प्रतुल जोशी का आलेख 'यादें लूकरगंज की'



 (सौ, लूकर गंज के उस घर का एक दृश्य जिसमें शेखर जोशी रहा करते थे) 

इलाहाबाद अपने साहित्यिक परिवेश के लिए ख्यात रहा है इसके तमाम मुहल्लों में एक से बढ़ कर एक नामचीन हस्तियाँ आसानी से देखने को मिल जाती थीं हम खुद रामस्वरुप चतुर्वेदी, लक्ष्मीकान्त वर्मा, केशव चन्द्र वर्मा, रघुवंश, मार्कंडेय, अमरकान्त, शेखर जोशी, सत्यप्रकाश मिश्र, राम कमल राय जैसी नामचीन शख्सियतों से आसानी से मिलते और बात करते थे इनसे मिल कर हमें यह आभास तक नहीं होता था कि हम किसी बड़ी हस्ती से मिल रहे हैं या बात कर रहे हैं लूकरगंज इलाहाबाद का ऐसा ही एक मोहल्ला है जहाँ पहले कभी नरेश मेहता और शेखर जोशी जैसे रचनाकार रहा करते थे 'थे' इसलिए कि नरेश जी ने तो बहुत पहले इलाहाबाद छोड़ दिया था इधर ईजा (चन्द्रकला जोशी) के निधन के बाद हम सबके प्रिय कथाकार शेखर जोशी भी इलाहाबाद अब लगभग छोड़ चुके हैं लूकरगंज की स्मृतियों को हम सबसे साझा कर रहे हैं प्रतुल जोशी ध्यातव्य है कि प्रतुल शेखर जोशी के ज्येष्ठ पुत्र हैं और आजकल आकाशवाणी शिलांग में कार्यरत है       



यादें लूकरगंज की

प्रतुल जोशी

ईजा की मृत्यु के पश्चात इलाहाबाद छूट रहा है लगातार. इलाहाबाद यानी अपना लूकरगंज हिन्दी के ढेर सारे लेखकों के लिए एक जाना पहचाना शब्द था – 100 लूकरगंज शायद बहुत आसान सा पता था, इसलिए सबको याद भी हो जाता था 100 लूकरगंज में हमलोग किराए पर रहने आये थे 1963 में एक लम्बे चौड़े अहाते का नाम है 100 लूकरगंज जिसमें 15-16 छोटे-बड़े मकान आज भी हैं आज से 30-35 वर्ष पूर्व इस अहाते में बहुत से निम्न मध्यमवर्गीय परिवार रहा करते थे मकान मालिक टंडन जी के विशालकाय मकान के अलावा अधिकतर दो कमरे वाले मकान ही इस अहाते की शोभा बढाते थे आज 7-8 परिवार ही इस अहाते में रहते हैं बाकी ने अहाता छोड़ दिया है लेकिन अपने-अपने मकान अपने कब्जे में रखे हैं और उन मकानों पर ताले लटक रहे हैं ठीक पचास साल बाद, 100 लूकर गंज में हमारे परिवार के रहने का पटाक्षेप सा होता दिख रहा है ढेर सारी यादें जुड़ी हैं उस तीन कमरे के मकान से पहले हमारा भी मकान दो कमरे का ही था एक आगे वाला ड्राईंग रूम, फिर एक बड़ा बरामदा. इसके आगे खुला हुआ आँगन, (जिसमें धूप और बरसात का आनन्द हम लोग बचपन से ही लेते रहे) उसके बाद रसोई और रसोई से जुड़ा एक छोटा कमरा, (जिसकी खिड़कियाँ पडोसी मिश्रा जी के मकान से जुड़ी थीं) बहुत बाद में ड्राईंग रूम से जुड़े बरामदे में दीवार डाल कर उसे एक कमरे का रूप दे दिया गया था
 

