कुँवर प्रांजल सिंह का आलेख 'मैं हूँ उदारीकरण के पक्ष में : गेल आम्वेट की स्मृतियों से।

गेल आम्वेट


 

गेल आम्वेट एक अमेरिकी भारतीय विद्वान, समाजशास्त्री और मानवाधिकार कार्यकर्ता रही हैं। भारत मे महिलाओं के संघर्षे पर उनकी कई किताबे प्रकाशित हैं। आम्वेट विशेष रुप से ग्रामीण महिलाओं के साथ दलित और जाति आंदोलनों, पर्यावरण, किसानों और महिला आंदोलनो मे शामिल रही हैं। 25 अगस्त 2021 को आम्वेट का निधन हो गया। आम्वेट को श्रद्धांजलि देते हुए हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं कुँवर प्रांजल सिंह का आलेख 'मैं हूँ उदारीकरण के पक्ष में : गेल आम्वेट की स्मृतियों से।

 

 

मैं हूँ उदारीकरण के पक्ष में : गेल आम्वेट की स्मृतियों से

 

कुँवर प्रांजल सिंह

 

 

25 अगस्त 2021, प्रसिद्ध अम्बेडकरवादी विचारक, राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों पर बेबाकी से विचार रखने वाली  गेल आम्वेट का निधन हुआl असमानताओं से मुठभेड़ करने वाली गेल का रुखसत  होना शोक जैसा भाव नहीं  बल्कि  एक ऐसी बहस को बीच राह में छोड़ कर चली गयी l जिस पर शायद वर्तमान राजनीति की पूरी तकरीर की अदावत टिकी हुई है l इस तकरीर और अदावत का नाम उदारीकरण और भूमंडलीकरण है l यह उदारीकरण भारतीय राजनीतिक प्रक्रियाओं के सिरहाने में इस प्रकार प्रवेश कर चुका हैl जहाँ राजनीतिक तर्क अपने आप में स्वतंत्र नहीं रह गये हैंl यहाँ दो शब्द पर विशेष रूप से जोर देना चाहूँगा ; एक राजनीतिक प्रक्रिया, दूसरा स्वायत्ताl राजनीतिक प्रक्रिया का अभिप्राय सिर्फ राज्य या किसी नेता के हाथों में निर्णय की ताकत देने से नहीं हैl इसकी स्वायत्त में यह निहित है कि वह किस हद तक स्वार्थी हो सकता हैl यह तब संभव हुआ जब नवउदारवादी अवधारणाओं ने  विचारधारात्मक मतैक्य का दबदबा कायम कर लिया हैl जिसके इरादे में ही उदारवाद, मार्क्सवाद और गाँधीवाद को निष्प्रभावी बन देना हैl इस विचार के ज़रिये गरीब देशों को पूंजी के भूमंडलीकरण, निजीकरण और बाजारीकरण का पिछलग्गू बनाना होगा l जिससे जीवन निर्वाह की अर्थव्यवस्था और राज्योन्मुखी अर्थव्यवस्था की धारा विपरीत दिशा में प्रभावित होने लगेगीl  जिससे यह कयास अभी लगाया ही जा रहा था कि लोकतांत्रिक उभार का अपना एक तर्क  होगा जो विपरीत हालात  में भी विद्रोह की आवाज बुलंद करेगाl लोकतांत्रिक उभार से हमें यही उम्मीद लगानी भी चाहिए भले ही फिलहाल वह साम्राज्यवादी और कार्पोरेटर पूंजीवाद की मिली जुली ताकतों के हमले के मुकाबले कमजोर पड़ रहा होl यह भी हो सकता है कि NGOs नवउदारवादी नीतियों के विरोध और लोकतांत्रिक आन्दोलन के लिए उपयुक्त वाहक साबित हो l सम्भवतः भूमंडलीकरण और अराजनीतिकरण के खिलाफ विद्रोह की आवाज ग्रासरूट आन्दोलन के बजाय स्थानीय और राजनीतिक गुंजाइशों में कार्यरत उन समूहों, समुदायों, जातियों और वर्गों की तरफ से उठे जो समाज में निचले पायदानों पर पड़े होने के बाद भी राजनीतिक रूप से जागरूक हो चुके हैं और जिनकी राजनीतिक भागीदारी भी काफी बढ़ चुकी है l

 


 

