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अवन्तिका राय |
कवि को स्वयं में एक स्रष्टा माना जाता है। कवि की कल्पना में एक समरस समाज होता है जिसमें सभी स्वतन्त्रता के साथ अपना जीवन यापन करते हैं। इस समाज में महिलाओं, दलितों, वंचितों और उपेक्षितों को भी बराबरी के साथ जीने रहने का हक होता है। हालांकि यह सोच भी एक यूटोपीया है। लेकिन मनुष्य की खूबी तो यही होती है कि वह ताजिंदगी सपने देखता है और उन सपनों को पूरा करने में खुद को खपा डालता है। अवन्तिका राय ऐसे ही एक कवि हैं जो अपनी कविता कब में कई महत्त्वपूर्ण सवाल उठाते हैं। ये सवाल उस कवि स्वप्न के हवाले से ही हैं जो कवि का मूल मंतव्य है। इसी क्रम में कवि सहज ही यह पूछता है 'कब तलक ये बस्तियां आज़ाद होंगी/ कब तलक हर पेट को रोटी मिलेगी/ कब तलक हर बेटी की इज्ज़त रहेगी/कब तलक बच्चे पढ़ेंगे मुनासिब पढ़ाई/ कब तलक हर जुल्म से होगी लड़ाई।' अवन्तिका राय अपनी कविता में उस छंद लय का भी सुन्दर प्रयोग करते हैं जो आज की हिन्दी कविताओं से गायब होती जा रही है। अवन्तिका कम लिखते हैं लेकिन जो भी लिखते हैं महत्त्वपूर्ण लिखते हैं। एक अरसे के बाद आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अवन्तिका राय की कुछ नई कविताएं। कवि के ही शब्दों में कहें तो ये कविताएं एक दीर्घ समयांतराल में कवि की अलग अलग मूड की कविताएं हैं।
अवन्तिका राय की कविताएं
मैं
थोड़ी थोड़ी मैल है मन में
मेरे उभर आने भर की!
चेहरे
लुटे चेहरे
पिटे चेहरे
घुटे चेहरे
देखो ना चेहरों को
लोमड़ चेहरे
घामड़ चेहरे
भोभड़ चेहरे
ध्यान दो चेहरों पर
गिद्ध चेहरे
बिद्ध चेहरे
सिद्ध चेहरे
देखो! देखो! चेहरों को
कुकुर चेहरे
शूकर चेहरे
फूहर चेहरे
अजी, यहां ऐसे चेहरों की भरमार है
उद्विग्न चेहरे
खिन्न चेहरे
दीन चेहरे
चेहरे ही चेहरे
उदास चेहरे
क्लान्त चेहरे
म्लान चेहरे
यह भांति-भांति के चेहरों का देश है
मोह भरे चेहरे
छोह भरे चेहरे
कोह भरे चेहरे
ऐसे भी हैं चेहरे
तुमने यहां कितने देखे
निर्विकार चेहरे
अकुंठ चेहरे
खुश चेहरे
मैं इन बहुरंगी चेहरों के देश में
उस आइसलैण्डी कवि की तरह
अभय, शान्त, स्निग्ध चेहरे की
कामना करता हूं।
सिर्फ मुझे पसन्द करोगे
मुझे यकीन है
जब तुम समुद्र पार कर के
आओगे
जब सागर का खारापन
मस्तूलों को उड़ाने वाली हवा
समुद्र के ज्वर और ज्वार का
एहसास कर लोगे
जब सागर के परिन्दों
और समुद्री डाकूओं से
कर लोगे सामना
जब जहाज पर
औंधे पड़े
तुम्हें
चांद भी मुंह चिढ़ाएगा
जब कोई न होगा पास
चारों ओर
अथाह जल
और सूना आसमान
जब तुम जहाज पर
पूरी कर लोगे
अपनी छटपटाहट भरी नाच
और तुम्हारी स्मृतियां
खलबली मचायेंगी,
जब तुम्हारी बेबसी पर
सूरज
अपने निहायत खूबसूरत क्षणों में भी
तुम्हें मायूस कर देगा,
और इस पूरी यात्रा के बाद
जब तुम आओगे
रेत पर उतर कर
खजूर के झुण्ड में
मेरे पास
सिर्फ मुझे
पसन्द करोगे!
और तब
ढेर सारी बातें होंगी
समुद्र
और
समुद्र तट के
नगरों के बारे में।
बटेश्वर के खण्डहर
ऐ बटेश्वर के खण्डहर!
