जीवन सिंह का आलेख 'कवितामय व्यक्तित्व विजेन्द्र'

 


 

कविता कवि के अंतस से निकलती है लेकिन उसका वितान कुछ इस तरह का होता है कि तमाम लोग अपना जीवन, अपने जीवन की पीड़ा, प्रकृति और उसकी खूबसूरती उनमें देखते महसूसते हैं। विजेन्द्र जी ऐसे ही कवि थे, जो देखन को लेखन से जोड़ते थे। उनके लिए संगीत हो या चित्र, गद्य हो या जीवन, सब काव्यात्मक हुआ करता था। प्रखर चिंतक, आलोचक और चित्रकार विजेंद्र की मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र पर गहरी पकड़ रही। बदायूं के मूल निवासी विजेंद्र ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से पढ़ाई के बाद लंबे अरसे तक राजस्थान के कॉलेजों में अध्ययन किया। फिर गुरुग्राम में रहने लगे। उनके नियमित डायरी लेखन में समकालीन समाज और संस्कृति पर गहरी टिप्पणियां हैं, जो बाद में उनकी पुस्तकों मे दर्ज हुई। कवि की अंतर्यात्रा उनकी पहली किताब थी। इसके बाद बीस कविता संग्रह और कई नाटक भी प्रकाशित हुए। चैत की लाल टहनी, उठे गूमड़ नीले और ऋतु का पहला फूल उनके चर्चित संग्रह हैं। विजेंद्र ने बरसों तक कृति और नामक साहित्यिक पत्रिका का भी संपादन-प्रकाशन किया।

 

कोरोना ने हम सबसे बहुत कुछ छीन लिया है। पिछले 30 अप्रैल 2021 को विजेन्द्र जी का देहावसान हो गया। उनको नमन करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं वरिष्ठ आलोचक जीवन सिंह का आलेख 'कवितामय व्यक्तित्व विजेन्द्र'यह आलेख मधुमति के हालिया अंक से साभार लिया गया है।  

 
 

कवितामय व्यक्तित्व विजेंद्र 

 

 

जीवन सिंह

 

 

29 अप्रेल 2021 गुरूवार को जनपक्षधरता के लिए खासतौर से जाने जाने वाले कवि विजेंद्र को भी क्रूर कोरोना ने हमसे छीन लिया। वे इस समय सत्यासीवें साल में चल रहे थे। 10 जनवरी 1935 को उनका जन्म उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले के धरमपुर गाँव में हुआ था। उनके पूर्वज अपने इलाके के जमींदार थे किन्तु विजेंद्र ने कभी जमीन से मोह नहीं रखा। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से अंगरेजी में एम. ए. करने के बाद वे राजस्थान के राजकीय कालेजों में अंगरेजी के शिक्षक बन गए। उन्होंने अपनी नौकरी का अधिकाँश समय राजस्थान के पूर्वी भाग भरतपुर में व्यतीत किया। कविता तो वे बनारस में पढ़ते हुए त्रिलोचन के संपर्क में आने के बाद से ही करने लगे थे। त्रिलोचन की काव्य दृष्टि का उन पर गहरा असर पडा इसलिए वे त्रिलोचन को ही अपना काव्य गुरु मानते थे। कविता में उनके दिखाए रास्ते पर चलते भी थे। उनकी काव्य भाषा का जो सामासिक संस्कार है वह त्रिलोचन की सीख से प्रभावित है। चूंकि त्रिलोचन ने तुलसी और निराला की काव्य परम्परा को कविता में आत्मसात कर विकसित किया था इसलिए उसे और आगे ले जाने का संकल्प ले कर वे कविता की दुनिया के नागरिक बने। एक बेहद गंभीर, पक्षधर और दृष्टिवान नागरिक। उनका स्वयम का जीवन स्तर एक मध्यवर्गीय जैसा था किन्तु कविता के लिए वे निम्न वर्ग मेहनतकश की ज़िंदगी और उसके लोक-जीवन की स्मृतियों को कभी अपने से अलग नहीं कर सके। उन्होंने जीवन के प्रति जो नयी और आधुनिक दृष्टि अर्जित की, उससे उनके पुराने संस्कार जीर्ण पत्तों की तरह झड़ गए और वे एक नए इंसान और समता तथा श्रम की संस्कृति के लिए अपनी सृजनात्मक कला प्रतिभा को खासतौर से अपने समय की कविता लिखने में लगाया। गाँव और जमीन दोनों का मोह त्याग कर यद्यपि उन्होंने आगरा में मकान बना लिया था, जो उनकी कर्मस्थली भरतपुर के पास था। उस काल में भरतपुर कोई बड़ा शहर नहीं था। आगरा भी उतना बड़ा नहीं था जितना आज है। आगरा जरूर एक नगर की तरह था किन्तु भरतपुर अभी तक एक देहाती कसबे जैसा ही था। यद्यपि राजस्थान के पुनर्गठन के बाद से वह पूर्वी राजस्थान का एक जिला मुख्यालय था। लेकिन तब तक भी उसकी चौहद्दी को पैदल घूमते हुए पार किया जा सकता था। शहर की बोलीभाषा और संस्कृति पूरी तरह से ब्रजभाषा थी जिससे विजेंद्र का जन्म से रिश्ता पहले से ही था। ब्रज ही  उनकी मातृभाषा थी किन्तु जब उन्होंने सेवानिवृत्त होने के बाद जयपुर में बसने का निर्णय किया तो आगरे का मकान बेच कर जयपुर के वैशाली नगर में सी - 133 नंबर का एक बना-बनाया मकान खरीद लिया। जब अवस्था बढ़ने के कारण अशक्त होने लगे तो जयपुर का भी मोह त्याग कर गुरुग्रामफरीदाबाद अपने बेटे के साथ रहने लगे। यद्यपि उनकी बातचीत से लगता था कि जयपुर से उनका मोह छूटा नहीं है। वे बार-बार जयपुर को याद करते थे। इस समय वे गुरुग्राम में रह रहे थे जहां एकाएक वे कोरोना के ग्रास बन गए।

