सत्यनारायण पटेल के उपन्यास ‘गाँव भीतर गाँव’ की शशिभूषण मिश्र द्वारा की गयी समीक्षा 'विकास का राजनीतिक समाजशास्त्र और हाशिए का समाज'
सत्य नारायण पटेल |
विकास का राजनीतिक समाजशास्त्र और हाशिए का समाज
डॉ० शशिभूषण मिश्र
सत्यनारायण पटेल हमारे संक्रमित समय के ऐसे युवा कथाकार हैं जिन्होंने
अपनी रचनाओं में समकालीन जीवन के गत्यात्मक यथार्थ को पूरी विश्वसनीयता के साथ रेखांकित किया है। विकास की
जमीनी सच्चाइयों, हाशिए के समाज के संकटमय जीवन और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी ग्रामीण राजनीति से साक्षात्कार
कराने वाला उनका उपन्यास ‘गाँव भीतर गाँव’ उल्लेखनीय हस्तक्षेप दर्ज कराता है। 320 पृष्ठों में विन्यस्त इस रचना में हमारे समय के
अंतर्विरोधों में उलझे ‘विवश ग्रामीण यथार्थ’ की गहन पड़ताल की गई है। अनूठी कथा-भाषा में यह
रचना हमसे बोलती-बतियाती अपने सुख-दुःख साझा करती हमें अपना हिस्सा बना लेती है।
उपन्यास पढ़ते हुए हम असंख्य बेबस चेहरों पर पड़े जख्मों की निशानदेही कर पाते हैं जो
विकास के राजनीतिक समाजशास्त्र ने दिए हैं। रचना में प्रवेश करते ही पाठक का सामना आपदग्रस्त जीवन जी रहे समाज के
ऐसे हिस्से से होता है जिनके जीवन में निरुपायता
और अन्धकार का साम्राज्य पसरा पड़ा है। समय के अनगिनत उतार-चढ़ावों से जूझ रहे समाज के स्वप्नों का चित्रण लेखक ने जिस अचूक और
मर्मभेदनी दृष्टि से किया है उसके
चलते उपन्यास शुरुआत से अंत तक बेहद पठनीय
बना रहता है। पिछले दो दशकों के समूचे कालखंड को समेटते हुए उपन्यास के डिटेल्स
अप-टू-डेट हैं। अपने समकाल पर समग्र दृष्टि से विचार करते हुए सत्यनारायण पटेल ने
सत्ता-व्यवस्था की कारगुजारियों और इन्हें चलाने वाली प्रतिगामी शक्तियों की पहचान
की है।
उपन्यास मृत्यु से शुरू हो कर समय की तकलीफों-हकीकतों से मुठभेड़ करता
आगे बढ़ता है और जीवन-संघर्षों की अनथक यात्रा का स्पर्श कर मृत्यु पर समाप्त होता
है। उपन्यास की शुरुआत गाँव के युवा
हम्माल कैलाश की मृत्यु के प्रशमित
वातावरण में होती है। कैलाश के
जीवन के अंत के साथ उसकी पत्नी झब्बू के जीवन में अन्धकार छा जाता है। इक्कीस–बाईस
साल की उसकी उमर थी और आगे का पूरा जीवन –“जब झब्बू राड़ी-रांड हुई, तब उसकी गोद
में तीन–चार बरस की रोशनी थी। आँखों में सपनों की किरिच और सामने पसरी अमावस की
रात सरीखी जिन्दगी जो अकेले अपने पैरों पर ढोनी थी।” (पृष्ठ-13) कैलाश की इस
मौत ने झब्बू को ही बेसहारा नहीं कर दिया था उसके झोपड़े
के सामने वाले नीम के पेड़ में रहने-पलने वाले पक्षी और जीव भी स्तब्ध थे, मानो आज
वो सब बे-आवाज हो गए हों। उपन्यास कैलाश की मृत्यु
