सोनी पाण्डेय की कहानी 'आज की वैदेही'


सोनी पाण्डेय

समाज की विसंगतियों को उद्घाटित करने का काम साहित्य बखूबी करता है। खासतौर पर महिलाओं के प्रति समाज के नजरिये को ले कर आज के स्त्री-लेखन में जो गहराई मिलती है वह अन्यत्र दुर्लभ है। सोनी पाण्डेय ने अपने लेखन की शुरुआत कविता से किया और अब वे कहानी लेखन के क्षेत्र में भी सक्रिय हैं। उनके इस कहानी की भावभूमि स्वाभाविक रूप से स्त्री का वह मानस-स्थल है जो पुरुषों के ढोंग को अच्छी तरह पहचानता है। उनकी लिखी हुई पहली कहानी है 'आज की वैदेही'। कल सोनी पाण्डेय को उनके पहले काव्य संग्रह 'मन की खुलती गिरहें' के लिए वर्ष 2015 का शीला सिद्धान्तकार स्मृति सम्मान देने की घोषणा की गयी है। सोनी पाण्डेय को सम्मान की बधाई देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी कहानी 'आज की वैदेही'       

आज की वैदेही

सोनी पाण्डेय

पिता के घर में आभा के कोई अरमान पूरे न हो सके थे, जब पहली कविता लिखी तो पिता ने मजाक बनाया, बड़ी बहन ने ये कहते हुए कविता फाड़ दी कि मुझसे मुकाबला करेगी। दूसरी उपेक्षा तब झेली जब इण्टरमीडिएट में टाॅप किया और किसी ने प्रसन्नता तक व्यक्त नही किया, बड़ी बहन के नकल से प्रथम आने पर मिठाइयाँ बटीं। तीसरी बार वह अन्दर से टूट गयी जब गोरखपुर विश्वविद्यालय की मेरिट लिस्ट में नाम आने के बाद भी पिता ने  दाखिला नही दिलवाया। अंत में हार कर उपेक्षा को उसने अपनी नियति मान ली और चल पड़ी उस दिशा में जिधर जिदंगी ले चली। 

आभा की शिक्षा अनवरत चलती रही क्योंकि कभी फेल नही हुयी। बी0 ए0 के बाद पिता पढ़ाना नही चाहते थे, मां ने एम0 ए0 करने के लिए पिता को बाध्य किया, एम0 ए0 पूरा हुआ। इसी बीच आभा का विवाह तय हुआ, सीधा-साधा लड़का, साधारण परिवार। आभा के लिए शादी केवल एक सामाजिक बन्धन था, निभाना मजबूरी, कोई चारा भी नही। बड़ी बहन का विवाह असफल रहा, मानसिक संतुलन बिगड़ा और अंततः पगला कर मर गयी। दूसरी जिसे अपने रूप-रंग तथा बुद्धिमत्ता पर अहंकार था और गहरे डूबी, प्रेम विवाह किया, पूर्णतः असफल। आभा के लिए पीछे कुँआ आगेे खाईं, समझौता करना ही उचित समझा। पीछेे वालों ने डुबोया उसे उबारना था दो छोटे भाई-बहन का भविष्य अब उसके किये पर निर्भर था। 

ससुराल साधारण मध्यवर्गीय परिवारों जैसा सास सुलझी हुई, महिला, बहू को अन्य बहुओं से सतर्क करती, घर -गृहस्थी के तौर तरीके समझाती, आभा की सोच के विल्कुल विपरीत सास थी। उसे हर सास उनसे मिलने से पहले ललिता पवार ही लगाती थी। आभा के वैवाहिक जीवन का सबसे सकारात्मक पहलू पति की सकारात्मक सोच थी, एक साधारण पुरुष की भाँति महेश प्रतिभाशाली पत्नी को ले कर असुरक्षा की भावना से ग्रस्त अवश्य था किन्तु अपने भय के कारणों को आभा के सामने बड़े तार्किक ढंग से रखता, जैसे तुम इन पुरूषों को नही जानती, सामने तुम्हारी प्रशंसा करेंगे, जाते ही शरीर की बनावट से लेकर योग्यता तक के मजे लेंगे, इनकी उम्र पर मत जाओ, साले औरतों से हँस बोल के ही मजा लेते हैं। आदि-आदि...........