ऐसे में गेल आम्वेट का यह दावा कि  मैं उदारीकरण के पक्ष में हूँ[i] यह अपने आप में बहुजनवादी विचारों तथा मार्क्सवादी हलफों में हलचल पैदा करता है और लोकतांत्रिक तर्कों को ले कर एक बेचैनी भी है l इस पूरी बहस पर आने से पहले गेल के उन कृतियों पर एक नज़र डाल लिया जाए जो जमीन, वर्ग और सांस्कृतिक क्रांति को एक मातहती परिप्रेक्ष्य देती थीl 1982 में दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग के द्वारा प्रकाशित जर्नल टीचिंग पॉलिटिक्स प्रोजेक्ट के माध्यम से एक संपादित पुस्तक का संम्पादन  गेल आम्वेट ने किया जो  लैंड, कास्ट एंड पॉलिटिक्स इन इंडियन स्टेटके नाम से प्रकाशित हुआ l अस्सी और नब्बे का दशक समाज विज्ञान के लिए भी एक  कायापलट का  दौर था l  इसी संपादित किताब के मंसूबों को साफ़ करते हुए मनोरंजन मोहंती बताते हैं कि  जाति जैसे महत्वपूर्ण सवाल आज सामाजिक वर्गीकरण का हिस्सा ही नहीं रह गये हैं  बल्कि यह देखने का भी प्रयास किया जाना चाहिए कि आधुनिकता की प्रक्रिया में इस वर्गीकरण की क्या भूमिका रही है? इस किताब ने सैद्धांतिक स्तर पर यह दावा किया है कि आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में उदारीकरण के माध्यम से सामाजिक वर्गीकरण की भूमिका को देखा जाना चाहिएl[ii] जिसके लिए गेल ने अपने प्रस्तावना निबंध में ही मार्क्स के सिद्धांतों का भरपूर्ण प्रयोग कर के जाति के सवाल कोक्यासे जोड़ कर उसे नए ढंग से पूछती हैl जहाँ उनका कथ्य यह है कि  : “विश्लेषण  जाति क्या है? जैसे कुछ बुनियादी परिभाषा के साथ शुरू होना चाहिए l हालांकि मार्क्सवादियों या अन्य सुधीजनों के बीच जाति की भूमिका को अर्थव्यवस्था के मापांक से जोड़ कर देखा गया है l लेकिन परिभाषा के तौर पर सभी यही मानते हैं कि जातिरोटी और बेटीके संबंधों से परिभाषित होती हैl[iii] गेल स्वयं भी जाति और वर्ग को उत्पादन प्रणाली की प्रक्रियाओं में विकसित  करते हुए और उनके संबंधों में एक प्रकार की जातिगत हिंसा के तौर पर देखती थीl जहाँ ने गेल दो प्रकार की जटिलता का उल्लेख किया हैl एक, उत्पादन के संबंधों दोहरी परिभाषाओं  से जुड़ा हुआ है जिसका पहला सन्दर्भ अवैतनिक अधिशेष श्रम के प्रत्यक्ष उत्पादन से जुड़ा हुआ है दूसरा मालिक के सन्दर्भ से जातिगत धौंक पर टिका हुआ हैl जिसमें मालिक जजमानी प्रथा  के माध्यम से श्रम के उत्पादन का शोषण करता है l जिसके संबंध का निर्धारण भी अपने आप में सामाजिक और राजनीतिक तथा आर्थिक कारकों  से गुथे होते हैl यही प्रस्थापना गेल को मार्क्सवादी विमर्शों से एक कदम आगे ले जाता थाl जहाँ वह यह दिखा पाती  है कि पूर्व पूंजीवादी समाज में अधिसंरचना का निर्माण सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक आच्छादियों के साथ हुआ जिससे पूंजीवाद को आ कर लेने में काफी मदद भी मिली हैl[iv]

 


 

गेल आम्वेट की इस प्रस्थापना से जाहिर था कि  उदारीकरण ने जिस तरह से सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों को बदलने का दावा किया उसमें जजमानी प्रथा में निर्धारित किये गये मालिक देवता के संबंधों को ही वैधता प्रदान करता हैl लेकिन 2019 में गेल आम्वेट की बौद्धिक काया जिस प्रस्थान पर जा रुकी उससे उनके पहले के लिखे गये लेखों के बीच एक विरोधाभास नजर आता हैl पूंजीवाद इस दुनिया का एक गहरा सच है इस बात को गेल ने  इस ढंग से स्वीकार कर लिया कि  जिसके भीतर ही सामाजिक परिवर्तन करने की गुंजाइश हो सकती है और  इसके इतर अब कोई विमर्श बनाना  मुश्किल हो गया हैl इस तर्ज पर गेल ने यह बताया कि हम एक जटिल दुनिया में रह रहे हैं, जिसमें पुराना दाएं और बाएं (ख़ासकर वामपंथी विचारधारा के सन्दर्भ में गेल का मानना था वामपंथ की नकारात्मक आलोचना "उदारीकरण की दिशा" पर "जमीन पर वास्तविक लड़ाई" को अक्षम कर देती है। इसके अलावा, ऐसी वामपंथी आलोचनाएँ "भावनात्मक आर्थिक राष्ट्रवाद" का निर्माण करती हैं, जो धार्मिक अधिकार को लाभ पहुँचाती है[v]) कि  श्रेणियां अपना अर्थ खो रही हैं, जिसमें मौलिक रूप से उन्मुख ऐतिहासिक-भौतिकवादी विश्लेषण को अत्यधिक अद्यतन किया जाना है। विद्वान के रूप में हमारी जिम्मेदारी होनी चाहिए कि हम सिद्धांत को गंभीरता से लें और उसे किसी विचारधारा की कठपुतली बनने से बचाना चाहिए l वास्तविक तौर पर सामाजिक आंदोलन को अभिजात वर्ग के बयानबाजी से गुमराह नहीं होने देना चाहिए। चिंतित एशियाई विद्वानों के बुलेटिन को आर्थिक नीतियों और गरीबी और समृद्धि के स्रोतों के एक क्रांतिकारी विश्लेषण को विकसित करने में अधिक रचनात्मक भूमिका निभानी चाहिएl[vi]

