रेखा चमोली

रेखा चमोली









रेखा चमोली का जन्म 8 नवम्बर, 1979 उत्तराखण्ड के कर्णप्रयाग में हुआ। रेखा ने प्राथमिक से ले कर उच्चशिक्षा उत्तरकाशी में ही ग्रहण की। इसके बाद इन्होंने बी. एस-सी. एवम एम. ए. किया।


वागर्थ, बया, नया ज्ञानोदय, कथन, कृतिओर, समकालीन सूत्र, सर्वनाम,  उत्तरा,  लोकगंगा आदि साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित।


साथ ही राज्य स्तरीय पाठ्यपुस्तक निर्माण में लेखन व संपादन। शिक्षा संबंधी अनेक कार्यशालाओं में सक्रिय भागीदारी । कक्षा शिक्षण में रोचकता ,रचनात्मकता, समूह कार्य व नवाचार हेतु सदैव प्रयासरत।

सम्प्रति- अध्यापन


रेखा चमोली उन रचनाकारों में से हैं जो अपनी और अपनी संस्कृति की अहमियत बखूबी जानती पहचानती हैं. यही एक बेहतर कवि की खूबी होती है. उन्हें मालूम है कि पढ़ी लिखी नहीं होने के बावजूद स्त्रियाँ ही संस्कृति की वाहक हैं. आज की स्त्रियाँ 'आँचल में दूध और आँखों में पानी' वाली स्त्रियाँ भर नहीं हैं बल्कि विश्वास के साथ यह कहने वाली स्त्रियाँ है कि- 'हम पहाड़ की महिलाएं हैं/ पहाड़ की ही तरह मजबूत और नाजुक/ हम नदियां हैं/नसें हैं हम इस धरती की'. मुझे रेखा कि कविताएं पढ़ते हुए कई बार थेरीगाथा की भिक्षुणियों कि कविताओं की याद आयी. 'एक चिट्ठी पिता के नाम' कविता में रेखा जब यह कहती हैं कि- 'मुझे लेकर क्यों नहीं उठाते /गर्व से अपना सिर /क्यों हो जाते हो /जरूरत से ज्यादा विनम्र' तो वे एक तरह से हमारे आज के पितृसत्तात्मक समाज के चरित्र एवम मानसिकता को ही उजागर कर रहीं होती हैं।






सम्पर्कः निकट ऋषिराम शिक्षण संस्थान
              जोशियाड़ा
              उत्तरकाशी, उत्तराखण्ड-249193


फोन:  9411576387





आओ हमारे साथ




हम पहाड़ की महिलाएं हैं
पहाड़ की ही तरह मजबूत और नाजुक
हम नदियां हैं
नसें हैं हम इस धरती की
हम हरियाली हैं
जंगल हैं
चरागाह हैं हम
हम ध्वनियां हैं
हमने थामा है पहाड़ को अपनी हथेलियों पर
अपनी पीठ पर ढोया है इसे पीढ़ी दर पीढ़ी
इसके सीने को चीर कर निकाली है ठंडी मीठी धारायें
हमारे कदमों की थाप पहचानता है ये
तभी तो रास्ता देता है अपने सीने पर
हमने चेहरे की रौनक
बिछाई है इसके खेतों में
हमी से बचे हैं लोकगीत
पढ़ी लिखी नहीं हैं तो क्या
संस्कृति की वाहक हैं हम



ओ कवि मत लिखो हम पर
कोई प्रेम कविता
खुदेड़ गीत
मैतियों को याद करती चिट्ठियां
ये सब सुलगती हुई लकड़ियों की तरह
धीमे-धीमे जलाती हैं
हमारे हाथों में थमाओ कलमें
पकड़ाओ मशालें
आओ हमारे साथ
हम बनेंगे क्रांति की वाहक
हमारी ओर दया से नहीं
बराबरी और सम्मान से देखो ।




 आदम भेडिये




आ जाओ
क्या चाहिए तुम्हें ?
निचोड लो एक-एक बूंद
हडिडयों में मांस का एक रेशा भी न रहे
तुम्हें भेडिया कहें ?
ना ना भेडिया तुम्हारी तरह
मीठी -मीठी बातें नहीं करता
अपनी आँखों में झूठ-मूठ का प्रेम नहीं भरता
तुम आदम भेडिये
कभी ईश्वर बन कर
कभी दानव बन कर
कभी सखा बन कर
तो कभी प्रेमी का रूप धरे आते हो
तुम्हारे नुकीले दाँत
आत्मा तक घुस कर
सारी जिजिविषा चूस ले जाते हैं
मांस खाने से पहले
मन को चबाने वाले आदम भेडिये
अपनी सारी शक्ति लगा कर
तुम्हारे ऊपर थूकती हैं हम
ये जानते हुए भी कि
इसका   उपयोग भी तुम
अपने दाँत घिसने में ही करोगे।



