अर्चना वर्मा की कहानी पर रोहिणी अग्रवाल का आलेख





(चित्र: रोहिणी अग्रवाल)

आलोचना उतनी आसान विधा नहीं जितना लोग समझते हैं और तुरत-फुरत लिखने के लिए आसन मार कर बैठ जाते हैं। आलोचना अपने आप में अत्यन्त कठिन कर्म है। रचना के समानान्तर उसका एक प्रति-पाठ तैयार करने की प्रक्रिया होती है आलोचना। आज के दौर में जिन कुछ गिने चुने आलोचकों ने इस कठिन दायित्व का बखूबी निर्वहन किया है उनमें रोहिणी अग्रवाल का नाम अग्रणी है। अपने इस आलेख में रोहिणी जी ने कथाकार अर्चना वर्मा की कहानियों की आलोचकीय पड़ताल किया है। आईए पढ़ते हैं रोहिणी जी का यह आलेख ‘अंधेरे तहखानों में छिपे आलोक वृत्त उर्फ सह-सर्जक पाठक संग संलाप’
     
अंधेरे तहखानों में छिपे आलोक वृत्त उर्फ सह-सर्जक पाठक संग संलाप


रोहिणी अग्रवाल
 
“उसी आवाज में आज भी वही कहती है बार-बार। तलब किसी को नहीं छोड़ती न? हिम्मत नहीं होती न? अपनी ही तलब से जिंदगी भर का डर! अब तो सब देना-पावना चुक गया। अब भी नही तो फिर कब?’  (अर्चना वर्मा, राजपाट तथा अन्य कहानियां, पृ0 56)

          बैठे-बैठै अचानक ख्याल आया कि आचार्य भरत मुनि ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘नाट्यशास्त्र’ में नाटक और रंगमंच के विविध अंगों-उपांगों पर बात करते हुए दर्शक की भूमिका पर क्यों विचार किया? विचार किया सो ठीक, लेकिन ‘सहृदय’ विशेषण दे कर अच्छी कृति के मूल्यांकन की कसौटियों की तरह अच्छे दर्शक के निर्धारण की कसौटियां क्यों बनाईं? इन कसौटियों को गढ़ने के जुनून में क्या वे भूल गए कि नाटक की सार्थकता मंचन में है और मंचन का अस्तित्व दर्शक की उपस्थिति में? दर्शक सुरुचिपूर्ण लक्ष्मीसम्पन्न संभ्रांत व्यक्ति हो या कुरुचिपूर्ण कदाचारी ऐरा गैरा नत्थू खैरा-टिकट लेकर दोनों जब थिएटर पहुंचते हैं तो अपनी भीतरी-बाहरी असमानताओं के बावजूद दर्शक हैं। चूंकि नाटक दोनों को समान रूप से सम्बोधित है, इसलिए नाट्य कृति की वस्तु और पात्रों के साथ तादात्मीकरण करते हुए दोनों को रसास्वादन की प्रक्रिया को भी समान भाव से जीना है जो आत्मसाक्षात्कार तथा आत्मपरिष्कार के सोपानों से होते हुए औदात्य की भावभूमि तक पहुंचाती है। मैं हठात् यहां थम जाती हूं क्योंकि ठीक इसी स्थल पर मुझे अपने सारे सवाल बेमानी और बचकाने लगने लगे हैं। हां, ठीक कहते हैं भरत मुनि, पैसे और पहुंच के बल पर टिकट (पात्रता) जुटा लेने वाला हर व्यक्ति दर्शक नहीं हो सकता। दर्शक चूंकि रची हुई कृति का पुनर्रचनाकार (भाष्यकार) नहीं है - सृजन कर्म का साझीदार, इसलिए उसे ‘स –हृदय’ (कितनी व्यंजनाए छिपी हैं इस एक विशेषण में! और कितना गहरा दायित्व बोध जो विशेषण को संज्ञा बना कर निरंतर मुस्तैद रखता है!) होना ही होगा। साहित्य-पंरपरा और साहित्य-रूढ़ियों के बुनियादी ज्ञान से ले कर अपनी जड़ताओं (इसे आप व्यक्तिगत पूर्वाग्रह भी कह सकते हैं) का अतिक्रमण कर सकने वाली विवेकशील अंतर्दृष्टि से सम्पन्न होने की अर्हता अर्जित किए बिना वह सृजन कर्म की टेक को उस बिंदु से उठा कर आगे नहीं बढ़ पाएगा जिस बिंदु पर टिका कर रचनाकार स्वयं नेपथ्य में चला गया है। हां, वहीं खड़ा-खड़ा पगुराता रहे तो बात अलग है।


          अविच्छिन्न सी दीखने वाली इस चर्चा को मैं सप्रयोजन विस्तार दे रही हूं। माना जाता है कि हर तरह का पाठक –सुपढ़/ अधपढ़/ कुपढ़/ ऊबा/ अघाया/ सुस्त/ चौकन्ना - वक्त काटने के लिए हाथ आई किसी भी कथा-पुस्तक को पढ़ने और उस पर अपनी आधिकारिक राय देने का अधिकारी है। यह पाठक को प्रौढ़ और परिपक्व मानने की खामख्याली है या कथालोचना के मानदंडों की अनुपस्थिति के कारण उपजी अराजक स्थितिए कहना कठिन है। लेकिन इतना तय है कि गहरी अर्थव्यंजनाओं और यथार्थ की संशिलष्ट परतों के सहारे कितने ही अचीन्हे रहस्यों को खोलता कथा साहित्य संवाद के लिए एक अदद ‘सहृदय’ की बाट जोहता रहता है। खासतौर पर मुख्यधारा से बाहर हाशिए के क्रन्दन और हौसले को ले कर रचा गया साहित्य जो एक ओर अपनी अनूठी (तुर्श?) गूंज के कारण मुख्यधारा के परंपरागत ‘सहृदय’ की संस्कारग्रस्तता और ‘सुरुचि’ को ठेस पहुंचाता है तो दूसरी ओर नसैनी लगा कर किसी अमूर्त आकाश में टंगे अमूर्त औदात्य को छू कर लौट आने की आदत को फटकारता है। इसके बदले वह उसे अंगुल दर अंगुल अपनी शख्सियत को नाप-जांच कर अपने से बाहर निकलना और अपने जैसे अन्यों से जुड़ना सिखाता है। औदात्य किसी अबूझ गुमान में ऊपर उठ कर इठलाना नहीं, सतह पर छिन्न.भिन्न छितराई इकाइयों से जुड़ना और फिर सबके समवेत बल के सहारे एक निर्दिष्ट दिशा की ओर बहेलिए के जाल को उड़ा ले जाना है। इसके लिए चिड़िया होना-न होना जरूरी नहीं, जरूरी है बहेलिए के आतंक से अपने प्राण और अस्मिता को बचाने के प्रयास में तिनका-तिनका जीवन जुटाती चिड़िया की व्यग्रता में छिपी दृढ़ता और जिजीविषा को समझना।

