पूनम शुक्ला के कविता संग्रह "सूरज के बीज" के की चन्द्र भार्गव द्वारा की गयी समीक्षा



 युवा कवियित्री पूनम शुक्ला के नए कविता संग्रह "सूरज के बीज" पर एक समीक्षा लिखी है चन्द्र भार्गव ने. आईए पढ़ते हैं यह समीक्षा 
 
संवेदनात्मकता के उजास में उपजे "सूरज के बीज"

चन्द्र भार्गव 

पूनम शुक्ला के काव्य 'सूरज के बीजका प्रभामंडल संवेदना, करुणा, दया, उल्लास, आशा, निराशा सभी पहलुओं से ओत-प्रोत है। कविताओं की विविधता, कवयित्री की जीवन के प्रत्येक पक्ष को पैनी दृष्टि से आकलन कर अपने भीतर समेटती चली जाती है। फिर उन्हीं के शब्दों में 'और कविता स्वत: ही फूट पड़ती है।' आज का सामाजिक, राजनीतिक और राजकीय परिवेश किस प्रवणता से पेश किया है - 

"अखबारों के पन्ने पलटने के बाद/ लहुलुहान चीत्कारों को सुनने के बाद .....," ( पृ. 16.)
वह कहती हैं -
"इस आक्रोश को न घोंटो / एक काफी की प्याली से -
खौलते खून में न घोलो, बौछारें ठंडी साँसों से-  नई राह तो खोजो भटक जाने के बाद।" संवेदना 'गरीब के सपने' में कैसे उद्वेलित करती हैं - 
"सपने यहाँ भी / पलते हैं । इन अभावों की अतल खाई में । तरंगित कामनाएँ / चाहती हैं चढ़ना - धूल के /सुमेरु पर।"
नैराश्य की भावना कैसे व्यवस्था को न बदल सकने की छटपटाहट में परिणत होती है - अधखिले फूल ( पृ. 22 ) में चित्रण लोम - रंजीदा है -
 
"कहना होता कुछ, पर कहते कुछ हैं /चलता नश्तर भीतर- भीतर /सूखे चेहरों में ये मंद हँसी / सिलती कतरन भीतर- भीतर। अधखिले फूल हम तुम ही तो हैं / हँसते हैं बस मुरझाए भीतर"

जब अवसाद छा जाता है मन पर, तब नकारात्मकता पसर जाती है और ' देश का भविष्य' (पृ. 27) अन्धकारमय प्रतीत होने लगता है - जैसे -

"जब कलियों के चटखते ही / सुगंध की जगह आती है
आवारेपन की दुर्गन्ध । जब कोमल निश्छल चेहरों में / दिखने लगी है बेइमानी की झलक ............... क्या यही चरमराई हुई नींव बनाएगी आधुनिकता का भारत आखिर क्या है इस देश का भविष्य।" 

कवयित्री बार- बार नाॅस्टेल्जीया का शिकार हो जाती हैं क्योंकि भूत भविष्य पर हावी रहता है... जैसे "बापू" कविता कैसे आंशिक यथार्थ में डूबती है- 

"आज भी हो तुम हमारी स्मृतियों में 
सत्यता है दौड़ती इन धमनियों में।........ आज भी इस जहाँ की , हवा में एक सत्यता है । सत्यता का पाठ तुमने जो पढ़ाया आज भी रग- रग में वो डोलता है।" 

कवयित्री की ये कविता बेशक यथार्थ से योजनों दूर है परंतु उसके मन की निश्छलता अवश्य दर्शाती है।

सामाजिक नकारात्मकता का द्वन्द्व जो आज समाज की नींव और उसका ढाँचा आमूल ही हिला रहा है उसकी अभिव्यक्ति "मुट्ठी में आ गई है धरती" (पृ. 39.) बहुत सुंदर ढंग से की गई है। 
"आज जन्म हुआ है मेरा / देखी है धरती पर फैली उजियाली / कोई गाजे बाजे की नहीं है धुन.........
मुँह बिचकाती है दादी / आ गई कहाँ से करमजली ......... पापा भी नहीं है खुश....... बस खुश है तो माँ ......."