एक चलचित्र की तरह ढेर सारे फ्रेम उभरते हैं लूकरगंज के। हमारा मुहल्ला यानी लूकरगंज पिछली सदी के छठें, सातवें और आठवें दशक में साहित्यकारों से भरा-पूरा था। लूकरगंज के बाहरी हिस्से खुसरो बाग़ रोड में अश्क जी रहते थे तो लूकरगंज में भैरव प्रसाद गुप्त, नरेश मेहता जी और हमारा परिवार था। लूकरगंज के ही एक दूसरे छोर पर ज्ञानरंजन जी का बंगला था। उस बंगले में उनके पिता स्वर्गीय राम नाथ ‘सुमन’ रहते थे। ज्ञानरंजन जी जबलपुर में रहा करते थे। लूकरगंज में साहित्यकारों के रहने की परम्परा का श्रीगणेश संभवतः श्रीधर पाठक ने किया था। उनका आवास ‘पद्मकोट’ नाम से लूकरगंज में बेतरतीब तरीके से कई वर्षों तक बना हुआ था। अब वहां नयी इमारतें खड़ी हो गयी हैं। और ‘पद्मकोट’ अतीत के पन्नों में समाहित हो गया है। यहाँ प्रसंगवश बताता चलूँ कि मोहल्ले का नाम लूकरगंज एक अंग्रेज श्रीमान लूकर के नाम पर पड़ा था। हमारे घर नियमित रूप से आने वालों में होते थे अमरकान्त जी और भैरव जी (भैरव प्रसाद गुप्त जी)। भैरव जी का मकान हमारे घर से थोड़ी दूरी पर ही था, इसलिए वह प्रायः टहलते हुए चले आते थे। अमरकान्त जी करेलाबाग कालोनी में रहते थे, जो लूकरगंज से लगभग चार किलोमीटर दूर है। वह महीने में एक-दो बार जरुर आते। अमरकान्त जी और भैरव जी को हम बच्चे ‘ताऊ जी’ कह कर संबोधित करते थे। ‘ताऊ जी’ का यह संबोधन केवल भैरव जी और अमरकान्त जी के लिए ही था।

अमरकान्त जी जब करेलाबाग लौटने लगते, तो पापा उन्हें छोड़ने खुल्दाबाद तक जरुर जाते। हमारे घर से लगभग एक किलोमीटर दूर खुल्दाबाद, कभी ‘सराय खुल्दाबाद’ के नाम से जाना जाता था। मुग़लों के जमाने में वहाँ कोई सराय थी, जहाँ यात्री टिका करते रहे होंगे। अब वह एक बाजार है। खुल्दाबाद के मोड़ पर खड़े हो अमरकान्त जी और पापा घंटों बातें करते। उनकी बातों में साहित्य की स्थिति, किसने क्या लिखा, किस रचनाकार की कौन सी कविता या कहानी या उपन्यास ने हलचल मचा दी है, जैसी ढेरों बातें शामिल रहतीं। अमरकान्त जी एक समय में खूब सिगरेट पीते थे। मुझे उनका मुंह से धुंए के गोल-गोल छल्ले निकालना बहुत पसन्द आता था। अमरकान्त जी शतरंज भी बहुत अच्छा खेलते थे। एक बार हम बच्चों को शतरंज का जुनून चढ़ा। मोहल्ले के हम दो-तीन बच्चे दिन-रात शतरंज में जुटे रहते। उसी दौरान अमरकान्त जी घर आ गए थे। मैंने उनके साथ कई बाजियाँ खेलीं और हर बार हारा। 


कभी-कभी मार्कंडेय जी भी दर्शन दे देते। वह जब आते तो रिक्शे से आते। जितने समय वह हमारे घर रहते, रिक्शा बाहर खड़ा रहता। फिर वह उसी रिक्शे से वापस लौटते। उनके आने पर दो-चार किस्म की नसीहतें, मेरे हिस्से में जरुर आ जातीं। मेरी पढ़ाई के बारे में, भविष्य की मेरी योजनाओं के बारे में वह जरुर पूछते और साथ ही कई किस्म के सुझाव देते।



(घर के सामने वाला हिस्सा, दरवाजे पर खड़े शेखर जोशी)  