 

 

विजेंद्र ने त्रिलोचन की सलाह से 1968 से डायरी लिखना शुरू किया। इन डायरियों में जहां वे अपने समय की कविता से सम्बन्धित सवालों पर विचार करते हैं उससे ज्यादा जीवन और प्रकृति संबंधी सवालों पर करते हैं। उनकी आजीवन चेष्टा रही कि उनके समय की कविता उस जीवन से अपने सरोकार प्रगाढ़ करे जो श्रम की दुनिया के सबसे अधिक नज़दीक रहता है। जब वे 1960 के आसपास भरतपुर आए तो उन्होंने अपनी जीवन दृष्टि से प्रेरित होते हुए यहाँ के आसपास के गाँवों से भी अपना रिश्ता बनाया। इन गाँवों के अनेक तरह के ब्योरे उनकी डायरियों में दर्ज हैं जिनसे पता चलता है कि वे अपनी कविता की अनभवसामग्री कहाँ-कहाँ से और कैसे-कैसे लेते थे। 23 मार्च 1968 के दिन जो डायरी उन्होंने लिखी उसका शीर्षक दिया है – कैसा बीहड़ समय है। इसमें वे अपने समय को मरखना बतलाते हुए कहते हैं कि कैसा बीहड़ समय है – मरखना? हिंस्र, खुरों और सींगों वाला। भूखा भेड़िया शेर से ज्यादा खतरनाक होता है। हमें अपना मन बदलना पडेगा। अब फूल, मंजरियाँ और बौर नहीं झरेंगे, बल्कि चिनगारियां और अग्नि-कणों की वर्षा होगी। जमीन पर चलना ही सच के नज़दीक होना है। जिस कवि के तलवे कमजोर होते हैं वह उत्कृष्ट बिम्ब नहीं रच सकता है। इस तरह से विजेंद्र जीवन और कविता के रिश्ते के साथ साथ कविता की रचना प्रक्रिया पर भी विचार करते चलते हैं। आज से बावनतिरपन साल पहले वे जिस बेहद समय की बात करते हैं और भेडियों से घिर जाने की बात करते हैं कहना न होगा कि आज उससे भी ज्यादा बीहड़ और भूखे भेड़िए जैसे समय में हम आ गए हैं।

 

 

