लोर्का: जातीय लोकधर्मी कवि



जनवरी 2013 से पहली बार पर हमने 'विश्व के लोकधर्मी कवियों की श्रृंखला' आरम्भ की थी। इसे हमारे आग्रह पर वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी ने 'पहली बार' के पाठकों के लिए लिखा है। इस श्रृंखला के अंतर्गत आप वाल्ट व्हिटमैन, बाई जुई, मायकोव्स्की एवं नाजिम हिकमत को पहले ही पढ़ चुके हैं। इस बार प्रस्तुत है विश्वविख्यात कवि लोर्का पर आलेख 

लोर्का: जातीय लोकधर्मी कवि 

विजेन्द्र

      
स्पानी भाषा के विश्व विख्यात जातीय लोकधर्मी कवि फैडिरिगो गार्सिया लोर्का (1899 -1936) की उन्हीं के देश में उनकी निर्मम हत्या की गई। लोर्का, ब्रेख्त, नेरुदा, नाज़िम हिकमत तथा माइकोव्स्की आदि कवियों के कथ्य तथा रूप दोनों में भिन्न कवि हैं। कहना न होगा कि लेार्का की ऐतिहासिक स्थितियाँ ठीक वैसी है जैसी ब्रेख्त या नेरुदा की। 1930 का दशक योरुप या कहें पूरी दुनिया के लिये बड़े भयावह संकट का समय है। तीसरे दशक के प्रारंभ में चारों तरफ एक अराजकता का महाहौल था। विध्वंस की कारुणिक चीखें थी। महाविपत्ति तथा अनर्थ का जयघोष सुनाई पड़ रहा था। डव्ल्यू एच आडिन की एक कविता में तीस के दशक की मनोरचना तथा भावोद्वेग का अच्छा चित्र दिया है -

हम ने सब संभावित तैयारियाँ कर ली थी
संस्थानों की सूचियाँ तैयार थी   
हम अपने  अनुमानों को
बराबर सुधारते थे
अपेक्षा के अनुसार
अधिकतर हम में से आज्ञाकारी थे यद्यपि अंदर अंदर बड़बड़ाहट थी
गंभीर शंकाये किसी में न थी
यदि विजयी नहीं हुये
तो जीना मुमकिन नही था
इसी प्रकार एक दूसरे प्रमुख कवि सिसिल डे लेविस कह रहे थे -
अपने पूर्वजों के प्रति निरादर
वारिसों के प्रति लापरवाह
जो लेते हैं घूँस
वे उसी से होंगे नष्ट
सूखे पटपर में मरेंगे
पागलखानों में उनका होगा अंत
बच्चे अभिशप्त है... अब भी उनका भय..
उनका पागलपन हमें रुग्ण करता है
यह तराशने वाला समय है
अभी बचे तो बचे
अन्यथा कभी नहीं
हम अतीत से कट चुके है .....।


यह बहुत ही रुचिकर है जानना कि आखिर ब्रिटेन में कवि राजनीति से क्यों इतने संबद्ध हुये। उनके बदले हुये सौंदर्यबोध के क्या आधार थे। ‘कला कला के लिये’ कहने वाले रूपवादी कवि अपना प्रभाव खोते जा रहे थे। उनके बारे में कहा गया कि ‘उनकी त्रासिक मृत्यु’ हो चुकी है। या फिर अपने ‘यकीन से त्रासद ढंग से मुकर’ चुके हैं। वाम पंथी रुझान कविता में उभर रहा था। ऐसा लगने लगा था कि ब्रिटेन का पुनर्जन्म अराजकता और विध्वंस के बीच से ही होगा।

