विष्णु खरे पर स्वप्निल श्रीवास्तव का आलेख 'विचार–विमर्श के परिक्षेत्र'
विष्णु खरे |
विष्णु खरे हिंदी
साहित्य के कुछ ऐसे विरल कवियों में से रहे हैं जो अपनी से बेबाक बयानी के
लिए जाने गए। विष्णु जी ने शहरी जीवन की कुछ ऐसी विरल कविताएं लिखीं
जो उन्हीं के विट का कवि लिख सकता था। वे न केवल अपनी कविता बल्कि अपने
गद्य, विशेष तौर पर सिनेमा पर लेखन के लिए जाने गए। पिछले साल 19 सितंबर को
विष्णु जी का निधन हो गया। कवि स्वप्निल श्रीवास्तव ने काफी पहले उन पर एक
आलेख लिखा था जो विष्णु जी की नजर में भी आया था। विष्णु जी को सुखद
आश्चर्य हुआ था कि कोई उनकी बाद की पीढ़ी का कवि उनकी कविताओं को इस तरह से
देखता है। आज पहली बार प्रस्तुत है विष्णु खरे पर स्वप्निल श्रीवास्तव का
लिखा आलेख 'विचार विमर्श के परीक्षित परिक्षेत्र'।
विचार–विमर्श के परिक्षेत्र
स्वप्निल श्रीवास्तव
विष्णु खरे विरल अनुभव के कवि हैं। इसलिए हिन्दी कविता में उनकी
उपस्थिति अलग हैं। उन्हें पसंद करने वालों से ज्यादा नापसंद करने वालों की तादाद हैं। उनकी कविताएँ परम्परागत नहीं हैं। बल्कि वे जोखिम उठा कर कविताएँ
लिखते हैं। विष्णु खरे छोटी कविताओं के कवि नहीं हैं। वे लम्बी कविताओं के पथिक हैं।
उन्हें पढते हुए सहज ही मुक्तिबोध की याद आती हैं। मुक्तिबोध लम्बी कविताओं के कवि
हैं। कविता लिखना उनका कौतुक नहीं था। वे लम्बी कविता लिखने के लिए श्रम करते थे। वे महीनों किसी कविता पर काम करते थे।
इस सम्बंध में उनके बारे में कई किवदंतियां प्रचलित हैं। मुक्तिबोध ने अभिव्यक्ति
के खतरे उठाये, हिन्दी के मठ और गढ़ को तोडा। कुछ इसी तरह की टूट–फूट विष्णु
खरे भी करते हैं। हम जानते हैं कि विष्णु
खरे कवि भर नहीं हैं। वे एक मजबूत आलोचक हैं। उनकी आलोचना
से लोग नाराज हो जाते हैं। अभी कुछ साल पहले उन्होने भारत भूषण अग्रवाल
की सनद प्राप्त कवियों पर लिखा था और
आलोचना के गुंग महल में खूब हंगामा हुआ। उस लेख में जो संवाद उठाया गया वह विवाद
में बदल गया। हम सब कवियों के कान प्रशंसा सुनने के अभ्यस्त हो चले हैं। तारीफ एक ऐसा
जहर है जो कविता की धमनियों में फैल कर काव्यात्मक उर्जा को नष्ट कर देता है। इसके
अतिरिक्त वे एक अच्छे अनुवादक हैं। अंतिला योझेफ, मिक्लोश
राद्नोती जैसे विश्व
प्रसिद्ध कवियों के अनुवाद हिन्दी में किये। कालेवाला (फिनी
राष्ट्रकाव्य) के अनुवाद के लिए उन्हे सम्म्मान मिला। वे कई
समाचारों के सम्पादक रहे और खबरों की दुनिया से जुडे रहे। फिल्मों में उनकी स्पी दिलचस्पी
सर्वविदित हैं। जब हम किसी कवि के बारे में
लिखते या सोचते हैं, तो हमे उनके
उदगम स्थलों के बारे में जरूर जानना चाहिए। कविताओं के लिए कच्चा माल किस
परिक्षेत्र से आता है।
मुक्तिबोध की तरह उनकी कविता के केंद्र में निम्न
मध्यवर्गीय समाज और उनके दुख-सुख और
बिडम्बनाएँ हैं। मुक्तिबोध के समय का मध्य वर्ग विष्णु खरे का मध्य
वर्ग नहीं रह
गया है। सन् 1991 के उदारीकरण के बाद उसकी स्थिति और परिस्थिति बदल गयी है, वह विशद हो
