अलका प्रकाश का आलेख 'मुक्तिबोध का रचनात्मक प्रदेय'
वर्ष 2017 मुक्तिबोध के जन्मशताब्दी वर्ष के रूप में मनाया गया। इस अप्रतिम रचनाकार की जन्मशताब्दी के अवसर पर हमने पहली बार की तरफ से
मुक्तिबोध की रचना के विविध आयामों पर आलेख समय-समय पर प्रकाशित किए। इसी कड़ी में आज प्रस्तुत है युवा कवि अलका प्रकाश का यह आलेख 'मुक्तिबोध का रचनात्मक
प्रदेय'।
मुक्तिबोध का रचनात्मक
प्रदेय
डॉ. अलका प्रकाश
प्रायः मुक्तिबोध की
प्रतिबद्धता को समझने के लिए वर्ग-चेतना, क्रान्ति के प्रति उनकी आस्था और मार्क्सवादी
विचार-सरणियों का आधार लिया जाता है। उनके साहित्य के वैचारिक-परिप्रेक्ष्य को
उनकी आत्मग्रस्तता, उनके काव्य-नायक के व्यक्तित्त्व और उनके भीतर
मौजूद सतत् बेचैनी को अस्तित्ववादी या आधुनिकतावाद जैसे सूत्रों से जोड़ कर देखा
जाता है। पर ऐसा करना भ्रामक
है, क्योंकि
ऐसा करने से कविता की संरचना को एक निश्चित अर्थ-संकेत से ही समझा जाता है।
कविता का प्रभाव जनमानस पर
एक-सा नहीं पड़ता। कविता को हर पाठक अपने अनुभव, विचार, संस्कार
और व्यक्तिगत अभिरूचि के हिसाब से समझता है। मुक्तिबोध ने स्वयं अपने काव्य में
निहित वैचारिकता को अनेक कृतियों में अभिव्यक्त किया है, जो पाठक
की स्वाधीन कल्पना के लिए एक उत्प्रेरक का कार्य करता है, ताकि वह
साहित्य में निहित वैचारिक पक्ष को केवल एक धारणा की तरह न ले कर एक संघर्ष की तरह
अनुभव कर सके।
वस्तुतः बहुस्तरीय और
जटिलतम युग-जीवन के यथार्थ को रचने की प्रक्रिया में द्वन्द्व और टकराहट ही सर्जन
की वह क्रियात्मक शक्ति है, जिससे मुक्तिबोध के काव्य का आलोक फूटता है, और अनेक
घात-प्रतिघात, छाया-प्रतिछाया, ध्वनि-प्रतिध्वनि
के माध्यम से कविता के अर्थ को उच्चतम शिखरों की ओर प्रवाहित करता है। वह चक्करदार
सीढ़ी जिसका जिक्र उनकी कविताओं में बार-बार आया है, उसका
वर्णन ‘एक
साहित्यिक की डायरी’ में करते हुए वह कहते हैं कि ‘‘उन्नति
की बहुमंजिली इमारत में घुस कर ऊपर तक जाने के लिए सिर्फ एक ही जीना है, वह
भी चक्करदार। उस पर बहुत भीड़ है। बड़ी ठेलमठेल है। लेखक कहता है, मैं उसके
साथ खड़ा रहूँगा, उसके
साथ नहीं लेकिन परिस्थति ने उसको विकल्प ही कहाँ दिया है? वह
परिस्थिति से जबरदस्ती विकल्प लेना चाहता है। इसका परिणाम यह होता है कि ठेलमठेल
करती हुई भीड़ के नीचे वह कुचला जाता है या इस इमारत के बाहर उसको एकदम खिसक जाना
पड़ता है, या
वह ठेल दिया जाता है और साधारणतः ऐसे लोग अपनी वर्ग-श्रेणी से गिरे हुए होते हैं।
श्रेणी से गिरे हुए की मनःस्थिति हमेशा खराब रहती है।’’1 मुक्तिबोध ऐसी सफलता नहीं चाहते थे, जिससे
आत्म-गौरव खोना पड़े। शालीनता के नाम पर सफेदी झूठी खुशामदी करना पड़े। ‘‘जिन
व्यक्तियों को आप क्षण भर टालरेट (सहन) नहीं कर सकते, उनके
दरबार का सदस्य बनाना पड़े। हाँ, जो लोग यह सब कर सकते हैं, वे अपनी
यश पताकाएँ फहराते हुए घर में लौटते हैं और कितने आत्मविश्वास से बात करते हैं!