लूकरगंज में नरेश मेहता जी के घर का नंबर 99 लूकरगंज था और हमारा 100 लूकरगंज। यद्यपि दोनों के बीच एक ही नंबर का फर्क था लेकिन दूरी आधा किलोमीटर से ज्यादा थी। नरेश जी हमारे घर साल भर में केवल एक बार ही आते और वह मौक़ा होता होली का। होली के दूसरे या तीसरे दिन नरेश जी झक सफ़ेद धोती और रेशमी कुर्ता पहने महिमा जी के साथ पधारते। फिर साल भर कभी उनके दर्शन न होते। उनका पुत्र ईशान (जिसकी बाद में एक सड़क दुर्घटना में अपनी शादी के एक साल बाद ही मृत्यु हो गयी थी) बाद में मेरा अच्छा मित्र बन गया था। वह फुटबाल का अच्छा खिलाड़ी था और जब भी मिलता था, खूब गर्मजोशी से मिलता था।


अश्क जी और भैरव जी का मकान लगभग एक फर्लांग की दूरी पर था। लेकिन दोनों के बीच सम्बन्ध इतने खराब थे कि उनका एक-दूसरे के यहाँ आना-जाना नहीं होता था। इसके चलते अश्क जी हमारे यहाँ भी नहीं आते थे। चूकि पापा भैरव जी के बहुत करीब थे, संभवतः इसीलिए अश्क जी का हमारे यहाँ आना बन्द था। बहुत बाद के वर्षों में अश्क जी ने हमारे यहाँ आना शुरू किया। फिर तो हमारे यहाँ लगातार आते रहे। सफ़ेद चूड़ीदार पाजामे और कुर्ते के साथ, एक टोपी उनकी शोभा बढ़ाती। प्रायः सुबह-सुबह घर के बाहर उनकी आवाज ‘शेखर’ हम लोगों को सुनाई पड़ती। अश्क जी अपने साथ कोई ताजा लिखी हुई कविता ले कर उपस्थित होते और पापा उसके प्रथम श्रोता होने का गौरव प्राप्त करते। 


साल-दो साल में एक बार विश्वनाथ त्रिपाठी भी इलाहाबाद पधारते। शायद उनकी ससुराल इलाहाबाद में थी। उनके आने पर घर में जैसे एक खुशी की लहर दौड़ जाती। अपनी छोटी-छोटी आँखों को नचाते हुए विश्वनाथ जी कई किस्से कहानियाँ सुनाते। उनकी उपस्थिति के दौरान रसोई में कडाही चूल्हे पर चढी रहती। त्रिपाठी जी खाने पीने के बहुत शौक़ीन हैं। ईजा की बनायी हुई साबूदाने की पकौड़ियाँ उन्हें बेहद पसंद थी। वे जिद करके पकौड़ियाँ बनवाते। त्रिपाठी जी के आगमन पर हम लोग कई किस्म की पकौड़ियाँ खाते। त्रिपाठी जी भैरव जी का बहुत सम्मान करते। हमारे यहाँ आने के बाद, भैरव जी के यहाँ जरुर जाते। 


लूकरगंज में तीन-तीन पूर्णकालिक लेखकों (भैरव जी, अश्क जी और नरेश जी) के निवास करने की वजह से हर महीने दो-चार लेखकों का दूसरे शहरों से आना लगा रहता। नरेश जी दूसरी धारा के लेखक थे अतएव उनके यहाँ आने वाले हमारे यहाँ कम ही आते। हाँ, लेकिन जो भैरव जी के यहाँ आता, एक चक्कर हमारे यहाँ जरुर लगा लेता। युवा लेखकों से ले कर बुजुर्ग लेखक प्रायः सभी आते। मेरा अधिकाँश समय या तो अपने घर पर गुजरता या भैरव जी के यहाँ। अगर दो-तीन दिन भैरव जी के यहाँ नहीं जाता, तो फिर मेरी खोज शुरू हो जाती। इसमें कई बार कुछ मजेदार स्थितियाँ जन्म ले लेतीं। एक बार भैरव जी के भतीजे प्रेमचंद उनके घर आए थे। जब वह रिक्शे से अपना सामान लेकर उतर रहे थे, तो मैं वहीँ था। भैरव जी के घर वालों ने कहा ‘अरे प्रेमचंद आ गए।’ मुझे लगा कि हिंदी के महान साहित्यकार प्रेमचंद आये हैं। उस समय मेरी उम्र नौ-दस साल की रही होगी। मैं सीधा घर गया और पापा को बताया कि साहित्यकार प्रेमचंद, भैरव जी के घर आये हैं। पापा ने मुस्कुरा कर पूछा कि ‘कैसे आये हैं?’ मैंने उत्साहपूर्वक बताया कि मय सामान आये हैं। एक होल्डाल और एक बक्सा उनके पास दिख रहा है। पापा ने फिर चुटकी ली। उन्होंने कहा ‘अगर प्रेमचंद जी को आना था तो वह भैरव जी के यहाँ क्यों आये अपने बेटे अमृत राय के घर क्यों नहीं गए।’ पापा की बात उस वक्त मेरे समझ में नहीं आई। 