 (कवियित्री पूनम शुक्ला) 

तरह की सामाजिक विसंगतियों को कई कविताओं जैसे "अब मैं भी पढ़ती हूँ", "दहेज के लिए", "एक तीता : एक मीठा" - इत्यादि। और विडंबना देखिए - तीन दिन पहले चचेरी भौजाई ने जनी थी बेटी, छाया है मातम वहाँ। आज गाय ने जनी है बछिया , ( पृ. 42 ) खुशी छाई है यहाँ।" और नारी की मातृशक्ति....."अश्रु स्वयं ही पी जा" - में-


"खुद ही कुचली 
और दबी हुई पर फिर भी बाँहें फैलाए रहती मरी मरी"


आज का समसामयिक वातावरण, बलात्कार, उत्पीड़न, वीभत्स मानवता का नंगा नाच, पुरुष चलित समाज में उसकी नारी पर नृशंसता पहले ही संवेदनशीलता से बयां किया है.....
"वक्त की किस्मत मिटी है" में -
फिर कहीं / औरत झुकी है, फिर कहीं इज्जत /लुटी है, आज दो है/ कल चार होंगे / रोज ही / औरत पिटी है। क्यों चली है / ऐसी आँधी? वक्त की किस्मत मिटी है।"
कविता "पहचानो" में नारी का दर्द और उसकी शक्ति का कितना ज्वलन्त वर्णन है  


"तुमने सुनी है
प्यार ममता और विनम्रता की आवाज़ लेकिन क्या गए हो कभी उस आवाज़ की गहराइयों में  जिसकी जड़ें हैं बड़ी कठोर जो बनी हैं बज्र से आग से जिसमें प्यार भी है और आफताब भी जिनमें आशीर्वाद भी है और अभिशाप भी......।" फिर कवयित्री आशावान प्रतीत होती हैं। जब संवेदना का स्थान,निजी परिस्थितियाँ और परिवेश ले लेते हैं तो यह कह देना स्वाभाविक ही है- 
ठीक समुद्र की तरह मंथन के बाद ही जीवन ठप्प न होकर बनेगा उल्लासमय हवाएँ रुक कर नहीं  लहरा कर चलेंगी  और ......,,, हो रात घनेरी जितनी रोशनी का पुंज उगेगा रोक सको तो रोको यम भी विस्मित चल देगा

फिर कलियों को परामर्श- आगे काली रात छिपी है इस चिन्ता में मत गलना बन नूर सभी के नैनों की जीवन को पूनम कर देना. आशावादिता की एक और झलकी- ' मज़ा आता हैमें
घूमती हूँ देखती हूँ इस जहाँ को नजदीक से कुछ नयापन कुछ अजनबीपन देखती हूँ रंगीनियों को मज़ा आता है।

पूनम शुक्ला की 59 कविताओं का यह संग्रह पढ़ कर यह कदापि नहीं लगता कि यह उनका प्रथम काव्य संग्रह है। यह किसी सिद्ध हस्त शिल्पी की कृतियों का पुँज प्रतीत होता है। कविताओं का विस्तीर्ण पटल प्रकृति के रंगों से अभिभूत होकर सामाजिक सरोकार से जूझता है। नारी जीवन की त्रासद विडम्बनाओं से उलझता है और नैराश्य के तिमिर को चीरता हुआ आशा के "सूर्य के बीज" प्रतिपादित करता है। भाषा सरल,  सुपाठ्य है। भाषा में बिम्बों को उकेरा गया है जो उनकी मेधा, प्रवणता एवं नैसर्गिकता को दर्शाती है। हाँ एक कमी कुछ खलती भी है कि कविताएँ, लय, अलय, कविता, अकविता और कहीं कहीं छंदों से उलझती प्रतीत होती है।

          अस्तु! कवयित्री इस प्रथम प्रयास के लिए भूरि- भूरि श्लाघा की सुपात्रा हैं और शुभकामनाओं की भी। भविष्य में उनकी निहित संभावनाएँ प्रत्यक्ष रूप से उजागर होंगी - ऐसी हमारी आशा है।

सूरज के बीज (काव्य संग्रह) : कवयित्री : पूनम शुक्ला,
प्रकाशक : अनुभव प्रकाशन, ई- 28, लातपत नगर, साहिबाबाद,   
गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश) मूल्य : एक सौ पचास रुपए।

  

(हरियाणा साहित्य अकादमी की पत्रिका हरिगंधा में प्रकाशित )
समीक्षक- डा० चन्द्र भार्गव
सम्प्रति - कार्यकारी निदेशक क्षेत्रीय प्रबंधक, 
भारतीय जीवन बीमा निगम क्षेत्र दिल्ली
निदेशक ओ.सी.एफ.एल. नई दिल्ली

सम्पर्क 

मकान नं० 721, सेक्टर - 8, 
पंचकूला, हरियाणा,134109
मोबाईल - 9815321618



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