मानों उन्हीं का राज्य है। बहुरूपिया शब्द शायद पुराना हो गया है, लेकिन
उसकी कला इन दिनों अत्यंत परिष्कृत हो कर भभक उठी है।’’2 इसलिए ही मुक्तिबोध इस वर्ग को अपनी कविताओं में
बार-बार धिक्कारते हैं। उन्हें अच्छे से पता है कि इन दो घोड़ों पर एक साथ सवारी
नहीं की जा सकती कि लेखक अपनी भौतिक, सांसारिक उन्नति के लिए दन्द-फन्द
भी करता रहे और आत्मोन्नति की कोशिश भी करता रहे। इसलिए उन्होंने दूसरा रास्ता
चुना जिससे उनके कविता में इतनी धार आ सकी है। मुक्तिबोध ने शब्द की साधना का
रास्ता चुना था।3 शब्द की साधना शब्दकोष के ज्ञान से सम्भव नहीं है, बल्कि वह
एक ऐसी साधना है, जो अनेक स्तरीय निष्ठा की माँग करती है। सबकी भाषा
को अपनी भाषा और अपनी इस भाषा को फिर से सबकी भाषा बनाने का कठिन और जटिल कार्य
है। प्याज के छिलकों की तरह व्यक्तित्व के नामालूम कितने पहलू हैं, पर
व्यक्ति अपना चरित्र साक्षात्कार नहीं करता, अन्यों
का करने बैठ जाता है, ‘‘इसलिए
साहित्य मनुष्य के आंशिक साक्षात्कारों के बिम्बों की एक मालिका तैयार करता है और
उसका सारा सत्यत्व और औचित्य मनुष्य के जीवन या अन्तर्गत में स्थित है, चूँकि
सभी मनुष्यों के अन्तर्गत होते हैं, इसलिए उनके औचित्य और सत्यत्व की अनुभूति सार्वजनीन
होती है।’’4 और कविता का कार्य भी यही है। मुक्तिबोध स्वयं मार्क्सवादी
होते हुए भी मार्क्सवाद और उसके समर्थकों की कमजोरियों से पूर्णतः अवगत थे जिसका
उल्लेख उन्होंने ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में
बार-बार किया है। अपने पहले के और समकालीन काव्य आंदोलनों से मुक्तिबोध का गहरा
असंतोष यहाँ परिलक्षित होता है। सच्चा कवि स्वयं का ही दुश्मन होता है। तभी शायद
दूधनाथ सिंह जी ने निराला पर लिखी अपनी पुस्तक का नाम ‘निराला:
एक आत्महंता आस्था’ रखा। क्योंकि जो घटनाएँ कवि के समय में घट रही हैं, वह
उनसे आश्वस्त नहीं है। आत्म-भर्त्सना और आत्म-धिक्कार के द्वारा वह इसी दर्द को
स्वर दे रहा होता है-
‘‘ज्यादा
लिया और दिया बहुत कम
मर गया देश, अरे
जीवित रह गये तुम’’5
अपने समय में मुक्तिबोध ने
जो सवाल उठाये थे, वे आज भी प्रासंगिक हैं। उन्होंने अपना सम्पूर्ण
जीवन मध्यवर्ग के व्यक्तित्वांतरण द्वारा वर्गहीन एवं शोषण मुक्त-समाज के निर्माण
में लगा दिया। लेकिन अपने प्रयास में उन्हें वांछित सफलता नहीं मिली। मुक्तिबोध ने
‘इस
चौड़े ऊँचे टीले पर’ कविता में स्वयं महसूस किया था-
‘‘मैं खुद मर-मर कर जिया
अंधेरे कोने में एकांत
न जाने किस मास्टर की डांट पड़ रही है
जितना भी ज्यादा किया गया
उससे ज्यादा कर सकते थे
ज्यादा मर सकते थे’’
वर्तमान परिदृश्य में जहाँ
