आलोक कुमार मिश्रा की कविताएं

 

आलोक कुमार मिश्रा 


परिचय:


आलोक कुमार मिश्रा 

जन्म तिथि:- 10 अगस्त 1984 

ग्राम- लोहटा, पोस्ट- चौखड़ा, जिला- सिद्धार्थ नगर, उत्तर प्रदेश के एक सीमांत किसान परिवार में जन्म। 

शिक्षा:- दिल्ली विश्वविद्यालय से एम. ए. (राजनीति विज्ञान), एम. एड., एम. फिल. (शिक्षाशास्त्र) की डिग्री।

सम्प्रति:- दिल्ली के सरकारी विद्यालय में शिक्षक (प्रवक्ता, राजनीतिक विज्ञान)। वर्तमान में एससीईआरटी, दिल्ली (डाइट केशवपुरम) में असिस्टेंट प्रोफेसर (राजनीति विज्ञान) पद पर प्रतिनियुक्ति प्राप्त।

रुचि:-  कविता, कहानी और समसामयिक शैक्षिक मुद्दों पर लेखन। 

समय-समय पर कई पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन। जैसे- जनसत्ता, निवाण टाइम्स, द हिंट, दैनिक जागरण, शिक्षा विमर्श, मधुमती, कदम, कर्माबक्श, किस्सा कोताह, परिकथा, मगहर, परिंदे, अनौपचारिका, वागर्थ, हंस, निकट, बहुमत, इंद्रप्रस्थ भारती आदि।


पुस्तक प्रकाशन - 

बोधि प्रकाशन से 'मैं सीखता हूँ बच्चों से जीवन की भाषा' (2019) कविता संग्रह प्रकाशित।

प्रलेक प्रकाशन से बाल कविता संग्रह 'क्यों तुम सा हो जाऊँ मैं' प्रकाशित। इसी संग्रह पर 'किस्सा कोताह कृति-सम्मान- 2020' मिला।

अनबाउंड स्क्रिप्ट प्रकाशन से शैक्षिक लेखों का संग्रह 'बच्चे मशीन नहीं हैं' (2025) प्रकाशित।

न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन से कहानी संग्रह 'दूध की जाति और अन्य कहानियां' (2025) प्रकाशित।



समय हमेशा अपनी गति से चलता रहता है। वह न धीमे चलता है न ही तेज। हालांकि हम अलग अलग परिस्थितियों में धीमे या तेज चलने का आकलन करते रहते हैं। समय के इस आलोक में ही हमारी उम्र भी धीरे धीरे बढ़ती रहती है। समय का यह चलना चलाना भी एक लय में ही होता है। हमें पता नहीं चलता और एक दिन बचपन हाथ से निकल जाता है। अभी हम कुछ रोमानी कल्पनाओं में उड़ान भर रहे होते हैं कि कैशौर्य बीत जाता है। जिम्मेदारियों को निभाने के हम इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि रफ्ता रफ्ता एक दिन जवानी बीत जाती है और हम देखते रह जाते हैं। चालीस की उम्र ऐसी ही होती है जिसके आते आते हम बुजुर्ग होने का अहसास करने लगते हैं। कवि आलोक कुमार मिश्रा का आज जन्मदिन है। इसके साथ ही उन्होंने चालीस की उम्र में प्रवेश किया है। आलोक को जन्मदिन की बधाई एवम शुभकामनाएं। चालीस का होने पर उन्होंने कुछ कविताएं लिखीं हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं आलोक कुमार मिश्रा की कविताएं 'चालीस महज़ एक संख्या नहीं है'।



आलोक कुमार मिश्रा की कविताएं



 'चालीस महज एक संख्या नहीं है'


(1)


चालीस बरस का हो गया हूं आज मैं 

बोले तो एकदम प्रौढ़


पर वो बच्चा कौन है 

जो कुलबुलाता रहता है जब-तब भीतर

ललचाता है देख कर हर सुंदर और अनोखे को

उठाता ही रहता है सवाल पर सवाल


कौन है मन के कोने में बैठा वो किशोर

जो ऊर्जा से भरा टकराता है भिड़ता है 

समय की धारा से उल्टा तैरता है 

और बजाता है हरदम बांसुरी विद्रोह की


वो बूढ़ा कौन है मुझमें

जो हर बात की ताकीद करता है शाम को

गलतियों पर डांट लगता है

जब अशांत हो जाता हूं तो शांत कराता है


कौन हैं कौन हैं ये लोग कौन हैं

जो घुसे हुए हैं वजूद में मेरे

सोचता हूं किसी दिन जब ये सो जाएंगे

उठूंगा और निकल जाऊंगा अकेले 

दूर...बहुत दूर...।


          

(2) 


चालीस का हो गया हूं

पर चालीस महज़ एक संख्या नहीं है

एक अलग अनुभूति है 

सफ़र ही नहीं एक मंज़िल भी है 


इसमें आठ साल के उम्र की निश्छलता नहीं है

न ही साथ खड़ी है चौदह में उठ खड़ी होने वाली उत्कंठा

तन-मन की देहरी को तोड़ कर छलक पड़ने वाले 

सोलह के ज्वार भी बैठ गए हैं अथाह तल में 

ऊब कर साथ छोड़ गई हैं पच्चीस की चिंताएं कब की

और तीस का जोश भाप बन निकल गया है

पैंतीस की चिमनी से कुछ ही समय पहले


चालीस का हो गया हूं

और देख रहा हूं अपना ही सफ़र ख़ुद के आईने में 

आहिस्ता-आहिस्ता

छंटती हुई धुंध उड़ रही है वर्तमान के कैनवास पर

रफ्ता-रफ्ता।


         

