महेश चंद्र पुनेठा का आलेख 'शिक्षा और मनोविज्ञान की भी गहरी समझ रखते थे मुक्तिबोध'

मुक्तिबोध
अपने एक वक्तव्य के दौरान एक दफे नामवर सिंह ने कहा था - 'जो युग जितना ही आत्म-सजग होता है उसके मूल्यांकन का काम उतना ही कठिन हो जाता है।' इस वक्तव्य में युग की जगह अगर रचनाकार कर दिया जाए तो मुक्तिबोध के मूल्यांकन के संदर्भ में यह एक सर्वथा उपयुक्त वक्तव्य होगा। ध्यातव्य है कि मुक्तिबोध रचनाकार होने के साथ-साथ एक शिक्षक भी थे। इन नाते वे अपनी भूमिकाओं से अच्छी तरह वाकिफ थेवस्तुतः शिक्षा और मनोविज्ञान का रचना के साथ चोली दामन का सम्बन्ध है। स्पष्ट तौर पर कहें तो शिक्षा और मनोविज्ञान की गहरी समझ रखने वाला व्यक्ति ही अपनी रचनाओं के साथ ईमानदारी बरत पाता है। मुक्तिबोध की रचनाओं में अगर यह है तो उसके पीछे उनके शिक्षा के इस समझ की बड़ी भूमिका है। उनकी रचना में 'ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान' की बात इन्हीं सन्दर्भों में आती है कवि महेश चन्द्र पुनेठा भी एक सजग शिक्षक हैं और इन दिनों 'दीवार' पत्रिका के माध्यम से शैक्षणिक क्षेत्र में विद्यार्थियों की अधिकाधिक भागीदारी के लिए के लिए ईमानदारी से सामूहिक तौर पर प्रयासरत हैं। महेश पुनेठा ने अपने एक आलेख में मुक्तिबोध के शैक्षणिक आयाम को समझने की महत्वपूर्ण कोशिश की है। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं महेश चन्द्र पुनेठा का आलेख 'शिक्षा और मनोविज्ञान की भी गहरी समझ रखते थे मुक्तिबोध'      

शिक्षा और मनोविज्ञान की भी गहरी समझ रखते थे मुक्तिबोध

महेश चंद्र पुनेठा

ज्ञान को ले कर बहुत भ्रम हैं। सामान्यतः सूचना, जानकारी या तथ्यों को ही ज्ञान मान लिया जाता है। इनको याद कर लेना ज्ञानी हो जाना। इस अवधारणा के अनुसार एक ज्ञान प्रदानकर्त्ता है तो दूसरा प्राप्तकर्ता, जिसे पाओले फ्रेरे बैंकिंग प्रणालीकहते हैं। इसमें शिक्षक जमाकर्ता और विद्यार्थी का मस्तिष्क बैंक की भूमिका में होता है। शिक्षक बच्चे के मस्तिष्क रूपी बैंक में सूचना-जानकारी या तथ्य रूपी धन को लगातार जमा करता जाता है। वह इस बात की परवाह नहीं करता है कि उसे लेने के लिए बच्चा तैयार है या नहीं। शिक्षक द्वारा कही बात ही अंतिम मानी जाती है। दरअसल यह ज्ञान की बहुत पुरानी अवधारणा है। यह तब की है जब शिक्षा की मौखिक परंपरा हुआ करती थी। सूचना, जानकारी या तथ्यों को रखने का रटने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता था। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक इनके हस्तांतरण का यही एकमात्र उपाय हुआ करता था। जो जितनी अधिक सूचना, जानकारी या तथ्यों को याद रख पाता था वह उतना ही अधिक ज्ञानी माना जाता था। ज्ञान का यह सीमित और आधा अधूरा अर्थ है। वस्तुतः जो लिया या दिया जाता है वह ज्ञान न हो कर केवल सूचना या जानकारी है।

ज्ञान कभी दिया नहीं जा सकता है। ज्ञान का तो निर्माण या सृजन होता है। इसलिए आप दूसरों को सूचना या जानकारी तो दे सकते हैं ज्ञान नहीं। ज्ञान के साथ बोध का गहरा सम्बन्ध है। ज्ञान निर्माण की एक पूरी प्रक्रिया है, जो अवलोकन, प्रयोग-परीक्षण, विष्लेशण से होती हुई निष्कर्ष तक पहुंचती है। ज्ञान द्वंद्व और संश्लेषण से उत्पन्न होता है। अनुभवों और तर्कों की उसमें विशेष भूमिका रहती है। यह माना जाता है कि मनुष्य की सारी अवधारणाएं उनके अपने अनुभवों के आधार पर बनती हैं। शिक्षा में यह ज्ञान की यह अवधारणा रचनात्मकतावाद के नाम से जानी जाती है, जो अपेक्षाकृत नई मानी जाती है। भारतीय शिक्षा में इस अवधारणा की गूंज बीसवीं सदी के अंतिम दशक से सुनाई देना प्रारम्भ होती है। लेकिन मुक्तिबोध ज्ञान को ले कर इस तरह की बातें पांचवे दशक में लिखे अपने निबंधों में कहने लगे थे। ज्ञान, बोध, सृजनशीलता, सीखने जैसी अवधारणाओं को ले कर उनके निबंधों में बहुत सारी बातें मिलती हैं। मुक्तिबोध ज्ञान और जानकारी के बीच के इस अंतर को स्पष्ट करते हैं। भले ही उनकी यह बात सीखने की प्रक्रिया के सन्दर्भ नहीं बल्कि रचना-प्रक्रिया के सन्दर्भ में आती है। लेकिन सीखने की प्रक्रिया के सन्दर्भ में भी वह सटीक बैठती है। 