गया है। राजनयिक पवन वर्मा इस सम्वर्ग को ग्रेट
मिडिल क्लास कहते हैं। यह सम्वर्ग बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के निशाने पर
है। यह मध्य वर्ग महानगरों में रहता है और विभिन्न तरह की यातनाएँ सहता है।
इस संख्या में मूल–निवासी और
कस्बों और छोटे शहरों से रोजी-रोटी कमाने
के लिए आए हुए लोग हैं। इनकी यंत्रणाएँ दारूण हैं। उन्हें नौकरी और मकान बदलने पड़ते
हैं। विष्णु खरे के संग्रह सबकी
आवाज के पर्दे में इस तरह के
लोगो के दुख के बारे में कविताएँ
सम्मिलित हैं।
इस संग्रह की पहली कविता बंगले
है। बंगले घर
नहीं होते, उनकी अलग संस्कृति होती है। उसमें रहने वालों की
दिनचर्या भिन्न होती है। इस कविता में एक वाक्य है जो बंगलों की भव्यता को नष्ट कर
देता है। जैसे
इन बंगलों मे किसी औरत को किसी मर्द का इंतजार करते नहीं
देखा गया है या
अजीब मामला है वह सोचता है
कोई दिखता नहीं
कोई बोलता नहीं
कोई दाखिल नहीं होता कोई बाहर नहीं जाता
फिर वहाँ होता क्या है।
इन महानगरों में मकान बदलने की यातना
अलग है। उनकी कविता जो टेम्पो में घर बदलते हैं
यादगार कविता
है। टेम्पो में घर बदलने की
यातना वही समझ सकता है जिसने खुद यह काम किया हो। यह दृश्य कविता है।
उसके एक एक विवरण वास्तविक हैं। एक वाक्यांश देंखे,
देखने में कितना छोटा दिखता है टेम्पो
लेकिन पांच प्राणियों की गिरस्ती खुद उनके समेत
कितने करीने से आ जाती है उसमे और फिर भी
पीछे घर के एकाध बुजुर्ग और टेम्पो वालों के
दो तीन मजदूरों के बैठने की जगह निकल आती है
महानगरों में मकान बनवाना एक बड़ी समस्या है। लेकिन
मकान बनने के बाद परिवार के सदस्यों और आने वाले परिजनो
के लिए अलग जगह नहीं होती। अचानक किसी के
आने से असुविधा होती है। दिल्ली में अपना फ्लेट
बनवा लेने के बाद एक आदमी सोचता है
कविता इन्ही
तकलीफों को बयान करती है जो फ्लेट बनवा लेने के बाद जिंदगी में बची हुई है
–
लेकिन वह जानता है कि हर आदमी का घर
अक्सर एक बार ही होता है जीवन में
और उसका जो घर था
वह चालीस वर्षो और चार मौतों के पहले था
कई मजबूरियों
और मेहरबानियों से बना यह घर
और शायद बसा भी है
इस कविता को पढ़ कर मुझे किसी लेखक का उद्धरण याद
आता है जिसमें कहा गया था : आदमी के दो घर होते हैं,
एक में वह पैदा होता है और दूसरा ढ़ूढ़ना पड़ता है। दुनिया घर
और घरविहीनता की कथाओं से भरी हुई है। विस्थापन इस सदी की मुख्य समस्या है। लेकिन गांव से शहर की
ओर जीविका की खोज में आना भी एक तरह का विस्थापन
है। मध्य वर्ग की इस ट्रेजिडी को विष्णु खरे की कविताओं को पढ़ कर समझा सकते हैं। उनके
ब्योरों जो करूणा दिखाई देती है वह
अन्यत्र दुर्लभ हैं। महानगरों में कुछ ऐसे जिद्दी लोग हैं जो पार्क के
पेड़ के नीचे बनाते हैं। वे सम्भ्रात
कालोनी की कुलीनता और बैभव को चुनौती देते रहते हैं। लगभग हर बड़े शहरों में ये
दृश्य आम हैं। ये मनुष्य की जिजीविषा के प्रतीक
हैं।
प्राय; महानगरों के
नामवर कवि शहर के आधुनिक दृश्य को अपनी कविताओं में लाते हैं। लेकिन बाहर से आये