मेरा भी गृह जिला भरतपुर है यद्यपि मेरा गाँव भरतपुर के पश्चिमोत्तर में यहाँ से 75 किलोमीटर दूर पड़ता है। जहां से मेवात शुरू होता है। हमारी बोली यानी मातृभाषा ब्रज मिश्रित मेवाती है। विजेंद्र भी बदायूं जिले के होने के कारण रूहेलखंड से लगते ब्रजभाषी है। उनकी कविता की मूलभूमि इसी ब्रज के संस्कार से बनती है। उनकी स्थानीयता भी यही है जिस पर वे अपनी संवेदना, कल्पना और ज्ञान से कविता का एक वैश्विक भवन निर्मित करते हैं। विजेंद्र की कविता के प्रति मेरे मन में आकर्षण उत्पन्न होने का एक कारण उनकी कविता का मेरी स्थानीयता से एकरूप होना भी है। साथ ही उनकी वह जीवन दृष्टि भी, जो श्रम की संस्कृति को ही मानवता का भविष्य मानती है। जहां श्रम के जीवन मूल्य ही सर्वोपरि हैं। उन्होंने अपनी डायरी सतह के नीचे में एक जगह पर लिखा है अगर हमारे पौधों की जड़ें मज़बूत न होंगी तो वे पानी हवा और ऋतु की हल्की तरेर से भी थरथरा जायेंगे। फसल की बेहतर निराई कर के ही उपज बधाई जा सकती है। किसान खेत को जोतता कमाता है। उसके ढांकर मारता है फिर जोतता है। तब तक जोतता है जब तक धरती कम न जाए अच्छी तरह। धरती को कमाना वैसा ही है जैसे खनिजों को पका कर उन्हें साफ करना। सुनार जैसे सोने को ताव देता है। लुहार लोहे को। कवि को भी अपनी चित्त भूमि इसी तरह कमानी चाहिए। हाँ, निराई का काम बड़ा कठिन है। केवल खरपतवार की जड़ें मारो। ध्यान रहे फसल का पौधा न गिरे। ऐसे समय आँख, कान, नाक और हाथ सबका तालमेल बैठाना पड़ता है। खुरपी किसान के हाथ में नाचती दिखती है। यहाँ साफ़ है जैसे वे कविता का ही कोई अन्य रूप लिख रहे हैं। यहाँ उन्होंने जीवन के जो रूपक और सादृश्य प्रस्तुत किये हैं वे उनकी कविता और उसकी रचना-प्रक्रिया को समझने की एक कुंजी भी देते हैं। यहाँ किसानी के जो रूपक आए हैं, कहना न होगा कि विजेंद्र की कविता उनके आधार पर ही मुख्यतः खड़ी  हुई है।

 

 

