सरिता शर्मा का उड़ीसा यात्रा वृत्तान्त 'मुखर पत्थरों और गूँजते मंदिरों में भटकता मन'




सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल जिंदगानी फिर कहाँ, जिंदगानी गर रही तो नौजवानी फिर कहाँ। राहुल सांकृत्यायन की ये पंक्तियाँ मेरे मन में आज भी तब गूँज उठतीं हैं जब मैं किसी यात्रा वृत्तांत से हो कर गुजरता हूँ। सरिता शर्मा ने अपनी उड़ीसा यात्रा का एक रोचक विवरण कुछ फोटोग्राफ्स के साथ लिख भेजा है। आइए  के यात्रा वृत्तांत के बहाने हम भी कुछ देर के लिए उड़ीसा यात्रा पर चले चलते हैं।  

मुखर पत्थरों और गूँजते मंदिरों में भटकता मन 
   
सरिता शर्मा

 
    स्मारकों, खंडहरों और एतिहासिक धरोहरों की कहानियां होती हैं और उनको देखने वालों की भी। जब हम वहां जाते हैं तो जीवन को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखते हैं कि जब खुद को याद किये जाने की लालसा रखने वाले महान उपलब्धियों वाले व्यक्ति और उनकी निशानियां लुप्त हो गयी तो हमारा अपना अस्तित्व क्या है। जीवन का रहस्य आदमी को हमेशा उलझाये रखता है। मगर जब अचानक लगता है कि सब कुछ समाप्त होने वाला है, तो व्यक्ति चौंक जाता है और किसी अदृश्य प्रभु या जीवनी शक्ति से गुहार लगाता है- ‘जिन्दगी अभी छोड़कर मत जाओ। मुझे थोड़ी मोहलत दो। अनदेखी जगह घूम आऊं। कुछ अधूरे काम निपटा लूं।’ गुस्ताव फ्लाबेर ने भी यात्राओं के बारे में कुछ ऐसा ही कहा है,  ‘यात्रायें हमें विनम्र बनाती हैं क्योंकि हम जान जाते हैं कि दुनिया में हमारा अस्तित्व कितना नगण्य है।’  


 
   ओडिशा जाने की उत्सुकता उड़िया कवि और संम्पादक शुभेंदु मुंड से मुलाकात के बाद जागी। वह अंग्रेजी के सेवानिवृत प्रोफ़ेसर हैं। साहित्य अकादमी कार्यक्रम में काव्यपाठ करने आये थे। जलपान के दौरान परिचय हुआ तो उन्होंने आदेश किया कि उनकी अंग्रेजी पत्रिका के लिए मृदुला गर्ग का इंटरव्यू लूं। मैंने काफी टालमटोल की कि मुझे हिंदी साहित्य में कोई नहीं जानता। मृदुला जी तैयार नहीं होंगी। मगर वह अड़े रहे- ‘मैं कवि हूँ. लोगों को पहचानता हूँ। कुछ करोगे तभी तो लोग जानेंगे।’ मुझे मृदुला जी से मिलवा कर कर इंटरव्यू देने के लिए अनुरोध कर दिया. बाद में मैंने उनकी पत्रिका के लिए कुछ सूफी कवियों का अंग्रेजी में और एक हिंदी पत्रिका के लिए उनकी कविताओं का हिंदी अनुवाद किया था। उन्होंने कई बार ओडिशा भ्रमण के लिए आमंत्रित किया था। दो साल पहले मुझे कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी में कोणार्क नाटक पर होने वाले कार्यक्रम में ललित कला के एम. फिल. के छात्रों के समक्ष बोलने के लिए बुलाया गया। मुझे जाने की ख़ुशी थी और आयोजकों  को मुझे बुलाना किफायती लगा। व्यवस्था में खामियों के बावजूद यूनिवर्सिटी के माहौल और कुरुक्षेत्र के दर्शनीय स्थलों ने मन मोह लिया। छात्रों ने कोणार्क के शिल्प को कल्पना के रंगों में ढाल कर चित्र बनाये। काश उन्हें कोणार्क ले जाया जाता और वहीँ चित्र बनवाये जाते। मैंने कोणार्क नाटक कई बार पढ़ा और उसे कल्पना में जीवंत करने की कोशिश की। मगर बिना देखे कोणार्क की सुन्दरता का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है। एक दिन छोटी बहन उमा का फ़ोन आया, ‘दीदी, मैं इनके और आपके साथ भुवनेश्वर और पुरी जाना चाहती हूँ।’ मेरे मन की मुराद पूरी हो गयी। 