के कारणों की पड़ताल करने के क्रम में विकास के खोखले दावों की खुरदुरी सचाई से रू-ब-रू कराता है। दरअसल गाँव और महानगर को
जोड़ने वाला रास्ता मौत को आमंत्रित करता छोटी-छोटी खाइयों में तब्दील हो गया है।
उसी रास्ते से लौट रहे ट्रैक्टर की ट्राली
पलटने से कैलाश सहित कई साथियों की मौत होती है। ट्राली में लदी खाद की बोरियों के
बहाने लेखन ने व्यवस्था की नीतियों पर महत्वपूर्ण टिप्पणी की है - “बोरियां भी
मानो बोरियां नहीं, बल्कि जीती-जागती आम–आवाम हों, जिसे व्यवस्था की काली नीतियों
की रस्सियों से बाँध, ट्राली में भर, किसी अंधी गहरी विकास की खाई में डालने ले
जाया जा रहा हो और रस्सियों में बंधी बोरियां भीतर ही भीतर कसमसातीं, छटपटातीं
शायद ट्राली के बाड़े से मुक्ति की जुगत तलाश रहीं हों।” (पृष्ठ-09) कहन का
बिलकुल भिन्न अंदाज और भाषा का बेधक तेवर
पूरे औपन्यासिक विधान को ताजगी से भर देता है। व्यंग्य का गहरा बोध समूची रचना की
अर्थ-लय में अंतर्भुक्त है।
कैलाश के न रहने के बाद झब्बू ने अपने डोकरा-डोकरी (माँ-पिता) के
प्रस्ताव को (मायके में रहने) ठुकराते हुए गाँव के झोपड़े में रहने का निर्णय किया।
झब्बू के सामने गाँव में हजारों प्रलोभन थे पर उनको नकारती वह सिलाई सीखती है और
आत्मनिर्भर बनती है। गाँव में उन झोपड़ियों के पास कलाली (देशी शराब) खुलने के साथ
एक नए संकट की शुरुआत होती है। झब्बू के नेतृत्व में झोपड़े की औरतें साहसिक और
सामूहिक प्रतिरोध करती हैं जिसके चलते जाम सिंह को कलाली वहाँ से हटानी पड़ती है।
कलाली हटवाने की कीमत झब्बू को सामूहिक दुष्कर्म की यातना भुगत कर चुकानी पड़ी। इस
घटना के साथ जीवन, समाज और व्यवस्था के क्रूर, अमानुषिक और क्षरणशील हिस्से
परत-दर-परत उघड़ते जाते हैं। झब्बू अपने साथ हुई बर्बरता के खिलाफ थाने, कचहरी
,कोर्ट सब जगह का चक्कर काट कर थक जाती है। उपन्यास अन्याय से उपजी उन मूक
विवशताओं को दर्ज कराता चलता है जिनके कारण न्याय के पक्ष में कोई आवाज तक नहीं
उठाता। जब ऊपर से लेकर नीचे तक पूरा तंत्र ही नाभि-नालबद्ध हो, ऐसे में न्याय की
उम्मीद करना बेमानी है। जाम सिंह जैसों के हाथ इतने लम्बे हैं कि मंत्री, विधायक,
नेता और वकील सब उसकी मुट्ठी में हैं। झब्बू के साथ हुए अन्याय के कई प्रसंगों में
लेखक ने न्याय के लिए लड़ रही स्त्री की विवशता को गहरे आशय के साथ व्यक्त किया है।
मनुष्यता को ख़ारिज करने वाली ऐसी असह्य स्थितियां विचलित करने वाली हैं। अंत में
रस्मपूर्ति के रूप में न्यायालय का जो ‘फैसला’ आता है उससे न्याय कि समूची अवधारणा
निचुड़ चुकी होती है। उपन्यास यह प्रश्न हमारे समक्ष छोड़ जाता है कि आज की न्याय
व्यवस्था से आखिरकार मानवीय चेहरा क्यों गायब है?