विजेंद्र की कविता यद्यपि प्रगतिशीलजनवादी काव्य परम्परा के अंतर्गत आती है किन्तु उसके भीतर उनकी कविता का अपना रंग अलग से पहचान के लिए जाना जाता है। उनकी कविता को कुछ निर्धारित जनवादी फार्मूलों में  घटित कर के नहीं समझा जा सकता। उनकी कविता की महत्वपूर्ण भूमिका अपने पाठक के पारम्परिक सौन्दर्य बोध को बदलने वाली कविता है। विजेंद्र की कोशिश रहती थी कि जिन रास्तों पर वे पैदल चल कर आते-जाते थे, उनको भी अकसर इसलिए बदल लेते थे कि हर रास्ते पर कुछ न कुछ नया देखने को मिलता है। यह नया देखना उनके यहाँ दो तरह से है एक तो बाहरी आँख से दूसरा अंतस की आँख से, जो उनके दर्शन और जीवन दृष्टि से, जिसे उन्होंने अपने समय के आंतरिक यथार्थ को देखते हुए स्वयम विकसित किया। भरतपुर में रहते हुए 11 मई 1971 के दिन की डायरी में विजेंद्र ने लिखा है -आज डाकखाने दूसरे रास्ते से गया। हर नए रास्ते पर कुछ न कुछ नया देखने को मिलता है। रास्ते बदलें, विचारधारा नहीं। उनकी जीवन संबंधी सक्रियता को जानना हो तो उनकी 1968 से लगातार लिखी हुई डायरी सतह के नीचे पढ़ना चाहिए। सच तो यह है कि ज़िंदगी को बेहद गहराई से निचले जीवन स्तरों  तक देखने की सक्रियता से ही उनकी कविता जीवन से लबालब कविता बनी है। जीवन की इतनी सक्रिय एवं रागात्मक उपस्थिति बहुत कम कवियों में देखने को मिलती है। जो बातें अन्य सांसारिक किस्म के लोगों के लिए आँखों में लाने लायक भी नहीं होती, विजेंद्र वहाँ अपने उस सौन्दर्य क्षेत्र को तलाश लेते हैं जो भिन्न भिन्न रूपों में उनकी कविता में व्यक्त हुआ है। इसे कुछ लोग उनकी यथार्थ की प्राकृतवादी दृष्टि कह सकते हैं किन्तु इसी से वे उस यथार्थ तक पहुँचते हैं जो प्राकृतवाद से आगे का यथार्थ होता है। इस एक दिन की डायरी से ही मालूम होता है कि उन्होंने पैदल चलते हुए दूर दूर तक क्या और कितना तथा किसे देखा। सामान्यतया जीवन को इतना नज़दीक उसकी निचली परत तक जा कर देखने और जानने की इच्छा  लोगों में अक्सर नहीं होती। उनकी नज़र चमकदमक भरे जीवन की ऊपरी सतह पर तो अवश्य जाती है किन्तु सामान्य जीवन जीने वाले उन लोगों पर नहीं जो अपने लिए ही नहीं वरन दूसरों के लिए ज्यादा  काम करते हैं और उसके बदले में बहुत कम हासिल कर पाते हैं। इतना ही नहीं वे उस काम को करते हैं जिसे दूसरे नहीं कर पाते। विजेंद्र ने उक्त दिन की डायरी में पूरा विवरण देते हुए लिखा है कि इस रास्ते पर मूंज कूटा रहते हैं। बान बटे जा रहे थे। कुछ लोग मूंज कूट रहे थे। पूरा परिवार कुछ न कुछ करता दिखा। जवान लडकियां जब बान बंटने को चरखी जल्दी-जल्दी चलाती हैं तो उनका सीना थरथराता है। कड़ी धूप में उनके चेहरे पक गए हैं। ... ... ...बहुएँ अपना मुंह ढके तेज हाथ चलाती हैं। मूंज कूटना। पूला संभालना। सगुनाना। रस्सियाँ बटना। सब साथ-साथ होता चलता है। यह एक भरापूरा जीवनपरिदृश्य है जिसे विजेंद्र ने कितना नज़दीक जा कर देखा है और उसका आभ्यंतरीकरण कर लिया है। यह कुछ कुछ वैसा ही है जैसे कभी निराला ने इलाहाबाद के पथ पर एक श्रमिक युवती को पत्थर तोड़ते देखा था। साहित्य में ऐसा यकायक नहीं होता, सामान्यतया यह देखने में आता है कि मध्य वर्ग की ज़िंदगी जीने वाले साहित्यकार अपनी ज़िंदगी के दायरों से बाहर आकर सृजन नहीं कर पाते। वे मध्यवर्गीय घेरे में रह कर ही अपने सृजन में उन सवालों को उठाते हैं जो समाज के सरोकारों से ज्यादा व्यक्ति के सरोकार होते हैं। कहना न होगा कि विजेंद्र इस सीमा का अतिक्रमण कर उस जीवन प्रवाह के पास पंहुचते हैं जो उनके मध्यवर्गीय जीवन से अलग श्रम से जुडा हुआ जीवन है। उनकी यही जीवन दृष्टि और जीवनानुभव उनकी कविता में कुछ अलग तरह के रंग भरते हैं।

 


 

 

विजेंद्र का पहला कविता संग्रह त्रासशीर्षक से आलोक प्रकाशन भरतपुर से 1966 में प्रकाशित हुआ था जबकि दूसरा संग्रह ये आकृतियाँ तुम्हारी वाणी प्रकाशन दिल्ली से तब प्रकाशित हुआ जब 1980 में एक साथ कई नएपुराने कवियों के कविता संग्रह प्रकाशित हुए थे जिसे अशोक वाजपेयी ने उस समय आगे बढ़ कर कविता की वापसी कहा था। इस बीच हम जानते हैं कि ज़िंदगी में कई तरह की बड़ी त्रासदियाँ घटित हो चुकी थी। 1966 से पहले इस अवधि में 1962 में भारतचीन के आक्रमण को झेल चुका था और 1965 में पाकिस्तान के आक्रमण का करारा जवाब दिया गया था किन्तु यह भी सब जानते हैं कि इन युद्धों में फंसा दिए जाने से आगे बढ़ते हुए भारत की प्रगति में गंभीर अवरोध उत्पन्न हुआ था। कहना न होगा कि त्राससंग्रह की कविताओं पर इस समय की त्रसित कर देने वाली मानसिकता का गहरा असर है। यद्यपि यह कवि का प्रारम्भिक काल है जहां वह अपनी कविता की जमीन निर्मित करता हुआ किसी रास्ते की तलाश करता नज़र आता है। यहाँ वह उस रास्ते की तलाश करता दिखाई देता है जिस पर उसे भविष्य में चलना है। इस संग्रह में एक कविता है फूलों की तलाश में। सच तो यह है कि यह फूलों के साथ साथ जीवन और कविता के रास्ते की तलाश भी है जहां धूप में बच्चे एक खंडहर में खेल रहे हैं। उन्होंने इस कविता में लिखा है –