पापा की नौकरी 508 आर्मी बेस वर्कशाप में थी। और इलाहाबाद शहर के बाहर नैनी के पास छिवकी नामक जगह में। वर्कशॉप के कर्मचारियों को ले जाने के लिए एक शटल इलाहाबाद रेलवे स्टेशन से छूटती थी। शटल के छूटने के समय से हमारे घर की सारी गतिविधियाँ जुडी हुई थीं। प्रातः पौने छः बजे घर के सभी सदस्य जग जाते। ईजा, पापा का टिफिन तैयार करने में जुट जातीं। पापा सात बजे तक नहा-धो कर तैयार हो कर रेलवे स्टेशन के लिए निकल जाते। इलाहाबाद रेलवे स्टेशन हमारे घर से लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर है। पापा वहां सायकिल से जाते। प्रायः उनको शटल मिल जाती। कई बार छूट भी जाती। यह शटल शाम को लगभग पाँच बजे छिवकी से इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पहुंचती थी। सुबह जब किसी कारण से देर हो जाती तो घर में शाम को ईजा जरुर पूछतीं ‘आज शटल मिली या नहीं?’


पापा बताते ‘नहीं वह तो छूट गयी, लेकिन जनता (एक्सप्रेस) खड़ी थी। उससे चले गए।’ सुबह की सारी तैयारियाँ, शटल पकड़ने के लक्ष्य को ध्यान में रख कर होतीं थीं। बेस वर्कशॉप और ट्रेन पकड़ने का चित्रण रिटायरमेंट के बाद पापा ने अपनी कहानी ‘आशीर्वचन’ में बेहद आकर्षक तरीके से किया।


शनिवार पापा का हाफ डे होता था। उस दिन शाम ढाई-तीन बजे तक वे घर आ जाते। लेकिन पाँच बजते न बजते, सिविल लाईन्स स्थित कॉफ़ी हाउस जाने की तैयारियाँ शुरू हो जातीं। उस जमाने में इलाहाबाद के साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों के लिए शनिवार की शाम को कॉफ़ी हाउस जाना ऐसा होता था, जैसे ईसाई धर्म मानने वालों के लिए रविवार की सुबह चर्च जाना। शहर के लगभग सभी साहित्यकार और बुद्धिजीवी कॉफ़ी हाउस की अलग-अलग टेबलों पर महफिलें जमाये नजर आते। शनिवार को काफी हाउस नियमित आने वालों में लक्ष्मीकान्त वर्मा, विशंभर नाथ ‘मानव’, विजयदेव नारायण साही, डॉ रघुवंश, भैरव जी, अमरकान्त जी, पापा, मार्कंडेय जी, सतीश जमाली, रवीन्द्र कालिया, दूध नाथ सिंह होते। कभी-कभी हम बच्चे (छोटा भाई संजय और बहन कृष्णा) ईजा के साथ काफी हाउस पहुँच जाते। हमारे साथ भैरव जी का परिवार (ताई जी और मुन्नी दी) जरुर होते। हम लोग वहाँ नहीं बैठते थे जहाँ लेखकों-बुद्धिजीवियों का जमावड़ा होता था। बल्कि हम लोग काफ़ी हाउस की दूसरी बिल्डिंग में बैठते (जो परिवार वालों के लिए बनी है)।

(सौ लूकर गंज का एक विहंगम दृश्य)