     हमने एजेंट से कहकर भुवनेश्वर में जिंजर होटल में कमरे बुक करावाये। हमने जैसे ही एयरपोर्ट पर उतरकर प्रीपेड सरकारी टैक्सी की, बाहर खड़े प्राइवेट टैक्सी वाले उस ड्राईवर से लड़ने लगे। उसने पुरी के रास्ते में हमें बताया कि इन टैक्सी वालों ने मान्यता प्राप्त टैक्सी चालकों का काम करना दूभर कर दिया है। कई बार हमला कर देते हैं और मुक़दमे चलते रहते हैं। वह रास्ते भर सहमा रहा। नारियल के वृक्षों से घिरे मार्ग से होते हुए पहले हम धौलीगिरि पर स्थित शांति स्तूप और बौद्ध मंदिर को देखने के लिए रुके। इसका निर्माण 1973 में किया गया था। इस पहाडी के एक ओर दया नदी है जिसके किनारे कलिंग व मगध की सेनाओं के बीच भंयकर युद्ध हुआ था जिसमें हजारों सैनिक हताहत हुए थे। रक्त से सनी मिटटी को देख कर अशोक ने शपथ ली थी कि अब कभी शस्त्र नहीं उठाएंगे। पश्चाताप की ज्वाला में जलते सम्राट ने बौद्ध धर्म की शरण ली। मारे गए सैनिकों की स्मृति में बना धौली स्तूप विश्वशांति स्तूप के नाम से जाना जाता है। यहां अशोककालीन आदेश पढ़े जा सकते हैं। अशोक की शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा एक पत्थर पर खुदी हुई  है। पत्थरों पर तराशा गया हाथी का मुख है और शेर की प्रतिमा बनी है। स्तूप के चारों ओर अलग-अलग मुद्राओं में बुद्ध की चार मूर्तियां हैं। स्तूप में जातक कथाओं से जुड़े हुए प्रसंग पत्थरों पर उकेरे गए हैं। स्तूप के चारों ओर हरियाली का सुंदर नजारा मनमोहक है। पास से गुजरती दया नदी युद्ध और शांति की साक्षी प्रतीत होती है। यहां से पुरी के रास्ते काजू के पेड़ बहुतायत में मिलते हैं। स्तूप की सीढ़ियों पर सस्ते काजुओं की खूब बिक्री होती है। मैं सोच रही थी कि अशोक को अहिंसक बनने से पहले इतना खून बहाने की क्या जरूरत थी। एक आदमी को मार देने से मृत्यु दंड मिल जाता है। जिस राजा ने हजारों निर्दोष सैनिकों को अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए मरवा दिया, क्या उसे हृदय परिवर्तन हो जाने पर क्षमा किया जा सकता है। नियम कानून आम आदमी के लिए होते हैं। राजा तो खुद ही कानून है। काश युद्धरत देश शांति का महत्व समय रहते समझ लेते और यहां की तरह तबाही मचा कर मरघट की शांति की ओर न बढ़ते।



           रवींद्र नाथ टैगोर ने कोणार्क के बारे में कहा है- ‘कोणार्क जहां पत्थरों की भाषा मनुष्य की भाषा से बेहतर है।’ अबुल फ़ज़ल ने आइने-अकबरी में इस मन्दिर के स्थापत्य की प्रशंसा की है। इसे यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर घोषित किया गया है। इस मंदिर को तेरहवीं सदी में राजा नरसिंह देव ने लाल बलुआ पत्थर एवं काले ग्रेनाइट पत्थर से बनावाया था। मंदिर में भगवान सूर्य की पूजा की जाती थी। इसमें सूर्य देव के रथ को बारह जोडी चक्र वाले सात घोड़ों से खींचे जाते दिखाया गया है। मंदिर की शिल्प आकृतियां भगवानों, देवताओं, गंधर्वों, मानवों, वादकों, प्रेमी युगलों, दरबार की छवियों, शिकार एवं युद्ध के दृश्य दर्शाती हैं। इनके बीच बीच में पशु-पक्षियों और पौराणिक जीवों के अलावा महीन बेलबूटे अलंकृत हैं। मंदिर के प्रवेशद्धार पर दो शेर बने हुए हैं। मंदिर में भगवान सूर्य की तीन प्रतिमायें हैं जो उनके बचपन, युवावस्था और वृद्धावस्था को  दिखाती हैं। मंदिर तीन मंडपो में बना है जिनमें से दो नष्ट हो चुके हैं। एक मंडप बचा है और उसे  भी अब बंद कर दिया गया है। इस मंदिर के पूर्वी द्वार से प्रवेश करते ही सामने एक नाट्यशाला दिखाई देती है जिसकी ऊपरी छत अब नहीं है। 'कोणार्क नृत्योत्सव' के समय हर साल यहाँ देश के नामी कलाकार अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते हैं। यहां घूमते हुए कोणार्क नाटक के शब्द गूँज रहे थे, ‘कला की जोत, अटल विश्वास जगाये, खंडहर सोता है।’ शिल्पी विशु मानो सैलानियों की ओर मुखातिब होकर इसका वर्णन कर रहा है- ‘यह मंदिर नहीं, सारे जीवन की गति का रूपक है। हमने जो मूर्तियां इसके स्तंभों, इसकी उपपीठ और अधिष्ठान में अंकित की हैं, उन्हें ध्यान से देखो। देखते हो उसमें मनुष्य के सारे कर्म, सारी वासनाएं, मनोरंजन और मुद्राएँ चित्रित हैं। यही तो जीवन है।’