आभा को पति की बातों पर विश्वास था, जानती थी, इसमें कोई दो राय नही कि ‘‘पुरूष’’ की दृष्टि औरत के शरीर से होती हुई मन-मस्तिष्क तक जाती है।’’ पति ने आभा की योग्यता को परखा और प्रोत्साहित किया, यहाँ वह आम पुरूषों से भिन्न था, उसका अहं पत्नी की योग्यता से कभी नही टकराता। आभा अब दो बच्चोें की माँ थी, मातृत्व का एहसास औरत के लिए कितना कोमल, सुन्दर तथा स्नेहयुक्त होता है, उसे आनन्दित करता, जिस स्नेह के लिए वह तरसती रही उसकी वर्षा बच्चों पर करती तथा परिवार के प्रति अपने दायित्वों का पूरे मनोयोग से निर्वहन करती। संयुक्त परिवार में स्वयं के महत्व को स्थापित करने में सफल रही परिणाम स्वरूप कुछ के ईर्ष्या का उत्पन्न होना भी स्वाभाविक था, खैर इसकी चर्चा फिर कभी। 

आभा की श्रमशीलता को देख कर महेश ने उसे हिन्दी में शोध करने के लिए प्रेरित किया, महेश ने भाग दौड़ करके शोध निर्देशक खोज निकाला शोध कार्य आगे बढ़ा, आभा ने दिन-रात कठिन श्रम करते हुए दो वर्ष आठ माह में शोध प्रबन्ध पूरा किया। शोध कार्य करते हुए आभा के भीतर का साहित्यिक कीड़ा पोषित होता गया। एक बार पुनः लेखन की तरफ उसका रूझान बढा़ कविताएं स्थानीय पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी।

आभा के लिए आरम्भ में शादी महज एक औपचारिकता थी, न जाने कब धीरे-धीरे पति के प्रति लगाव आत्मिक प्रेम में परिवर्तित हुआ, पता ही नही चला। पति देव सैकड़ों झूठे बहाने करके सभा, संगोष्ठियों में ले जाते। सेमीनार अटेन्ड कराते, वह लिखती तो बच्चों को सम्हालते इस तरह उसके जीवन के सूखे उपवन में हरियाली छाती गयी, फूल खिलने लगे मन सुवासित होने लगा। 

धीरे-धीरे आभा कीे साहित्यिक गतिविधियों के बारे में परिवार को पता चला किन्तु किसी ने आपत्ति नहीं की। आभा ने इसी बीच बी. एड. किया, पति ने कहा ये ‘अर्थ-युग है’ तुम भी कुछ करो और वह एक अच्छे पब्लिक स्कूल में पढ़ाने लगी। परिवार तथा नौकरी में बड़ी कुशलता से उसने सामंजस्य बिठा लिया। 

आभा का रोम-रोम पुलकित रहता, सपने साकार हो रहे थे, अपने प्रिय कवि के कथा साहित्य पर शोध कार्य पूरा हुआ और वह डाॅ0 आभा बन गयी, मन मयूर बन नाच उठा, कोयल की तरह कूक उठा डॉ. आभा।

साहित्यिक संगोष्ठियों में उसकी सहभागिता बढ़ने लगी, कुशलवक्ता, संचालिका, वह भी स्त्री, आयोजक संचालन के लिए आमंत्रित करने लगे। जिन्दगी की गाड़ी शनैः-शनैः आगेे बढ़ रही थी कि अचानक उसके जीवन में एक तूफान खड़ा हुआ। 