अर्चना वर्मा की कहानियां पढ़ते हुए मैं अनायास उन सारे सवालों (जो वक्त के इतिहास में अब तक आरोपों की तरह दर्ज किए जा चुके है) का जवाब पा चुकी हूं कि क्यों स्त्री विमर्श को गाली और मजाक की तरह ले कर समाज-सृजन के एक गहरे सरोकार को हवा में उड़ा दिया जाता है? मैं आगबबूला होने-होने को होती हूं कि कक्षाओं में पढ़ाई जाने वाली रसिक शिरोमणि श्रृंगारराज विद्यापति-बिहारियों की पंक्तियां स्मृति में कौंध जाती हैं। वाह-वाह करते दरबारियों, और सहपाठिनों के शरीर में टक लगा कर उस ‘कामिनी’ को ढूंढते नई पीढ़ी के होनहारों को देखती हूं तो शर्म, अपमान और क्रोध से ज्वालामुखी के ढेर पर जा बैठती हूं - किसी भी जाहिल औरत की तरह कोसने के लिए कोसती हुई। यह आत्मघाती क्रोध विनाश का कारण हो सकता था, लेकिन मैं इसे संज्ञान का बिंदु बना कर सहेज लेती हूं। अपनी प्रतिक्रियाओं के अक्स में दूसरे को देखने पर समझदारी भरी सकारात्मक दृष्टि जग ही जाया करती है। मैं जान जाती हूं कि संवाद की सबसे ज्यादा जरूरत तो प्रतिपक्षी से ही होती है - सम्प्रेषण को संभव कर सकने वाले सेंसिटाइज़ेशन का पुल बनाने के लिए।

          बेशक यही वह बिंदु है जो मुझे अर्चना वर्मा की कहानियों से जोड़ता है। कभी भाव की एक दुर्निवार लहर पात्र के भीतर जिए जा रहे जीवन का अविभाज्य हिस्सा बनाती है तो कभी भीतर-भीतर रमते हुए भी एक निःसंग दूरी के साथ उन्हें कार्य-कारण श्रृंखला में बूझना सिखाती है। स्वयं रचयिता भी तो भोक्ता और द्रष्टा की परस्पर विरुद्ध भूमिकाओं को वक्त के एक लमहे में जीते हुए वक्त को रचने का संस्कार दिए जा रही हैं - अपने पात्रों कोए अपने ‘सहृदय’ पाठकों को। वे जानती हैं आनंद और कष्ट के ताने-बाने से बुने गए सृजन का दायित्व बहुत बाद की चीज है; और हांक कर चलाने की क्रिया भी नहीं। अनायास प्रस्फुटित हो जाने वाली नैसर्गिकता है। इसलिए सेंसिटाइज़ेशन की प्रक्रिया (क्या इसे नाट्यालोचन की शब्दावली में आस्वाद की प्रक्रिया न माना जाए जहां चेतना के बंद कपाट जब झपाटे से खुलते हैं तो संघर्ष-संकुल पूरी कायनात की गति, ऊर्जा और आशा को अपने में समो लेना चाहते हैं?) को कथा-सृजन का अनिवार्य अंग मानते हुए इसे ही एक दुरुस्त मुस्तैदी के साथ रचती हैं। तब ‘सहृदय’ का अर्थ सह-सर्जक होना ही तो हो जाता है - रचना के बहाने अपने और समाज के अंतर्सम्बन्ध और मनोविज्ञान को नई दृष्टि से देखना - समृद्ध होते हुएए व्याकुल होते हुए।

          अर्चना वर्मा की कहानियां यदि एक तल्लीन दायित्व बोध के साथ स्त्री विमर्श की सैद्धांतिकी को भारतीय संदर्भ में गढ़ती हैं तो दूसरी ओर उतनी ही दृढ़ आतुरता के साथ स्त्री विमर्श के संग जोड़ दी गई कुछ भ्रामक संरचनाओं को भी निरस्त करती हैं। भ्रम के कुहासे में गहरा कर स्त्री विमर्श को गाली का रूप देती इन मिथ्या संरचनाओं में मैं दो - जेंडर सेंसिटाइज़ेशन और देह विमर्श - पर बात करना चाहूंगी। जेंडर सेंसिटाइज़ेशन का अर्थ है स्त्री-पुरुष की जैविक संरचना को लिंगाधारित सामाजिक-सांस्कृतिक अर्थच्छवियों से मुक्त कर एक जेंडर न्यूट्रल समाज की रचना करना जहां स्त्री-पुरुष दोनों की बुनियादी पहचान मनुष्य के रूप में है। इस वांछित समाज की रचना स्त्री-पुरुष दोनों के सहयोग के बिना संभव नहीं क्योंकि दोनों उत्पीड़ित-उत्पीड़क होने के बावजूद लिंगाधारित सामाजिक-सांस्कृतिक अर्थच्छवियों से न केवल परिचालित होते है। बल्कि अपने पूर्वाभ्यास और पारंपरिक माइंड सैट के कारण किसी भी तरह के बदलाव की आशंका मात्र से एक साझी ताकत के साथ प्रतिरोध में तन कर खड़े हो जाते हैं। जेंडर सेंसिटाइज़ेशन चूंकि सोशल कंडीशनिंग के खिलाफ छेड़ी गई वैचारिक मुहिम है, इसलिए मान लिया जाता है कि जेंडर सेंसिटाइज़ेशन जैसी अवधारणा पुरुष को ‘बर्बर’ मानते हुए उसे स्त्री का अपराधी घोषित /स्थापित करने का आंदोलन है।