पापा के इस टाईम-टेबल के चलते, हमारे घर आने वालों का सिलसिला प्रायः रविवार को ही होता था। रविवार को घर आने वालों में लेखकों-साहित्यकारों के अलावा बड़ी तादाद रिश्तेदारों और वर्कशॉप के कर्मचारियों की होती थी। पापा की आर्मी बेस वर्कशॉप में (जो कि ई. एम. ई. के अंतर्गत आती है) सेना के ट्रकों की मरम्मत का काम होता था। इसके चलते वहाँ सभी ट्रेड के कारीगर काम करते थे। कोई ट्रकों की रंगाई करने वाला रंगसाज था, तो कोई फिटर। कोई बढ़ई था तो कोई तो कोई लुहार। इनमें से कोई न कोई कभी न कभी घर आ जाता। चूकि पापा एक लम्बे समय तक फोरमैन थे, तो इन कारीगरों के इंचार्ज थे। वह लोग संभवतः अपने इंचार्ज से मिलने, अपनी समस्याएँ साझा करने के लिए हमारे घर आते। इनमें से कोई जरुर ‘हेड मैसिंजर मंटू’ रहा होगा और कोई ‘नौरंगी।’ पापा प्रायः कहते- ‘देखो मेरी नौकरी कितनी बढ़ियाँ है जहाँ हर तरह के कारीगर काम करते हैं।’


घर में हम तीन बच्चों के अलावा, समय-समय पर बुआ के तीन बच्चों ने भी हमारे घर पर रह कर पढाई की थी। बुआ-फूफा जी रानीखेत में रहते थे और वहाँ उच्च शिक्षा की कोई सुविधा न होने के चलते, इलाहाबाद में उनका एडमिशन करा दिया जाता। पापा की नौकरी से सीमित आय के चलते और घर में पाँच-छः सदस्यों के होने के कारण आर्थिक स्थिति तंगहाली की ही होती। प्रायः महीने के अन्त में अखबारों की रद्दी बेच कर आर्थिक तंगी दूर करने का उपाय किया जाता। बोनस के रूप में कभी किसी पत्रिका या अखबार से मनीआर्डर आ जाता या आकाशवाणी से बुलौवा, तो घर में ख़ुशी की लहर छा जाती। इस सन्दर्भ में एक पोस्टमैन का जिक्र बड़ा रोचक है। चूकि अलग-अलग क्षेत्रों से महीने-दो महीने में एकाध मनीआर्डर आ ही जाता तो वह पोस्टमैन साहब उस मनीआर्डर में से अपना हिस्सा लेने के लिए बड़ी ही सुनियोजित तैयारी के साथ आते। वह मनीआर्डर की राशि इस तरह प्रदान करते कि उसमें उनका हिस्सा मनीआर्डर प्राप्त करने वाले को देना ही होता। जैसे अगर दो सौ रुपये का मनीआर्डर आया होता तो वह सौ-सौ के दो नोट देने के बजाय, सौ रुपये का एक नोट, पच्चास रुपये का एक नोट, दस रुपये के चार नोट और शेष दस रूपये रेजगारी में देते। अब मनीआर्डर प्राप्त करने वाले के लिए ऐसी कोई स्थिति नहीं बचती कि वह कुछ राशि देने से मना कर देता। इस तरह के न जाने कितने प्रसंग थे जो हमारे बचपन से जुड़े थे।


(घर का स्वागत कक्ष; जिसमें अमरकांत जी के पुत्र अरविन्द बिंदु बैठे हुए हैं)



वर्ष 1984 हमारे परिवार के लिए कुछ अजीबोगरीब परिवर्तन ले कर आया। जैसे शांत से जल में कोई एक पत्थर फेंक दे और उस पत्थर के गिरने से उस जल में रहने वाले जीव-जन्तु और जल स्वयं विचलित हो जाए, कुछ ऐसा ही एहसास हमारे परिवार को 1984 में हुआ। बम्बई से आने वाले एक पत्र ने हम सभी की नींदें उड़ा दीं। पत्र नरु मामा का था। उन्होंने लिखा था कि एक डॉक्टरी जांच के बाद उन्हें ज्ञात हुआ कि उनकी दोनों किडनियाँ खराब हो चुकी हैं। उन्हें जीवित रहने के लिए एक किडनी की जरुरत थी। हमारी माताजी का परिवार बड़ा था। वह दस भाई-बहन थीं। माताजी दूसरे नंबर पर थीं। नरु मामा छठें नंबर पर थे। वह बम्बई में एक मल्टीनेशनल कम्पनी में मार्केटिंग मैनेजर थे। सब लोगों की दिल खोल कर सहायता करने वाले। तम्बाकू और शराब से कोसों दूर। उनकी दोनों किडनी खराब होना, सबको स्तब्ध करने जैसा था। पत्र प्राप्त होते ही ईजा-पापा ने नरु मामा से सम्पर्क किया। 


‘क्या करना होगा किडनी देने के लिए?’