नामवर आलोचकों की नवधा भक्ति करके संगठन को चंदा दे कर कवि हर संकलन पर पुरस्कार
पा रहा है। लिखने से पहले ‘सम्मान’ तय करा
ले रहा है। पुरस्कार प्राप्त करना ही उसका आत्म-संघर्ष हो गया है। ऐसे दौर में
मुक्तिबोध को याद किया जाना प्रासंगिक है, जिसके
लिए ‘अब
काट-छांट की बाट हर घड़ी है।’ जहाँ ‘भुस भुसे
उजाले का फुसफुसाता षड्यंत्र है।’ और ‘दिन के उजाले में भी अंधेरे की साख
है।’ ‘चांद
का मुँह टेढ़ा है’ की उद्धरित यह पंक्तियां एक संवेदनशील कवि के भीषण
यंत्रणा से गुजरने की गवाही देती हैं। सन् 47 के बाद के डेढ़ दशक तक के राजनीतिक
परिदृश्य को देखने और परखने के बाद मुक्तिबोध ने नव-उपनिवेशवाद और नव-साम्राज्यवाद
के खतरे को भविष्यद्रष्टा के समान पहचाना और कविता में उसका प्रतिरोध रचा।
जीवनानुभव उन्हें यह भी कोंच-कोंच कर बतलाता था कि मध्य-वर्ग का सोचने समझने वाला
सृजनशील तबका बड़ी तेजी से एक उठाईगीर संस्कृति का शिकार हो रहा है। इस निम्न-मध्य
वर्ग का अन्तःकरण क्या है क्या वहाँ दुःख और उदासी के अलावा कुछ है ही नहीं इसके
लिए वर्ग का विवरण नहीं, वर्ग के व्यक्ति के भीतरी मन को जानना जरूरी
था-
‘‘अन्तकरण का आयतन संक्षिप्त है
आत्मीयता के योग्य मैं सचमुच नहीं।’’6
इस कविता के प्रारम्भ में
जो रूमानियत है,
उसे
अचानक से एक झटका लगता है, जब हम इसी कविता में लगभग बिना किसी पूर्व सूचना के
सुनते हैं-
‘‘कि इतने में भयानक बात होती है
हृदय में घोर दुर्घटना
अचानक एक काला स्याह चेहरा प्रगट होता है
विकट हँसता हुआ अध्यक्ष वह
मेरी अंधेरी खाइयों में
कार्यरत कमजोरियों के छल भरे षड्यंत्र का
केंद्रीय संचालक किसी अज्ञात गोपन कक्ष में
मुझको अजंता की गुफाओं में हमेशा कैद रखता है।
क्या इसीलिए मैं कर्म तक लड़खड़ाता
पहुंच पाता हूँ।7
उपरिनिर्दिष्ट पंक्तियों
में जो पीड़ा देखने को मिलती है, वे कर्म तक नहीं पहुंच पाती, उनकी
कविता में एक स्थायी तनाव की सृष्टि करती है। यह तनाव उन्होंने मार्क्सवादी, वर्गविश्लेषक
के तई नहीं अपितु एक आत्म-सजग व्यक्ति की तरह जाना है, जिसे
अपनी कमजोरियों का परेशान कर देने वाला अहसास है। निम्न मध्य वर्ग के व्यक्ति को
निरे समाजशास्त्रीय वास्तविकता के संदर्भो में जानने पर हम, इस
तनाव या बेचैनी का अर्थ नहीं जान पायेंगे। दुहरापन, छिपाव-दुराव, झूठा
अहं, ढ़ोगी
मुद्रा उनमें नहीं थी। तभी वे कह उठते हैं- ‘‘काव्य
सत्य को मैं बदनाम नहीं करना चाहता। मेरा प्रश्न सीधा-साधा है। काव्य में जीवन के
कुछ मूल्य और दृष्टि प्रकट होती है। प्रश्न यह है कि क्या यह दृष्टि आचरण से
सामंजस्य स्थापित कर चुकी है अथवा आचरण से सामंजस्य स्थापित करने की प्रेरणा दे