जेंडर सेंसिटाइज़ेशन की यह भ्रामक व्याख्या द्वेष और घृणा की दीवारें गहरा कर स्त्री-पुरुष को पहले से भी ज्यादा दो ‘विधर्मी’ प्रतिपक्षियों में बांट देती है, किसी से छिपा नहीं है। यह व्याख्या कहीं इस सरलीकृत निष्कर्षात्मकता से निष्पन्न है कि सारे मर्द मूलतः क्रूर और लम्पट हैं, और सारी स्त्रियां अनिवार्यतः त्रस्त और निरीह। यही कारण है कि चुटकलों में ही सही, पति की कुटाई के लिए बेलन का ‘सदुपयोग’ करती स्त्री और ‘औरत औरत की दुश्मन है’ जैसी उक्तियों का प्रसार कर पत्नी-भीत पुरुष की बेचारगी और ‘गधेपन’ के कसीदे काढ़े जाते हैं। जाहिर है ठीक इसी वजह से स्त्री रचित साहित्य में अपनी ‘शैतान’ छवि पा पुरुष-पाठक बौखला कर स्त्री विमर्श को गरियाने लगता है या फिर अपने बाड़े में बंद रोती-धुंआती ‘सती’ स्त्रियों की समर्पित कातरता पर सौ जान निछावर होकर उसे दूनी सहानुभूति से सींचने लगता है। अलबत्ता दूसरी कोटि के इस साहित्य को वह ‘स्त्री-.विमर्श’ के दायरे से बाहर खींच भी ले आता है और सीता-सावित्री की महिमामंडित भारतीय परंपरा में रख ‘सनातन साहित्य’ से भी जोड़ देता है।

उल्लेखनीय है कि अस्मितामूलक साहित्य को ‘खण्डित एवं एकांगी अभिव्यक्ति’ का खिताब दे कर कला और भाव दोनों स्तरों पर सनातन और सम्पूर्ण कहे जाने वाले पारंपरिक साहित्य के औदात्य के क्षरण का दोषी भी माना जाता है। बेशक अर्चना वर्मा मानती हैं कि जेंडर सेंसिटाइज़ेशन का अर्थ है पुरुष द्वारा स्त्री की अस्मिता को सम्मान देना, लेकिन इससे पहले वे यह ज्यादा प्रखरता से मानती हैं कि स्त्री को स्वयं अपनी अस्मिता को चीन्हना और आत्मसम्मान के भाव के साथ प्रदीप्त करना होगा क्योंकि “आदत ही धीरे-धीरे खून में जज्ब होती हे और खुद आदमी बन जाती है।“ जाहिर है अर्चना वर्मा के यहां जेंडर सेंसिटाइज़ेशन कोई ‘सरमन’ (धर्मोपदेश) या जुमलेबाजी नहीं है, आत्मोपलब्धि की धीर गंभीर क्रमिक अंतर्यात्रा है जो मन के तहखानों में बसे अंधेरों से जूझती है, और उन्हें बुहार कर परे फेंकते ही पाती है कि एक बड़े से आलोक-वृत्त ने भीतर के समूचे वीराने को जगरमगर कर दिया है। “खुद बंधी बैठी रहेगी तो दूसरे को भी तो चंगुल में रखना ही चाहेगी” - जड़ता में सेडेस्टिक प्लेज़र पाना एक बात है, और सत्ता विमर्श की बारीक रणनीतियों की जड़ता को अपने भीतर देख कर थर्रा जाना दूसरी बात। इसलिए ये कहानियां सबसे पहले आत्मसाक्षात्कार की कहानियां हैं - पुरुष से अलग स्त्री नामक जीव मात्रा के आत्मसाक्षात्कार की नहीं, स्त्री और पुरुष - एक अखंड मनुष्य - के आत्मसाक्षात्कार की कहानियां। कहानियों में बेशक स्त्री ही नैरेटर या केन्द्रीय पात्र के रूप में उभर कर सामने आई है और सम्बन्धों की संरचना की पड़ताल करते हुए वह निःसंग ईमानदारी के साथ सिक्के के दोनों पहलुओं को उलट-पलट कर देखती है, लेकिन अपने को बचाने के लिए कहीं भी मिथ्या अभियोग लगाने की धूर्तता उसमें नहीं है। इसलिए ये कहानियां ज्यादा कन्विन्सिंग हैं और लैंगिक संरचना को बेमानी सिद्ध करते हुए ह्यूमन सेंसिटाइज़ेशन की बात करती हैं। सच में, क्या एक लम्बे दाम्पत्य जीवन के बाद पुरुष ही पत्नी की मनोकांक्षाओं से अपरिचित रहता है? पति की ‘चाकरी’ में जीवन नष्ट कर देने का ‘रोना’ रोती स्त्री क्या सचमुच पति के मन को पढ़ने के लिए एक कदम भी आगे बढ़ पाती है? क्या सच यह नहीं कि ‘ब्याह’ रूपी लड्डू “जो खाय सो पछताय, न खाय सो पछताय” जैसी कहावतों को गिरह-गांठ में बांध कर ‘लड्डू’ खिलाने के ‘अपराधी’ उस दूसरे को पटकनी देने का अखाड़ा बन जाता है दाम्पत्य सम्बन्ध? और अपनी-अपनी घुटन को शहादत का नाम देकर ‘वीरगति’ पाना जीवन का परम सुख?