तुम्हारे एक-एक पत्थर को
चुन-चुन
खड़ा करने का विवेक है
आत्मा के कारीगरों में
तुम्हें
तुम्हारा पुराना वैभव
लौटाने की सामर्थ्य है
आज के
अनपहचाने
जीवन के ताप से
निखरे
शिल्पियों में
ये कारीगर
अपने एकान्त में
तुम्हारे एक-एक
तराशे हुए पत्थर के
सौन्दर्य को
समझते हैं
भलीभांति
ऐ बटेश्वर के खण्डहर!
गुर्जर-प्रतिहार राजाओं ने
तुम्हें खड़ा किया होगा
अपनी
छोटी-बड़ी
लड़ाईयों के
विजयोल्लास में
पर समय ने
ढंक दिया तुम्हें
अपनी धूल से
अनगिनत
झाड़, पेड़ और
गर्द ओ गुबार की
तहें चढ़ गयीं
तुम्हारे ऊपर
पर तुम
कितने चमकदार होके!
इतिहास की न जाने
कितनी यातनाओं
और खुशियों
के गवाह हो!
तुमसे बात कर लेंगे
वर्तमान की
अनगिन लड़ाईयों के हिरावल
और तुम्हें
तान देंगे
तम्बू की तरह
आज के
योद्धा!
कैलाश
कैलाश, मेरे मुहल्ले का
पटरीवाला है
वह जाड़े में मूंगफली
और गर्मी में
लखनऊ की सबसे
स्वादिष्ट बाटी
बेचता है
कैलाश, यूं ही कोई पचास का होगा
जाड़े में
मूंछों पर ताव दे कर
डलिया को लाल कपड़े में लपेट
ऊंचे आसन पर विराजमान हो
बदन पर गलाबन्द कुर्ता डाल
दाहिने हाथ में तराजू
कुछ इस अन्दाज में पकड़ता है
जैसे मौसम की
सबसे कीमती चीज
बेच रहा हो
जैसे
सोना तौल रहा हो
कैलाश के तीन लड़के थे
मनोज, रामकुमार और
तीसरा जो दुर्घटना में मारा गया
दुर्घटना में
जब तीसरा मरा
कैलाश परम आस्तिक हुआ
उसको लगता
कोई न कोई पाप
उनसे जरूर हुआ
तभी से वह दार्शनिक बना
छेड़ने पर वह कहता-
‘बाबूजी
फायदा, दाल में नमक बराबर लेता हूं.’
कैलाश में
गड़बड़ की कोई गुंजाईश
नहीं दीखती
वह अपनी तरफ से
पूरा प्रयास करता कि
उसके बाकी बचे कुनबे पर
ऊपर वाला प्रकोप न करे
यहां तक कि
अगर किसी का बटुआ
सामान खरीदते वक्त
छूट जाता
कैलाश उसे
सम्भाल कर रखता
महीनों इन्तज़ार करता
और ग्राहक के न लौटने पर
मन्दिर में दे आता
कैलाश का
तकिया कलाम है
‘ऊपर वाला सब देख रहा है.’
एक दिन कैलाश
बीड़ी सुलगाते हुए बोला
‘मैं अपने धन्धे से
बहुत खुश रहता हूं
और
मेरी आत्मा पर
कोई बोझ नहीं रहता,
आने वाले दिनों का इन्तजाम
ऊपर वाले के हाथ में है
मेरा काम है करना
सो बाबूजी, कर रहा हूं.’
कैलाश
इतना बेफिक्र है
कि अच्छे अच्छे पैसे वालों को
उसकी बेफिक्री से डाह हो
कविता जैसी पत्नी के अकविता जाने तक
शून्य में ताकता है कवि
नाक पर चश्मा चढ़ाए
गाल पर हाथ रखे
कि कविता उतर आए,
कविता जैसी पत्नी
घर का सारा काम निपटाती है
इस चिन्ता के साथ
कि हे ईश्वर
आज इन्हें कोई कविता दे देना
घर्र–घर्र चलती है वाशिंग मशीन
मुन्नू के स्कूल जाने का समय
तावे पर परौठा
अरे यह क्या?
आज तो कविता जैसी पत्नी
हल्दी लाना भूल गयी
खाना कुछ उदास-उदास पकेगा
कुछ और परेशान हो जाती है,
कैसी है यह करमजली
उदासी ही भाग में बदी,
क्या लिखना चाहता है पति?
यह जो मेरा है दिखना
यही है जीवन का लिखना!
पति
प्रकाशक को लेकर परेशान
प्रकाशन के लिए जुटाना होगा
पैसा,
कविता जैसी पत्नी के पास है कुछ जोड़ी हुई रकम
जैसे भी हो
ये खुश रहें,
दे देना ये धन
छपा लेना अपनी कविता !
और इस तरह
दिन-दिन
रात-रात
बीतते गये
कविता जैसी पत्नी के
अकविता हो जाने तक।
जरा सोचो!