रही है। ....वह काव्य सत्य है वह एक वंचना स्वप्न की उपज अहं के प्रेक्षक का
परिणाम अथवा आत्माभिनय या साहित्यिक रूप हो सकता है।8
मुक्तिबोध यहाँ सिर्फ़ कविता में विचार प्रकट कर देने से अपने कत्र्तव्यों की
इतिश्री नहीं समझते अपितु वास्तविक धरातल पर भी उसे कर्म में परिणित करना चाहते
हैं। सिर्फ मार्क्सवाद के चश्में से मुक्तिबोध को परखने वालों को चाहिए कि वह उनकी
लिखी सभी रचनाएँ मूल रूप में पढ़े, तभी निर्णय लें। अकारण नहीं है कि प्रो. राजेन्द्र
कुमार जी मुक्तिबोध को जटिल या दुरूह कवि नहीं मानते। दरअसल ‘अंधेरे
में’ के
प्रकाशन के बाद से ही आलोचकों ने इस कविता को लेकर वैद्ग्ध्य का ऐसा जाल रच दिया
कि सामान्य पाठक इस आलोचकी कुहास-दृष्टि के चलते मुक्तिबोध का मूल्यांकन केवल एक मार्क्सवादी, वर्ग-संघर्ष
को स्वर देने वाले अस्मिता के खोजी कवि के रूप में करता रहा। पाठक यह भूल गया कि
यह वही कवि है जिसने कहा है कि ‘नयी कविता’ में ‘फार्म’ का सवाल
नहीं है; सवाल
है उन दृष्टियों का जो मेरे ख्याल से बिल्कुल गलत है, गलत ही
नहीं बल्कि प्रतिक्रियावादी है।’’9
‘‘अब मुझे बताइये कि यह वर्ग क्या
तो यथार्थवाद प्रस्तुत करेगा और क्या आदर्शवाद? स्वामी
विवेकानन्द आज से कोई सौ बरस पहले यह घोषित कर चुके थे कि भारत के उच्चतर वर्ग
नैतिक रूप से मृतक हो गये हैं, वे कहते है, ‘‘भारत की
एकमात्र आशा उसकी जनता है। उच्चतर वर्ग दैहिक और नैतिक रूप से मृतवत् हो गये है।’’10
मुक्तिबोध आज के छद्म मार्क्सवादियों
की तरह नहीं थे, जो स्वामी विवेकानन्द का नाम लेना
भी गुनाह समझते हैं, उनका उद्धरण देना तो दूर की बात है। आज दक्षिणपंथ
और वामपंथ की लड़ाई चरम पर है। इतिहास संस्कृति और दर्शन की बात करना दूसरे वर्ग को
गँवारा नहीं है।
ऐसे में मुक्तिबोध की
कविता से गुजरते हुए जब यह पंक्ति दृष्टि पटल के समक्ष उभरती है, तो अनुभव होता है कि मुक्तिबोध ने
पारंपरिक शब्दों का किन नवीन अर्थों में प्रयोग किया है-
‘‘आत्मा में, भीषण
सत्-चित् वेदना जब जल उठी दहकी।
इस ‘सत्-चित्’ का
विश्लेषण करते हुए प्रो. राम स्वरूप चतुर्वेदी जी कहते हैं, ‘‘सरल जीवन
संदर्भों के जटिल और तीखे हो जाने के कारण इस युग में कवि को सत् और चित् आनंद की
उपलब्धि नहीं कराते, वरन् वेदना की ओर ले जाते हैं। ‘सत्-चित्-वेदना’ का
यह प्रयोग भारतीय मानस की संवेदना में मौलिक बदलाव का विशिष्ट साक्ष्य है।11
‘कविता के नये प्रतिमान’ में
नामवर सिंह जी ने ‘अंधेरे में’ कविता
का मूल कथ्य ‘अस्मिता
की खोज’ बतलाया
है, ‘‘कवि
मुक्तिबोध के लिए अस्मिता की खोज व्यक्ति की खोज नहीं बल्कि अभिव्यक्ति की खोज है।
एक कवि के नाते उनके लिए परम अभिव्यक्ति ही अस्मिता है।’’12 वहीं मुक्तिबोध के वैचारिक
