रश्मि भारद्वाज की रपट 'मन के घेराव से निकल कर ही संभव है रचना-कर्म!'
महेश चन्द्र पुनेठा |
पिछले वर्ष पिथौरागढ़ में ‘लोकविमर्श
शिविर-1’ का आयोजन कवि महेश चन्द्र पुनेठा के आतिथ्य में देवलथल गाँव में सम्पन्न
हुआ था। आज महेश चन्द्र पुनेठा का जन्मदिन है। वे न सिर्फ एक उम्दा कवि और आलोचक हैं
बल्कि एक बेहतर इंसान भी हैं। जो भी इस 'लोकविमर्श शिविर' में शामिल हुआ वह महेश के
आतिथ्य का मुरीद बन गया। महेश पुनेठा को जन्मदिन की बधाईयाँ देते हुए रश्मि
भारद्वाज की लोकविमर्श शिविर-1 की वह रपट प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे महेश के इस स्वरुप के बारे में पता
चलता है। तो आइए पढ़ते हैं रश्मि भारद्वाज की यह रपट।
मन के
घेराव से निकल कर ही संभव है रचना-कर्म!
(जून-2016 में लोकविमर्श-2
होना तय हुआ है। ऐसे में लोक-विमर्श-1 और उससे जुड़े व्यक्तियों की यादें ताज़ा हो
गयीं। एक संस्मरण आप सब के लिए)
यात्राएं मुझे उत्साहित तो
करती हैं लेकिन हर यात्रा से पहले मन कई दुविधाओं और प्रश्नों से भी भरा रहता हैं।
मुझे करीब से जानने वाले मेरे मित्र होमसिक भी कहते हैं। अब सोचती हूँ तो लगता है
कि यह घर की चारदीवारियों के लिए लगाव कम और अपने अंदर का घेराव तोड़ पाने की
अक्षमता अधिक है। पिथौरागढ़ और देवलथल में आयोजित होने वाले लोक विमर्श शिविर के
लिए मैने हामी तो भर दी थी लेकिन अंत तक मेरे मन में एक हिचक थी। पहाड़ी गाँव का
इतना लंबा प्रवास, जिन सुविधाओं के हम आदी हो चुके
हैं, उनकी अनुपलब्धता और छोटी बेटी के साथ होने के कारण उसे
होने वाली संभावित परेशानियों के कारण मैं बहुत आशंकित थी; क्योंकि मुझे सूचना दे
दी गयी थी कि देवलथल ग्राम में स्थित एक सरकारी स्कूल में हमारे रहने की व्यवस्था
की गयी है। 8 जून 2015 को 4 बजे हमें निकलना था और मैं 11 बजे दोपहर तक अपनी
अनिश्चितता से बाहर नहीं आ पायी थी। मृदुला शुक्ला जी ने स्नेहपूर्ण अधिकार के साथ
डांट लगाई, ‘बस तैयार रहो, मैं चार बजे तुम्हें लेने आ रही हूँ’। अब बहाने
बनाने की कोई संभावना नहीं बची देख, मैंने कुछ कपड़े और जरूरी
सामान पैक किए और निकल पड़ी एक अनजानी यात्रा पर धड़कता दिल लिए नन्ही बिटिया की
अंगुली थामे।
अकेले यात्रा करना मेरे
लिए कोई नयी बात नहीं लेकिन पहली बार इतने लंबे प्रवास के लिए अकेले जा रही थी (हालांकि
मृदुला जी का स्नेहिल परिवार साथ था) जिसका सारा उत्तरदायित्व मुझ पर था, साथ ही बेटी की ज़िम्मेदारी भी।
गाते, गुनगुनाते, बच्चों की चटपटी बातों के बीच रात को हम
हल्द्वानी पहुंचे और वहाँ राजेश्वर त्रिपाठी (मृदुला जी के पति) जी के मित्र विजय
गुप्ता के शानदार आतिथ्य में रात को रुकना हुआ। सुबह बांदा निवासी सुप्रसिद्ध कवि केशव तिवारी, उनकी पत्नी मंजु भाभी, कवि प्रेम नन्दन और प्रद्युम्न
कुमार (पी. के.) भी हमारे यात्रा दल में शामिल हो गए और हम एक लोकल गाड़ी और
ड्राईवर के साथ पिथौरागढ़ की यात्रा पर निकल पड़े।
इतनी लंबी यात्रा, पहाड़ी घुमावदार रास्ते और भयानक गर्मी (गाड़ी नॉन ए. सी. थी)। मौसम भी हम
पर कुछ खास मेहरबान नहीं था। रास्ते भर माही उल्टियाँ करती रही और मैं सोचती रही
