शाहनाज़ इमरानी की कविताएँ
शहनाज इमरानी |
नाम - शाहनाज़ इमरानी
जन्म स्थान - भोपाल (मध्य प्रदेश )
शिक्षा - पुरातत्व विज्ञानं (आर्कियोलोजी) में
स्नातकोत्तर
सृजन - कई पत्रिकाओं में कविताएँ छपी हैं।
पहला
कविता संग्रह "दृश्य के बाहर"
पुरस्कार - लोक
चेतना की साहित्यिक पत्रिका "कृति ओर" का प्रथम सम्मान !
संप्रति - भोपाल में अध्यापिका
‘आजादी’ शब्द अपने
स्वरुप में भले ही सामान्य सा लगे-दिखे लेकिन इसके मायने अपने आप में बहुत बड़े होते
हैं। फ्रांस की क्रान्ति के दौरान पहली बार ‘स्वतन्त्रता,
समानता, बन्धुत्व’ का नारा लगाया गया था जो शीघ्र ही विश्व-व्यापी नारा हो गया था।
एक मनुष्य के तौर पर जब भी हम कुछ बेहतर स्थिति में होते हैं, जब दूसरे मनुष्य के
बारे में उदारतापूर्वक सोचते हुए बिना किसी भय या संकोच के हम उसे बराबरी के स्तर
पर रखते हुए वास्तव में उसके साथ बराबरी का व्यवहार करते हैं तो वह आजादी होती है
जो हम आतंरिक तौर पर महसूस करते हैं। मानव के विकास क्रम में कई ऐसी सामाजिक संस्थाएं
अस्तित्व में आयीं जिनका उद्देश्य समाज का सुचारू संचालन था। यह अलग बात है कि इन
संस्थाओं के भीतर ही इतने अधिक अंतर्विरोध थे कि असमानता स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती
थी। दुर्भाग्यवश यह आज भी जारी है। जाति, धर्म, वर्ग, लिंग, नस्ल, भाषा आदि कारकों
को ले कर आज भी लोगों के साथ असमानताएं बरती जाती हैं। शाहनाज इमरानी ‘आजादी’ नामक
अपनी कविता में व्यंग्य करते हुए इसे व्याख्यायित करते हुए लिखती हैं – ‘अब उड़ने
की ख़्वाहिश पर/ क़ब्ज़ा है बहेलिया का/ चिड़िया के लिए/ आज़ादी का अर्थ है पिंजरा/ सुरक्षित
है पिंजरे में चिड़िया।’ आज
शाहनाज इमरानी का जन्मदिन है। उन्हें
जन्मदिन की शुभकामनाएँ देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी कुछ नयी कविताएँ।
1. उदासीनता
कुछ
यूँ लग रहा है
कि थम
गयी हो हर चीज़ जैसे
ख़्याल
को लग गया हो ज़ंग
वो
बे-तरतीब सी बातें
बीच
में खो गयीं कहीं
जिन
पर नहीं लिखा था पूरा पता
बर्फ़
सी जमी उदासीनता
सब
तरफ और होने के
नाटक
में शामिल हूँ ---मैं
खुद
से बच कर निकलना चाहती हूँ
पर
बच कर निकलने वालों के पास
आती
नहीं है -- कविता
!!
2. हम
कविता
में थोड़े से तुम
थोड़ी
सी मैं
तुम
कुछ मेंरे जैसे
कुछ
तुम्हारे जैसी मैं
होना
घटना है अगर
सचमुच
हैं "हम"।
3. आज़ादी
बच गई
शिकार होने से
खुश है चिड़िया
अब
उड़ने की ख़्वाहिश पर
क़ब्ज़ा
है बहेलिया का
चिड़िया
के लिए
आज़ादी
का अर्थ है पिंजरा
सुरक्षित
है पिंजरे में चिड़िया।
4. विस्मृति का रिसायकल बिन
अपने
मायनों के साथ ही
आया
उपेक्षा शब्द जीवन मे
सहजे
गये अपनेपन से
हाथों
ने उलीचा अपना ही दुख
उदासी
में सूखते होठों पर
हँसी
का लिप गार्ड लगा कर
समझी
कि सब कुछ है ‘सामान्य’
यक़ीन
था कि शाश्वत है ‘प्रेम’
पर
उदासीन चीज़ों का क्या?
