तू रह गयी...
काश! तू ना मिलती
काश! तू ना मिलती तो अच्छा होता-२,
चैन से जीता तो, अब
तो मर भी नही पाता;
सुकूं से सोता तो,
अब तो जग भी नही पाता।
खुद का दिल तबाह कर
दिया
अपने दिल को तो ना
तड़पाता,
सोचता हूँ कि,
काश! तू ना मिलती तो
अच्छा होता...
दो पल मिल कर, उम्र
भर की जुदाई दे दी,
दो पल संग में
गुजारी, अब मुझे तन्हाई दे दी;
क्यों बिछड़ गयी
मुझसे,
क्या खता हो गयी
मुझसे;
बता देती, क्यों इस
तरह छोड़ गयी,
अब जब भी गुज़रे
लम्हें याद करता हूँ, तो
बस इतना ही याद करता
हूँ, कि
काश! तू ना मिलती तो
अच्छा होता...
तुम्हें शर्म भी ना
आयी, मेरा चैनों सुकूं ले ली,
बदले में सारे जहाँ
की रुस्वाई दे दी;
सोचता हूँ तुमसे दिल
को ना लगाता,
तो मुझे तड़पना तो ना
पड़ता;
पहले ही पता चल
जाता,
तो मुझे रोना तो ना
पड़ता;
अब यही सोच कर जीता
हूँ, कि
काश! तू ना मिलती तो
अच्छा होता...
पहले एक ख्वाब था,
कि कोई अपना हो,
जिससे बयाँ कर सकूँ
अपना हाल-ए-दिल
कह सकूँ जिससे अपने
सारे मुश्किल,
तुमसे दूर होकर बस
यही सोचता हूँ कि,
काश! तू ना मिलती...
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