मुक्तिबोध ज्ञान के विकास के बारे में कहते हैं- ‘‘बुद्धि स्वयं अनुभूत विशिष्टों का सामान्यीकरण करती हुई हमें जो ज्ञान प्रस्तुत करती है,  उस ज्ञान में निबद्ध स्वसे ऊपर उठने, अपने से तटस्थ रहने, जो है उसे अनुमान के आधार पर और भी विस्तृत करने की होती है। ..... ज्ञान व्यवस्था ... जीवानुनभवों और तर्कसंगत निष्कर्षों और परिणामों के आधार पर होती है। .....तर्कसंगत (और अनुभव सिद्ध) निष्कर्षों तथा परिणामों के आधार पर, हम अपनी ज्ञान-व्यवस्था, तथा उस ज्ञान-व्यवस्था के आधार पर अपनी भाव-व्यवस्था, विकसित  करते हैं। .....बोध और ज्ञान द्वारा ही ये अनुभव परिमार्जित होते हैं, यानी पूर्व-प्राप्त ज्ञान द्वारा मूल्यांकित और विश्लेषित हो कर, प्रांजल हो कर,  अंतःकरण में व्याख्यात हो कर, व्यवस्था-बद्ध होते जाते हैं।’’ वह पुराने ज्ञान में नवीन ज्ञान को जोड़कर सिद्धान्त व्यवस्था का विकास करने की बात करते हैं। यहीं पर द्वंद्व और संश्लेषण की प्रक्रिया चलती है। उनके लिए ज्ञान का अर्थ केवल वैज्ञानिक उपलब्धियों का बोध नहीं, वरन् उत्थानशील और ह्रासशील शक्तियों का बोध भी है। .....ज्ञान भी एक तरह का अनुभव है, या तो वह हमारा अनुभव है या दूसरों का। इस लिए वे ज्ञान को काल-सापेक्ष और स्थिति-सापेक्ष मानते हैं। उसे जीवन में उतारने की बात कहते हैं- ‘‘ज्ञान-रूपी दांत जिंदगी-रूपी नाशपाती में गड़ना चाहिए, जिस से कि संपूर्ण आत्मा जीवन का रसास्वादन कर सके।’’


आज सब से बड़ी दिक्कत शिक्षा की यही है कि वह न संवेदना को ज्ञान में बदल पा रही है और न ज्ञान से संवेदना पैदा कर पा रही है। फलस्वरूप आज की शिक्षा एक सफल व्यक्ति तो तैयार कर ले रही है लेकिन सार्थक व्यक्ति नहीं। अर्थात ऐसा व्यक्ति जो अपने समाज के प्रति जिम्मेदार और हाशिए पर पड़े लोगों के प्रति संवेदनशील हो, जिस के लिए शिक्षित होना धनोपार्जन करने में सक्षम होना न हो कर समाज की बेहतरी के लिए सोचना हो। ऐसे में यह महत्वपूर्ण बात है कि मुक्तिबोध ज्ञान को संवेदना के साथ जोड़कर देखते हैं। चांद का मुंह टेढ़ा है कविता की ये पंक्तियां इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय हैं- 

ज्वलंत अनुभव ऐसे
ऐसे कि विद्युत धाराएं झकझोर
ज्ञान को वेदन-रूप में लहराएं
ज्ञान की पीड़ा
रूधिर प्रवाहों की गतियों में परिणित हो कर
अंतःकरण को व्याकुल कर दे।