कि क्या मैंने सही निर्णय लिया है! पिथौरागढ़ पहुँचते शाम हो गयी। एक अच्छा खासा विकसित
शहर है पिथौरागढ। थोड़ी निराशा सी हुई कि भीमताल, अल्मोड़ा
जैसे सुंदर स्थलों को छोड कर इस पहाड़ी शहर की भीड़ में ही आना था तो अपनी दिल्ली ही
कौन सी बुरी थी! मौसम में ठंडक भी कुछ ख़ास नहीं थी। वहाँ से
एक दूसरी टॅक्सी कर हमें देवलथल जाना था। घर से निकले 24 घंटे से अधिक हो गए थे।
घर वालों के चिंतित फोन कॉल, बच्चों के थके, उदास चेहरे और हमारे क्लांत शरीर, कुल मिला कर अब
तक कुछ भी ऐसा नहीं था जो इस यात्रा और लंबे प्रवास के लिए मन में उत्साह भर पाता।
खैर, हमारा यात्रा दल देवलथल के लिए निकल पड़ा।
रास्ते ज्यों–ज्यों सँकरे
होते जा रहे थे, आस पास का दृश्य भी बदल रहा था। चारों तरफ सघन
हरियाली, ऊंचे –ऊंचे पहाड़ और बेहद ख़राब, पथरीला रास्ता। मोबाइल का नेटवर्क दगा दे चुका था। शाम घिर रही थी और मन
में डर लेकिन जैसे–जैसे हम देवलथल के करीब पहुँच रहे थे, डर
और आशंकाओं की जगह एक अवर्णनीय सुकून ने ले ली। हमारी आँखें ऐसे दृश्यों को निहार
रही थी जो सैलानियों के पदघातों से दूषित नहीं हुए थे इसलिए निष्कलंक, बेदाग और अपने अनगढ़ सौंदर्य के साथ हमारे सामने थे और हम उस अनिर्वचनीय
शांति और सौंदर्य में डूब –डूब जा रहे थे, कुछ ऐसे कि दिल
चाह रहा था कभी नहीं उबरें। अङ्ग्रेज़ी में जिसे वर्जिन लैंड कहते हैं, वह बाहें पसारे हमारे स्वागत के लिए खड़ा था और हमें उसके सुखद साहचर्य
में पूरे दो दिनों तक रहना था, यह कल्पना ही रोमांच से भर
देती थी। उस हवा, उस माहौल में एक अद्भुत शीतलता और शांति थी
जो महानगर की भीड़ और शोर से थके हमारे दिलोदिमाग और अन्य इंद्रियों को कुछ यूं
सहला रहा थी जैसे बुखार से गरम तपते माथे पर माँ के ठंडे हाथों का स्पर्श लगता है।
देवलथल के जिस स्कूल में हमारे ठहरने की व्यवस्था थी, हम वहीं उतरे और चाय की चुस्कियों के बीच सभी से औपचारिक परिचय हुआ। इनमें से कई ऐसे चेहरे थे जो फेसबुक पर मित्र थे लेकिन कभी कोई संवाद नहीं हुआ था। सुदूर राजस्थान से हमसे भी ज़्यादा लंबी और कठिन यात्रा करके आए प्रसिद्ध वरिष्ठ आलोचक जीवन सिंह जी, कवि नवनीत सिंह जी, युवा कथाकार संदीप मील, रायपुर से प्रख्यात चित्रकार और कवि कुँवर रवीन्द्र जी और उनकी पत्नी, चंडीगढ़ से आए वरिष्ठ कथाकार राज कुमार राकेश, मुंबई से युवा कहानीकार शिवेंद्र, हमीरपुर से कवि अनिल अविश्रांत, बांदा से आलोचक और कवि उमा शंकर परमार, प्रेम नन्दन, पी. के. और नारायण दास गुप्त। देश के विभिन्न हिस्सों से आए इतने सारे रचनाकार जो अपने साथ अपनी मिट्टी, अपनी बोली-बानी के टुकड़े भी लाये थे और उनसे मिलते हुए कहीं न कहीं हम उनके लोक, उनकी संस्कृति का हिस्सा बन रहे थे। यह अनुभव सुखदायी था।
इस कार्यक्रम के मुख्य
संयोजक और हमारे होस्ट महेश पुनेठा जी ने हम महिलाओं की साफ-सफाई को ले कर रहते
आग्रह का सोच कर हमारे रहने की व्यवस्था स्कूल के ही एक और शिक्षक रमेश चन्द्र
भट्ट जी के यहाँ की थी। रमेश चन्द्र और महेश पुनेठा को इस कार्यक्रम का सिर्फ
होस्ट या संयोजक कहना काफ़ी नहीं। भट्ट जी ने अपना पूरा घर हमारे आतिथ्य के लिए खोल