 

बेबसी की तीव्रता से गर्दन झुकाए

धूप में

ये मासूम

धूप को ही खोजते हैं

फूलों की तलाश  में

खंडहरों के बीच

खेलते बच्चे।

 

इसलिए विजेंद्र की भविष्य की कविता का वास्तविक चेहरा हमको उनके दूसरे कविता संग्रह ये आकृतियाँ तुम्हारी की कविताओं में नज़र आता है। विजेंद्र ने अपनी डायरी में ही बतलाया है कि हर कवि को कविता के साथ साथ गद्य भी लिखना चाहिए क्यों कि ज़िंदगी के असली विचार समर को गद्य लिख कर ही सुलझाया जा सकता है। उन्होंने स्वीकार किया है कि गद्य लिखना कविता लिखने से भी कठिन काम है। गद्य लिखने वाले वैसे ही विरल हैं जैसे अच्छी कविता रचने वाले। जैसे सिर्फ कविता लिख लेना कवि होना नहीं है वैसे ही, जस तस, गद्य लिख लेना गद्यकार होना नहीं।” (सतह के नीचे, पृष्ठ 26)

 

 

सच तो यह है कि विजेंद्र की डायरियों में उनके जीवन और कविता दोनों का एक सौन्दर्यशास्त्र मौजूद है जिसे उन्होंने अपने लिए निर्मित किया है। इससे उनकी रचना प्रक्रिया को जाना और समझा जा सकता है यद्यपि उन्होंने माना है कि उनकी डायरियां उनकी कविता के लिए गद्याभ्यास है। इसमें उनके जीवन की वे सभी बातें आती हैं जिसे वे अपने जीवन का समर कहते हैं। त्रिलोचन ने ही उनको कवि कर्म के साथ गद्य लिखने की सलाह दी थी। पहले तो उन्होंने उनकी बात को ठीक नहीं माना किन्तु बाद में अहसास हुआ कि गद्य लेखन के बिना कवि-कर्म अधूरा है। उन्होंने माना है कि गद्य हमें जूझने का यकीन देता है। इसीलिए उन्होंने नियमित डायरी लिखना शुरू किया जिनमें कविता जीवन, प्रकृति और कविता की कला का सौन्दर्यशास्त्र अंतर्गुम्फित हो कर आए हैं। कई बार तो लगता है कि वे गद्य नहीं, गद्य कविता ही लिख रहे हैं।

 

 