इस लिए वह यह आवश्यकता महसूस करते हैं कि संवेदनात्मक उद्देश्य, अपनी पूर्ति की दिशा में सक्रिय रहते हुए, मनुष्य के बाल्य काल से ही उस जीवन-ज्ञान का विकास करे, जो संवेदनात्मक उद्देश्यों की पूर्ति करे। संवेदनात्मक उद्देश्यों से उनका आशय स्व से ऊपर उठना, खुद की घेरेबंदी तोड़ कर कल्पना-सज्जित सहानुभूति के द्वारा अन्य के मर्म में प्रवेश करना है। दूसरे के मर्म में प्रवेश कर पाना तभी संभव है, जब शिक्षा दिमाग के साथ-साथ दिल से भी जुड़ी हो,  वह बच्चे की संवेदना का विस्तार करे। इसी कारण ज्ञानात्मक-संवेदना और संवेदनात्मक-ज्ञान की अवधारणा उनकी रचना-प्रक्रिया और आलोचना की आधार रही।
  
मुक्तिबोध अनुभव को, सीखने और रचना के लिए बहुत जरूरी मानते हैं। कोई भी रचना अनुभव-रक्त तालमें डूब कर ही ज्ञान में बदलती है। देखिए भूरी-भूरी खाक धूलकविता की ये पंक्तियां-

नीला पौधा
यह आत्मज
रक्त-सिंचिता हृदय धरित्री का
आत्मा के कोमल आलबाल में
यह जवान हो रहा
कि अनुभव-रक्त ताल में डूबे उसके पदतल
जड़ें ज्ञान-संविधा की पीतीं।’ 

वह अनुभव को पकाने की बात करते हैं। देखा जाय तो शिक्षा एक तरह से अनुभवों को पकाने का ही काम तो करती है। मुक्तिबोध लिखते हैं, ‘‘वास्तविक जीवन जीते समय, संवेदनात्मक अनुभव करना और साथ ही ठीक उसी अनुभव के कल्पना चित्र प्रेक्षित करना- ये दोनों कार्य एक साथ नहीं हो सकते। उस के लिए मुझे घर जा कर अपने में विलीन होना पड़ेगा।’’ वह सिद्धान्त की नजर से दुनिया को देखने की अपेक्षा अनुभव की कसौटी पर सिद्धान्त को कसने तथा विचारों को आचारों में परिणित करने के हिमायती रहे। यही है ज्ञान निर्माण या सृजन की प्रक्रिया। ज्ञान अनुभव से ही शुरू होता है। ज्ञान के सिद्धान्त का भौतिक रूप यही है। जब व्यक्ति अनुभवों से सीखना छोड़ देता है, उस में जड़वाद आ जाता है। कितनी महत्वपूर्ण बात कही है उन्होंने, आज तमाम शिक्षाविद् इसी बात को तो कह रहे हैं ‘‘यह सही है कि प्रयोगों में गलती हो सकती है। भूलें हो सकती हैं। किंतु उसके बिना चारा नहीं है। यह भी सही है कि कुछ लोग अपने प्रयोगों से इतने मोहबद्ध होते हैं कि उसमें हुई भूलों से इंकार करके उन्हीं भूलों को जारी रखना चाहते हैं। वे अपनी भूलों से सीखना नहीं चाहते हैं। अतः वह जड़वादी हो जाते हैं।’’ पर इस का अर्थ यह नहीं समझा जाना चाहिए कि मुक्तिबोध प्रयोग और अनुसंधान के नाम पर अब तक मानव जाति को प्राप्त ज्ञान का अर्थात सिद्धांतों से इंकार करते हों। उनका स्पष्ट मानना था, ‘‘इसका अर्थ यह कि बदली हुई परिस्थिति में परिवर्तित यथार्थ के नए रूपों का, उन के पूरे अंतःसंबंधों के साथ अनुशीलन किया जाए उनको हृदयगंम किया जाए।’’ आज इसे ही सीखने का सही तरीका माना जा रहा है। वास्तविक अर्थों में सीखना इसी तरह होता है। यही सीखना स्थाई होता है। सीखने का मतलब कुछ जानकारियों को रट देना नहीं है। सीखना तो व्यवहार में परिवर्तन का नाम है। ऐसा परिवर्तन जो  चेतना को अधिकाधिक यथार्थ संगत बना दे, जिस के लिए मुक्तिबोध अतिशय संवेदनशील, जिज्ञासु तथा आत्म-निरपेक्ष मन की आवश्यकता पर बल देते हैं। वह अनुभवों से सीखने की ही नहीं बल्कि अनुभव-सत्य को जन तक पहुंचाने की बात भी कहते हैं-

तब हम भी अपने अनुभव
सारांशों को उन तक पहुंचाते हैं जिस में
जिस पहुंचाने के द्वारा हम, सब साथी मिल
दंडक वन में से लंका का पथ खोज निकाल सकें। (‘भूरी-भूरी खाक धूल’)

देखा जाय तो यही शिक्षा का असली उद्देश्य भी है। यदि शिक्षित होने पर हम जनहित में कुछ कर नहीं पाए तो उसकी क्या सार्थकता है?