आभा दिव्य सुन्दरी नहीं थी किन्तु उसका व्यक्तित्व अत्यन्त आकर्षक था। स्कूल में सभी लड़कियाँ कहती कोई कितना भी सौन्दर्य प्रदर्शन कर ले उसके मुँह खोलते ही सब परास्त हो जाएँगी। चार सालों तक विद्यालय की डिवेट चैंपियन, स्कूल लीडर आभा में आत्मविश्वास कूट-कूट भरा था। चालाक चोर पहले आप का विश्वास जीतते हैं तब लूटते हैं। विवेक ऐसे ही चोर की तरह उनके जीवन में प्रवेश करता है, पति-पत्नी दोनों उसके व्यक्तित्व के नकारात्मक पहलुओं को नजरअंदाज कर उसकी मित्रता को खुले दिल से स्वीकार करते हैं और शुरू होती है एक नई कहानी। विवेक अक्सर गोष्ठियों का आयोजन करता, संचालन आभा, महिला संचालिका के कुशल संचालन का आनन्द लेने के लिए साहित्य प्रेमी कम रसिक ज्यादा एकत्रित होते। अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों के जाल में वह उन्हे लपेटता रहा, वह शकरपारे की तरह चिपकते गये। सामने उसके लिए वह शिव-पार्वती थे, पति के सामने बार-बार कहता- भईया आप अत्यन्त सौभाग्यशाली हैं प्रकृति आप पर पूर्णतः समर्पित है आदि-आदि। विवेक धीरे-धीरे आभा को प्रलोभन देना शुरू करता है, भाभी मेरा परिचय देश के शीर्ष साहित्यकारों से है, आपकी रचनाओं की भूमिका कहे तो लिखवा दूँ, शीर्ष पत्रिकाओं में रचनाएं छपवा दूँ। आरम्भ में महेश उसकी कुछ कविताओं को उसको दे देता है। किन्तु सालों तक उसका कहीं अता-पता नही चलता। एक रोज पति ने उससे कहा- ‘‘तुम जानती भी हो साला ऐसे तुम्हे मंच देता है, मुझसे आये दिन पैसे ऐंठता है, एक भी उधारी साले ने लौटायी नही। देखो आभा मैं तुम्हारे शौक को पूरा करते-करते ऊब चुका हूँ उसकी गोष्ठी में शहर के छंटे हुए लोफर भाषण पर वाह-वाह करते हैं, कभी उसके ठिकाने पर जा कर गोष्ठी के बाद देखो-सुनो, शराब की चुस्की के साथ तुम्हारे अंगों का कैसे व्याख्या करता है।’’ महेश बक रहा था आभा का शरीर ठंडा पड़ता जा रहा था। ऐसा लग रहा था मानों किसी ने उसे गहरे पानी में डुबो दिया हो और वह बाहर निकलने के लिए छटपटा रही हो।

    आभा ने रोते हुए कहा- ‘‘जब आप जानते थे कि वह इतना गिरा हुआ इन्सान है तो फिर प्रश्रय क्यों दिया।’’
    ‘‘क्या करता तुम्हारे ऊपर साहित्यकार बनने का भूत जो चढ़ा रहता है।’’ जानता हूँ जिस दिन तुम अपने लक्ष्य तक पहुँच जाओगी, हम सब को भूल जाओगी। देख रहा हूँ, आज-कल तुम बदल रही हो।’’ महेश क्रोध से काँप रहा था। 

    आभा ने सिसकते हुए कहा- ‘‘ अपने मन में मेरे लिए ऐसी भावनाएं आपने पाल रखी हैं, चलो ठीक है, आप को धोखा दे भी दूं तो कम से कम मेरे बच्चों का तो सोचते उम्र के चालीसवें पड़ाव पर दो बच्चों की माँ रंगरेलियां मनाएंगी। छिः घिन्न आती है मुझे आप की सोच पर।’’