 एक चिट्ठी पिता के नाम



पिता ! मेरे जन्म की खबर सुनाती
दाई के आगे जुड़े हाथ
क्यों हैं अब तक
जुड़े के जुड़े



मुझे लेकर क्यों नहीं उठाते
गर्व से अपना सिर
क्यों हो जाते हो
जरूरत से ज्यादा विनम्र



एक तनाव की पर्त गहरी होती
देखी है मैंने
तुम्हारे चेहरे पर
जैसे जैसे मैं होती गयी बड़ी
जिसने ढक ली
मेरी छोटी-छोटी सफलताओं की चमक



मुझे सिखाया गया हमेशा
झुकना विनयशील होना
जिस तरह बासमती की बालियां
होती हैं झुकी-झुकी
और कोदा झंगोरा सिर ताने
खड़ा रहता है
याद दिलाया गया बार-बार
लाज प्रेम दया क्षमा त्याग
स्त्री के गहने हैं
जिनके बिना है स्त्री अधूरी



तुम चाहते थे मैं रहूं
हर परिस्थति में
आज्ञाकारी कर्तव्यनिष्ठ
परिवार और समाज के प्रति
अपने ऊपर होते हर अन्याय को
सिर झुका कर सहन करती रहॅू
सबकी खुशी में
अपनी खुशी समझॅू
और मैं ऐसी रही भी
जब तक समझ न पायी
दुनियादारी के समीकरण



पर अब मैं
साहस भर चुकी हूं
सहमति व असहमति का
चुनौतियां स्वीकार है मुझे
मेरी उन गलतियों के लिए
बार-बार क्षमा मत मांगो
जो मैंने कभी की ही नही


पिता
मुझ पर विश्वास करो
मुझे मेरे पंख दो
मैं सुरक्षित उड़ूंगी
दूर    क्षितिज     तक
देखूँगी नीला विशाल सागर
भरूंगी अपनी सांसो में
स्वच्छ ठंडी हवा
पिता तुम्हीं हो
जो मेरी ऊर्जा बन सकते हो
मुझे मेरी छोटी छोटी
खुशियां हासिल करने से
रोको मत।





बस एक दिन




नहीं बनना मुझे समझदार
नहीं जगना सबसे पहले
मुझे तो बस एक दिन
अलसाई सी उठकर
एक लम्ऽऽबी सी अंगड़ाई लेनी है
देर तक चाय की चुस्कियों के साथ देखना है
पहाड़ी पर उगे सूरज को
सुबह की ठंडी फिर गुनगुनी होती हवा को
उतारना है भीतर तक
एक दिन
बस एक दिन
नहीं करना झाड़ू-पोंछा, कपड़े-बर्तन
कुछ भी नहीं
पड़ी रहें  चीजें यूं ही उलट पुलट
गैस पर उबली चाय
फैली ही रह जाये
फर्श  पर बिखरे जूते-चप्पलों के बीच
जगह बनाकर चलना पड़े
बच्चों के खिलौने, किताबें फैली रहे घर भर में
उनके कुतरे खाये अधखाये
फल, कुरकुरे, बिस्किट
देख कर खीजूं नहीं जरा भी
बिस्तर पर पड़ी रहें कम्बलें, रजाइयां
साबुन गलता रहे, लाईट जलती रहे
तौलिये गीले ही पड़े रहें कुर्सियों पर
खाना मुझे नहीं बनाना
जिसका जो मन है बना लो, खा लो
गुस्साओ, झुंझलाओ, चिल्लाओ मुझ पर
जितनी मर्जी करते रहो मेरी बुराई
मैं तो एक दिन के लिए
ये सब छोड़
अपनी मनपसंद किताब के साथ
कमरे में बंद हो जाना चाहती हूं।


 नींद चोर




बहुत थक जाने के बाद
गहरी नींद में सोया है
एक आदमी
अपनी सारी कुंठाएं
शंकाएं
अपनी कमजारियों पर
कोई बात न सुनने की जिद के साथ
अपने को संतुष्ठ कर लेने की तमाम कोशिशों के बाद
थक कर चूर
सो गया है एक आदमी
अपने बिल्कुल बगल में सोई
औरत की नींद को चुराता हुआ।



