बलभद्र



अंटका  में पड़ल वसंत




गाँव के गाँव  सरसों  के पियर-पियर फूलन से घेरा गईल बा. हरियर हरियर के  ऊपर -ऊपर पियर-पियर. एह दूनो  रंग के ई आपसी   संजोग दूसर कौनो मौसम में  ना मिली. ई हरियर आ पियर   ऊपर से नइखे टपकल, बलुक धरती के भीतर  से  निकलल बा. अपने आप नाहीं. 
कुछे दिन पहिले  त धेला धमानी  रहे . एक रंग माटी के रंग. आ आज अनेक रंग, आ अनेक के ऊपर सरसों के रंगीनी. माटी  में आदमी आपन परान बो के साकार करेला अइसन रंग. कवनो खेत में  गेहूँ, कवनो में  जौव  , कवनो में तीसी, बूंट, मटर, कवनो-कवनो में. आ सब में  सरसों टपका-टपका. कवनो-कवनो में खाली सरसों. तब जा के पसरल बा सगरो  सउसे बधार में अइसन रंगीनी. कवनो  रंगरेज धरती के चुनरी रंग देले बा एह  रंग में. गावन के  घेर- घुरवेट देले बा. कुल आफत बिपत रहो बाहरे बाहर. धरती  हुलस रहल बिया. अपना अनेक रंग में हुलास बाँट रहल बिया.


                                   (चित्र:  गूगल के सौजन्य से) 


कतने गेहूँ जौव  में बाल निकल आइल बा.  माथ ऊच  कइले सोझ खड़ा कतने-कतने में बाल झांक रहल बा अबही. कतने-कतने थानन में भीतरे भीतर शुरू बा बाल के सिरजना. बाकी सरसों फुला चलल बा. हवा डोल रहल बा गवें-गवें. डोल रहल बा सरसों. गेहूँ आ  जौ डोल रहल बा. डोल रहल बा तीसी.  छोट -छोट  थान नील बरन फूल. नजदीक जाई  तनी.  मन मोह ली. नजर गडाई तनी. सुरुज के जोत में बिछिल जाई नजर. कुछ त अइसन बा एह जगत में की  बे  नगीच गइले ना लऊकी.... झूम रहल बा  खेत बधार. बड़ा लहरदार बा ई झूम, बड़ा लयदार. गेहूँ जौ के  टूंड कांच कोमल, आकाश ओर  उठल. धरती   के सिरजन के मधुर मोहक विस्फोट के गीतात्मक अभिव्यक्ति. हवा  में पाहि के पाहि हिलत. धरती  के  चूमें  के  कोशिश' फेरु आकाश देने  मुंह.


सरसों   के थान गेहूँ-जौ से बड़-बड़. कवनो-कवनो बरोबर. एकर फूल हरियरी के चुमत-छुवत. हरियर  के बीच पियर, माथ  प पियरी. बेटा-बेटी के बियाह में  लोग पियरी  पेन्हेला . बेटा-बेटी के जनम प नइहर से पियरी आवेला-- 'कहवा से आवेला पियरिया...'  गावल  जाला एगो गीत. 'छिटिया पहिर गोरी बिटिया त  बनि गइली. पियरी पहिन लरकोर...'  खेत बधार के ई रंग- गंठजोड़ के रंग  ह, सिरिजन के आ  उमंग-उल्लास के रंग ह. 


बाकी काहे  दू अतना रंगीनी के बादो मौसम कुछ फीका फीका लागत बा. बधार  अतना रंगीन, बाकिर   मन उदास. केकर नजर लागी गइल बा एह  मौसम पर की सब बेमजा हो रहल बा. मनोज तिवारी फेकर रहल बाडन जेने तेने कैसेट के जरिये. बाकिर आदमी के मन थिरकत नइखे, थिर होत जा रहल बा रोज-ब-रोज. गाँव  में चहक, चहल-पहल नइखे लऊकत. सहजनो में फूल  लऊके लागल. आम में मोजर. बाकिर  गाँव गली उदास, बइठका  सुनसान. साँझ खा ललटेन झंपात,  ढीबरी धुवात. अजबे किसिम के अंतर विरोध. अइसना में सरसों कतना दिन  ले आपन  रंग आ झूम बचा पाई.प्रकृति के   तरफ से जवन बसंत बा तवन लाख हेर फेर के बादो आ  गइल, अबकियो अपना समय पर. ऊ निर्बाध बा. प्रकृति  काम क रहल बिया आपन आ हमनी के बसंत रोज-रोज परत जा रहल बा अंटका में. ओकरा राहि में काँटे-काँट बिछत जा   रहल बा. के  हटाई एह काँट के. बसंत   के सामने के बाधा के  हटाई. ' 'केई निकाली मोरा अंगूरी के कांटवा, केई मोरा हरिहे दरदिया हो रामा....'   


पहिले बधार में आदमी  के रहब रहत रहे. बोअनी, जोतनी, कटनी, पिटनी के अलावे  लोग  सौख  से लोग  खेत घूमत  रहे. एह गाँव से ओह गाँव तक चल जात रहे. आर-डडार पर बइठ बोल  बतिया ले रहे. हितो-नाता के लोग ले जात रहे खेते बधारे.  अब त ई साइते कतो मिली. बोअनी के सीजन में, खा कर के रब्बी के सीजन  में 'हरियर  हरियर बधार महादेव' के गूँज सांझ बेरा बेसुनइले ना रहत रहे. आज  त बधार हरियर पियर जरूर बा. बाकिर ए हरीयरी आ पियरी पर बेरोजगारी, महगाई आ  भ्रष्टाचार  के जबरदस्त  मार परि रहल बा. खेती में कवनो  मजा आ भविष्य नइखे रहि गइल.                