          अर्चना वर्मा सम्बन्धों के विघटन या यांत्रिकता की कहानियां नहीं लिखतीं; विघटन या यांत्रिकता के लिए उत्तरदायी कारणों की तलाश में मन के समंदर में गहरे उतर जाती हैं। तब उनके संग-संग भीतर की गहराइयों को थहाती सुलभा (शिकायत’) पाती है कि अपनी-अपनी भूमिकाओं को एक शालीन मर्यादा और उदारता के साथ जीने वाले ससुराल के उस प्रांगण में शिकायत की कोई वजह नहीं, लेकिन फिर भी कुछ सुलगता-खौलता सा रहता है भीतर; कि सांसों को अवरुद्ध कर देने वाले गुबार को शांत करने के लिए शिकायतें पालना लाजिमी हो जाता है - कभी सास के विरुद्ध, कभी बहू के विरुद्ध; कि इफरात के बीचोबीच अभावों-असुविधाओं और आंसुओं की दुनिया रच कर वह अपनी अस्मिता को नहीं, खोखले अभिमान को बचाती रही है। सुलभा नहीं जानती, सुलभा की रचयिता जानती है कि जैनेन्द्र और शरद चन्द्र की नायिकाओं का अनुगमन करते हुए हिंदी साहित्य योजनाबद्ध तरीके से आत्मदमन और आत्मपीड़न के सहारे अपने वजूद को कुतर कर आदर्श स्त्री का खिताब पाती स्त्री-छवि को जनमानस में प्रतिष्ठित करता रहा है। इसलिए अपनी अकिंचनता पर अभिमान करती राजलक्ष्मियों-सावित्रियों या सुनीताओं-मृणालों को नहीं, सुलभा और आभा (अब यहां कोई नहीं रहता) को रचती हैं जो सतह पर जी गई जिंदगी के समानांतर भीतर की गहराइयों में धड़कती जिंदगी को भी सदियों की उम्र पा कर जीती हैं और जान जाती हैं कि ‘बरसों का जकड़न का अभ्यास’ स्त्री और पुरुष दोनों को रूढ़ छवियों का निर्जीव सांचा भर बना रहा है; कि अपेक्षाओं और निष्क्रियताओं को पाल कर स्त्री-पुरुष दोनों न अपने को खोलते हैं और न दूसरे को खोलने के लिए “अपनी ओर से हाथ बढ़ाने की हिम्मत” करते हैं। नहीं, करुणा और सहानुभूति दे कर वे जड़ता का सेलिब्रेशन नहीं करेंगी। यदि ऐसा किया तो सर्जक होने का संतोष कैसे अर्जित हो पाएगा? इसलिए आश्चर्य नहीं कि अपने ही सवाल – “ऐसा आखिर क्या था सास जी के पास जो उसके पास नहीं? देह के बावजूद नहीं कि सुधाकर को बांध पाती। मां होने के बावजूद नहीं कि राजू को बांध पाती?” (पृ0 71) - के साथ जवाब के तौर पर सुलभा मुक्त-सम्मानित-संतुष्ट सास के सारे रहस्यों को पा लेती है। और स्वयं अतीत की तलहटी में जुगनू की तरह दिपदिपाते उस एक पल की स्मृति को जी लेती है जब सात बरस के वैवाहिक जीवन के बाद पहली बार उसे अपना ‘मनचाहा’ बनाने/ करने का निर्देशपुष्ट अधिकार मिला। मारे खुशी के वह कमरा भर के अल्पना आंकती जरूर है, लेकिन इसके बाद अपने आह्लाद को दिशा और उठान नहीं दे पाती। हां, वह जानती है आह्लाद का कारण! स्पेस पाना उसकी तमन्ना रहा है लेकिन अनंत स्पेस को जीवन के कलरव से भरना वह नहीं जानती। उसके पंखों में मुर्गे जितनी उड़ान भरने की फड़फड़ाहट है, शायद इसीलिए किसी दूसरे को सुदूर आसमान में ऊँची उड़ान भरते देख बौखला जाती है; मारे दुख और ईर्ष्या के उसके पंखों को नोच डालने की फिक्र में दुबलाती चलती है। संज्ञान के इस पल में पाठक सुलभा का अवसाद और पश्चाताप ही नहीं देखता, कहानी दर कहानी संवेदना पगी अंतर्यात्रा करता हुआ जान लेता है कि उड़ान सीख लेने पर डंक मारने की इच्छा से महरूम हो जाता है मनुष्य। ठीक इसी स्थल पर जब स्मृति में अज्ञेय की पंक्ति – सांप, तुम सभ्य तो नहीं हुए - कौंध जाती है तो अनेक अर्थव्यंजनाओं से चमत्कृत और पानी-पानी होता हुआ वह अपने भीतर ‘पंख’ और ‘डंक’ के अनुपात का जायजा लेने लगता है। उदात्तीकरण की ओर ले जाने वाली डगर यहीं कहीं से शुरु होती है।


          कहने की बात नहीं कि जीवन के प्रति कहानी और उपन्यास की एप्रोच और प्रयोजन में बुनियादी फर्क है। पात्रों का जमावड़ा, आकार की पृथुलता, घटनाओं की बहुलता और एक समग्र-गहन दृष्टि से समय-समाज को थहाने की व्याकुलता . कहानी से अलग उपन्यास के स्ट्रक्चर को सिद्ध करने के लिए इन विशेषताओं को गिनाना जरा भी कठिन नहीं। लेकिन कभी-कभी काल की नोक में बंधी घटनाविहीन कहानियां एक अर्थगझिन संश्लिष्टता के साथ देश-काल की जटिलताओं को उजागर भी करने लगती हैं; और सिर्फ उजागर नहीं, एक मंत्रविद्ध बेचैनी के साथ पाठक से संवेदना के सहारे उन्हें रच कर जीने का आग्रह भी करती हैं। अज्ञेय की ‘गैंग्रीन’, यशपाल की ‘करवा का व्रत’ और जैनेन्द्र की ‘पत्नी’ कहानी को मैं ऐसी ही औपन्यासिक कहानियों की कोटि में रखना चाहूंगी जो अपनी घुटी चुप्पियों की जुबान से धर्मशास्त्रों और सांस्कृतिक संरचनाओं पर कशाघात करती पंडिता रमाबाई, ताराबाई शिंदे, अज्ञात हिंदू महिला की फुंफकार को शब्दबद्ध करती हैं तो स्त्री को स्त्री बनाई जाने वाली दीक्षाओं को सीमोन द बउवार के शब्दों में प्रश्नांकित करने लगती हैं। अलग-अलग घटनाओंपात्रों के साथ अलग-अलग कहानियां रचने के बावजूद अमूमन हर रचनाकार संवेदना में लिपटी अपनी बुनियादी व्यग्रताओं को बार-बार हर रचना में दोहराता है - मानो अपने ही सवालों और द्वंद्वों के साथ मुठभेड़ करते हुए अपने को खोजने की जुगत कर रहा हो। अर्चना वर्मा की कहानियों में यह औपन्यासिक तत्व भरपूर है - इतना कि ‘बंध कर बैठी’ सुलभा का अवसाद आभा के संदर्भ में विश्लेषण का एक और कोण पाता है तो बंधन को मूल्य बना कर इठलाती ‘त्यौहार’ और ‘राजपाट’ कहानियों की कुलवधुओं को देख कर सिर धुनने लगता है। लेकिन रपटीली ढलान पर क्या सिर्फ ये दोनों स्त्रियां ही दीखती हैं? उनके संग उसी भदेस भोग में संलिप्त उनके सहचर नहीं? और कि भोग में ‘सुख’ ढूंढने का भ्रम आखिर कितना चलेगा? क्या यौवन का ज्वार उतरते ही आभा और अखिलेश का जीवन-सत्य उनका अपना ‘सच’ नहीं हो जाएगा जहां अखिलेश के लिए घर लौटना यंत्रणा बन जाता है और आभा के लिए घर में उसकी उपस्थिति को सहना? जाहिर है इसीलिए मुझे ‘भरम’, ‘त्यौहार’, ‘अब यहां कोई नहीं रहता’ और ‘शिकायत’ कहानियां एक ही संवेदना के विस्तार की कहानियां लगती हैं जो थ्री डी इफेक्ट के साथ पात्रों, घटनाओं, मानसिकताओं और परिणतियों को एक दूसरे से अलगाने और जोड़ने वाले अंतर्सूत्रों को चाक्षुष हलचलों द्वारा उकेरती हैं। बहुत आसान है स्त्री-पाठक के लिए आभा के साथ तादात्मीकृत करना - एक निरर्थक अनुत्पादक व्यस्तता में अपनी ही परिधि पर अविराम घूमती आभा की यंत्रणा और व्यथा को समझना जो मादाम बावेरी और शालिनी (मृदुला गर्ग की कहानी ‘तुक’ की नायिका) तक एक लम्बा सफर तय करने के बाद भी बरकरार है। जाहिर है जज की कुर्सी पर बैठ कर वह कठघरे में आभा को नहीं, अखिलेश को खड़ा करेगी।