            पुरी का समुद्र तट महत्वपूर्ण हिंदू तीर्थ स्थल माना जाता है। इस तट को भगवान जगन्नाथ का निवास स्थल भी माना जाता है। शायद इसी कारण यहां अनेक तीर्थयात्री समुद्र स्नान करने के लिए आते हैं। समुद्र की गर्जना और टकराती हुई लहरें सिहरन से भर देती है। हम वहां पहुंचे तो अनंत लहरों को बार-बार तेजी से किनारों की ओर लपकते पाया। मीलों तक फैले पुरी के स्वच्छ व शांत सागर तट पर दिन भर सैलानियों की भीड़ रहती है। किनारे पर उथले जल में स्नान करने पर भी लहरें इतने वेग से आती हैं मानो अपने आगोश में समेट कर साथ समुद्र में बहा ले जायेंगी। इस समुद्र में सैलानियों के डूब कर मरने की ख़बरें लगातार आती रहती हैं। थोड़ी ही दूर पर यह समुद्र बहुत गहरा हो जाता है। यह तट समुद्री हवाओं, रेत, सूर्य स्नान और पवित्र स्नान के लिए प्रसिद्ध है। यहां सूर्योदय तथा सूर्यास्त दोनों का सुंदर नजारा दिखाई देता है। समुद्र में स्नान का अनुभव रोमांचक था। बार-बार महसूस हो रहा था कि कोई तेज लहर समुद्र में खींच कर ले गयी तो जीवनलीला का पल भर में अंत हो सकता है। समुद्र जीवन और मौत की गुत्थी को और भी उलझा देता है। जीवन और मौत के बीच यहां कदम भर का फासला होता है। जमीन हमारी है मगर उसे समुद्र ने घेरा हुआ है, जैसे मौत जीवन को घेरे रहती है। पता नहीं कब वह अपना शिकंजा कस दे। ऐसे क्षणभंगुर जीवन में प्रकृति की छाँव में गुजरे पल ही कुछ मुक्त पल हैं जब हम पूरे मन से जीते हैं और जिन्हें स्मृति में दोहराते रहते हैं। 




    शाम को हम जगन्नाथ मंदिर पहुंचे। भारत के चार धामों में शामिल यह मंदिर देश के सर्वाधिक पवित्र तीर्थस्थलों में एक है। इसे बारहवीं शताब्दी में चोडागंगा ने अपनी राजधानी बदलने के उपलक्ष्य में बनवाया था। जगन्नाथ मंदिर भारत के सबसे ऊंचे मंदिरों में एक माना जाता है। कलिंग वास्तु शैली से बनाया गया यह मंदिर बेहद सुंदर है। इस  मन्दिर में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और उनकी बहन सुभद्रा की मूर्तियां हैं। मूर्तियों के निर्माण में नीम की लकड़ियों का प्रयोग होता है। जगन्नाथपुरी की रथयात्रा यहां  का मुख्य आकर्षण है, जिसे देखने पूरी दुनिया के दूर-दराज इलाकों से तीर्थयात्री पुरी आते हैं। यहां विश्व का सबसे बड़ा रसोई घर है  जहां प्रतिदिन हजारों लोगों का खाना एक साथ बनता है। हमें जो युवक पंडा मिला वह बहुत व्यवहारकुशल और वाक्पटु था. बार-बार अन्न दान की महिमा का वर्णन करते हुए पर्ची कटवाने की बात करता रहा. उसने हमें मंदिर के बारे में कम बताया और यह अधिक कि दान के पैसे से हजारों पंडों का खर्च चलता है। उसने हमसे मंदिर के भंडारे के नाम पर ग्यारह सौ रुपए की पर्ची कटवा ही ली। उसने हमें रबड़ी और खिचड़ी का गर्मागर्म प्रसाद भी खिलाया।