दिया और नहाने के गरम पानी से लेकर चाय तक हर छोटी चीज़ का पूरा ख़याल रखा। वही महेश
जी यह भूल बैठे कि वह ख़ुद भी एक रचनाकार हैं और इस शिविर में आयोजित विभिन्न
सत्रों में उनको भी अपनी रचनात्मकता और बौद्धिकता का प्रदर्शन करना चाहिए। हर क्षण
वह कभी हम सबों के लिए चाय, तो कभी भोजन,
कभी सोने की तो कभी किसी और व्यवस्था के लिए भागते नज़र आए,
वह भी चेहरे पर बिना किसी शिकन के। शिविर की दूसरी रात पानी की सप्लाई बाधित हो
गयी थी। उस रात पुनेठा और भट्ट जी रात के बारह बजे तक और तड़के सुबह पाँच बजे से
इसी प्रयास में लगे रहे कि हमें कोई समस्या नहीं हो। इतना समर्पण, इतनी लगन और ऐसा आतिथ्य, जब भी याद आता है मन
नतमस्तक हो उठता है। इन व्यक्तित्वों की सहृदयता ने सिखाया कि सिर्फ कागजों के
पन्नों पर जीवन को उकेरना ही पर्याप्त नहीं बल्कि अपने ‘मैं’, अपने स्व को सामूहिक हितों के लिए समर्पित करने वाला ही सही अर्थों में
रचनाकार होता है और अपने घेरे से परे हट कर लोकधर्मी साहित्य रच सकता है। जीवन
यहाँ कागजों से उठ कर व्यवहार में उतरा दिखा।
हम शिविर आरंभ होने के एक दिन बाद पहुंचे थे इसलिए पिथौरागढ़ के बाखली होटल में आयोजित कुँवर रवीन्द्र की चित्र प्रदर्शनी और परिचर्चा में भाग नहीं ले सके।
दूसरे दिन ‘दीवार’ पत्रिका
से जुड़े बच्चों से बातचीत और पत्रिका के अवलोकन से दिन की शुरुआत हुई। महेश पुनेठा
जी के सरंक्षण में देवलथल के बच्चों द्वारा आरंभ किया गया यह सृजनात्मक प्रयास अब
एक व्यापक अभियान का रूप ले चुका है और देश भर के कई स्कूलों सहित अब विदेशों में अपनाया
जा रहा। बच्चों में मौलिक और रचनात्मक चिंतन विकसित करने का यह अभियान न सिर्फ उन्हें
साहित्य से जोड़ रहा बल्कि उनकी शैक्षणिक प्रदर्शन को भी बहुत सुधार रहा।
अगले दो दिनों में आयोजित कविता, कहानी, आलोचना के विभिन्न सत्र बहुत ही जीवंत रहे। संतुलित
और निरपेक्ष परिचर्चा के द्वारा हम सब एक दूसरे के लेखन कर्म को समझ सके और
वैचारिक रूप से काफी समृद्ध हुए। लोक के बहाने उन सभी पहलुओं पर चर्चा हुई जो
हमारे लेखन, हमारे विचारों के दायरे में होने चाहिए लेकिन साहित्य
में जाने-अंजाने उसकी अनदेखी हो रही। सुप्रसिद्ध वरिष्ठ आलोचक डॉ जीवन सिंह द्वारा
कही गयी कुछ बातें साथ चली आई जो हमारी लेखनी को हमेशा सकारात्मक गति देती रहेंगी।
उन्होने कहा कि लोक का आडंबर नहीं रचना है, सिर्फ कहने और
लिखने के लिए लोक नहीं। लोक को जीना होगा। उसका हिस्सा बन कर ही उसकी लय को कविता
में उतारा जा सकता है। वह लोक नहीं जो मनोरंजन करता है,
बल्कि लोक के संघर्षों, उसकी व्यथा को कागज पर उतारना एक
लेखक का दायित्व भी है, और चुनौती भी। अपने मध्यवर्गीय आडंबर, सुविधाभोगी मन और स्वहित के दायरे से निकलकर ही लोक को समझा जा सकता है।
सम्पर्क -
ई-मेल : mail.rashmi11@gmail.com
(इस पोस्ट की समस्त तस्वीरें रश्मि के सौजन्य से प्राप्त हुई हैं.)
Mahesh Bhai ki jay ho.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन लिखा है । गद्य भी अच्छा लिखेंगी, इसका भरोसा हुआ । और लिखिए ।
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