खाद तरह-तरह के,  दवाई तरह-तरह के बीया-बाल.  देखे के बात बा की सरसों फुलाइल त बा, बाकिर नइखी स लउकत मधुमाछी.  ओहनी के गुनगुन नइखे सुनात.  पंडुक महाराज बोल-बोल के थाकी गइल बाड़े. केहू उनका संगे नइखे. चिरइयन के बोली के नक़ल उतारे वाला नइखे. कोइलर के 'कू' के संगे लइका पहिले बिना 'कू' कइले ना रहत रहले. नन्ही-नन्ही चिरई जवन ढेला-ढमानी आ आर-मेड़ त दुबकल रहत रहीं स, बहुते कम लउकत बाडी स. प्रकृतियो के तरफ से वसंत आज खतरा में बा.  हे भाई, गड़बड़ा जाई हमनी के रंग-विवेक,  ढंग-विवेक. शर्ट-पैंट आ बाजारू सामान के रंग से कबो नहीं सुतरी वसंत.         


सँउसे बधार में सीजन पर एगो नाहीं लउकी हर बैल.  नाद- चरन गायब बा. भूसा-भुसहुल सब गायबे के कगार पर बा. ट्रेक्टर दउर रहल बा खेत में. बाबा हमार कहत रहलें की जवना खेत के कोन नइखे कोड़ात ऊ खेती ना कर सके. पकिया किसान कोन में कुदारी जरूर चलाई. हर फार ना पहुच पावे कोना में. ट्रेक्टरों ना. आज बहुते खेतन के कोना परती रहत बा. कुदारी नइखे चलत. बीया नइखे पंहुचत. महेंदर शास्त्री लिखले बाडन  - 'कोना ना लागल बा हरवा हो/तनि दिह कुदार'   अइसहीं जिनगी में आ समाज में कतने कुलही कोना अंतरा रहेला, जहवा नजर फेरल जरूरी होला. ऊ सब आजू छुटत जा रहल बा. माल कल्चर पसर रहल बा. एकर मार सगरो पसरि रहल बा. ई कल्चर हमनीं के जिनिगी के कोना अंतरा में, समाज के कोना अंतरा में अन्हार हो रहल बा. मस्ती के नांव पर आत्महीनता बा. खोखलापन.



                                                         (चित्र:  गूगल के सौजन्य से) 


वसंत अब टी वी चैनलन के जरिये उतारल जा रहल बा. घर-घर पहुँचावल जा रहल बा. फूहड़ बसंत, भडुवा वसंत, दलाल- कमीशनखोर वसंत. 'नकबेसर कागा ले भागा/ सइयाँ अभागा ना जागा.' वाला सहजता समाप्त. मान मनुहार समाप्त. अब 'नकबेसर कागा ले भागा'  पर कवनो शिकवा शिकायत ना. सइयाँ से जागे के उमेद मिटा देवे के पूरा तैयारी. लइकी-मेहरारू के लाँगट-उघार सरेराह करे वाला वसंत नेवतल जा रहल बा. ई थैलीशाहन के वसंत ह. हमनी के ना. एकर काट जरूरी बा. हमनी के वसंत गोलबंदी  के गूँज वाला वसंत ह. मेहनत के रंग वाला. तीसी के, सरसों के, बूँट-मटर-मसुरी के नेह नाता के. एकरा पीछे बा संघर्ष के एगो लमहर पृष्ठभूमि.  ई एगो निष्कर्ष के साथे -साथ पूरा एगो प्रक्रिया ह. झंउसा देबे वाली गरमी, धारदार बरसात आ कंपा देबे वाला जाड़.  तीनो के समिलात उछाह ह वसंत. एकरा के रचे आ पावे के तरफ बढ़ल जरूरी बा. राह एकर निर्बाध कइल बहुत जरूरी बा. प्रकृति के वसंत के साथे हमनी के वसंत तबे एकमेक हो पाई. एके रंग में रंगाए के निश्छल एगो अभिव्यक्ति  ह वसंत.  'ए रंगरेजवा बलमू के इयारावा/ एके रंगे रंग दे/  हमरी चुनरिया आ पीया के पगरिया/ एके रंगे रंग दे.'   एह मौसम में खेत खरिहान गाँव-बिरिछ अतना रंगीन, आ आदमी के मन अतना ग़मगीन. आदमी के मुश्किल जब ले हल ना होई, वसंत ओकर संभव आ साकार ना होई. प्रकृति आ आदमी के वसंत तबे एकमेक हो पाई. एगो सम्पूर्ण आ सार्थक बसंत तबे धरती पर उतर पाई.



(युवा कवि एवं आलोचक बलभद्र झारखण्ड के गिरिडीह कालेज गिरिडीह में हिंदी के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं.)


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टिप्पणियाँ

  1. सभी कवियो व लेखकों को हिन्दी साहित्य में योगदान हेतु बहुत बहुत बधाई...

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  2. बोली में लिखा एक मनोहारी ललित निबन्ध भाई बलभद्र जी तोहरा के अ भाई संतोष जी के बहुत बहुत बधाई अ शुभकामना

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