इसीलिए



देखो हॅस न देना ज्यादा जोर से
चार जनों के बीच में
तुम्हारी हॅसी वैसी ही कितनी प्यारी है
देर तक बतियाना ठीक नहीं किसी से भी
चाहे वो कितना ही भला क्यों न लग रहा हो तुम्हें
प्रेम कविताएं तो भूल से भी ना पढना
लोग मुस्कुराएंगे
एक दूसरे को इशारा करेंगे
मेरा नाम तुम्हारे नाम के साथ जोड कर
बातें बनाएंगे
कितनी बार कहा है तुम्हें
जिनमें कोई संभावना नहीं उनमें

अपनी ऊर्जा बरबाद मत किया करो
कई महत्तवपूर्ण काम अभी करने बाकि हैं तुम्हें
चाहता हूँ सूर्य की तरह चमको तुम
आसमान में
सारे लोग ग्रह नक्षत्रों की तरह
चक्कर लगाएं तुम्हारे
पर डरता हूँ
तुमसे प्यार भी तो कितना करता हूँ
बचा के रखना चाहता हूँ तुम्हें
इस दुनिया को प्रकाशित करने के लिए।




 और तुम



अक्सर

राशन की चीनी की तरह
हो जाती है तुम्हारी हॅसी
तिलमिला उठता हूँ तब
मुठिठयाँ भींच लेता हॅू
चुप्पी साध लेता हूँ
क्या करूं- क्या करूं की तर्ज पर
यहाँ-वहाँ बेवजह डोलता हूँ



तुम कहती हो !
कुछ नहीं, कुछ नहीं
सब ठीक हो जाएगा जल्द
इसी आस में बस जला-भुना रह जाता हूँ
कोई छू कर देखे मुझे तब
जल जाए
मैं चाह कर भी नहीं हटा पाता
उन कारणों को
जो तुम्हारी हॅसी पर
परमिट जारी कर देते हैं


और तुम
किसी कुशल कारीगर की तरह
दिन-रात जुटी रहती हो
जीवन बुनने में।



 मैं ही क्यूं



हर बार मैं ही क्यूं
बनूं धरती
और तुम आसमान
हर बार में ही क्यूं
बनूं मीरा
और तुम कृष्ण
हर बार मैं ही क्यूं
सबसे पहले उठ कर
सबसे बाद में सोऊ
हर बार मैं ही क्यूं
बदल डालूं खुद को
तुम्हारे लिए
हर बार मैं ही क्यूं ?



चिरांती



तीन मकानों के बीच
आंगन के कोने में उगे
बूढ़े, सूखे, विशाल तुन के पेड़ को
काटने के लिए
जरूरत है
अनुभवी चिरांती की
उसकी कुशल अंगुलियां
मजबूत पकड़
पैनी नजर
काट गिरायेंगी सावधानी से पेड़
किसी दीवार, घर या लोगों को
बिना नुकसान पहुंचाये
और यह भी कि
कोई टूटन या दरार
पेड़ की कीमत कम न कर दे



आदमी भले ही विवश हो
मशीन की तरह काम करने को
मशीन होने को
पर आदमी की जगह
लगभग भर चुकी मशीने
कहीं-कहीं हार भी जाती हैं।



 मॅुह पर उॅगलियाँ



ये वक्त है बेआवाजों का
हर वक्त की तरह ये भी
शक्ति और सत्ता की तरफ मुंह करके खड़ा है
कुछ मानक, कुछ आंकड़े, कुछ सीमायें
तय करके
ये वक्त बिखर जायेगा
समान रूप से यहां वहां
ठीक उसी तरह जैसे सर्दी या गर्मी
किसी की सुविधा-असुविधा देखकर नहीं आती
बरसातें टूटी छप्परों पर भी
उतनी ही तेजी से बरसती हैं।



ये घुसपैठिया वक्त
जबरन थमा देता है
अनचाही सौगातें
और तरसाता है
एक घूट जिंदगी को
मनमानी और चुप्पी के इस वक्त में
सवाल पूछने की इजाजत नहीं।

टिप्पणियाँ

  1. Abhi abhi ak parichit mahila ki mitti se lauta hoon awsad grast man se face book per gaya.pahali bar blog per rekha chameli ki kawitayen dekhin bilkul badalta nari swar .pratirodh ka apna andaj man ko bha gain.rekha ji ko dhanyawad.-keshav tiwari

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  2. Naari man abhivyakti ki bahut achhi kavitayen. - Ashok Chaturvedi

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  3. बहुत सुंदर अच्छा लगा (सत्यानन्द उपाध्याय )

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  4. महेश पुनेठा जी ने यहाँ यात्रा करने का सुझाव दिया ....उन्हें आभार
    आसपास को जीने ....शब्दों को भाव देने में रेखा जी की कलम कमाल करती है ...वेदना... समाज को कठघरे में ला पटकती है...और फिर ...सवाल-दर - सवाल ....जवाब तो देने ही होंगे ....