पुरुष-पाठक की पाठ-प्रक्रिया इससे भिन्न हो सकती है। घर में दो घड़ी चैन से न बैठने देने वाली आभा की चिड़चिड़ाहट से संत्रस्त अखिलेश उसे कहीं अपना-सा लग सकता है, पढ़ते-पढ़ते कहीं अहं भाव सहल भी जाता है कि अवसादग्रस्त पत्नी को व्यस्त रहने की रचनात्मक सलाह देकर (यानी कढ़ाई-बुनाई, कुकिंग-पेंटिंग वगैरह या कोई क्लास/ क्रच आदि खोलना) या उसे खुश रखने के प्रयास में तोहफे दे कर वह एक जिम्मेदार पति के फर्ज बखूबी निभा रहा है। यकीनन उसकी अदालत के कठघरे में आभा है। लेकिन जीवन अदालत का खेल तो नहीं। और सम्बन्ध सजा भोगने/ देने का प्लेटफार्म। इसलिए अर्चना वर्मा की कहानियां ऐसे पाठक को सम्बोधित हैं जो अपनी लैंगिक पहचान (जाहिर है इसमें संस्कार और रूढ़ भूमिका प्रदत्त दंभ शामिल हैं) भुला कर परकाया प्रवेश संभव कर सके। तब क्या उसे दोनों की व्यथा और अवसाद का मूल कारण एक ही दिखाई नहीं देगा – एक-दूसरे को फॉर ग्रांटेड/ अ-महत्वपूर्ण समझने का भाव? एक ऐसी आत्मप्रवचंना जो एक-दूसरे को ठगने और उस ‘सच’ को मक्कारी से ढांपने के लिए समर्पित दम्पती के स्वांग का रूप ले लेती है। अखिलेश की आत्मस्वीकृति क्या विवाह संस्था (पति-पत्नी) का सच नहीं? “असल खूबसूरती तो इस दिखावे में थी, ख्याल सचमुच न भी रह पाता हो तो क्या। बल्कि उसके बाद उन्हें लगने तो यही लगा कि जैसे-जैसे उनके ये प्रयत्न ज्यादा नियमित, निष्प्रयास और अभ्यस्त होते जा रहे हैं, वैसे-वैसे आभा की जगह उनके ख्यालों से कम होती जा रही है। जैसे कोई काम पूरा करके अलग रख देने के बाद छुटकारा सा मिल जाता है।“ (पृ0 37) यह आत्मप्रवंचना एक ऐसा सुरक्षा कवच है जो सम्बन्ध के टिकाऊ बने रहने की निश्चिन्तता तो देता है, लेकिन साथ ही सम्बन्ध को लुब्रीकेट करते रहने के लिए अपने आप को नित नवा बनाने की कला से भी वंचित कर देता है। क्या निष्कवच व्यक्ति अधिक ‘मनुष्य’ नहीं?

            अर्चना वर्मा की खासियत है कि स्त्री के अवसाद के मूल में उसकी निष्क्रियता और विचारशून्यता के सच को उकेरने के बाद वे उसे अंधेरों से निकलने के लिए जूझते हुए दिखाती हैं। छोटे बच्चों और असम्बद्ध व्यस्तताओं से खदबदाते घर से आंख बचा कर दो घड़ी को बाहर निकल कर भागी आभा ने भैरो मंदिर के द्वार पर प्रसाद के रूप में मदिरा पाई है - एक बिल्कुल अप्रत्याशित निर्बंध दुनिया; बिल्कुल अलग जीवन शैली और आचार संहिता के साथ। घर के बंद कपाटों के भीतर वह इस दुनिया की भनक तक नहीं पा सकती थी, लेकिन साक्षात्कार कर लेने के बाद भी क्या खुद इसे स्वीकार कर सकी है? सवाल समाज-भय का नहीं, अपने को मुक्त करने में आड़े आने वाले भीतरी निषेधों से लड़ने का है, क्योंकि बाहर से आकर कोई दूसरा नहीं बांधता। इसलिए अपने ही हाथों से अपने बंधनों को खोलना है और भीतर का रस खुद पीना है; “किसी दूसरे के ओठों के बिना वह कैसे पिया जाएगा, इसका रास्ता खोजना है, बस।“ (पृ0 56)

          विजन और दृढ़ता के बिना आत्मसाक्षात्कार को मुक्ति-पर्व में पर्यवसित नहीं किया जा सकता। ऊपर उठने के लिए गुरुत्वाकर्षण की जकड़ को काटना ही पड़ता है। चूंकि कहानियां स्त्री को केन्द्र में ले कर रची गई हैं, और स्त्री के कोने-अंतरों की पड़ताल कर उसकी बेबसी और छटपटाहट को सतह पर लाया गया है, इसलिए लग सकता है कि जकड़ी हुई सिर्फ स्त्री है; पुरुष कर्त्ता और स्वावलंबी होने के कारण मुक्त है और ग्रंथिहीन भी। ‘त्यौहार’ कहानी में अर्चना वर्मा मुक्ति के रंग-रूप और आकार-प्रकार को भी चीन्ह लेना चाहती हैं। साथ ही इस सवाल को भी कि क्या स्त्री और पुरुष के लिए मुक्ति का अर्थ एक ही है? क्या अवैध सम्बन्धों को जीते लम्पट पति से अलग हो जाना मुक्ति है - इस दर्प के साथ जुड़ी आत्मसार्थकता से दिपदिपाते हुए कि स्वाभिमान को बनाए रखने के लिए अपने बूते जमाने भर की कुटिलताओं से जंग जीती है उसने? या मुक्ति का अर्थ एक ऐसी नई पीढ़ी को रचना है जो अपने से परे दूसरों के संग अपनापा जोड़ने की हार्दिकता अर्जित कर सके? मुक्ति ऐश और आर्थिक आत्मनिर्भरता में अभिव्यक्त होती है? या घर फूंक तमाशा देखने की मनोवृत्ति में? सोलह साल की कच्ची उम्र में कुछ माह के शिशु को गोद में ले कर पतिगृह को अलविदा कह देने वाली नैरेटर यदि सैल्फ मेड होने के दंभ में इतराना चाहे तो कुछ गलत भी नहीं। जवान-अफसर बेटा उसके संघर्ष की जीती-जागती मिसाल है और एक प्राध्यापक के रूप में उसका अपना रुतबा क्या जरा भी कम है? तब सफलता के मद को च्यूइंगम की तरह क्यों न चुभलाए वह? आभा और सुलभा से अलग अपनी एक कोटि बनाती स्त्रियां गिनती में विरल ही होती हैं।