मजदूरों और मजलूमों के दुख और दारिद्य से बेजार हैं जबकि उनकी संख्या महानगरों की
जनसंख्या की आधी है। ये वही लोग है जो शहर
का चेहरा चमकाते हैं। उसे खूबसूरत बनाते हैं और खुद बदसूरत हालत में रहते हैं। ये छत्तीसगढ़, बिहार और
पूर्वी उ. प्र. के आये हुए
मजदूर हैं, जो बडी
इमारतों के आसपास बदनुमा शक्ल में उगे हुए हैं। देश के
कर्णधार इधर से गुजरते है,
उनके चेहरे
पर कोई शिकन नहीं दिखाई देती। लेकिन अगर उस शहर का कवि इस मंजर को नजर अंदाज कर जाता है तो उसकी
सम्वेदना पर शक होता है। विष्णु खरे की
कतिपय कविताएँ इन्हीं लोगों को लक्ष्य कर के लिखी गयी है। लोक गांवो में नहीं शहरों में हैं।
इसलिए लोक को गांव तक सीमित कर के देखना
उचित नहीं होगा।
मिथक और आख्यान विष्णु खरे के पसंदीदा विषय रहे हैं। लेकिन जब उनकी कविता में आते है तो उसे वे आज के समय से जोड़ते हैं। उनकी मिथकीय कविताएँ तत्कालीन समाज की विडम्बनाओं को नयी अर्थवत्ता देती हैं। महाभारत के प्रसंगो पर उनकी तीन कविताएँ उल्लेखनीय हैं। द्रोपदी के बारे में 'कृष्ण', 'लापता', 'अज्ञातवास', 'अंतत:' पर चर्चा की जा सकती हैं। द्रोपदी के बारे में कृष्ण कविता एक तरह से कृष्ण की आत्मस्वीकृति है। कृष्ण मथुरा से द्वारिका आ बसे हैं। उनके पास युद्ध की ह्र्दयविगलित करने वाली स्मृतियां हैं, उसके साथ पछतावे हैं। उनके पास सत्ता है। वे कहते हैं
किंतु तुम्हे नहीं मालूम होगा और मुझे भी नहीं
कि न जाने क्यों वर्षो से विस्मृत बांसुरी और उस पर आती
राधा का
अचानक स्मरण करता
हुआ।
सोचिए आखिर एक विजेता राजा के पास क्या बचता है?
विधवाएँ,
अनाथ बच्चे, विकलांग
नागरिक और तमाम अनुत्तरित प्रश्न। कृष्ण इसके अपवाद नहीं थे। मिथक
बताते हैं कि राज्याध्यक्ष होने के पहले अपने बचपन और युवा दिनों में जितने सुखी
थे, उतना वे राज्यसिंहासन पर बैठने के बाद नहीं
हुए। सत्ता
मनुष्य के मूल चरित्र को बदल देती है।
लापता
विष्णु खरे की विलक्षण कविता है। यह उन सैनिकों के बारे में है,
जो महाभारत
के युद्ध में लापता हो गये हैं। इनकी संख्या मामूली नहीं है। ये 24165
के आसपास थे।
भले ही इन लोगो ने युद्ध में विजय के लिए मुख्य भूमिका निभाई हो लेकिन वे इतिहास
में दर्ज नहीं हो सकते। इतिहास में शामिल होने की कुछ निर्धारित योग्यता है। इस
कविता में विष्णु खरे कहते हैं
लेकिन इतिहास में दर्ज होने के लिए
आपका जीवित या मृत पाया जाना अनिवार्य सा है।
जो लापता है उनका कोई उल्लेख नहीं होता।
जब दुनिया अस्तित्व में आयी युद्ध अनिवार्य होते
चले गये। भले ही महाभारत काल में युद्ध के नियम रहे हो। आज के समय बिना नियम के
लड़े जाते हैं। युद्ध क्रूर और भयावह होते
गये। युद्ध के बाद कोई राजाध्यक्ष कृष्ण
की तरह नहीं पछताता। अब युद्ध में सम्वेदना और
करूणा का कोई काम नहीं। इस सम्बंध में मुक्तिबोध की कहानी क्लाड
ईथरली की याद बेशाख्ता आती हैं। जब हिरोशिमा में बम गिराने के बाद
विमान-चालक क्लाड ईथरली पागल हो गया था। अब कोई पागल होने को तैयार नहीं
है।
युद्ध और
हिंसा को राष्ट्रीय स्वीकृति मिल गयी है।
