रजनीश कुमार मिश्र की ग़ज़लें

 

रजनीश कुमार मिश्र


साहित्य की खूबी यह है कि यह हमेशा उस इंसानियत की बात करता है जिससे ऊंचा कुछ भी नहीं है। मुक्तिबोध ने बांग्ला कवि चंडीदास की इन पंक्तियों को  अपने एक लेख में उद्धृत किया है :

'शुनह मानुष भाई/ शबार उपरे मानुष शत्तो/ ताहार उपरे नाई!'

(हे मनुष्य भाई, सुनो! मनुष्य सत्य सर्वोपरि है, उसके ऊपर कोई सत्य नहीं है।) रजनीश कुमार मिश्र अपनी गजलों में इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए दिखाई पड़ते हैं। वे लिखते हैं 'मकान भी जले हैं, दुकानें भी लुटी है बहुत/ इन्सानियत भी मरी है, नफरत की बरसात के बाद।' वाकई किसी भी तरह की नफरत से आहत होती है तो यह इंसानियत ही। क्या हम एक ऐसा समाज नहीं बना सकते जिसमें नफरत के लिए कोई जगह न हो। पिछले महीने हमने इनकी कुछ गजलें पढ़ी थीं। एक बार फिर हम इनकी गजलों से रू ब रू होते हैं। धीरे धीरे रजनीश जी की लेखनी परवान चढ़ने लगी है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं रजनीश कुमार मिश्र की गजलें।

'


रजनीश कुमार मिश्र की गजलें



1

उम्र की दहलीज लाँघ जाने की कभी हिम़ाकत मत करना

दर्द अगर अपनों सेे मिला हो तो कभी शिकायत मत करना।


बहुत विश्वास करके सौंपी है तुझे अपने रिश्ते की डोर
इस रिश्ते को निभाने में कभी कोई सियासत मत करना।।

अगर मुझसे सच्ची मुहब्बत है तो मुझ पर भरोसा भी रखना
मेरे इश्क में जब डूबना तो कभी अपनी हिफाजत मत करना।।

हो सफर कितना भी मुश्किल हमेशा मुझे ही याद करना तुम
किसी और को अपने साथ लेने की नई रवायत मत करना।।

मुझे उलझा ही रहने दो अपनी यादों के जाले में
निकलना भी चाँहू तो कभी मेरी हिमायत मत करना।।


हिमाकत-मूर्खता
रवायत-परम्परा
हिमायत-मदद









2

लिख सकूं अपने दिल का जज्बात जिसमें,
उस गजल की बहर बन जाओ तुम
बना लूँ जहाँ पर खुशियों काआशियाना, 
मेरे सपनों का शहर बन जाओ तुम।

अब तक मैनें देखी नहीं है 
इस दुनिया को कभी भी करीब से
देख सकूं इस दुनिया की हकीकत जिससे, 
मेरी नजर बन जाओ तुम।

फँसी है मेरी कश्ती जाने 
किस उलझन के मझधार में
जिसके सहारे पहुंच जाऊँ अपनी मंजिल तक, 
वह लहर बन जाओ तुम।

बड़ी उम्मीद ले कर घर से निकला हूँ 
तेरी यादों के सफर में
जीवन भर चलने वाले इस सफर का 
हमसफर बन जाओ तुम।

खतरे में है मेरी जिन्दगी 
लोगों के नफरत की धूप से
जिसकी छाँव में खुद को महफूज कर सकँू
वह शजर बन जाओ तुम।।








3

एक बात निकल आयी है, तेरी बात के बाद
तुम फिर लौट के न आये, उस रात के बाद।

यूँ तो हर कोई मिलता है तबयित से मुझसे
मेरी तबियत किसी से न मिली, तुझसे मुलाकात के बाद।

मकान भी जले हैं, दुकानें भी लुटी है बहुत
इन्सानियत भी मरी है, नफरत की बरसात के बाद।

तूने तो मेरी मंशा पर ही सवाल खडे़ कर दिये हैं
कैसे खड़ा हो जाऊँ तेरे साथ, ऐसे हालात के बाद।
 
कैद ही करना है तो अपनी आँखों में कैद कर लो
भटकने से बच जाऊँगा मैं, इस हवालात के बाद।


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



टिप्पणियाँ

  1. खूबसूरत और पठनीय पंक्तियाँ।

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  2. बहुत बढ़िया कविता
    उच्च से उच्चतम स्तर की ओर एक और कदम

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  3. शानदार प्रिय मित्र👌💐

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  4. शानदार भाईसाहब 🙏🏻

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