लेकिन अर्चना वर्मा अवसाद की तरह अभिमान को भी ज्यादा देर तक टिकने नहीं देतीं। अचानक रसभंग की स्थिति से उपजा कोई उखड़ा-उजड़ा पल ... और चकरघिन्नी की तरह गोल-गोल घूमता-घुमाता वक्त - स्मृतियों के साथ, सपनों के साथ, कभी पीछे लौटाता, कभी फलक छू लेने को उमड़ता। पुरुष (पति) से मुक्त हो कर पुरुष (पुत्र) को अपने जीवनाभिमान और सफलता की कसौटी बनाती नैरेटर! मुक्ति के हिंडोले से कूद कर जेल की सुरक्षित दीवारों में सिमट जाने का उपक्रम नहीं यह? बेटा जगन अंकल का नाम उछाल कर प्यार की भाषा में ब्लैकमेलिंग कर रहा है और बेटे का बेटा अपने अबोध बचपन में पितृसत्तात्मक व्यवस्था के सच को प्रौढ़ भंगिमा में व्यावहारिक रूप दे रहा है कि “आवाज देते-देते गला फट गया, सुनाई नहीं देता, बहरी हो या कानों में रूई घुसेड़ रखी है” (पृ0 85) चाहे तो छाती कूट स्यापा कर सकती है कि संघर्ष का यही सिला मिला उसे कि बेटा मां की शिक्षा-दीक्षा को ‘कवायद परेड’ कह कर परे सरका दे और बेटे का बेटा ‘मर्द’ होने के गुमान में छोटी बहन को अकारण-सकारण टंगड़ी मार कर गिरा दे? चाहे तो आत्मभर्त्सना से अपने को छलनी करते चले जाने का ‘सुख’ पा सकती है कि “उनका बेटा!! यह!!! इत्मीनान के सिवा और किसी मुद्रा में कभी दिखता ही नहीं। तृप्त, संतुष्ट, आत्मलीन। कीचड़ में लोटता सूअर!” (पृ0 77) अपने को विशिष्ट दिखाने के प्रयास में एक हिकारत भरे दंभ के साथ दूसरे को फटकारते-रौंदते हुए भी हम उसे कस कर अपनी मुट्ठी में लिए साथ चलते ही रहते हैं। ऐसे में क्या “रास्ता यहां से अलग होता है” का उद्घोष कर बेटे से अलग भीड़ से छिटकी अपनी दुनिया में प्रविष्ट कर जाना जरा भी अप्रत्याशित नहीं? तो फिर मुक्ति कहां है? जगन के संग एन जी ओ चलाने में और पीड़िता लड़कियों के कल्याण के लिए अपनी सारी जमा-पूंजी लगाने में? नहीं, यह व्यस्तता का सकारात्मक उपक्रम है, और समझने की बात यह है कि घुटन और जकड़न में सर्जनात्मकता भी दम तोड़ देती है। मुक्ति वैचारिक औदार्य, सहिष्णुता, प्रेम, क्षमाशीलता और आत्मविस्तार के रंग-रेशों से बुनी कोई शै है जो दूसरों के भीतर अपने ‘मैं’ को चीन्हना सिखाती है। इसलिए मुक्त होने के प्रयास में नैरेटर पाती है कि वात्सल्य को मोह का नागपाश मान वे अपने को ही छलती रही हैं, वरना रक्षक या सनद रूप में बेटे की उपस्थिति को समय रहते वे चीन्ह न लेतीं? बेटा अंत तक रहा तो स्नेह का पात्र, जिम्मेदारी का पात्र। अलबत्ता मुक्त तो वे उस दिन हुईं जब जगन के साथ सख्य के गहरे रिश्ते में बंध कर उन्होंने अपने भीतर की बंजर जमीन में हरियाली के सोते फूटते देखे; और जाना कि एक के प्रति अपरिमित घृणा पूरी जाति के प्रति नफरत का उबाल नहीं बन सकती; कि एक बार छले जाने का अर्थ जिंदगी भर दूसरों की नेकनीयती पर शक करने का वीजा नहीं है। जगन के जरिए उन्होंने अपने को मुक्त किया है और बदले में दोनों के आसमान को अथाह विस्तार और अनंत ऊँचाई से भर दिया है। “सारी चिंताओं, आशाओं, दुराशाओं की साझीदारी का ऐसा रिश्ता जो क्षण भर को भी उन्हें अपने औरत होने के अहसास के प्रति चौकन्ना, बोझिल या क्षुब्ध नहीं बनाता; उन्हें सहज मन से सिर्फ होने देता है।“ (पृ0 83) अर्चना वर्मा जगन के रूप में स्त्री के चिर काम्य सहचर को रचती हैं। यह सहचर द्रौपदी और कृष्ण के सख्य भाव के स्मरण के साथ-साथ सुभद्राकुमारी चौहान की ... ... कहानियों की स्मृतिरेखाओं को जहां-तहां आलोकित करने के उपरांत एक निस्तब्ध उसांस के साथ मातबर सिंह (भरम) और शशिकांत (जोकर) को विलोम रूप में भी रच देता है।

          अर्चना वर्मा की कहानियां स्त्री विमर्श के रूढ़ एवं संकुचित अर्थ में नई व्यंजनाएं भर कर उनका अर्थ विस्तार करती हैं। ये कहानियां मूलतः स्त्री (और पुरुष दोनों यानी मनुष्य मात्र) के सम्मान की कहानियां हैं - सम्मान की पात्रता अर्जित करने, बांट कर सम्मान का विस्तार करने, और महिमामंडन के दिखावे से विच्छिन्न कर सम्मान को संवाद और विश्वास के तंतुओं में विन्यस्त करने की कहानियां। दरअसल पाखंड और दोगलापन - दोनों से सख्त चिढ़ है लेखिका को। इसलिए शशिकांत मृत्यु के इतने बरस बाद भी देह पर रेंगते कीड़े की जुगुप्सा भरी स्मृतियों से अधिक कोई और रूप नहीं ले पाता मिसेज शशि कान्त वर्मा की चेतना में। हां, वह जी जान से पति की समाज-कल्याण चिंताओं और उनके सबूत स्वरूप मातृका के दफ्तर को ग्लोरीफाई करने का जतन करती है, लेकिन तय नहीं कर पाती कि बलात्कार का असफल प्रयास करता फोटोग्राफर ज्यादा घिनौना है या ‘सब कुछ’ माफ कर देने के बड़प्पन में बिंध कर उसकी देह की पोर-पोर में फोटोग्राफर के स्पर्श की टोह लेता शशिकांत। पाखंड की जमीन पर आत्मपीड़न और आत्मगोपन के साथ-साथ आत्मानादर और अविश्वास की फसल ही तो लहलहाएगी। तब कैसा संवाद? और कैसा साहचर्य? हादसे सम्बन्धों की प्रगाढ़ता को विरल कर दे तो जान लेना चाहिए कि सम्बन्ध वहां थे ही नहीं। थीं तो ढोंग की मजबूरियां या ढोंग की अभ्यस्त चर्याएं।

