डॉ शाश्विता






          जन्म -  जम्मू में 
          माँ -     सुश्री सुनीता [ सेवानिवृत्त प्रवक्ता ]
          पिता -  विपिन चंद कपूर [ जे एंड के, के भूतपूर्व उपमुख्य मंत्री के सेवानिवृत्त निजी सचिव ]
          शिक्षा -  महाराष्ट्र से बी एम एस
          लेखन - नौवीं कक्षा में कुछ लघू कहानियाँ लिखी फिर एक विराम के बाद  कॉलेज के दिनों में कविताएँ लिखनी शुरू की 
          प्रकाशित - प्रेरणा, अभिव्यक्ति, दैनिक कश्मीर टाइम्स आदि में 
          प्रेरक -   महादेवी वर्मा और सुभद्रा कुमारी चौहान
          अन्य -  आकाशवाणी से कविता पाठ और गोष्ठियों का प्रसारण , अनेक मंचों से कविता पाठ 
          आजीविका - आयुर्वेदिक डॉक्टर

शाश्वती की कविताओं में प्रेम की सघन अनुभूति है। यह अनुभूति एक नारी की वह अनुभूति है जो उसे कुदरती तौर पर हांसिल होती है। ऐसी ही अनुभूति वाली कवियित्री कह सकती है 'मैंने वो सब सुना / जो उसने कभी न कहा/ मैंने वो सब छुआ /जो भी उसने छुपाया।' एक नारी का प्रेम कुदरत की तरह ही बहुवर्णी होता है। जब वह प्रेम में होती है तो वह प्रेमिका होती है, पत्नी होती है, माँ होती है, बहन होती है, और भी न जाने क्या-क्या .... जिसके बारे में अनुमान लगाना भी मुश्किल। तो आईये पढ़ते हैं आज शाश्वती की कुछ ऐसी ही कविताएँ।  
                                                                                                                                                                                                                                                                             
         सहवेदना 


         मेरे घर की 
         जूठन घिसती ...
         तेरे हाथों की लकीरों को 
         देना चाहती हूँ कुछ और 

         तेरी जवान उम्र की 
         झुर्रियों को 
         उतरन 
         दया 
         घृणा से कुछ अलग 
         कुछ और देना चाहती हूँ 

         नारियल फल 
         काली दाल में कैद 
         परिवार की बलाओं के साथ 
         कुछ और भी 

         मैं जानती हूँ
         तुम्हारी 
         तीस दिन की जी तोड़ मेहनत 
         हथेलियों पर 
         छन से गिरते 
         चन्द सिक्कों का संगीत नहीं 

         मैं देना चाहती हूँ 
         तुम्हारी 
         मजबूर आँखों को 
         एक तृप्त अहसास ...

         मैं जानती हूँ 
         तेरी उमंगों के पंछी 
         कहाँ कूकते हैं 
         मन की बगियों में 
         चाहते हैं 
         खुला आकाश  
         कुछ बूंदें
         और आग  
   
         देना चाहती हूँ तुम्हे 
         गीली मिट्टी की खुशबू 
         छोटी छोटी आशाओं में 
         क्षितिज का इंतज़ार।

         तेरी मैली काया में
         बेबसी की धूप लिए   
         मैं ही झुलस रही हूँ 
         ऐ अजनबी 
         तुम 
         मेरे दिल में धड़कती 
         मेरे अक्स का रूप हो 

         मैं देना चाहती हूँ तुम्हे कुछ और 
        
         कुछ और भी 
         जो तुम चाहती हो 
         जो मैं चाहती हूँ 
         शायद
         ईनाम और प्रमाण 
         तेरे मेरे इन्सान होने का।


          वो  

         उसमें है आग 
         जो पकाती है हौसला 
         जलाती है लौ 

         चिंगारी हो जाती है 

         उसमें है घास 
         जो पीती है पानी 
        ओढ़ती है धूप 
        झेलती है आपदाएं तमाम 
        अजनबी आहटें उस पर से 
        गुजरती हैं ...
        वो देखती है 
        मिट्टी के सपने 
        मिट्टी उसे
        वो मिट्टी को सहेजती है 
        जहाँ भी लगाओ उसे 
        वो हरी हो जाती है 

        वो देखती है 
        पर्दे का सच 
        और 
        अस्तित्व हो जाती है 

        उसे समेटना असम्भव हो जाता है।
         
        
मैंनउसे छुआ 
        मैंने उसे छुआ   मैंने उसे छुआ 

        उसके अधखुले होठों पर 
        बेजुबान बातें थीं 
        विरासत में थे मैले दिन 
        बदनाम रातें 
        कुछ ज़िद थी 
        थोड़े हौसले भी 
        इन्सान हो पाने की कोशिश 
        जीने का सामान भी था ...

        मैंने वो सब सुना 
        जो उसने कभी न कहा
        मैंने वो सब छुआ 
        जो भी उसने छुपाया।


       
         रात 

       जब सो रही थी 
       शहर भर की थकान 
       तमाम बेईमानियां भी 
       सो रही थी 

       जब सो रही थीं 
       खुद को बचाए रखने की 
       ईमानदार कोशिशें 
       सम्बन्धों में फैलती उदासी भी 
       सो रही थी 
       निराशाएं कहीं 
       जब करवटें ले रही थीं 
       वो 
       धरती और आकाश बीच 
       चांदनी को ओढ़े 
       सम्पूर्ण अस्तित्व संभाले 
       फैल रही थी 
       अपनी ही तरह 

       सदियों से खामोश विराट 

       ठीक उसी समय 
       मैंने देखा आईना ...
       आज फिर 
       तन्हा 
       गर्भित 
       संवेदित 
       उम्मीद से है रात।
       


        स्त्री 

      उसके आँगन की तुलसी 
      हेमंत में भी 
      हरी रहती है 
      चाँदनी उसे छूने को 
      ज़मीन तक 
      उतरती है 
      नक्षत्र 
      उसकी लकीरें 
      करीब से पढ़ते हैं 
      बादल 
      उसकी मुंडेर को 
      बिन सावन 
      तरसते हैं
      हवा 
      उसके कानों में 
      पहली दस्तक देती है 
      उसकी 
      आँखों में नाचता है 
      बसन्त 
      खुशबू 
      मंद-मंद
      सिंगार करती है ...