       शाम को शुभेंदु मुंड और उनकी पत्नी हमसे मिलने आये। वह अपनी साहित्यिक गतिविधियों के बारे में बताते रहे। उनकी पत्नी भी अध्यापिका रही हैं। पता चला कि वे कालाहांडी गाँव के हैं जहां  बचपन में बहुत सादा जीवन बिताया था। उनके पिता ने आर्थिक अभाव देखा था। शादी के बाद शुभेन्दु जी की पत्नी गरीबों के लिए प्रतिदिन अपने हाथ से खाना बना कर खिलाती थी। कोई न कोई भूखा उनके दर पर आता रहता था। उनके ससुर जी किसी को भूखे पेट वापिस नहीं भेजते थे क्योंकि उन्होंने भूख देखी थी। उसके बाद वे लोग भुवनेश्वर आ गए। अब गाँव की बदहाली ख़त्म हो गयी और वहां शहर का असर आ गया है। उन्होंने हमें बताया कि पुरी में पंडे भक्तों को प्रसाद के लिए दान करने के नाम पर लूटते हैं क्योंकि पर्ची काटने वाले के साथ उनका हिस्सा बंधा होता है। यह जान कर वह भोला-भाला पंडा अब शातिर लगने लगा। आदमी भगवान के साये में भी धूर्तता दिखाने से बाज नहीं आता है। स्वामी दयानंद ने चूहों को प्रसाद खाते देख मूर्ति पूजा बंद कर दी थी। यहां तो पंडे प्रसाद के पैसे खा रहे हैं। मन खिन्न हो गया कि मंदिर भी घोटालों से मुक्त नहीं हैं।



      अगले दिन हम लिंगराज मंदिर गए जो त्रिभुवनेश्वर, यानी तीनों लोकों के स्वामी को समर्पित है। उन्हीं के नाम पर शहर का नाम भुवनेश्वर रखा गया है। इस मंदिर समूह का निर्माण सोमवंशी वंश के राजा ययाति ने 11वीं शताब्दी में करवाया था। 185 फीट ऊंचा यह मंदिर नागर शैली में बना हुआ है। कहा जाता है कि देवी पार्वती ने लिट्टी तथा वसा नाम के दो भयंकर राक्षसों का वध यहीं पर किया था। संग्राम के बाद उन्हें प्यास लगी, तो शिव जी ने कूप बना कर सभी पवित्र नदियों को योगदान के लिए बुलाया। यहीं पर बिन्दुसागर सरोवर है तथा उसके निकट ही लिंगराज का विशालकाय मन्दिर है। इस मंदिर में स्थापित मूर्तियां चारकोलिथ पत्थर की बनी हुई हैं। इस मंदिर की दीवारों पर मनुष्यों और पशुओं की मिथुनाकृतियां उकेरी गई हैं। इस मंदिर परिसर की उत्तरी दिशा में स्थित पार्वती मंदिर में गणेश, कार्तिक और पार्वती की भव्य मूर्तियां हैं। यहां भी पंडे ने अपनी फीस के साथ-साथ मंदिर के भंडारे में दान की सलाह दी। मगर हमने उसकी बात को अनसुना कर दिया। उस दिन लगातार बरसात होती रही थी जिससे मौसम सुहाना हो गया। मंदिर के प्रांगण में पानी ठहरा हुआ था और भीतरी भाग भी स्वच्छ नहीं था। इस भव्य प्राचीन मंदिर के रखरखाव के प्रति प्रशासन और पंडे सब उदासीन लगे।