          लेखिका जानती हैं कि संश्लिष्ट होने की वजह से उनकी कहानियां बहुपरती और अर्थगर्भित है।। त्वरित पाठ के जरिए उन्हें समझा नहीं जा सकता। वे वैचारिक चौकन्नेपन और एकाग्रता की मांग करती हैं - ठीक मुक्तिबोध की कहानियों की तरह। अपनी मिठास और तरलता को छिपा कर बेहद कठोर और अनाकर्षक रूप में स्वयं को प्रस्तुत करते जटाजूटधारी नारियल की तरह ये कहानियां भी स्वयं को आकर्षक पैकेकजिंग में बांध कर तुरत-फुरत पाठक की दुलारी-प्यारी होने के लोभ में डगमगाती-फिसलती नहीं। लेखिका जानती हैं कि पाट चौड़ा और गहराई अपेक्षा से कुछ ज्यादा ही हो तो नदी सपाट मैदान में निर्बाध धीर-प्रशांत गति से ही बहती है। इसलिए विलंबित लय में विश्लेषण और मनन के लिए वे पात्रों को भरपूर स्पेस देती हैं – भांय-भांय करते आतंक भरे निर्जन सन्नाटे से बुना एकांत, जहां आकांक्षाओं और दुर्बलताओं में गुंथे अपने अंतर्विरोधों से दो-चार होने की दरकार है तो व्यवस्था के षड्यंत्रों को समझ कर अपनी भागीदारी कबूलने की शर्म भी। घटनाबहुलता अर्चना वर्मा की कहानियों में नहीं, ठीक वैसे ही जैसे तेज गति से दौड़ते वक्त और समाज के बीचोबीच किंचित ठहरी और घटनाविहीन जिंदगी जीता है इंसान - अमूमन हर नए दिन पुरानी दिनचर्या को दोहराते हुए। घटनाविहीनता घटना के न होने की संकेतक नहीं, जिंदगी के साथ रागात्मक सम्बन्ध विकसित न कर पाने की अक्षमता से उत्पन्न ट्रेजेडी है क्योंकि जीवन अवसाद या भोग में डूब कर सड़ता नहीं, सड़ने की क्रमिक प्रक्रिया में अपनी अंतःशक्तियों को बटोर कर मुठभेड़ को जीवन दर्शन बना लेता है। मुठभेड़ बाहर और/ या भीतर शून्य को पछाड़ कर जब अपने और जगत को प्यार करने की ताकत देती है, तब हर पल दायित्व और कर्म की हजार व्यस्तताओं के साथ हलचल भरा एक पूरा जीवन जी लेता है। ‘जोकर’ और ‘नेपथ्य’ की कहानियों का शिल्प इसीलिए तो ‘शिकायत’, ‘अब यहां कोई नहीं रहता’, और किसी सीमा तक ‘त्योहार’ कहानियों के ठहरे गतिहीन शिल्प से भिन्न है। बेशक सृजन के लिए गति और स्फूर्ति जरूरी है, लेकिन उससे पहले मन को थहाने के लिए अकेलेपन को सृजनधर्मी एकांत में तब्दील करने का सकारात्मक विवेक भी। इसलिए जहां ‘त्यौहार’ ‘शिकायत’ और ‘अब यहां कोई नहीं रहता’ की भीतरी परतों तक में धंसा आत्मालोचन इन्हें अकेलेपन, कशमकश और सन्नाटे की घटनाविहीन कहानियां बनाता हैं, वहीं ‘जोकर’ और ‘नेपथ्य’ में नियोजित घटनाबहुलता अतिरिक्त वाचालता के सहारे अतिरिक्त ऊर्जा, अतिरिक्त आक्रोश और अतिरिक्त सृजनधर्मी सक्रियताओं को सतह पर लाती हैं, मानो लक्ष्य निर्धारण कर लेने के बाद अब उसे पा लेने की आखिरी लड़ाई ही शेष बची हो। ‘जोकर’ और ‘नेपथ्य’ बेशक पहले पाठ में मुग्ध कर देने वाली कहानियां हैं, लेकिन मैं इन्हें स्ट्रक्चर्ड कहानियां कहना अधिक पसंद करूंगी। या फिर बड़बोली कहानियां मानो पात्र योजना से ले कर वस्तु, प्रयोजन, दृष्टि और प्रभाव सब पहले से ही तय कर लिए गए हों। बसए एक कुशल रंगनिर्देशक की तरह उन्हें मंच पर अभिनीत करना बाकी हो। बेशक स्त्री विमर्श के सारे सवालों और सरोकारों की पड़ताल यहां खूब हुई है – अस्तित्व-संकट, अस्मिता की लड़ाई से ले कर सशक्तीकरण के हौसलों और निर्णय क्षमता तक। इसके लिए तर्कसंगत वैज्ञानिक पद्धति का जम कर उपयोग हुआ है - ऑब्जर्वेशन (पर्यवेक्षण), परीक्षण (वैरीफिकेशन) तुलनात्मक अध्ययन, रणनीति का निर्माण और क्रियान्वयन। ‘नेपथ्य’ कहानी मन में दबी ऐतिहासिक चेतना और सामंती वृत्तियों का विखंडन करती है; रूढ़ छवियों को पारंपरिक अर्थों और पूर्वाग्रहों से मुक्त कर हर देश-काल में ठहरे एक से राजनीतिक-सांस्कृतिक दबावों को देशकालातीत बनाती है और हाशिए के आर्त्तनाद को अस्मिता की लड़ाई का विचारोत्तेजक रूप देती है। तब कहानी कालिदासीय ‘अभिज्ञानशाकुंतल’ से कन्नी काट कर प्रेम-विरह-मिलन की श्रृंगारिक रचना नहीं रहती, स्त्री का उपयोग कर कूटनीति के सहारे अपने वर्चस्व को बचाती पुरुष व्यवस्था की बानगी बन जाती है।