      जब  
      स्त्री प्रेम करती है 
      रूप और रंग बदलती है 
      गुलाबी अदा
      केसरी होने लगती है 
      
      वह माँ होने लगती है 

      प्रेमिका से 
      माँ का सफर 
      माँ में 
      प्रेमिका की झलक 
      स्त्री 
      प्रेम में 
      तय करती है
      प्रेम में 
      स्त्री 
      गज़ब करती है 
      स्त्री प्रेम में 
      प्रकृति हो जाती है।



       घोषणा  

      नाम - अबला 
      जाति - लज्जा 
      कुल - बेबसी 
      गुण - पंगु 
      उत्पत्ति स्थान -चारदीवारी 
      कर्म - इंतज़ार 
      पर्याय - बेचारी, अकेली, कमज़ोर 
      उपयोगिता - सुबह से सुबह तक 
      ऐसी स्त्री
      अब नहीं पाई जाएगी 
      वो आ चुकी है 
      लाल रंग के साथ 
      भुजाओं में 
      छातियों में 
      कौंध जाएगी 
      पहली चीख से 
      अनन्त गूँज तक 
      वो रगों में फैल जाएगी 
      नकाबपोश 
      अब नज़र नहीं  आएंगे 
      वो चेहरों को 
      मौलिकता दिलाएगी 
      उसकी पहचान 
      कुछ इस तरह है -
      
      नाम - प्राण 
      जाति - मानवता 
      कुल - जीवन 
      गुण - समानता 
      कर्म - प्रेम 
      पर्याय - तुलसी, अमृता, कुमारी 
      स्थान - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश 
      उपयोगिता - दूध की पहली बूँद से 
                      अंतिम अग्नि तक।
       

सम्पर्क - 
C/O - V.C KAPOOR
 H.NO. - 67
Sector - 4 , Upper Roopnagar , Jammu.
J & K .

 Mobile No. - 9419795296.

इस पोस्ट में प्रयुक्त समस्त पेंटिंग्स पाब्लो पिकासो की हैं।
                 

टिप्पणियाँ

  1. Sarvprathm Santosh jee Dr. Shashvita ko yah manch dene ke liye bahut bahut dhanyavaad.Is blog hetu hamaara sahyog bhee yun hi bna rahega.Dr.Shashvita jee aapki kavitaon ke upar main khulte kibaad me lambi tippni kar hi chuka hun baharhaal kavitain uplabdh karvaane hetu dhanyavaad.Dheron Shubhkaamnain. -Kamal Jeet Choudhary ( J n K )

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  2. शाश्विता जी... आपकी कव‌िताएं हर बार अलग स्वाद दे जाती है। पहली बार पर आने के लिए बधाई। सभी कविताएं अच्छी लेकिन 'मैंने उसे छुआ' और 'स्‍त्री' कविताओं का अहसास अलग ही दुनिया में ले जाता हैं।
    आभार

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  3. कवितायें पसंद आईं, किंतु कविताओं के विषय में जो वक्तव्य दिया गया, क्या नहीं लगता कि वो एकांगी हो गया है...

    जवाब देंहटाएं
  4. शाश्विता जी आपको एक दो मंचोँ से सुनने का अवसर मिला जिसमेँ स्त्री कविता को सुना था। अभी कुछ दिन पहले आपको खुलते किवाड पर पढा बहुत अच्छा लगा। माननिय कमल जी के प्रयास से आपको दूसरी बार पढने का मोका मिला बडी प्रसन्ता हुई। पहली बार पर छपने के लिए आपको वधाई। सहवेदना, उसको छुआ मैँने, स्त्री कवितओँ मेँ मन को छू लेने की अजब शक्ति रखती हैँ

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  5. कविताओं पर बोहुत से महानुभावों की टिप्नियाँ आती रहेंगी मैं इतना ही कहना चाहता हूँ की शाश्विता को निरंतरता बनाये रखनी होगी अगर काव्य पटल पे अंकित होना है तो /कमलजी के प्रयासों को सलाम /वे एक आलोचक भी बनते जा रहे हैं /

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  6. Bhai meet jee matra do chaar aalekh se yah tya mat kariye ki main aalochak ban raha hun . Yah bhee mere kavyakarm ka hissa hai . Yahan lagai hui tippni meri nahi hai . Maine sirf kavitain uplabdh karvai hai . Naresh jee Aap Santosh jee ka abhaar vyakt karen . Vaise pahleebar ko pyaar dene ke liye haardik dhanyavaad.

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  7. stri ka jeevan aur uske bhavna, iska itna acha varnan pahleebar pada,apne shiv ki adishakti ka uchit mulankan kiya hai, god bless you.

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  8. सर्वोत्त्कृष्ट संकलन
    हिन्‍दी तकनीकी क्षेत्र कुछ नया और रोचक पढने और जानने की इच्‍छा है तो इसे एक बार अवश्‍य देखें,
    लेख पसंद आने पर टिप्‍प्‍णी द्वारा अपनी बहुमूल्‍य राय से अवगत करायें, अनुसरण कर सहयोग भी प्रदान करें
    MY BIG GUIDE

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  9. commendable... far from our thoughts... God bless u... :)

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