पक्ष पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए डॉ. राम विलास शर्मा कहते हैं- चाहे आत्म-पीड़ा हो या जगत-पीड़ा उसकी शुरूआत होती है, कवि के आत्म-केंद्रित
व्यक्तित्व से मुक्तिबोध की कविता में वेदना का मुख्य स्रोत यह है कि उनकी
ज्ञान-प्रक्रिया में वाह्य सामाजिक जीवन की भूमिका गौण है, मुख्य
भूमिका अपने मन की है, जो अपना मार्ग स्वयं निकालती है।13 यही नहीं डॉ. राम विलास शर्मा यह जानते हैं कि
मुक्तिबोध के समूचे काव्य के लिए अपने इस कथन को वे सामान्यीकरण की तरह पेश नहीं
कर सकते क्योंकि उसकी काट प्रस्तुत करने वाले अनेक उदाहरण, उनकी कविताओं में ढूँढे जा सकते
हैं, जहाँ
कि यह मत रामविलास शर्मा के हिसाब से ही प्रगतिशील और प्रतिबद्ध दिखायी देता है।
इसलिए संतुलन कायम करते हुए वे यह भी कहते हैं- ‘‘असुरक्षित
जीवन के कवि मुक्तिबोध में जगत-पीड़ा का बोध भी गहरा है।14 यह मत डॉ. राम विलास शर्मा ने अज्ञेय और मुक्तिबोध की तुलना
करते हुए व्यक्त किया है। साथ ही यह भी जोड़ा है कि ‘‘उनके
यहाँ अस्तित्ववाद के साथ रहस्यवाद भी है, क्योंकि उनके यहाँ ब्रह्माण्ड और
इस पृथ्वी पर रहने वाले मनुष्य की क्रियाओं के एक जगत संबद्ध होने की स्थिति सूचित
करने वाली पंक्तियाँ देखने को मिल जाती है।15
राम विलास जी के इन निष्कर्षों से ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने मुक्तिबोध की
कशमकश और पीड़ा को सहानुभूतिपूर्वक समझने की कोशिश नहीं की, ठीक वैसे
ही जैसे राम चंद्र शुक्ल छायावाद की ‘आध्यात्मिकता’ को एक ‘फैशन’ मानते
रहे। कवि की रचनात्मक बेचैनी को नयी कविता के फैशन का नाम दिया जा सकता। इन दोनों
वरिष्ठ और प्रबुद्ध आलोचकों के प्रति बाद में आपत्तियाँ दर्ज करायी गयीं। अशोक
चक्रधर ने इन व्याख्याओं को कलावादियों, रूपवादियों के अधिक निकट बतलाते
हुए कहा कि ‘अंधेरे
में’ के कथ्य को अस्मिता की खोज’ बतला
कर नामवर सिंह ने अन्ततः इस कविता को आत्मपरक सिद्ध कर दिया। सुधीश पचौरी भी मानते
हैं कि ‘अस्मिता
की खोज’ कविता
का मूल कथ्य नहीं है, क्योंकि अस्मिता के संकट के मूल में ‘आत्मनिर्वासन’ है
और इस प्रकार का आत्मनिर्वासन विकसित पूंजीवादी देशों की अतिविकसित औद्योगिक
बुर्जुआ व्यवस्था में ही सम्भव है। ‘अंधेरे में’ आत्मपरक
कविता नहीं है और परम अभिव्यक्ति की खोज आत्मपरक अर्थों में अस्मिता की खोज भी
नहीं है। भगवान सिंह भी मुक्तिबोध की किसी कविता के कथ्य में ‘अस्मिता
की खोज’ को
नकारते हैं। अन्य आलोचक भी उनके काव्य का संवेदनात्मक उद्देश्य मानते हैं-
व्यक्तित्वांतर, सर्वहारा
वर्ग में अपनी मध्यवर्गीय अस्मिता का विलय।’’ एक