वाल्टर बेंजामिन ने कहा था – हिटलर ने राजनीति
का सौंदर्यीकरण कर दिया है। राजसत्ताएँ अपने ढंग से
यह काम करती हैं। हिटलर और मुसोलिनी रोल माडल के रूप
में विकसित किए जा रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयम सेवक जैसे संगठन तो हिटलर
को अपना नायक मानता हैं। हिटलर ने कहा था मुझे टेस्ट बुक बदलने दो मैं राज्य को बदल दूंगा। इसे हम अपने सामने होते देख रहे हैं। देश में जितनी सांस्कृतिक संस्थाएँ और संगठन हैं
उसमें मूलभूत परिवर्तन किये जा रहे हैं। हम यह
भी जानते है कि जनता का
दिमाग बदलने के लिए करोड़ो डालर खर्च किये जाते हैं। इस बात को
कहने के पीछे मैं विष्णु खरे की कविता हिटलर की वापसी
का उल्लेख करना चाहता हूँहूँ। यह कविता 1994 के पहले लिखी
गयी थी । 1991 में बाबरी
मस्जिद का ध्वंस हुआ था और फिर बंबई का दंगा। बाबरी ध्वंस के बाद देश की
राजनीति बदल गयी थी। दो वर्गो के बीच स्पष्ट विभाजन हो गया था। बी
जे
पी का आक्रामक रूप
हमारे सामने था। राजनीति का चेहरा हिंसक होता चला गया था। यह उन्माद का समय
था। हिटलर की वापसी कविता पढ़ते समय ऐसा
लगता कि जैसे यह कविता अभी लिखी गयी हो। कुछ पंक्तियां देंखे
हिटलर की वापसी अब
एक राष्ट्र्व्यापी भारी उद्योग है
जिसमें मोटर गाडीयां बनाने वालों से ले कर
नुक्कड़ पर नानबाई की दुकान वाले तक को कुछ न कुछ मिलना है।
1994 के पहले लिखी
गई इस कविता में आने वाले समय की आहटे
दिखाई दे रही थी। यह पूरी कविता पठनीय है। मई 2014 के बाद भारत
की राजनीति में जो कुछ घटित हो रहा है, वह इस कविता
में पहले से दर्ज हो गया था।
उनकी एक महत्वपूर्ण कविता है शिविर में शिशु
यह कविता उन शिशुओं
के सम्बंध में है
जो दंगो के बाद कुछ हप्तों में राहत
शिविर में पैदा हुए
हैं। वे इन बच्चों
को ले कर कई तरह के सवाल उठाते हैं। इस
कविता को एक सांस में पढ़ना कठिन
है। इस कविता में कवि की
सम्वेदना उत्कट रूप में प्रकट
हुई है।
भारतीय राजनीतिज्ञों पर उनकी कविताएँ अत्यंत दिलचस्प हैं। नेहरू-गांधी परिवार से
मेरे रिश्ते एक प्रकरण
: दो प्रस्तावित कविता प्रारूप, यह कविता
नरसिंह राव तथा सिला कविता अर्जुन सिंह पर केंद्रित है। ये कविताएँ इन राजनेताओ
के जीवन की मुख्य और विवादित घटनाओ की बानगी प्रस्तुत करती हैं। नेहरू-गांधी परिवार
कविता में
वे गांधी
नेहरू परिवार के लोगो से अपने मिलने का जिक्र करते हैं। साथ वे यह भी कहते हैं—
सच तो यह
है कि नेहरू
के बाद
उनके बदले हुए परिवार के
साथ
उतना भावुकता भरा
सम्बंध महसूस कर
पाना
मेरे लिए कभी
सम्भव न रहा।
नेहरू के बाद भारतीय राजनीतिक स्वरूप बदलने लगा था। नेहरू के समाजवाद
का मुलम्मा उतर चुका था। चीन और पाकिस्तान के युद्ध में कई तरह के विभ्रम टूट चुके थे।
नेहरू के बाद इंदिरा गांधी ने जिस तरह के
राजनीति की शुरूआत की उसमें तानाशाही के
तत्व थे।
नरसिंह राव पर विष्णु खरे ने तबियत से लिखी है।
यह कविता नरसिंह राव पर एक अभियोग
की तरह चलती है। नरसिंह राव की छवि एक बौद्धिक राजनेता की तरह थी लेकिन