पुलिस की कार्यप्रणाली और रुतबे से जिसका कभी सीधा सामना नहीं हुआ है
वह भी इस वर्दी के दुस्साहसी कारनामों से भलीभांति परिचित होता है। न्याय की
उम्मीद का पहला दरवाजा पुलिस स्टेशन ही होता है किन्तु क्या मजाल कि किसी ताकतवर व्यक्ति के दबाव, जोर-जुगाड़ के बिना
यहाँ एफ.आई.आर. दर्ज हो जाए। कानूनी, संवैधानिक या खुद के लिए लिए आफत बन जाने
वाले प्रकरणों को छोड़ कर यह खाकी वर्दी भी गरीब-गुरबों से जाम सिंह की ही तरह ही
पेश आती है। जाम सिंह जैसी दबंगई का जज्बा यहाँ भी है पर नौकरी का सवाल है! इसलिए सूंघ कर, बहुत चालाकी के साथ
अपना हाथ बचाते हुए सेवा-पानी का रास्ता निकाल कर कार्रवाई को अंजाम तक पहुंचाया
जाता है। कुल मिला कर यहाँ की दुनिया सीधे-सरल-कमजोर नागरिक के लिए जाम सिंह जैसों
की दुनिया से बहुत अलग नहीं है। मगर यही पुलिस माल-पानी की समुचित व्यवस्था करने
वालों की सेवा में कभी देरी नहीं करती। उपन्यास हास्य-व्यंग्य के कई वर्णनों के
माध्यम से पुलिस व्यवस्था की कलई खोलता चलता है। देश-दुनिया की संस्थाओं से सहायता के नाम पर तिकड़म भिड़ा कर अधिक से अधिक
फण्ड का जुगाड़ करने वाले गैर सरकारी संगठन हमारे देश में कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं। ऐसे संगठनों के
कारण ईमानदारी से काम करने वाले संगठनों
के सामने विश्वसनीयता का संकट पैदा हो गया है। रफ़ीक भाई के रूप में हम आज के एन. जी.
ओ. की सोच, सरोकार और कार्य प्रणाली को व्यावसायिकता के सन्दर्भ में भलीभांति समझ
सकते हैं। व्यावसायिकता ने जीवन के हरेक हिस्से की मूल्य चेतना का क्षरण किया है
जिसे अनावृत्त करने का लेखकीय उपक्रम यहाँ काफी हद तक सफल हुआ है।
उपन्यास गाँव के स्कूल के माध्यम से सरकारी शिक्षा व्यवस्था की गंभीर
खामियों को सचेत ढंग से उद्घाटित करता है। शिक्षक का चरित्र, पद की नैतिकता,
विद्यार्थी-शिक्षक सम्बन्ध जैसे कई महत्वपूर्ण पहलुओं की नोटिस लेते हुए चिंताजनक
स्थितियों की ओर हमारा ध्यान खींचा गया है। स्कूल के दुबे मास्टर का चरित्र किसी शिक्षक
के लिए तो शर्मनाक है ही वरन किसी आम नागरिक से भी इस तरह के व्यवहार की अपेक्षा नहीं
की जाती। आज जिस तरह सरकारी स्कूलों से लोगों का विश्वास घटता जा रहा है उसके पीछे
दुबे जैसे शिक्षकों का काफी हद तक हाथ है। शिक्षा प्रणाली की इससे दुखद परिणति कौर
क्या हो सकती है जहाँ राधली जैसी गरीब लड़कियों को पढ़ाई छोडनी पड़ती हो! मिड-डे-मील
योजना भी यहाँ हाँफती नजर आ रही है - “जब मिड–डे-मील शुरू हुया था, तब सभी बच्चे
मिड-डे-मील खा लिया करते। लेकिन जब एक बार बेंगन की सब्जी के साथ चूहा भी रंधा गया
और माणक पटेल के लड़के की थाली में चूहा परोसा गया। तब गाँव में हल्ला मच गया। ...दुबे
मास्टर ने सब संभाल लिया। किसी के खिलाफ कुछ नहीं हुआ लेकिन फिर ठाकुर, पटेल और
ब्राह्मण घरों के बच्चों में से मिड-डे-मील कुछ खाते, कुछ नहीं खाते।” (पृष्ठ-224)
तिवारी मैडम के रूप में नई पीढ़ी के जागरूक, जिम्मेदार और संवेदनशील शिक्षक की छवि