(3)


चालीस का होना

जैसे ज़िंदगी का सबसे शांत कोना

जहां आ कर सुस्ता रहीं हों इच्छाएं बिछा कर बिछौना 


चालीस का होना

मानो समुद्र की लहरों पर चढ़ किनारों को छूना

और वापिस लहरों पर जाने से पहले थोड़ा सुस्ताना 


चालीस का होना

ऐसा जैसे समतल सड़क पर साइकिल चलाना

चढ़ाई और ढाल को निपटा कर शांत चलते जाना


चालीस का होना 

गोया नरमी से सपनों की उंगली पकड़ना

और अपनी ही दिशा में बुला कर बिठाना, जिंवाना, सुलाना।





             

(4)


एक नई दुनिया नहीं बसाना चाहता हूं अब

उजाड़ना भी नहीं चाहता हूं ये दुनिया


चालीस में पहुंच कर


सजाना चाहता हूं 

रंगना चाहता हूं

और विकार रहित करना चाहता हूं ये दुनिया।


          

(5)


मैं अली बाबा

और मेरी उम्र बन गई है चालीस चोर


पता है मुझे

जीतूंगा मैं ही चोरों से


ये दिन चुराएंगे

और मैं

बचा ले जाऊंगा इन्हीं की रंगत।


      

(6)


चालीस में आ कर

सोचता हूं गुजर गए दादा-दादी को, नाना-नानी को

बड़ी शिद्दत से देखता हूं 

बीमार पड़े पिता और अनमनी सी मां को


अचानक डांटते हुए कहता हूं अपने बच्चों से

"जा कर दादा-दादी के पास क्यों नहीं खेलते?"





           

(7)


न हुआ होता चालीस का

तो कैसे समझ पाता ये फलसफा


कि पिता भी थे जवान आदमी कभी

और मां है महज़ मां नहीं बल्कि एक मुकम्मल औरत

पत्नी में वास करते हैं मेरे सारे नटखट दोस्त

और मेरे बच्चों में मचलती है पूरी कायनात 


चालीस महज़ संख्या नहीं

पाठशाला है उम्र के ईंटों से बनी 

जो पढ़ाती है अनुभवों की लिपि में पूरा कायदा।


             

(8)


सुस्ताहट आ तो रही है तन पर

पर हावी नहीं हो पा रही है मन पर

इच्छाएं उमग तो रहीं हैं मन में 

पर अनुभव कान मरोड़ रहे हैं उसके

भविष्य अनिश्चितता से भरा है अब भी

लेकिन कमज़ोर पड़ गया है डर उसका

जज्बे, जुनून, सपने की खाल उतार

काम पर जाने लगा हूं अब मैं

बदलाव चाह भी रहा हूं तो स्थिरता के रास्ते 

जितनी दुविधाएं घेरे खड़ी रहती हैं दिन भर

देर रात बन जाती हैं तकिया सिरहाने 

चालीस में आ कर सोचने लगा हूं

ऐ ज़िंदगी तू चीज़ क्या है!


       

(9)


जब कहता हूं कि 

मैंने देखे हैं चालीस बसंत

तो इसमें बिना कहे ही शामिल होते हैं चालीस पतझड़ भी


कहने में भले आती हो सिर्फ़ सुंदरता

पर होने में घुली होती है 

कुरूपता भी।


         

(10)


कम से कम

चालीस नदियों में तो डूब उतरा चुका होना था मुझे

चढ़ उतर तो लेना ही था चालीस पहाड़

चालीस शहरों के पते तो दर्ज़ होने ही चाहिए थे

डायरी में मेरे

चालीस प्रेमिकाएं भी होतीं तो क्या ही बात थी

(वैसे एक भी नहीं है)

चालीस दिन ही सही जिया होता ख़ुद के लिए

अनुपस्थिति में चालीस लोग ही सही

महसूसते मेरी कमी


चालीस का होने की पूर्व संध्या पर 

मन में उतर रहीं हैं

अभावों की कितनी ही चलीसाएं।


        

(11)


पहली बार चालीस में ही आया ध्यान

कि उम्र बढ़ रही है अब

देखने लगा वर्तमान के अभावों को सरपट जाते

भविष्य की राह पर

मैंने महसूस किया परिवेश को बदलते

और सीखने लगा आगे बढ़ना उपेक्षाओं को परे रखते


चालीस में ही आई मुझे सदबुद्धि  

कि मैं भी हूं ज़रूरी अपने लिए

चालीस में ही तोड़े प्रिय प्रण 

किसी बड़े निमित्त के लिए

चालीस में उगी माथे पर पुरुखों की कीर्तिगाथा

अनेकानेक संशयों की बंधी गठरियां 

बन गईं धूप में रखी कपूर


चालीस ने सिखाया

विनम्रता बोझ नहीं

क्षमा कमज़ोरी नहीं

चालीस में प्रेम हुआ अपेक्षाओं से मुक्त 

चालीस में हुआ मैं संबंधों से युक्त।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क 


आलोक कुमार मिश्रा

मकान नंबर 280, ग्राउंड फ्लोर, 

पॉकेट 9, सेक्टर 21, रोहिणी, 

दिल्ली - 110086 


मोबाइल- 9818455879

ईमेल- alokkumardu@gmail.com

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