‘पहले कुछ टेस्ट कराने होंगे। अगर उन टेस्ट से मैचिंग हो जाती है तो फिर किडनी ट्रांसप्लांट होगा।’ जवाब आया। 


ननिहाल में सभी नौ भाई-बहनों ने अपने टेस्ट करवाए। लेकिन संयोग यह कि ईजा की मैचिंग सौ फीसदी हुई। पूरे ननिहाल में ख़ुशी की लहर दौड़ गयी। ईजा का कद परिवार में, पहले ही बड़ा था। सौ फीसदी मैचिंग के बाद और बड़ा हो गया। जसलोक हास्पिटल बम्बई में किडनी ट्रांसप्लांट तय हुआ। ईजा तो हमेशा की तरह मस्त और चिन्तामुक्त। लेकिन पिताजी चेहरे पर चिन्ता की लकीरें साफ़ दिखती हुईं। किडनी ट्रांसप्लांट आपरेशन के ठीक कुछ दिन पहले ‘स्टेट्समैन’ अखबार के मुख पृष्ठ पर एक खबर छपी कि अमरीका या यूरोप के किसी देश में किडनी ट्रान्सप्लान्ट के दौरान दाता की मृत्यु हो गयी। इस खबर ने हम सबका तनाव और घनीभूत कर दिया। उस खबर को पापा और मैंने दोनों ने पढ़ा। पर खबर पर बातचीत करने की हिम्मत किसी की न हुई। दोनों ऐसा प्रदर्शित करते रहे मानो खबर पढी ही नहीं। आपरेशन के बाद हम लोग इस पर खूब हँसे। खैर...

किडनी ट्रांसप्लांट के लिए ईजा-पापा बंबई रवाना हो गए और हम तीन भाई-बहनों की देखभाल के लिए बुआ को भेजा गया। उन दिनों आज की तरह टेलीफोन और मोबाईल की सुविधा नहीं थी। इस लिए किसी ट्रांसप्लांट आपरेशन की सफलता-असफलता की सूचना हमें टेलीग्राम से ही मिलनी थी। आपरेशन वाले दिन रात को दरवाजे पर दस्तक हुई- ‘टेलीग्राम।’ धड़कते दिल से मैंने दरवाजा खोला। टेलीग्राम प्राप्त करने से पहले मैंने डाकिये से पूछा- ‘कोई गड़बड़ तो नहीं। जैसे कोई डेथ-वेथ का समाचार।’ 


‘नहीं ऐसा तो कुछ नहीं’ डाकिये ने सहजता से कहा। मैंने अपने को बेहद तनावमुक्त महसूस किया।


टेलीग्राम खोला तो अन्दर लिखा था- ‘आपरेशन सक्सेसफुल। आल वेल।’


किडनी ट्रांसप्लांट के छः साल बाद तक मामा जी जीवित रहे और ईजा ने तो उसके बाद अट्ठाईस साल तक पूर्ण स्वस्थ हो कर जीवन गुजारा। यहाँ इस बात का जिक्र करना मैं आवश्यक समझता हूँ कि किडनी ट्रांसप्लांट (हिन्दी में यकृत प्रत्यारोपण) एक जटिल किन्तु सामान्य चिकित्सकीय प्रक्रिया है और उसमें दाता के स्वास्थ्य पर कोई असर नहीं पड़ता है क्योंकि डाक्टरों का मानना है कि एक किडनी का आठवां हिस्सा ही पूरे शरीर को बचाने के लिए पर्याप्त है। हाँ, जिसको किडनी प्रत्यारोपित की जाती है, उसे आपरेशन के बाद कुछ समय के लिए थोड़े से साईड इफेक्ट्स हो सकते हैं। अब कुछ बहुत अच्छी दवाएँ आ गयी हैं (जिनमें साईक्लोस्फोरिन एक है) जिनके चलते मरीज लम्बे समय तक स्वस्थ रहता है। मामा जी के समय में ऐसी दवाओं की उपलब्धता नहीं थी।