    महेश व्यंग्य से मुस्कुरा कर बोला- ‘‘तभी तो चार-चार बच्चों की माँ आए दिन आशिकों के साथ फुर्र हो जाती है।’’
    आभा रोती रही महेश आरोप पर आरोप लगाता रहा।

    उस रात आभा सो न सकी, सोचती रही सत्रह साल के वैवाहिक जीवन में कभी कहीं अकेली नही गयी, बिना पूछे किसी से बात तक नही करती, कभी कोई कार्य बिना पूछे नही किया। फिर पति ने बिना सोचे- समझे उसपर इतना बड़ा आरोप लगा दिया। वह सोचती रही औरत पति से बेवफाई कर सकती है किन्तु एक माँ..... कभी नही। बच्चों के भविष्य से एक घरेलू औरत खिलवाड़ नही कर सकती। आखिर पुरूष औरत को माँ की नजर से क्यों नही देखता? जिस दिन पुरूष उसके मातृत्व का सम्मान करने लगेगा उस दिन से औरतों का सम्मान स्वतः होने लगेगा। पुरूष माँ दुर्गा, माँ काली, माँ लक्ष्मी, असंख्य देवी रूपों में तो औरत को माँ मान कर पूज सकता है किन्तु साकार नारी देह उसके लिए भौतिक साधन मात्र है, जिसे वह अपनी जागीर मानता है, उसे नख से शिख तक ढक कर रखना चाहता है। आखिर केवल उसका विवेक से बातचीत करना पति को शंका के गहन गुहा में ले गया, वो एक बार कहता, वह सारे द्वार बंद कर लेती, उसका रोम-रोम ऋणी है उसके किये का। आभा सोते हुए पति के चेहरे को देख रही थी, दो बूँद आँसू उसकी सजल आँखों से लुढ़क गये, मन ने कहा मैने तो तुम्हें अपना राम माना था जो हर क्षण उसके साथ होगा, उसका साथ देगा किन्तु हाय ऽ ऽ ऽ मेरे राम ऽ तुम भी ऽ ऽ ? 

    अगले दिन आभा को विवेक ने फोन किया भाभी अगली गोष्ठी बड़ी सारगर्भित होगी, बनारस से कई विद्वान आयेंगे, संचालन आप को करना है।’’ तैयारी शुरू कर दीजिए।

    आभा चुप रही, उसने बात आगे बढ़ाया- ‘‘भाभी सोचता हूँ, आपको रावण बन हर ले जाऊँ किन्तु आपके पतिदेव से डरता हूँ। आप कीे कद्र वो क्या जाने, मेरे साथ दिल्ली चलिए, सारी रचनाएं एक साथ प्रकाशित हो जाएँगी, दो साल के अन्दर साहित्य अकादमी पुरस्कार, दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर भाभी मेरे प्रस्ताव पर विचार जरूर कीजिएगा।

    आभा क्रोध के आवेग को रोकते हुए बोली- ‘‘विवेक बाबू बुझे अब न राम से डर लगता है न रावण से, हैं तो दोनों पुरूष ही।

    विवेक सहमते हुए बोला- ‘आप ऐसा क्यों कहती हैं?

    आभा का चेहरा घृणा से विकृत हो चुका था, सामने होता तो चेहरे पर कस के थूकती।

    ‘देखिए विवेक बाबू मुझे न तो प्रसिद्धि चाहिए, और न ही विश्वविद्यालय की मास्टरी, मैं जहाँ हूँ सन्तुष्ट हूँ, आप जैसे पुरूष कब राम बन जाएं कब रावण पता नही, इस लिए ‘‘आज की वैदेही’’ अपनी लक्ष्मण रेखा स्वयं खींचती हैं और अंततः अग्नि परीक्षा से बच जाती हैं।’’ इतना सुनते ही विवेक ने फोन काट दिया।

    आभा को लगा जैसे मन से मनो बोझ उतर गया हो, वह हँसते हुए रसोईं में उठ कर चल दी।


सम्पर्क-
फोन - 09452088287

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

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