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  5. महेश पुनेठा जी ने यहाँ यात्रा करने का सुझाव दिया ....उन्हें आभार
    आसपास को जीने ....शब्दों को भाव देने में रेखा जी की कलम कमाल करती है ...वेदना... समाज को कठघरे में ला पटकती है...और फिर ...सवाल-दर - सवाल ....जवाब तो देने ही होंगे ....

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  6. रेखा जी, को बधाई इन रचनाओं के लिए ....आदम भेडिये मारक रचना है ....सभी रचनाएँ एक प्रश्न खड़ा करती है ...विवश करती है सोचने पर ...

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  7. रेखा जी , को इन रचनाओं के लिए बधाई .

    आदम भेडिये , मारक है ..आओ हमारे साथ बहुत सुंदर रचना है ....
    ये सभी रचनायें एक प्रश्न खड़ा करती है ..विवश करती है सोचने के लिए ...

    सादर ..

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  8. bas ek din.. striyan hee hoti hain sanskriti kee samvahak.. aur mujhe pankh do .. ye aise swar hain jinhe ab aur dabaya nhi jaa sakta.. badhai rekha ji ko bahut sundar kvitayen hain.. santosh ji abhaar.

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  9. hami se bache hain lokgeet ...ye bhediya wqt jabran thama deta hai anchahi saugaten tak padhte hue nishbd ho gya hoon ,es kalam ko salam.

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  10. hami se bache hain lokgeet ...ye ghuspaithiya wqt jabran thama deta hai anchahi saugaten tak padhte hue nishbd ho gaya hoon .es kalm ko salam.

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  11. स्त्री मन की उधेड़बुन, बेचैनी, झुंझलाहट, खीज, आशा-आकांक्षा को जितनी गहराई और प्रमाणिकता से एक स़्त्री की रचनाओं में जाना और महसूस किया जा सकता है शायद और कहीं नहीं। रचना एक ऐसा माध्यम है जहाँ एक स्त्री अपने मन को पूरी तरह उडे़ल कर रख देती है...। स्त्री के विद्रोही मन की ऊँचाई और प्रेमी मन की गहराई का असली भान उसकी रचना में ही होता है। वास्तविक संसार में वह जो नहीं पा पाती है या नहीं कर पाती है,अपने कविता-संसार में उसे अवश्य कर दिखाती हैं। एक ऐसे प्रति संसार की रचना करती हैं जो उसे पसंद है। रेखा की प्रस्तुत कविताएं इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। ये कविताएं जितना एक स्त्री जीवन के बाह्य पक्ष के बारे में बताती हैं उससे ज्यादा उसके मन के बारे में। एक स्त्री अपने आसपास को किस तरह देखती है और आसपास की तमाम चीजें और घटनाएं उसके मन पर कैसा प्रभाव डालती हैं? यह इन कविताओं में दृष्टिगोचर होता है। इनके यहाँ प्रेम और विद्रोह दोनों है। वह परम्पराओं और रूढ़ियों से मुटभेड़ करती हैं। चीजों को उसी रूप में नहीं स्वीकारती हैं जो पहले से चली आ रही हैं बल्कि आलोचनात्मक विवेक का इस्तेमाल करते हुए जो उन्हें तर्क संगत लगता है उसे स्वीकार करती हैं। स्त्री के सम्मान और स्वाभिमान के साथ होने वाला कोई भी खिलवाड़ उन्हें बर्दाश्त नहीं है।