उनके जीवन में गहरे अंतर्विरोध थे। ये विद्रूप राजनीति में परिलक्षित होती है। बाबरी मस्जिद के
ध्वंस में उनकी चुप्पी कई सवाल उठाती है। उनके ऊपर ऐसे कई
आरोप हैं। कई संदिग्ध लोगो से उनकी नजदीकी थी। वे प्रसिद्ध तांत्रिक
चंद्रा स्वामी के काफी निकट रहे हैं। इस
कविता में विष्णु खरे आक्रामक हैं-
ये आरोप इतने संगीन
हैं नरसिंह राव
कि इन्हे लगाते दिमाग से खून बहने लगता है
लेकिन तुम्हारे
पास इसका कोई बचाव
नहीं है
तुम्हे कभी चाहिए
था अपना जुर्म कुबूल कर लेना
और खुद को
हवाले कर देना।
नरसिंह राव का समय भारतीय राजनीति का निर्णायक
समय था। उनके समय में मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे। उसी समय उदारीकरण
की शुरूआत हुई थी। अभी आयी विनय सेनापति की पुस्तक हाफ
लायन-हाऊ पी. वी. नरसिंहा राव ट्रांसफोर्म इंडिया में नरसिंहा
राव की अलग तस्वीर प्रस्तुत की
गयी है।
लेकिन जब वे
अर्जुन सिंह पर लिखते हैं तो तनिक
उदार हो जाते हैं।
इसमें संदेह नहीं
कि वे नरसिंह राव से बेहतर राजनेता
थे। साहित्य और संस्कृति के
क्षेत्र में उन्होने उल्लेखनीय काम किये हैं।
लेखको और कवियों के
साथ उनके बेहतर रिश्ते थे उनके
भीतर सम्वेदना थी। और यह ऐसा
दुर्गुण है जिसकी राजनीति में कोई जरूरत नहीं हैं। वे
इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के नजदीक
थे लेकिन सोनिया गांधी
से अपने रिश्ते साध
नहीं सके। वे प्रधान मंत्री के
प्रबल दावेदार थे लेकिन उनकी राजनीतिक
प्रतिभा मानव – संसाधन मंत्री तक
महदूद रही। विष्णु खरे
ने सिला कविता में उनके लिए लिखा है।
अपनी त्रासदी पहचानो अर्जुन सिंह
सिर्फ वफादारी काफी
नहीं है
पूरी तरह से मौन बिछना
पड़ता है
तुम कहते हो
तुम किसी
के आदमी नहीं
तभी किसी सिकंदर की
सिफारिस पर तुम
नहीं रखे गये
कुछ मूल्यों के प्रति
तुम्हारे जैसे समपर्ण से चौतरफा आतंक पैदा
होता है (सिला)
विष्णु खरे की पारिवारिक कविताएँ मुझे ज्यादा पसंद हैं।
इन कविताओं में वे स्वाभाविक लगते हैं।
उनकी गहरी रागात्मकता को देखना है तो इन कविताओं को पढ़ जाना चाहिए। उनकी कविताओं
में मां, पिता, बुआ, भाई की सतत
उपस्थिति हैं। उदाहरण के लिए चौथे भाई के बारे
में कविता में कविता
में उस भाई का जिक्र है जिसकी असमय मृत्यु
हो जाती है। यह कविता एक तरह से श्रद्धांजलि है।
पृथक
छत्तीसगढ़ राज्य कविता में
छिंदवाडा की स्मृतियों
चटख रूप में सामने आती
हैं। यह कविता उस क्षेत्र विशेष के भूगोल के बारे में हैं।
यह कविता में तमाम तरह के
विवरण हैं। अन्य कवियों की तरह उनकी कविताओं में पिता आते
हैं। 1991 के
एक दिन कविता की कुछ पंक्तियां देंखे।
1967 से
मैं मां से बड़ा
हो रहा हूँ
1991 में अपने
पिता से
लेकिन मुझे यकीन हो
चुका है कि हमारी
उम्र
माता पिता के
सामने कहीं रूक जाती
है।
विष्णु खरे कहीं कहीं अपनी बात खिलंदड़पन के साथ कहते
हैं। यह दृश्य उनकी कविता किसलिए में मौजूद है। वे कहते हैं कि बाबू
ऐसा हँसते भी हैं
कि ऊंघते मुसाफिर चौंक पड़े। इस कविता का अंत अदभुत हैं।
ईश्वर अपने जीवन की उस