    शुभेंदुजी ने राजारानी मन्दिर को ‘पत्थरों पर रचा कला का महाकाव्य’ बताते हुए इसे देखने के लिए विशेष आग्रह किया था। इस मंदिर की स्थापना ग्यारहवीं शताब्दी में हुई थी। यहां शिव और पार्वती की भव्य मूर्ति स्थापित की गयी है। इस मंदिर के नाम से ऐसा लगता है मानो इसका नाम किसी राजा-रानी के नाम पर रखा गया हो। लेकिन लोगों का कहना है कि यह मंदिर राजारानी नामक पत्थर का बना हुआ है। इसीलिए इसका नाम राजा-रानी मंदिर पड़ा। इस मन्दिर की दीवारों पर बनी सुन्दर कलाकृतियां  खजुराहो की याद दिलाती हैं। यह मंदिर इसलिए भी अनूठा है कि यहां नटराज के स्त्री स्वरूप को दर्शाया गया है। सुनसान पड़े इस मंदिर में कोई गाइड नजर नहीं आया और मंदिर की कलाकृतियों से बारे में जानकारी देने वाला साहित्य भी उपलब्ध नहीं था। मंदिर की परिक्रमा करने के बाद हम मन में अनेक प्रश्न लिए बाहर निकले।



     हमने हस्तशिल्प संग्रहालय, उड़ीसा राजकीय संग्रहालय और ट्राइबल रिसर्च संग्रहालय भी देखे। भुवनेश्वर के संग्रहालय में उड़ीसा की कला-संस्कृति और सभ्यता को प्रदर्शित किया गया है। यहां प्राचीन काल के अद्भुत चित्रों का भी संग्रह है। इन चित्रों में प्रकृति की सुंदरता को दर्शाया गया है। इसी संग्रहालय में प्राचीन हस्तलिखित पुस्त्क 'गीतगोविंद' है जिसे जयदेव ने बारहवीं शताब्दी में लिखा था। इस संग्रहालय में मध्यकालीन हस्तलिखित ताम्र पात्रों, पांडुलिपियों, कलाकृतियों और शिलालेखों का अनुपम संग्रह है। पाषाण शिल्प की मूर्तियां, सिक्के और हस्तशिल्प अनूठे हैं। जब हम वहां पहुंचे तो दुर्भाग्यवश बत्ती गुल थी और कक्षों में रोशनी की कोई व्यवस्था नहीं की गयी थी। जो कुछ हमें खिड़की के उजाले से नजर आया, हमने वह भाग देख लिया। कई मंजिल के इस संग्रहालय को भली-भांति न देख पाने का अफ़सोस रहेगा। पर्यटन के प्रति लापरवाही खली कि संग्रहालय दिखाने की समुचित व्यवस्था नहीं की गई है।



           उदयगिरि और खंडगिरि गुफाएं बौद्ध भिक्षुओं व जैन मुनियों की साधना का केंद्र रही हैं। राजा खारवेल के समय बनी इन गुफाओं की दीवारों पर उकेरी गई मूर्तियां बोलती सी लगती हैं। इनमें उदयगिरि की गुफाएं करीब 135 फुट की ऊंचाई पर हैं जबकि खंडगिरि की गुफाएं 118 फुट की ऊंचाई पर मौजूद हैं। उदयगिरि का अर्थ है वह पर्वत जहां सूर्योदय होता हो और खंडगिरि का अर्थ है खंडित यानी टूटा हुआ पर्वत। उदयगिरि की गुफाओं में सबसे बड़ी और भव्य रानी गुफा की दीवारों पर अपने समय के ऐतिहासिक दृश्य उकेरे गए हैं। साथ ही संगीत-नृत्य आदि ललित कलाओं की झलक भी इनमें देखी जा सकती है। एक हाथी गुफा भी है जिसके द्वार पर हाथियों की बहुत बड़ी प्रतिमाएं लगी हुई हैं। यहां जैन साधु तप करते थे। खंडगिरि की गुफाओं में अक्षय गंगा, गुप्त गंगा, श्याम कुंड और राधा कुंड बहुत लोकप्रिय हैं। यहां 24 तीर्थकरों की एक गुफा भी है। हम उदयगिरि की गुफाओं में घूम रहे थे तभी मूसलाधार बरसात शुरू हो गयी और हम खंडगिरि की गुफाएं देखने नहीं जा सके क्योंकि खुले में पत्थरों से बने रास्ते पर घूमना मुश्किल हो गया था। वहां बहुत सारे बन्दर घूमते नजर आये। अब ये गुफाएं सबसे अधिक इनके काम आती हैं। साधनारत साधू सन्यासियों को भी इन बंदरों के पूर्वजों ने खूब तंग किया होगा।