    रेखा में अपनी बात को बेवाक रूप से कहने का साहस भी है और दृढ़ता भी। सामंती मूल्यों के प्रति गहरा आक्रोश भी दिखता है। वह उन्हें तोड़ना चाहती है। पुरूष प्रधान समाज में स्त्री के साथ होने वाले हर छल-छद्म से वह परिचित हैं। उसको अपनी कविताओं में बेवाक रूप से उघाड़ती हैं। इस दृष्टि से पिता, पति या पुत्र चाहे कोई भी हो किसी को भी कोई रियायत नहीं देती हैं। ‘स्त्री पूजा’ के प्रपंच को वह अच्छी तरह जानती और समझती हैं इसलिए उसकी कोई परवाह नहीं करती हैं। उनकी स्पष्ट मान्यता है कि स्त्री पूजा उसको सम्मान देने के लिए नहीं बल्कि सम्मान की खुशफहमी पैदा कर उसका मनमाफिक उपयोग करने की चालाक कोशिश है। महिमामंडित कर चुप कराने का षडयंत्र है ताकि उसके भीतर किसी तरह का विद्रोह पैदा न होने पाए। उसको यह खुशफहमी रहे कि कोई बात नहीं भले कितने ही दुःख-दर्द सहन करने पड़ें पर उसका सम्मान तो कायम है। लाज,प्रेम, दया, क्षमा, त्याग, विनयशीलता, आज्ञाकारिता, समर्पण को स्त्री के गहने क्यों बताए गए हैं? इसको भी वह अच्छी तरह समझती हैं। वह मानती हैं कि जब स्त्री समाज के बनाए सामंती नियम-कानूनों और मूल्यों के बोझ से बाहर निकला होगा तभी सही अर्थों में उसकी मुक्ति संभव है।- Mahesh chandra Punetha

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  12. सर जी , आपके माध्यम से - पहली बार - में बहुत अच्छी कविताएँ पढ़ने को मिल रही हैं !आप नए कवियों को मंच देकर बड़ा ही सराहनीय काम कर रहे हैं ! आपका हार्दिक आभार ,

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  13. badi sundar abhivyakti.badi pyari kavitayen.

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  14. महेश भाई ने लगभग हम सबकी बात कह दी है | रेखा जी की कविताये हमारे समय और समाज को जिस प्रमाणिकता के साथ देखती और परखती हैं , वह हम सबकी आँखे को खोलने वाली है | इन बेहतरीन कविताओं के लिए उन्हें हार्दिक बधाई ...|

    फेसबुक और ब्लागों की दुनिया ने आज हर तरह से हाशिए पर जी रहे लोगों को अपनी बात को कहने का बड़ा मंच प्रदान किया है | और जिस तरह से हम सब यहाँ जुड़े है , उसने एक दूसरे का हौसला भी काफी हद तक बढ़ाया है कि यह सिर्फ हमारी ही बात नहीं , वरन हम सबकी सम्मिलित आवाज है |यह अनायास नहीं है , कि आज की स्त्रियां हमारे समाज से ऐसे बेबाक और महत्वपूर्ण प्रश्न कर रही हैं , जिन्हें शायद पहले पूछने का चलन नहीं था | कई ऐसे नाम है , जिन्होंने इस दुनिया को इन प्रश्नों से रोशन किया है और उसे सार्थक तरीके से बदलने में अपना योगदान भी दिया है | जाहिर है , हमें एक समतामूलक और स्वतंत्र समाज बनाने के लिए इन सवालों से जूझना ही होगा ...|...मैं रेखा की कविताओं को इसी एक सशक्त आवाज के रूप में देखता हूँ ...उम्मीद है कि यह आवाज हमारी दुनिया को और अधिक समृद्ध करेगी ....पुनः बधाई उन्हें ...

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  15. sach mai bhut sundar ,marmik aur prashn khde karti kavitayen hai.rekha ji aur santosh ji aap donon ko bdai .

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  16. मुझे रेखा जी की कविता बहुत पसन्द अाई में भी उतराखंड गढवाल से हूं में पाैडी गढवाल सतपुली िक हूं आजकल जापान में रहती हु यह जानकर अच्छा लगा कि हमारे गढवाल की महिलाअौ की भी एक पहचान है आपको मेरी और मेरे परिवार की तरफ से वहुत वधाई

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  17. rekha ge aapko enternet par dekha kar ghar ke yad aa gye
    me ve gersen ka hu
    rekha ge aapke kweta pardha kar bda acha lga
    thanks rekha ge
    me ganeshrawat
    village garsan

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  18. भेड़िये कविता में तसलीमा नसरीन की छवि साफ़ दिखाई देती है लेकिन रेखा जी ने अपने मन के उबाल को शब्द दिए हैं/

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  19. रेखा की कवितायेँ उनके दिल से निकलती हैं नदी की तरह और बाहर आकर पहाड़ जैसी हो जाती हैं । उनमें जीवन का जितना विस्तार और गहराई आयगी , वे कविता के भविष्य में रंग भरने वाली कवयित्रियों में जगह पाएंगी ।

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