 

 


 

क्या इस रचनात्मक भूमिका को उदारीकरण के उन शर्तों पर भी स्वीकार कर लिया जाये जहाँ भारत जैसे देशों में गरीबी और उसके मापक यंत्र ही दम तोड़ चुके हैंl रही बात राजनीतिक आर्थिकी की तो वर्तमान सत्ता इस बात पर जुगाड़ बैठा रही कि राजनीति को आर्थिक से अलग किया जाएl यह जुगाड़ एक महत्त्वपूर्ण सवाल की तरफ  बढ़ता हुआ दिखा रहा हैl क्या लोकतंत्र की राजनीतिक प्रक्रिया वास्तव में भारत की आर्थिक प्रगति में बाधक है? हालांकि 1980 से 2004 के अपने अध्ययन में अतुल कोहली ने आर्थिक राष्ट्रवाद की अपनी मशहूर संकल्पना में यह दिखाया था कि अस्सी के दशक में अंतरराष्ट्रीय हालात भारत के पक्ष में थे,  जिसका फायदा उठाते हुए इंदिरा ने अपने औद्योगिक क्षेत्र का विस्तार कियाl इंदिरा गाँधी और बाद में राजीव गाँधी पूंजीवादी विरोधी लाफबाजी छोड़ कर कॉरपोरेटपरस्त नीतियों, मजदूर विरोधी, तथा बड़े व्यापारियों के शै को राज्य का पालन यंत्र मान कर बाज़ार के संरक्षणवादी रवैया का अनुसरण कियाl[vii] इस दौर में गेल जाति के हिंसक सवालों का आकलन कर रही थीं l साथ ही 2005 मेंवैश्वीकरण से लड़नेका आग्रह भी करते हुए यह दिखती हैं समाज के शोषित तबकों को राजनीतिक रूप से अभिजात के नेतृत्व से बाहर निकलने की ज़रूरत हैl[viii] ऐसे में गेल की तजवीज को इस पूंजीवाद की कट्टर विजय पर किस प्रकार रख कर देखा जाए जब वह स्वयं भी उदारीकरण में संभावना खोजते हुए अंतिम बौद्धिक साँसे ली थीl

 

 

 संदर्भ 



[i] गेल आम्वेट (2019). रिफ्लेक्सन ऑन द वर्ल्ड बैंक एंड लिबरलाइजेशन. क्रिटिकल एशियन स्टडीज. इस्सुस,4. रूटलेज. (To link to this article: https://doi.org/10.1080/14672715.1995.10413033) : 42

[ii] गेल आम्वेट (1982), लैंड, कास्ट एंड पॉलिटिक्स इन इंडियन स्टेट. नयी दिल्ली : राजनीति विज्ञान विभाग , दिल्ली विश्वविद्यालय तथा ऑथर गुलिद पब्लिकेशन्स. : 5

[iii] गेल आम्वेट (1982) : 10

[iv] गेल आम्वेट (1982) : 12-13

[v] http://www.doccentre.net/docsweb/WTO-AGRICULTURELABOUR/omvedt-opp.htm.

[vi] गेल आम्वेट (2019) : 43

[vii] अतुल कोहली (2006). पॉलिटिक्स ऑफ़ इकोनोमिक ग्रोथ इन इण्डिया, 1989-2005. इकॉनोमी पॉलिटिकल वीकली, वाल्यूम 41, इस्सू 14.

[viii] गेल आम्वेट (2005). कैपिटलिज्म एंड ग्लोबलाइजेशन, दलित एंड आदिवासी, इकॉनोमी एंड पोलिटिकल वीकली, वोल्यूम 40, इस्सू नंबर 47.

 

 

कुँवर प्रांजल सिंह

 

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