एक
तीसरा ख़ाना
जब कि
सही ग़लत के लिये है
दो ही
ख़ाने
कुछ
देर में अनुपस्थिति से उपस्थिति की तरफ़
लौटते हुए मैंने जाना कि
सभी
पहाड़ों से लौट कर नहीं आती आवाजें
और नदी पहाड़ों में बहते रहने से
नहीं
हो जाती पहाड़ी नदी
अन्दर
आई बाढ़ के उतरने के बाद
आख़िर
एक चोर दरवाज़ा
तलाश
ही लिया ख़ुद के लिए
अब
बची हुई औपचारिकता में
बातों
के वही अर्थ हैं
जो
होते हैं आमतौर पर।
5. हादसे के बाद
कितने
लोग मेरी तरह
सुबह
उठ कर इस डर में
अख़बार
देखते होंगे
कहीं
कोई बम न फटा हो
किसी
जगह हमला
तो
नहीं कर दिया
कहीं आंतकवादियों ने
हर
हादसे के बाद लगता है
मुझे
घूरती हैं मुझे कुछ नज़रें
बातें
कुछ सर्द हो जाती हैं।
6. एक समय था
एक
कहानी थी
एक
लड़का था
एक
लड़की थी
बारिश
थी
पानी
में भीगते फूल थे
झील
में लहरें थीं
गुमठी
पर चाय पीते
दोनों
भीगे हुए थे
हवा
में गूंजती
दोनों
की हँसी थी
बहुत
कुछ लौट कर
आता
है ज़िन्दगी में
बारिशें, फूल
लहरें
और हँसी
नहीं
लोटा तो
गुमठी
वाली
चाय
का वो स्वाद।
7. प्रतीक्षा
धीरे-धीरे उगता
अलसाया
सा सूरज
रौशनी
का जाल
फैंकता
ठन्डे हाथों से
साम्राज्य
में कोहरे के
पड़ने लगी
दरारें।
8. बाज़ार
कम
उम्र में बड़ी
आमदनी
देता
है बी. पी. ओ. का कॉल सेन्टर
घूमता
है सब सेंसेक्स, सेक्स
और
मल्टीप्लेक्स के आस-पास
समय का सच
तय
करते है बाज़ार
और विज्ञापन
पूँजीवाद
को बढ़ाता बाज़ार
सिमटी
सकुड़ी बन्धुता
सारे
सरोकारों दरकिनार
इंसान की जगह लेती मशीने
मौजूद
है हर
जगह प्रतिस्पर्धा
चेहरे
कितने ही बदल
गए हों।
9. कमरे की अकेली खिड़की
तुमसे
मिल कर लगा
तुम
वही हो न
अपने
ख़यालों में अक्सर
मिलती
रही हूँ तुम से
ख़याल
की तरह तुम हो भी
और
नहीं भी
तुमसे
बातें यूँ की हैं जैसे
सदियों
से जानती हूँ तुम्हे
बिछड़ना
न हो जैसे कभी तुमसे
शायद
तुम्हें पता न हो
इस
कमरे की अकेली
खिड़की
तुम हो
मेरी
हर साँस लेती है
हवाएँ
तुम से।
(यह
कविताएँ 'सदानीरा' के अंक 11 में छपी हैं।)
10. चले गये पिता के लिए
बेपरवाह सी इस दुनिया में
मसरूफ़ दिन बीत जाने के बाद
तुम्हारा याद आना
पिता तुम
मेरे
बहुत अच्छे
दोस्त थे
हम दोनों
तारों को देखा करते
आँगन में लेटे हुए
बताया था तुम्हीं ने
कई रंगों के होते है तारे
और तुम भी एक दिन
बन गए सफ़ेद
तारा
देखना छोड़ दिया मैंने तारों को
पिता होने के रौब और ख़ौफ़ से दूर
काँधे पर बैठा कर तुमने दिखाया था
आसमान वो आज भी
इतना ही बड़ा और खुला है
सर्वहारा वर्ग का संघर्ष
कस्ता शिकंजा पूँजीपतियों का
व्यवस्था के ख़िलाफ़
नारे लगाते और
लाल झंडा उठाये लोगों के बीच
मुझे नज़र आते हो तुम
समुंद्र मंथन से निकले थे
चौदह रत्न एक विष और अमृत भी
देवताओं ने बाँट लिया था अमृत
शिव ने विष को गले में रख लिया
जहाँ खड़ा था कभी मनु
खड़ा है वहीँ उसका वारिस भी
पिता तुम्हारी उत्तराधिकारी
मैं ही तो हूँ।
11. ढोल
मंदिर में भजन गाती हैं स्त्रियां
हर शाम होती
है पूजा और धीरे -धीरे बजता ढोल धार्मिक कार्यक्रम हो विवाह ,या हो कोई त्योहार वो कमज़ोर
लड़का अपनी पूरी
ताक़त से बजाता
है --- ढोल उसकी काली रंगत और उसके पहनावे का अक्सर ही बनता है मज़ाक़ कहते है उसे ‘हीरो ज़रा दम लगा के बजा’ ख़बरों से बाहर के लोगों में शामिल नफ़रत और गुस्से में पीटता है वो