कितनी बार टूटी होगी धरती, जरा सोचो !
कितनी बार हुआ होगा फिर महाप्रलय
कितनी बार खोया होगा देवों ने लय
कितनी बार हुए होंगे फिर नये प्रयास
कितनी बार जुड़े होंगे लोगों के आस
कितनी बार अन्धेरा पथ में छाया होगा
कितनी बार निकल कर सूरज आया होगा
कितने संगी साथी पथ के छूटे होंगे
कितने सपने बन बन करके टूटे होंगे
कितनी यात्राओं के बाद मिले होगे फिर तुम
कितने संकल्पों के बाद लिया होगा अधरों को चूम
कितने सारस उड़े होंगे फिर मेरे भीतर
कितने मादल बजे होंगे फिर मेरे अन्दर
कितने संकल्प लिये होंगे फिर मैने
कितने रस्ते सूझे होंगे मुझको, जरा सोचो!
त्यौहारों के मौसम
और बीती ईद
आती दिख रही है पंचमी
हर्षित हवाओं में,
घोलते
खुशरंग सुवास गुलाब के
फिजाओं में
कि त्यौहारों के मौसम
निकट आ पहुंचे,
दे रहे दस्तक
छोटी और छोटू के
घरौंदों पर,
हुलसती मां
करती इन दिनों
देर तक पूजा,
पत्नी गा रही
पहन धानी रंग
उत्सवों के गीत
मेंहदी सज गयी है
गौर हाथों पर
कब
कब तलक ये बस्तियां आज़ाद होंगी
कब तलक ये बस्तियां आज़ाद होंगी
कब तलक हर पेट को रोटी मिलेगी
कब तलक हर बेटी की इज्ज़त रहेगी
कब तलक बच्चे पढ़ेंगे मुनासिब पढ़ाई
कब तलक हर जुल्म से होगी लड़ाई
कब हर बेवा की यां पर जीत होगी
कब हर बूढ़े से हमारी प्रीत होगी
कब तक चलेगा बाज़ार का अंधा ये धंधा
कब थालियां सबके लिए होंगी फिर मंदा,
कब तक प्रेम को समझेंगी अंधी टोलियां
कब तक बेगुनाहों पर चलेंगी गोलियां
कब मासूमियत की कद्र होगी देश में
कब तक ठगेगा रहजन वल्कल भेष में
कब तक लहुलुहान होते रहेंगे स्वप्न सारे
कब तक अन्धड़ों का जोर होगा मेरे प्यारे
कब अकलियत पर जुल्म ये काफ़ूर होगा
कब दम्भ रावण का यहां फिर चूर होगा
कब तक पत्थरों का ही यहां पर राज होगा
कब तक नोट के बल पर सारा काज होगा
कब तक सूख कर ये स्याह पड़ते होठ सारे
कब तक बस्तियों में बारूदी यह गन्ध प्यारे
कब तलक हर सांच पर पर पहरा रहेगा
कब तलक हर झूठ के माथे यहां सेहरा रहेगा
कब तलक सब विवेक से आगे बढ़ेंगे
कब तलक अविवेक की पीड़ा सहेंगे?
कब तलक हर सूट वाले का यहां सम्मान होगा
कब तलक हर भीखू का हर कदम अपमान होगा
कब तलक ये बस्तियां आज़ाद होंगी
आख़िर कब तलक ये बस्तियां आज़ाद होंगी
तुम आ जाओ हे राम!
कोल-भील, वानर औ आदि जनों की सेना थी
हे राम तुम्हारे साथ
तुम लड़े-भिड़े
अपना सब कुछ
खोने के हद तक
सोने की लंका के खिलाफ
तुम लड़े
शान्ति को
धरती पर लाने के खातिर
अपना सब कुछ खोने के हद तक
सोने की लंका के खिलाफ
सोने की लंका दीख रही है साफ-साफ
मारीच बदलता रूप
वानर सेना है अति अकुलाती
फिर ऐसे में तुम क्या करते हे राम?
गर होते यदि तुम धरा-धाम पर
चलने देते
सोने की लंका का विधान?