इलाहाबाद में हम लोगों ने अपना बचपन बड़ी सादगी से गुजारा। ननिहाल में मामाओं और मौसी लोगों के परिवार आर्थिक रूप से अत्यन्त समृद्ध होने पर भी हमारे माता पिता को इस बात की कोई हीन भावना नहीं रहती थी कि हम लोग उन लोगों के मुकाबले आर्थिक रूप से सम्पन्न नहीं हैं। चाहे कोई कितना उच्घ अधिकारी रिश्तेदार या दोस्त आ रहा है या कोई गरीब मजदूर, दोनों को समान व्यवहार मिलता। ईजा की कोशिश होती कि गरीबों के बच्चे पढ़ें। कितनी कामवालियों के बच्चों के एडमिशन के लिए, ईजा ने न जाने कितने स्कूलों के चक्कर लगाए। कितने गरीब बच्चों की उच्च शिक्षा के लिए अपने रिश्तेदारों और परिचितों से धन माँग कर उनकी पढाई की व्यवस्था की। मोहल्ले की कोई पड़ोसन अगर अपनी बहू के साथ बदतमीजी कर रही है तो उससे दुश्मनी की हद तक लोहा लिया। घर के दरवाजे हमेशा सब के लिए खुले रहते। हम भाई बहनों के लखनऊ, गाजियाबाद और पूना बस जाने के बाद, जब भी ईजा पापा इलाहाबाद में होते, घर अड़ोस-पड़ोस के बच्चों से भरा होता। जब कभी हम इलाहाबाद पहुँचते तो घर में बच्चों का राज दिखता। ‘दादा-दादी’ चिल्लाते यह बच्चे घर भर में धमाचौकड़ी मचाते रहते। 


समय ने ऐसा पलटा खाया है कि अब लूकरगंज सिर्फ हमारी स्मृतियों में रह गया है। अभी भी घर में बहुत सारा सामान यथावत रखा है। लेकिन दरवाजे पर लटका ताला एक युग के ‘दि एन्ड’ को प्रतिध्वनित करता नजर आता है। 



सम्पर्क-

मोबाईल- 0942739500

ई-मेल- pratul.air@gmail.com


(इस पोस्ट में प्रयुक्त तस्वीरें प्रतुल जोशी ने उपलब्ध करायीं हैं)

टिप्पणियाँ

  1. Ezaa ji ka naam kafi jagah aaya hai ....Unka Parichay de !!!

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  2. Anil Kumar Singh

    इजा के बिना इस घर की मै कल्पना भी नहीं कर सकता .इलाहबाद के दिनों में ये मेरा अपना घर था .मुझे कभी नहीं लगा कि इजा और दादा सिर्फ संजय ,बंटू और प्रतुल भैय्या के मां और पिता हैं मेरे नहीं .इनकी स्नेह छाया में कई गहरे दुःख तिरोहित हो जाते थे .इस घर को देख कर मुझे घर की याद आ रही है

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  3. Anshul Tripathi

    kuch ismritiya ham sabki hai isi ghar se judi hui

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  4. ईजा यानी माँ. शेखर जी की सहधर्मिणी श्रीमती चन्द्र कला जोशी के लिए यही संबोधन हम सबकी जुबान पर रहता. इलाहाबाद में हमें माँ की कमी कभी नहीं खली. ईजा ने अपने स्नेह और प्यार से हम सबको बाँध लिया था. संभवतः 2012 का वह वर्ष था जब ईजा हम सबको अकेला छोड़ कर उस दुनिया के लिए चली गयीं जहां से आज तक कोई वापस नहीं लौटा.

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  5. भावुकता से सराबोर..स्मृतिलेख..
    प्रतुल जी..आपसे मिलना तो नहीं हुआ..अलबत्ता संजय जी के साथ अपना आमदरफ्त है..नमस्कार.... उमेश चतुर्वेदी

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  6. प्रतुल जी आप द्वारा साहित्योपयोगी उपयोगी जानकारी उपलब्ध कराई गई धन्यवाद

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