ढोल नहीं होते हैं इनके जीवन में बलात्कार, आत्महत्या और क़त्ल या कोई दुर्घटना जो हो सके अखबारों में दर्ज नहीं है इनका जीवन मीडिया के कवरेज के लिए इनके साथ कुछ भी हो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता गंदे लोगों में है इनका शुमार रहती है गाली इनकी ज़ुबान पर पीते हैं शराब ,करते हैं गैंग वार मान लिया गया है इन्हे हिंसक ज़मीन नहीं / पैसा नहीं राजनीतिक विमर्श से कर दिया गया है बाहर ड्रम बीट्स और आर्टिफिशियल वाद्ययंत्रों में भूलते गये हम --- ढोल फेंके गये सिक्कों को खाली
जेबों के हवाले कर चल देता है अँधेरी और बेनाम बस्ती की ओर हमारी मसरूफ़ियत से परे है इसका होना घसीटता चलता है अपने पैरों को गले में लटका रहता ख़ामोश और उदास ढोल।
12. पुरस्कृत होते चित्र
रोटी की ज़रूरत ने
हुनरमंदों के काट दिए हाथ
उनकी आँखों में लिखी मजबूरियाँ
बसी हैं इंसानी बस्तियां
रेल की पटरियों के आस-पास
एन. जी. ओ. के बोर्ड संकेत देते है
मेहरबान अमीरों के पास
इनके लिए है जूठन, उतरन कुछ रूपये
यही पैतृक
संपत्ति है
यही छोड़ कर जाना है तुम्हे
बच्चों के लिए
तुम्हारे लिए गढ़ी गई हैं कई परिभाषाएं
देख कर ही तय होती है मज़दूरी
वो खुश होते है झुके हुए सरों से
इनकी व्याख्या करते हैं कैमरे के
फ़्लैश
और पुरस्कृत होते हैं चित्र।
13. सरकारी पाठशाला
गाँव
में सरकारी पाठशाला खुलने से
गाँव
वाले बहुत खुश थे
पाठशाला
में बच्चों का नाम दर्ज कराने का
कोई
पैसा नहीं लगेगा
किताबें, यूनिफॉर्म, दोपहर का भोजन
सब
कुछ मुफ़्त मिलेगा
तीन
कमरों की पाठशाला
दो
कमरे और एक शौचालय
प्रधान
अध्यापिका, अध्यापक और चपरासिन
सरपंच
जी ने चौखट पर नारियल फोड़ा
दो
अदद लोगों ने मिल कर
राष्ट्रीय
गीत को तोड़ा-मरोड़ा
सोमवार
से शुरू हुई पाठशाला
पहले
हुई सरस्वती वन्दना
भूल
गए राष्ट्रीय गान से शुरू करना
अध्यापक
जब कक्षा में आये
रजिस्टर
में नाम लिखने से पहले
बदबू
से बौखलाये
बच्चों
से कहा ज़रा दूर जा कर बैठो
मैं जिसको
जो काम दे रहा हूँ
उसे
ध्यान से है करना
नहीं
तो उस दिन भोजन नहीं है करना
रजिस्टर
में नाम लिखा और काम बताया
रेखा , सीमा, नज़्मा तुम बड़ी हो
तुम्हे
भोजन बनाने में
मदद
करना है चम्पा (चपरासिन) की
झाड़ू
देना है और बर्तन साफ़ करना है
अहमद, बिरजू गाँव से दूध लाना
कमली, गंगू
पीछे
शौचालय है
मल
उठान और दूर खेत में डाल कर आना
तुम
बच्चों इधर देखो छोटे हो पर
कल से
पूरे कपड़े पहन कर आना
सब
पढ़ो छोटे "अ" से अनार बड़े "आ" से आम
भोजन
बना और पहले सरपंच जी के घर गया
फिर
शिक्षकों का पेट बढ़ाया
जो
बचा बच्चों के काम आया
दिन
गुजरने लगे
रेखा, नज्मा का ब्याह हो गया
अब
दूसरी लड़कियाँ झाड़ू लगाती है
अहमद, बिरजू को अब भी
अनार
और आम की जुस्तजू है
कमली, गंगू मल ले कर जाते है
खेत
से लौट कर भोजन खाते
कभी
भूखे ही घर लौट जाते
छोटे
बच्चे अब भी नंगे हैं
छुपकर
अक्सर बर्तन चाट लेते हैं
कोई
देखे तो भाग लेते हैं
चम्पा
प्रधान अध्यापिका के यहाँ बेगार करती है
कुछ
इस तरह से गाँव की पाठशाला चलती है।
(उपर्युक्त कविताएँ पहल 102 में छपी हैं।)
संपर्क -
ई-मेल - shahnaz.imrani@gmail.com
मोबाइल - 9753870386
(इस पोस्ट में शामिल पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)
बहुत सुन्दर और यथार्थपरक कविताएँ
जवाब देंहटाएंशहनाज़ को उनके जन्मदिन और उनकी दिलकश कविताओं के लिए खूब बधाईयाँ । बहुत डूबकर लिखती हैं । जिंदगी की डायरी सी ।
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कविताएँ, बधाई शहनाज़ जी, शुक्रिया संतोष जी |
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