या आदि जनों की सेना ले कर
चल पड़ते
इस अखिल विश्व को
शान्त अवस्था तक पहुंचाने
प्रेमपूर्ण, समतामय और सुबुद्ध बनाने
वन-प्रान्तर सब सूख रहे हैं
है संकट में सीता के दुर्दिन का साथी
भोला अशोक
पशुओं का क्या
अब मानव भी क्रन्दन करते
फिर ऐसे में तुम क्या करते हे राम
गर होते यदि तुम धरा-धाम पर
हैं नगर, ग्राम सब अस्त-व्यस्त
सब जगह की धक-चक
हर चीज यहां गुत्थम-गुत्था
है पवन यहां सर्वत्र कालिमा लिए हुए
नदियां दूषित, सब कुछ कलुषित औ मलिन यहां
जलचर, थलचर, नभचर हैं सब तड़प रहे
फिर कैसे तटस्थ रह पाते तुम हे राम
गर होते तुम इस धरा-धाम पर
दशकन्धर दस शीशों से क्या बोल रहा है
ऋषियों का सिंहासन कैसा डोल रहा है
सरस्वती की हाय ये कैसी दुर्गति होती
आदि जनों को देख यहां सीता भी रोती
ऐसे में वनवास तुम्हें लेना ही होता
वन के खातिर
जन के खातिर
संकल्पबद्ध होना ही होता
आखिर तुम यह सब करते क्यूं न राम
गर होते यदि तुम धरा-धाम पर
कोने कोने में मानवता चीत्कार रही है
सोने की लंका दुनिया को ललकार रही है
सुग्रीव यहां फिर डर कर घर को छोड़ चुका है
विभीषण भी तुमसे अब नाता जोड़ चुका है
फिर तुम चुप कैसे रह पाते हे राम
गर होते यदि इस धरा-धाम पर
सब कुछ अब अपने मूल रूप को भूल चुका है
आंखों पर अब दुनिया भर का धूल जमा है
सोने की लंका झोंक रही नित छल-बल
फिर तुम चुप कैसे रह जाते हे राम
नील-कमल नयनों से निरख निरख कर
कितनी कराह, कितनी पीड़ा
कितनी तो जग में आह भरी है
पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण
सब ओर निशा का धाह खड़ा है
है गहन आसुरी वृत्ति हर तरफ जुगुप्सा
सोने की लंका फेंक रही लिप्सा ही लिप्सा
फिर ऐसे में आजानबाहु तुम क्या करते
गर होते यदि इस धरा-धाम पर
तुम अल्पसंख्यकों की भी सुध-बुध लेने वाले
शबरी के होने को भी ना तुम खोने वाले
जामवन्त को भी केवल तुम ही ने जाना
जटायु से भी स्नेह रहा सबने ही माना
फिर तुम चुप कैसे रहते हे धृतिमान
इन आक्रान्त जनों के इतने अपने हो कर
नियतात्मा, सबमें हो तुम बीज रूप में
तुम जगो कि जगना ही अब केवल चारा है
संघर्ष-प्रेरणा बन कर तुम अब उठ बैठो
संघर्ष बिना ही सत केवल तम से हारा है
यह हार नहीं बस गरहन है कुछ दिन का
सोने की लंका अल्प-अवधि की ही सच्चाई
फिर पूर्ण सूर्य का ही होना दर्शन है
तुम आ जाओ हे राम पुकारे जन-मन
तुम आ जाओ हे राम हमारे हो कर!
अतुल्य भारत
अंधेरी बन्द गलियां
जिस बाड़े के दरवाजे से मिलती हैं
वहां रौंदा जा रहा है बचपन
सफेदपोश कसाईयों के हाथों,
झक्का-झ्क्क कुर्ता पहने
इन कसाईयों की गाल बजाती तस्वीरें
टी.वी के परदे पर बाद में आती हैं,
ये सड़ान्ध, ये भभका मारते बाड़े-
जहां से पन्नी बटोरता है सलीम
जहां जरी के काम में घिस रही हैं
पतली मासूम अंगुलियां
जहां तेजाब और पेन्ट से छलनी हो रहे हैं
नन्दू और पिंकी के सीने
वहां नाक पर सफेद रुमाल लगाये
नेता गुजरता है पांच साल में एक बार
'भारत निर्माण', 'सबका हित' का विज्ञापन
चलता है टी. वी. के पर्दे पर
पर्दे पर व्यंजनों के चटखारे लेता है पत्रकार
और पीयर्स, मोती और खस से नहाने वालों की
जीभ लपलपाती है,
पर्दे पर दिखती है आवारा कुत्तों की फौज
भागता है सनकुट बालों वाला बच्चा उनके पीछे
और मेरे सरकारी फ्लैट के नीचे
गोबर में दाना तलाशता है कुत्ता,
गाय को पूजता है नेता
और गायों का झुंड
फ्लैट के नीचे
दरवाजों के पास मुंह उठाये
कुछ नही तो खाने के लिये
जूठ में लिथड़ी पन्नियां हैं
(पन्नियों पर गाय और
तिल्लीदार पहिये से झांकती
नन्हीं मोहसिना की नजर है)
परदे पर विज्ञापन उभरता है
अतुल्य भारत!
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
मोबाइल : 9454411777
बहुत मार्मिक
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