देख कर हम इस बात से आश्वस्त तो हो ही सकते हैं कि शिक्षा-व्यवस्था में अगर दुबे
जैसे शिक्षक हैं तो उनका प्रतिपक्ष रचने वाली तिवारी मैडम जैसी शिक्षिका भी हैं।
उपन्यासकार ने समाज के गंदले-उजले प्रवाह में तह तक धंस कर उन मूल
कारणों को पहचाना है जिनके चलते मानवीय अस्मिता क्षत-विक्षत हुई है। कुरीतियाँ तब
पैदा होतीं हैं जब मनुष्यता को अपदस्थ कर दिया जाता है। रामरति के माध्यम से लेखक ने समाज की दुखती नब्ज
टटोली है। कितनी हैरान करने वाली घृणित
परंपरा को हमारा समाज सदियों से मानता आया
है कि, जो हमारे समाज की गंदगी साफ़ कर हमारे परिवेश को रहने लायक बनाता आया है,
उसे हम मानवीय गरिमा के साथ जीने तक नहीं देते- “रोज सुबह टोपला, खपच्ची और झाड़ू
उठाती। टपले में नीचे राख डालती। पंद्रह कच्चे टट्टीघरों का मैला सोर कर भरती। ...जब
शुरू-शुरू में साग रोटी लेती। हाथ आगे बढ़ा देती। आगे बढ़ा हाथ देख कोई पटेलन डांट
देती। कोई ठकुराइन झिड़क देती। तब उसे समझ नहीं थी कि हाथ बढ़ा कर हक़ लेते। दया और
भीख तो लूगड़ी का खोला फैला कर माँगी जाती। ...जग्या व रामरति ने अपने मन में गाँठ
बाँध ली। हम आत्मा के माथे पर जो ढो रहे वो हमारी औलाद को न ढोना पड़े।” (पृष्ठ-54) जग्या और रामरति की संकल्प शक्ति उनके मुक्ति के स्वप्न
को संभावनाशील परिणति की ओर ले जाती है।
‘गाँव भीतर गाँव’ में उठाए गए सवाल पाठक के अंतर्मन को झकझोरते ही नहीं
हैं वरन उसकी भयावहता से दो-चार कराकर उन स्थितियों और इनके लिए जिम्मेदार लोगों
के खिलाफ खड़े होने की जरूरतों से रू-ब-रू कराते हैं। ग्राम स्वराज की परिकल्पना से
उपजी पंचायती राज व्यवस्था की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। झब्बू और सरपंच संतोष
पटेल के वार्तालाप में यह तस्वीर बहुत साफ़ देखी जा सकती है। गाँव के विकास और गरीबों के हित का
सवाल जब झब्बू उठाती है तो तिलमिलाते हुए सरपंच के जवाब में पंचायतों में व्याप्त
भ्रष्टाचार की परतें खुलने लगती हैं। झब्बू सरपंची करते हुए यह भलीभांति समझ जाती
है कि पूरा तंत्र ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार के दलदल में डूबा है। कुछ कहने जाओ तो
ये दबंग लाठी-तमंचे निकाल लेते हैं। केंद्र-राज्य के सत्ता-शिखरों से जिला, जनपद
और ग्राम पंचायतों तक बहता भ्रष्टाचार और उसमें ऊबता-डूबता विकास का गुब्बारा जिसकी
ताक लगाए सभी बैठे हैं। अंतर्राष्ट्रीय धन प्रदाता संगठनों, संयुक्त राष्ट्र संघ
के आर्थिक संगठनों, केन्द्र और राज्य की योजनाओं के धन कलश विकास के गंगा जल में
उतरा रहे हैं और सब गोते लगा रहे हैं कि काश! यह धन कलश उनकी मुट्ठी में आ जाए! जो
लोग मर गए हैं उनके नाम पर भी वृद्धावस्था और विधवा पेंशन आ रही है। अचानक से गाँव
में हांथी सूंड खूब नजर आने लगी है। मर चुके लोगों के नाम पर भी मस्टर रोल बन रहा
है। उपन्यास पंचायतों में मची लूट की सोनोग्राफी है।
झब्बू गाँव में बहुत कुछ करने का इरादा लिए सरपंच बनी थी और सरपंच