विजेंद्र के लिए कविता केवल शब्दों की कला ही नहीं है। वह चित्रकला के रंगों, संगीत के रागों, नृत्य की आंगिक मुद्राओं और मूर्ति कला की भावाकुल आकृतियों का एक सम्पूर्ण अन्तरंग है। विजेंद्र ने स्वयं अमूर्त चित्र बनाए हैं जिनमें रंगों और रेखाओं की सम्यक प्रभावान्विति को देखा जा सकता है। उन्होंने संगीत सुन कर उसके प्रभाव को भी अपनी लम्बी कविताओं में दर्ज किया है। जहां भी उनकी कविताओं में किसी कर्मशील व्यक्ति का सौन्दर्य अंकन हुआ है वहाँ जैसे मूर्ति कला की आकृतियों की तरह उनकी कविताओं में भी आकृतियाँ बनती और उभरती हैं। विजेंद्र की कविता इस मामले में विशिष्ट हैं कि वे जनवादी जीवन दृष्टि के साथ जीवन का एक ऐसा संतुलन बनाती हैं जो आमतौर पर इस तरह के कवियों के यहाँ कम देखने में आता है। उनकी कविताओं में जीवन के जितने संघर्ष और द्वंद्व रूप आये हैं उससे अधिक सौन्दर्य, प्रेम, प्रकृति और उल्लास के। उनकी प्रगतिशीलता एकायामी प्रगतिशीलता नहीं है वरन उसे उन्होंने जीवन के सभी रूपों से समृद्ध करने का काम किया है। वे इस तथ्य को समझते हैं इसीलिए अपनी गद्य रचनाओं में बार-बार कहते भी हैं कि मैंने जो संसार देखा है उसे ही रचा है। मैं उस प्रकृति को जानता हूँ जो मनुष्य से बहुत पहले रच ली गयी थी। उसी रचना से मनुष्य जैसा प्राणी निकला है। इसलिए उनकी कविताओं में प्रकृति कभी उनका साथ नहीं छोड़ती। सच तो यह है कि उनकी कविता की संरचना में प्रकृति की लय समाई हुई है। विजेंद्र की सर्वाधिक प्रिय क्रिया है पकना। जो चीज पक कर नहीं आती वह न व्यक्ति के लिए अच्छी होती है न समाज के लिए। इसीलिए उनको ऋतुओं में वसंत और महीनों में का चैत्र ही सबसे ज्यादा पसंद थे। यह संयोग मात्र नहीं कि ये विजेंद्र की कविता और गद्य दोनों में बार-बार आते हैं। एक जगह शेक्सपीयर से उदाहरण देते हुए उन्होंने माना है कि इंतजार का मतलब ही होता है पकने का इंतज़ार करना। इसी को शेक्सपीयर ने कहा –राइपनेस इज आल। विजेंद्र ने अपनी पकनाशीर्षक कविता में लिखा है –

 

जीने की इच्छा को

कभी कम न होने दो

प्रतीक्षा करूँ शिशिर, हेमंत

और वसंत की

जिससे दिन की टहनियों को लचा कर

तुम्हें फलों का पकना

दिखा सकूँ।

 

 

विजेंद्र के यहाँ कविता का अकूत खजाना है। वे आजीवन कविता के लिए जिए और उसी के साथ इस संसार से अचानक चले भी गए। उन्होंने लघु, मध्यम और दीर्घ आकार में सभी तरह की कवितायेँ लिखी। लम्बी कविताओं का भी एक अलग कोश है उनके यहाँ। उनकी कविताएं मुक्त छंद में होते हुए भी गद्य का रूखापन और नीरसता नहीं है। वे उसे भाव और भाषा दोनों ली लय से प्रगीतात्मक बनाते हैं। उनकी कविता की छोटी छोटी पंक्तियाँ अपनी लय के साथ मंथर-मंथर चलती हैं। शब्दों का संयोजन उनके यहाँ कभी लयविहीन नहीं होता। उससे हमेशा जीवन के प्रति एक तरह की रागात्मक दीप्ति हमेशा झरती रहती है। कविता में जो भाषा वे काम में लेते हैं वह चूंकि जीवन राग से उदीप्त रहती है इसलिए वह कभी जीवन से विरस नहीं हो पाती। उनके यहाँ वर्णन भी होता है तो दर्शन भी जिसे उसके भीतर का सार तत्व व्यक्त होता रहे। एक समय उनकी भाषा में बोलियों के शब्दों का अंतर्गुम्फन देखते हुए उनकी कविता पर मध्यवर्गीय किस्म के आलोचकों ने अतिरिक्त आंचलिकता का आग्रह जैसा आरोप लगाया था। जबकि उनकी उस भाषा का प्रयोजन कविता में जीवन का विस्तार करना था। यदि हम कविता को मध्यवर्गीय जीवन की चौहद्दी से बाहर निकाल कर उस लोकजीवन के पास ले जाना चाहते हैं तो अपने मध्य वर्गीय आभिजात्य का अतिक्रमण कर आम जन की उन बोलियों तक जाना पडेगा जो हिंदी की अपनी जनपदीय बोलियाँ हैं, जिनसे हिंदी संवरती ही नहीं समृद्ध भी होती है।

 

 

 

सम्पर्क

 

1/ 14, अरावली विहार

काला कुआ,  

अलवर 301002

 

मो. - 9785010072

 

टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 03-06-2021को चर्चा – 4,085 में दिया गया है।
    आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
    धन्यवाद सहित
    दिलबागसिंह विर्क

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  2. विजेन्द्र जी के बारे में जानना अच्छा लगा ।

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