सच्चा कवि अनवरत् आत्मालोचन करता रहता है, स्वयं को
धिक्कारता रहता है, यह धिक्कार निराला की ‘‘राम की
शक्तिपूजा में भी आता है, ‘‘धिक् जीवन जो पाता ही आया है विरोध’’ यह
आत्मभत्र्सना ‘एक
साहित्यिक की डायरी’ के तीसरा क्षण नामक किस्त में मार्मिक रूप से
अभिव्यक्ति हुई है, फिर एक रात को जब कराहें सोयी हुई थीं और घर के आले
में रखा दिया शांत, रौशनी फैला रहा था, तब
मैं अशांत मन से जिंदगी के बारे में सोचने लगा। मैं बहुत उदास हो उठा। लगा कि मेरी
जिंदगी असफलता की डाढ़ों में फंसी हुई एक बेबस आँत है।’’ मुक्तिबोध
की गहरी वर्ग-चेतना में निहित आलोचनात्मक विवेक और सर्जनात्मक संकल्प को रेखांकित
करते हुए निर्मल वर्मा ने विचार के प्रश्न को एक सवाल की तरह रखा है, उन्होंने
विचार की जगह विश्व-दृष्टि शब्द का प्रयोग किया है और पूछा है कि ‘‘मार्क्सवाद
की इस विश्व दृष्टि को प्राप्त कर लेने के कारण क्या अपने वर्ग के अन्तर्विरोधों
की बेचैनी का उत्तर मिल गया था।’’16 लेनिन
के साहित्यिक सिद्धान्तों की व्याख्या करते हुए स्टेफान मोराब्स्की कहते हैं कि ‘‘यह ध्यान
रखना जरूरी है कि कलाकार जिनका अपनी सैद्धान्तिक स्थिति के बारे में पूर्णतः
जागरूक मिलना कठिन होता है, लेकिन अधिकांशतः मनोसमाजशास्त्रीय घटनाओं जैसे
मिथकों, निषेधों, आम
जज्बात, अधबनी
सामाजिक, प्रवृत्तियों, नैतिक
प्रश्नानकुलता आदि के प्रति प्रखर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं- खुद अपने पेशे की
प्रकृति के द्वारा ही एक वर्गीय दृष्टिकोण से परे जाते रहते हैं।17 यह एक महत्त्वपूर्ण वक्तव्य है, इस
अर्थ में कि यह मुक्तिबोध के काव्य के वैचारिक परिप्रेक्ष्य की समझने के लिए इस
तथ्य की ओर संकेत करता है कि कविता जो मानवीय सभ्यता और अस्तित्व के प्रश्नों से
लड़ना चाहती है- स्थूल अर्थ में वर्ग की कविता नहीं होती, ‘‘कवि का
विचार जिसके कारण वह वर्ग की मौजूदगी तथा अस्तित्व की समस्याओं के अन्तर्संबंध को
रेखांकित करने में सफल होता है उसकी भाषा, उसके
विचारों को व्यक्त नहीं करती बल्कि इस भाषा से उसके विचार उसे मिलते हैं।’’18 कविता की रचना-प्रक्रिया के बारे में लिखते हुए
मुक्तिबोध ने अकारण ही यह नहीं लिखा कि ‘‘फैंटेसी की रचना अंतिम चरण में
मूल अनुभव का रूप बदल कर एकदम भिन्न हो जाता है।’’19 यह मनमाने ढंग से भिन्न नहीं होता बल्कि कविता के
नियमों के कारण भिन्न होता है। इसलिए कवि के साथ कुछ जिम्मेदारी आलोचक की भी होती
है। ‘हाशिये
पर कुछ नोट्स’
की
किस्त में वह लिखते हैं कि ‘‘इसलिए कहता हूँ कि हम आलोचना करते वक्त
गलतियों के लिए कम से कम पच्चीस-तीस प्रतिशत हाशिया छोड़ दें- अगर हम ‘हैं’ के