बनने के बाद गाँव के लिए कुछ न कुछ करती रहती थी, किन्तु बहुत कम समय में वह अपने
लक्ष्य से विचलित हो गयी। उपन्यास झब्बू का पक्ष रखते हुए यहाँ पाठक को कन्विन्स
करने की कोशिश करता है कि उसके जैसे सीधे
सादे और बलहीन लोगों को सत्ता में काबिज धूर्त और ताकतवर लोग किस तरह अपने मकड़जाल
में फंसाते हैं। भला कैसे कोई सरपंच समझौता करने से मना कर दे जब पूरी योजना ही
गायक मंत्री जैसे लोग तय कर रहे हों। गायक मंत्री की मौजूदगी में यह तय हुआ कि
रेती और गिट्टी की खदानों का ठेका नए सिरे से नीलाम होगा। ठेका संतोष पटेल लेगा।
मुनाफे में झब्बू भी पच्चीस प्रतिशत की भागीदार होगी। कई सुनियोजित हत्यायों के
बाद झब्बू को भी मार दिया जाता है। इस प्रसंग का अंत जिस तरह से होता है वह
विषयवस्तु का सही ट्रीटमेंट नहीं है। लेखक यहाँ ‘ठस यथार्थ’ का अतिक्रमण नहीं कर
पाता जिससे आगे होने या हो सकने वाले सम्भवनशील यथार्थ का संकेत यहाँ मिल पाता।
झब्बू की मृत्यु से उपन्यास क्या सन्देश देना चाहता है? बात केवल झब्बू की मृत्यु की
ही नहीं है वरन सरपंच बनने के बाद उसके अन्दर गाँव के लिए बहुत कुछ करने की जो
लालसा थी, जो स्वप्न थे उनका विस्तार किया जा सकता था बजाए जाम सिंह और माखन
शुक्ला की लम्बी चर्चाओं के। जग्या द्वारा अर्जुन सिंह की हत्या के साथ जिस तरह
उपन्यास अपनी इति ग्रहण करता है वह प्रतिरोध का संकेत अवश्य है पर हत्या किसी
सकारात्मक और अग्रगामी विजन का विकल्प कभी नहीं बन सकती।
यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि नयी सदी के इन डेढ़ दशको में
नई पीढ़ी के युवा कथाकारों के जो उपन्यास आए हैं उनमें इतनी परिपक्व और संश्लिष्ट
राजनीतिक चेतना की उपस्थिति विरल है। उपन्यास के शिल्प पर बहुत विस्तार से चर्चा
की गुंजाइश है क्योंकि कथा का टटकापन उसकी वस्तु से ज्यादा उसके शिल्प में
अन्तर्निहित होता है। ‘गाँव भीतर गाँव’ साझीदार जीवन–संस्कृति के महीन धागों के छिन्न-भिन्न
होने के परिणामस्वरूप गाँव के भीतर जन्म ले चुके अनंत गाँवों के बनने-विकसित होने
के कारणों की पहचान गहरे कंसर्न के साथ करता है। यह एक जरूरी रचना है जिससे गुजरते
हुए हमारे अनुभव में बहुत कुछ जुड़ता चला जाता है।
(लमही के नए अंक से साभार)
समीक्ष्य पुस्तक : गाँव भीतर गाँव, लेखक-सत्यनारायण
पटेल,
प्रकाशक : आधार प्रकाशन, पंचकूला, हरियाणा
प्र.सं. : 2015, पृष्ठ
: 320, मूल्य : 200/-रुपए
सम्पर्क –
सहायक प्रोफेसर - हिंदी
राजकीय महिला
स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बांदा,
उ. प्र.
मोबाईल - 9457815024
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 31 - 03 - 2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2298 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
जरूर ...धन्यवाद ...
हटाएंअत्यंत सारगर्भित विचारणीय आलेख....
जवाब देंहटाएंप्यारे भाई बहुत बहुत शुक्रिया
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