       उसके बाद हम भुवनेश्वर से घंटे भर का रास्ता तय करके नंदन कानन देखने पहुंचे। 1960 में स्थापित यह हराभरा वन्य उद्यान 400 हेक्टेयर क्षेत्र  में फैला हुआ है. फ्लोरा औरा फौना के नाम से विख्यात यहां के वानस्पतिक उद्यान में कई दुर्लभ किस्मो के फूल पेड-पौधे और जड़ी बूटियों पाई जाती है। नंदन कानन स्थित चिडियाघर में कई वन्य  प्राणियों को आजादी के साथ स्वाभाविक स्थिति में घूमते देखा जा सकता है। वन भ्रमण का आनंद लेने के लिए शेर, बाघ आदि की सफारी व नौकायन की सुविधा भी उपलब्ध है. इस उद्यान में स्थित चिड़ियाघर का विशेष आकर्षण तीस से ज्यादा सफेद बाघ  और दुर्लभ प्रजाति के घडियाल हैं जिन्हें करीब से देखना एक रोमाचंक अनुभव है। पिंजरों में घूमते हुए शेरों  की गर्जना भयभीत कर रही थी। हिरन, स्वर्ण मृग, कृष्ण मृग, बारहसिंगे और चीतल के झुण्ड घूम रहे थे और उनके शावक खेल रहे थे। भयानक तीखे दांतों वाले मगरमच्छ, भालू, चिम्पैंजी और दरियाई घोडे दिखाई दिए। करैत, कोबरा और एनाकोंडा जैसे खूंखार सांप देखे। चिड़ियाघर जाने पर आदमी की सांप से तुलना बचकानी लगती है। जानलेवा और जहरीले सांप यहां सुस्त शांत नजर आ रहे थे। गाइड पर्यटकों के मनोरंजन के लिए पशुओं को फिल्मी सितारों जैसे कटरीना, मल्लिका, सलमान और ऋतिक के नामों से बुला रहा था। पता चला यहां शेर और कुछ अन्य पशुओं को भूखा रखा जाता है ताकि वे पर्यटकों को घूमते फिरते नजर आ सकें। पेट भर जाने पर वे सुस्त पड़ कर सो जायेंगे. भूख से बेहाल जानवर गुर्राते, चिंघाड़ते और गर्जते हुए इधर- उधर घूम रहे थे। आदमी से भयानक कौन होगा जो खूंखार पशुओं को दयनीय बना देता है। मगर शेर मौका मिलते ही अपनी ताकत का अहसास करा देता है। हाल ही में एक व्यक्ति ने पत्नी के साथ हुए झगड़े के बाद नंदन कानन में दो शेरों के पिंजरे में छलांग लगा दी थी। उसे बुरी तरह जख्मी हालत में पिंजरे से बाहर निकाला गया। होश में आने पर उसने बताया कि वह अपनी पत्नी से झगड़े के बाद मर जाना चाहता था। उसने सोचा कि जानवरों का आहार बनकर मरना, अपनी जिंदगी को खत्म करने का अच्छा तरीका है। मगर उसकी कोई भी इच्छा पूरी नहीं हुई और जिंदगी मौत के बीच झूल कर रह गया।


    शाम को हम दिल्ली की ओर चल पड़े। भुवनेश्वर और पुरी के अनूठे सौन्दर्य और शुभेंदु दंपत्ति से मुलाकात ने मन में आशा का संचार किया। मगर अब मन दफ्तर से उठ चुका है। कई स्तर पर चलने वाली राजनीति और दांवपेंच मन को नकारात्मक बनाते हैं। साल भर में स्वैच्छिक सेवानिवृति ले कर इन झमेलों से मुक्त हो जाउंगी। फिर युलिसीज की तरह एक के बाद एक यात्रा पर निकल जाना है। फ्रॉस्ट के शब्दों में कहें तो सोने से पहले मीलों चलना है।



    

एक काव्य संकलन 'सूनेपन से संघर्ष', आत्मकथात्मक उपन्यास 'जीने के लिए' तथा एक कहानी संकलन प्रकाशित। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में समीक्षाएं, कविताएँ तथा कहानियां प्रकाशित। रस्किन बांड की दो किताबों सहित कई अनुवाद।आजकल राज्य सभा सचिवालय में सहायक निदेशक हैं।

संपर्क:
1975, सेक्टर 4, अर्बन एस्टेट,    
गुड़गांव 122001 .  (हरियाणा)

ई-मेल - sarita12aug@hotmail.com

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