बदले ‘हो
सकता है’ सम्भव
है, ‘कदाचित्
यह भी हो, इस
तौर से बात करें और मानव ज्ञान और स्वयं अपने ज्ञान की साक्षात् सीमाएँ प्रत्यक्ष
ध्यान में रख मार्जिन अपने को और दूसरे को प्रदान करें तो बहुतेरे हृदय-दाह समाप्त
हो जायें और हार्दिक तथा वैचारिक आदान-प्रदान अधिक सुगम या सरल हो। क्या मैं गलत
कह रहा हूँ।’’20
मुक्तिबोध निम्न मध्य वर्ग
के जिस मन को अपनी कविता में लिखते हैं, क्या वह समान्यीकृत ढंग से समूचे निम्न मध्य वर्ग
का मन है? मलयज ने इस प्रश्न का उत्तर खोजने
की कोशिश करते हुए लिखा है, ‘‘मुक्तिबोध
का आदमी यही औसत आदमी है और उसे अपनी सतह से लगाव है। ध्यान रहे वह आदमी सतह से
छिटक कर, अपनी वर्ग सीमा को पार कर उसके
बाहर नहीं जाता वह सिर्फ उससे ऊपर उठता है, उसी का
रहते हुए करता है। यह परिवर्तन कैसे घटित होता है। आदमी सतह से ऊपर कैसे उठता है।
यह भावना नहीं इंस्टिक्ट नहीं, विचार सजग ज्ञान नहीं, जिस
सांस्कृतिक दलदल में हमारा जनमानस फंसा हुआ है उससे उबरने की यही सूरत है। विचार
जीवन-अनुभूति से उद्भूत पर उससे स्वतंत्र मानव संभावना का नया गणित है। रचना के
सामान्य मनुष्य की सतह पर खड़े-खड़े मुक्तिबोध का विचार जैसे विश्व की परिधि छू लेना
चाहते हैं।21 ‘एक
स्वप्न कथा’ में
काव्य नायक के सामने फैला काला सागर लूट एवं शोषण का है, जिसका
सम्बन्ध सुदूर पश्चिम से है-
इस काले सागर का
सुदूर स्थित पश्चिम किनारे से
जरूर कुछ नाता है
इसीलिए हमारे पास सुख नहीं आता है।
पश्चिम किनारे से
मुक्तिबोध ने उपनिवेशवादी पश्चिमी देशों की ओर संकेत किया है। मुक्तिबोध का गद्य
पढ़ते हुए भी कविता पढ़ने जैसा अहसास होता है, ‘‘शाम
दुपहर को खो कर रात में लीन हो जाती है और रात भी सुबह में परिणत हो जाती है। यह
चक्र चलता आया है, चला चलता है। इसको प्रगति नहीं कहते।’’22 यद्यपि इस बात का अभिधार्थ शून्य है, तब भी
पाठक इसको एकदम निस्सार नहीं समझेगा कोई न कोई अर्थ ढूँढ़ ही लेगा। अज्ञेय के ‘जितना
तुम्हारा सच है,
उतना
ही कहो’ कविता की भाँति मुक्तिबोध भी यह
कहते हैं कि ‘‘बड़ी
भारी बिल्डिंग खड़ी करने के बजाय छोटी-सी कुटिया खड़ी की जाय तो अधिक अच्छा होगा।’’23 आगे वह कहते हैं कि ‘‘आसमान का
चित्रण सधे न सधे, सामने के मैले डबरे में सूरज के बिम्ब का चित्रण
करना चाहिए, शायद वह मेरे जीवन-सत्य के अधिक
निकट होगा। उतना चित्रण मुझसे सध भी जायेगा।... हम
सब लोग ऐसे ही डबरे हैं, जो अपने भीतर सूरज का प्रतिबिंब धारण किये
हैं। पूरा वस्तु-सत्य इस इमेज में आ गया है। इसीलिए वह महत्त्वपूर्ण है।’’24
मुक्तिबोध की कविता का
स्वभाव तथा उसका वैचारिक पक्ष एक दूसरे में समाहित है। ‘एक