प्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर के शकुंतलाविषयक विश्लेषण का स्मरण कराती यह कहानी स्त्री सशक्तीकरण का आख्यान ही नहीं करती, स्त्री द्वारा इतिहास, वर्तमान और भविष्य स्वयं लिखने की जरूरत को भी उकेरती है। वक्त को ‘नागरिक’ की तरह जीने और वक्त के सच को लिखने की यही मुस्तैदी ‘जोकर’ में भी है जो ‘नेपथ्य’ की तुलना में जटिल है और अर्थव्यंजक भी। यहां स्त्रियां देह के द्वार पर पुरुष द्वारा अनादृत अवश्य हुई हैं, लेकिन पुरुष-संरचनाओं द्वारा पराजित नहीं। घटनाओं का जाल भीतर के संशयों और विचलनों की तरह बेतरह उलझा है; वर्तुलाकार भी जो बार-बार हर दिशा से यात्रा तय करने के बावजूद डैड एंड पर ही जाकर खत्म होता है। स्त्रियां, स्त्री देह पर किया जाने वाला यौन उत्पीड़न, और यंत्रणा की कसक - सब बिल्कुल एक सा - इतिहास की जड़ता और आवृत्ति को जीता हुआ। लेखिका जानती हैं कि घटनाओं का जंगल पाठक के ध्यान को बांध भले ही ले, स्वयं कहानी को वहीं कहीं भटकता छोड़ कर दिशाहीनता में विघटित हो सकता है। जाहिर है कहानी को दिशा देने के लिए एक और घटना की नियोजना व्यर्थ है। इसलिए अर्चना वर्मा कहानी के विन्यास को पूरी तरह पलट देती हैं। बलात्कार की मुख्य कथा गौण बन जाती है, और मुख्य कथा बन जाती है आदिवासी कबीले की डायन सरीखी तंत्र साधिका तुलसा द्वारा की गई तंत्र साधना में नैरेटर की भागीदारी और किसी कल्पित शत्रु के दरवाजे पर आटे का पुतला रख उसे मटियामेट कर देने की भौतिक अभिलाषा। एक-एक लहर मिल कर जिस तरह प्रभाव को सघन करते हुए भंवर में तब्दील होती है और बलात्कार के मनोवैज्ञानिक-सांस्कृतिक संदर्भों को विश्लेषित करते हुए आटे के पुतले यानी कल्पित शत्रु को ‘डर’ और फिर डर को जोकर का रूप देकर उसे अपनी ही कुंदजहनी के दरवाजे पर रखने की तजवीज की जाती है, वह कहानी को स्त्री मुक्ति की अभिलाषा से पहले पाठक से स्त्री के प्रति सम्मान की आदत पाल लेने का आग्रह करती है।
          बेशक बडबोलापन कालजयी साहित्य का लक्षण नहीं माना जाता, लेकिन अस्मिता की लड़ाइयों में हथियार के रूप में उसकी उपयोगिता से इंकार भी नहीं किया जा सकता। अर्चना वर्मा इसे बखूबी जानती हैं और अपने चारों ओर उगे स्त्री द्वेष को भी। दिग्भ्रमित अनैतिक स्त्री (जो असल में ठीक पुरुष जैसा उच्छृंखल जीवन जीने की हिमायती है) को लक्षित कर स्त्री मुक्ति संदर्भों को देह विमर्श का पर्याय बना देने वाली वर्चस्ववादी कूटनीतियों से वे खूब परिचित हैं। सिर्फ पुरुष क्यों, बराबर की दोषी स्त्री भी है जो देह को अंतिम मान कर इसके पार देखने की दृष्टि ही अर्जित नहीं कर पाती। इसलिए वे ‘जोकर’ में चपला बनाम सुगंधा प्रकरण की नियोजना करती हैं। चपला यानी क्षणांश की एक कौंध यानी देह का इस्तेमाल कर दुनियावी बुलंदियों को हासिल करने की महत्वाकांक्षा। सुगंधा यानी सुवास बन कर चेतना और वातावरण में रच-बस जाना यानी प्रतिभा का उपयोग कर प्रतिकूल परिस्थितियों को नियंत्रित करने का अर्जित आत्मविश्वास। देह को अस्वीकारती नहीं अर्चना वर्मा, लेकिन देह को मनुष्य जीवन का अंतिम सत्य मान कर स्त्री की नियति को उसकी देह के खूंटों से भी नहीं बांधतीं। देह चेतना से विच्छिन्न भोज्य सामग्री नहीं, समूचा व्यक्तित्व है। जाहिर है ‘सरे बाजार’ उघाड़ने और भोगने की फूहड़ता लोलुपता की परिचायक हो सकती है, किसी मानवीय अस्मिता की नहीं। फिर जब जेंडर सेंसिटाइज़ेशन को आदत बना कर रोजमर्रा की जिंदगी में उतार ले इंसान, तो क्या ऐसे कुत्सित उघाड़ू-पछाड़ू खेल खेल सकता है वह?

          लेकिन अभी तो बहुत लम्बा सफर तय करना है स्त्री को, पुरुष को - समाज को, मुक्ति के साझे स्वप्न को साकार करने के लिए। डेढ़ सौ साल में कुल एक या दो डग ही तो आगे बढ़ पाए हैं हम। ‘त्यौहार’ कहानी में लेखिका जिस सांकेतिकता के साथ सीता और दुर्गा की प्रतिमाओं को पहले प्रतीकों में और फिर सवाल में व्यंजित करती हैं, वहां हताशा नहीं, एक क्रिटिकल आत्मालोचन की जरूरत है। दुर्गा-गति, ऊर्जा, निर्णय क्षमता, जीवटता और कर्म का पुंजीभूत रूप - की प्रतिमा का विसर्जन और सीता -  अनुगता, समर्पिता, वेदना और मौन हाहाकार का समुच्चय - की आराध्य राम के वामांग स्थित ‘पत्नी’ के रूप में प्रतिष्ठा - दरअसल अब भी स्त्री और पुरुष की स्थिति, तथा पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था के प्रति हमारी पारंपरिक निष्ठा के परिचायक हैं। जाहिर है अपनी आंखों को ‘ज्योति’ हमें स्वयं देनी है। अलबत्ता इतना और जोड़ना चाहूंगी कि कथा-पाठक की अर्हताएं कहानी-कलेवर के बाहर भी जस की तस बनी रहती हैं क्योंकि जीवन एक विराट कथा है और स-हृदय जीवन का रक्षक।

सम्पर्क-
मोबाईल- 09416053847
ई-मेल: rohini1959@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'