सबसे खुश शाम को मैं सो गया
और सोया तो जागा किसलिए।
सघन स्मृति का यह
संसार उनकी अनेक कविताओं में
मिलता है। जैसे वृक्ष अपने जड़ों से अलग हो
कर सूख जाता है। उसी तरह से कवि की
भी स्थिति होती हैं।
छोटे शहरो और कस्बे से महानगरों में आये हुए कवियों की यही ट्रेजिडी है कि वे सबसे पहले
अपनी आरम्भिक स्मृतियों से विदा ले लेते हैं। उनका संसार बदल जाता है। विष्णु खरे इसके अपवाद हैं।
कवि मित्र विजय कुमार ने विष्णु खरे को तफसीलों
का कवि कहा था। उनकी
इस बात से सहमत होते हुए मैं उन्हे विचार–विमर्श का
कवि भी मानता हूँ। उनके अनुभव का
क्षेत्र व्यापक हैं। इसमें जीवन और समाज के लम्बे लम्बे विवरण हैं।
इन्हे व्यक्त करने के लिए वे बिम्ब और प्रतीकों से
बचने की कोशिश करते हैं। विष्णु खरे की कविताएँ हमारे सामने समाजशास्त्रीय
व्याख्याएँ प्रस्तुत करती हैं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण उनकी कविता – हर शहर में एक बदनाम औरत रहती है है। यह कविता
स्त्री के विरोध की कविता नहीं है बल्कि उसके पक्ष को जानने की कविता है। यह कविता उस
समाज की भी कविता है जो एक स्त्री
को उपयोग की वस्तु बनाता है। कवि
का अवलोकन विलक्षण है। मनुष्य के भीतर स्त्री
को लेकर जो ग्रंथि है, उसके सोचने का जो नजरिया है, वह इस कविता में
अभिव्यक्त हुआ है।
अगर हर फुर्सत में
एक नई
औरत को हसिल करना
अधिकांश मर्दों की
चरम फंतासी है
तो बदनाम औरत
भी क्यों न सोचे
कि अलग अलग या एक
ही वक्फे में कई मर्दो की
सोहबत भी
एक शगल और एक लीला है।
स्त्री के जीवन और
मनोविज्ञान को समझने के लिए उनकी – लड़कियों के बाप, हमारी पत्नियां, बेटी, वृन्द्रावन की विधवाएँ तथा शिवांगी
जैसी कविताएँ पढ़ी जा
सकती हैं।
विष्णु खरे की कविताओं के ले
कर अक्सर
पठनीयता के सवाल
उठाये जाते हैं। यह
केवल विष्णु खरे की कविताओं की नहीं यह हिन्दी के पाठको की
मूल समस्या हैं। इस संदर्भ
में मुझे प्रसिद्ध चित्रकार वान गाग के अपने
मित्र थियो को लिखे गये पत्र की याद आती है।
वान गाग ने
लिखा है –
हमें
पढ़ना सीखना चाहिए, वैसे ही
जैसे हम देखना
सीखते हैं। जीवन जीने
की कला यही
हैं।
लेकिन हमारे लिए तो ज्यादा सुविधाजनक है कि आसानी
से कह दे कि हमे अमुक की कविताएँ समझ में नहीं
आती। लेकिन अगर हम विष्णु खरे की कविता के नैरेटिव में उनके तंज और विनोदप्रियता का लुत्फ लेते हुए उनकी कविता के समय
में दाखिल हो तो यह आरोप निराधार हो सकता है। कविता केवल समाचार नहीं है उसकी
अपनी स्वाधीनता भी हैं। किसी
कवि को पढते हुए यह उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए कि उसका लिखा हुआ सब कुछ सर्वश्रेष्ठ है। कहीं
न कहीं कुछ स्पेस छूट जाते हैं। उस स्पेस को हिन्दीहिन्दी के कई कवि उनकी
अंदाजे-बयां की तर्जुमा करते हुए भरते रहते हैं। जहां
अनुभव चुक जाते हैं, वहाँ शब्दों की
बाजीगरी से काम
चलाने वाले कवि कम नहीं
हैं।
सम्पर्क :
स्वप्निल श्रीवास्तव
510, अवधपुरी कालोनी – अमानीगंज
फैजाबाद – 224001
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