साहित्यिक की डायरी’ में उनकी बातचीत वक्त काटने की बातचीत नहीं है।
उन्होंने अपने काव्य में निहित विचारों को यहाँ एक नये तरीके से समझाने की कोशिश
की है, तभी
वह कहते हैं कि मेरा मन है कि अपनी हर कविता पर एक कहानी की रचना करूँ।25 क्योंकि मुक्तिबोध यह मानते थे कि जीवन के जिस
क्षेत्र की हम बात करें उसकी शब्दावली आनी चाहिए। ज्ञान भी एक एक प्रकार का अनुभव
है, या
तो वह हमारा है या दूसरों का उससे हम निष्कर्ष निकालते हैं जिससे जीवन-विवेक का
विकास होता है।26 स्पष्ट है कि मुक्तिबोध
की कविता के वैचारिक परिप्रेक्ष्य को समझने के लिए उनकी गद्य-कृतियों का अध्ययन
आवश्यक है।
संदर्भ
1. वीरकर, एक साहित्यिक की डायरी, मुक्तिबोध, पृष्ठ – 80, भारतीय ज्ञानपीठ, तेरहवाँ
संस्करण, 2014
2. पूर्ववत्
3. पूर्ववत्
4. एक मित्र की पत्नी
का प्रश्न-चिन्ह, एक साहित्यिक की डायरी, मुक्तिबोध, पृष्ठ –60, भारतीय ज्ञानपीठ तेरहवां संस्करण, 2014
5. मुक्तिबोध रचनावली, भाग-2, पृष्ठ –159
6. पूर्ववत् पृष्ठ –165
7. कुटुयान और काव्य-सत्य, एक
साहित्यिक की डायरी मुक्तिबोध, पृष्ठ
–101, भारतीय ज्ञानपीठ, तेरहवां
संस्करण, 2014
8. एक लंबी कविता का अन्त, एक
साहित्यिक की डायरी, मुक्तिबोध, पृष्ठ –35
9. पूर्ववत्, पृष्ठ –34
10. अंधेरे में’, हिन्दी साहित्य और संवेदना का
विकास, राम
स्वरूप चतुर्वेदी, पृष्ठ–203, लोकभारतीय प्रकाशन, ग्यारहवां संस्करण।
11. ‘अंधेरे
में’, परम
अभिव्यक्ति की खोज, कविता के नये प्रतिमान, पृष्ठ –228, राजकमल प्रकाशन, दसवीं
आवृत्ति, 2012
12. नयी कविता और
अस्तित्वाद, डॉ. राम विलास शर्मा, पृष्ठ –190
13. पूर्ववत्, पृष्ठ –119
14. पूर्ववत् पृष्ठ –187
15. तीसरा क्षण, एक
साहित्यिक की डायरी, पृष्ठ
–25
16. कला का जोखिम, निर्मल
वर्मा
17. स्टेफान मोराव्स्की, आलोचना, जुलाई-सितंबर
69, पृष्ठ –3
18. पूर्ववत्
19. मुक्तिबोध रचनावली, भाग-4
20. हाशिये पर कुछ नोट्स, एक
साहित्यिक की डायरी, पृष्ठ
–50
21. पूर्वग्रह-43, मलयज, पृष्ठ –5-7
22. वीरकर, एक
साहित्यिक की डायरी मुक्तिबोध, पृष्ठ
–77
23. डबरे पर सूरज का
बिम्ब, एक
साहित्यिक की डायरी, मुक्तिबोध, पृष्ठ –44
24. पूर्ववत्
25. एक लंबी कविता का अन्त, एक
साहित्यिक की डायरी मुक्तिबोध, पृष्ठ
–32
26. कलाकार की व्यक्तिगत
ईमानदारी: दो,
एक
साहित्यिक की डायरी, मुक्तिबोध, पृष्ठ –120
सम्पर्क
सहायक आचार्य (गेस्ट),
हिन्दी
विभाग,
इलाहाबाद विश्वविद्यालय,
इलाहाबाद.
ई-मेल: alka.prakash12@gmail.com
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (31-03-2017) को "दर्पण में तसबीर" (चर्चा अंक-2926) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'