आज शिक्षण में ‘पीयर लर्निंग’ पर बहुत बल दिया जा रहा है। एन. सी. एफ. 2005 में कहा गया है कि सहभागितापूर्ण सीखना और अध्यापन, पढ़ाई, भावनाएं एवं अनुभव को कक्षा में एक निश्चित और महत्वपूर्ण जगह मिलनी चाहिए। सहभागिता एक सशक्त रणनीति है। यह माना गया है कि समूह में या अपने साथियों से सीखना अधिक अच्छी तरह से होता है। उक्त दस्तावेज इसके पीछे यह तर्क देता है कि जब बच्चे और शिक्षक अपने व्यक्तिगत या सामूहिक अनुभव बांटते हैं,  उन पर चर्चा करते हैं और उन में परखे जाने का भय नहीं होता है,  तो इससे उन्हें उन लोगों के बारे में भी जानने का अवसर मिलता जो उनके सामजिक यथार्थ का हिस्सा नहीं होते। इससे वे विभिन्नताओं से डरने के बजाय उन्हें समझ पाते हैं। कुछ इसी तरह की बात मुक्तिबोध अपने एक निबंध समीक्षा की समस्याएंमें लिखते हैं- ‘‘जहां तक वास्तविक ज्ञान का प्रश्न है- वह ज्ञान स्पर्द्धा त्मक प्रयासों से नहीं, सहकार्यात्मक प्रयासों से प्राप्त और विकसित हो सकता है।’’ यह अच्छी बात है कि मुक्तिबोध प्रतियोगिता या प्रतिस्पर्द्धा  को नकारते हैं। हो भी क्यों न! यह एक पूँजीवादी मूल्य है और मुक्तिबोध समाजवादी समाज के समर्थक रहे। प्रतिस्पर्द्धा  से कभी भी एक समतामूलक या सहकारी समाज नहीं बन सकता है। सब को साथ लेकर आगे बढ़ने की प्रवृत्ति ही एक सुंदर समाज का निर्माण कर सकती है।

सीखने के लिए स्वतन्त्रता और भयमुक्त वातावरण का होना बहुत जरूरी है। दबाव या भय में कुछ भी सीखना संभव नहीं है। स्वतन्त्रता बच्चे को चिंतन और उसे सृजन के लिए प्रेरित करती है। बच्चे में सृजनशीलता के विकास के लिए स्वतन्त्रता का होना पहली षर्त है। कुछ इसी तरह की बात मुक्तिबोध भी कहते हैं- ‘‘व्यक्ति-स्वातंत्र्य कला के लिए, दर्शन के लिए, विज्ञान के लिए अत्यधिक आवश्यक और मूलभूत है। कोई भी सृजनशील प्रक्रिया उसके बिना गतिमान नहीं हो सकती।’’ मुक्तिबोध व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के प्रबल समर्थक हैं। उनका मानना है कि भले ही यह एक आदर्श है फिर भी मानव की गरिमा और मानवोचित जीवन प्रदान करने के लिए बहुत जरूरी है। यह जनता के जीवन और उसकी मानवोचित आकाक्षांओं से सीधे-सीधे जुड़ा है। कोई भी सृजनशील प्रक्रिया उसके बिना आगे नहीं बढ़ सकती है। यह सच भी है। हम अपने चारों ओर अतीत से लेकर वर्तमान तक दृष्टिपात करें तो पाते हैं कि दुनिया में जितने भी बड़े सृजन हुए हैं, वे सभी किसी न किसी स्वातन्त्र-व्यक्तित्व की देन हैं। इन व्यक्तित्वों को यदि सृजन की आजादी नहीं मिली होती तो इतनी बड़ी उपलब्धि उनके खातों में नहीं होती। हर सृजन के मूल में स्वतन्त्रता ही है। मुक्तिबोध इस बात को बहुत गहराई से समझते हैं। 
  
इस प्रकार ज्ञान की बदली अवधारणा और बाल मनोविज्ञान की दृष्टि से विष्लेशण करें तो हम पाते हैं कि मुक्तिबोध का चिंतन बहुत तर्कसंगत और प्रगतिशील है। इसमें शिक्षा और मनोविज्ञान को ले कर उनकी  गहरी समझ परिलक्षित होती है। एक लोकतान्त्रिक और वैज्ञानिक सोच से लैस समाज बनाने की दिशा में उनका यह चिंतन बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है। आज जब ज्ञान को एक खास तरह के खांचे में फिट करने और तैयार माल की तरह हस्तांतरित करने की कोशिश हो रही है मुक्तिबोध के ये विचार अधिक प्रासंगिक हो उठते हैं।



महेश चन्द्र पुनेठा

संपर्क-
महेश चंद्र पुनेठा
शिव कालोनी,
न्यू पियाना,
पो. डिग्री कालेज,
जिला-पिथौरागढ़ 262502

मोबाईल- 9411707470

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'।

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'