तीसरे दशक में कविता के लिये सबसे बड़ा खतरा फासिस्ट राजनीति से था। फासिस्टों की तानाशाही ने बहुत सा साहित्य नष्ट कर दिया था। बहुत से लेखकों को निर्वासित कर दिया गया था या वे न लिखने को विवश थे। ध्यान रहे फासिज़्म का सबसे बड़ा शत्रु कला और साहित्य ही होंता है । सबसे पहले वह प्रबुद्ध तथा अग्रगामी लेखकों तथा बुध्दि जीवियों का ही सफाया करता है। इसी समय जेम्स ज्वाइस का प्रख्यात महाकाव्यीय उपन्यास ‘यूलिसिस‘ प्रतिबंधित हुआ। डी0 एच0 लारेन्स के उपन्यास ‘लेडी चेटर्लीज़ लवर’ पर रोक लगा दी गई। स्पेन में फासिज्म का उभार बढ़ रहा था। बाहर से बुर्जुआ और जनविरोधी ताकते उसे मदद कर रही थीं। लोकतांत्रिक मूल्यों को धूल धूसरित किया जा रहा था। फ्रांस की क्रांति विश्व के सर्वहारा के लिये एक जोतिस्तंभ बनी थी। पर फासिज़्म दुनिया के लिये सबसे बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण त्रासदी थी। योरुप के अधिकांश लेखक स्पेन की तरफ से लोकतंत्र के लिये संघर्षरत थे। सच में स्पेन के कवियों को स्पेन के युध्द के निहितार्थ दूसरे विश्वयुध्द से ज्यादा स्पष्ट थे। फासिज़्म के इस दौर में कविता को उस समय आघात पहुँचा जब वह 17वी सदी के बाद से अपने  देश में शिखरोन्मुख थी। नई पढ़ी के अनेक कवि कविता के बेहतर भविष्य का भरोसा दे रहे थे। इन्हीं प्रमुख कवियों में फैदिरिगो गार्सिया लोर्का तथा रेफैल अल्बर्ती आदि थे। इनके अलावा भी कई अच्छे कवि थे जो लोकतंत्र की पराजय के बाद स्पेन छोड़के चले गये थे। फ्रेंको ने जब स्पेन में कदम रखा उस समय वहाँ की संस्कृति बहुत पुष्पित पल्लवित थी। जब उसने अपना शिकंजा कसना शुरू किया तो कुछ बचे कवियों ने चुप्पी साध ली। शेष अमरीका के लिये निर्वासित हुये। कुछ मैक्सिको के लिये चले गये। कुछ अर्जिनटीना तथा ब्रिटेन को। कुछ को मौत के घाट उतार दिया गया। कुछ को कारावास की अंध कोठरियों में डाल दिया गया। ऐसी स्थिति में ही लोर्का की फासिज़्म के उभार के समय हत्या कर दी गई। यह एक राजनीतिक हत्या थी। यद्यपि कुछ लोगों का कहना है कि इस मेधावी कवि को निजी रंजिश की वजह से मार दिया गया। लेकिन यह एक ऐसा त्रासद प्रसंग है जो किसी भी देश के लिये न धुलने वाला कलंक कहा जा सकता है। गृहयुद्ध के समय ऐसी दुखद घटनायें अक्सर घटती हैं। सबसे त्रासद बात है कि कवि लेार्का ही सबसे पहले क्रूर फासीवादी महाविनाश के शिकार बने! यह कुकृत्य प्रतिगामी शक्तियों ने अंजाम दिया था। अतः लोर्का की हत्या एक प्रकार से लोकतांत्रिक मूल्यों के लिये संघर्षरत कवि की शहादत ही कही जायेगी। फासिज़्म के कसाईपन की क्रूरता के इतिहास में कवि लोर्का ज्चलंत प्रतीक बन चुके है। ध्यान देने की बात है कि लोर्का राजनीतिक कवि नहीं हैं। उनकी कवितओं में से उनकी राजनीतिक विचारधारा को अलग फटक लेना बहुज कठिन है। जैसे शेक्सपियर के यहाँ भी उनकी राजनीतिक विचारधारा को अलग करने में कठिनाई होती है। लोर्का स्पेन की सरकार के यहाँ मुलाज़िम थे। नाटकों का मंचन कराते थे। नाटक तैयार कराते थे। उनमें वाम की तरफ झुकाव जरूर था। सामाजिक लोकतांत्रिक दल से जुड़े उनके एक रिश्तेदार ग्रांदा शहर में मेयर थे। इस में संदेह नहीं लोर्का प्रतिरोधी कविता के पहचाने हुये कवि थे। उनका झुकाव लोक तथा लोक संस्कृति की तरफ बहुत ज्यादा था। लोर्का की कविता का मूल स्वर समकालीन समाज के बंजरपन का तीखा विरोध है। यह बंजरपन उन्हे मनुष्य में भी दिखाई पड़ता था। उन्हें अपने जनपद अन्दालूसिया के आदिमपन में बड़ी जीवंतता तथा शक्ति दिखाई पड़ती थी। उनकी कविता की प्रमुख प्रेरणा यही है। वहीं से वह अपनी कविता का खनिज दल चुनते हैं। अपने जनपद के आदिवासी तथा घुमक्कड़ कंजरों( जिप्सियों) में उन्हें जीवन की बड़ी सकारी खूबियाँ दिखाई पड़ती थी। स्पेन में या कहें पूरी दुनिया में आज तक ये लोग उपेक्षित हैं। उन पर दिल दहलाने वाले अत्याचार हो रहे हैं। उनका शोषण हो रहा है। उनके नैसर्गिक संसाधन तथा उनकी पुश्तेनी जमीन हड़पी जा रही है। उनकी अपनी संस्कृति है। साहित्य है। कला है। संगीत है। नृत्य है। इसके साथ ही उनका संघर्ष पूर्ण जीवन भी है। वे अब अपने अधिकारों के प्रति सजग होकर लड़ रहे हैं। हमारे यहाँ कवियों की दृष्टि उनके सांस्कृतिक तथा मनोरंजक रूप पर तो जब तब रीझती है। पर उनके सतत संघर्ष को आँख ओट किये रहती है। बुर्जुआ इतिहास ने उनके मनोरंजक रूप का तो चित्रोपम वर्णन किया है। पर उन्होंने लोक के संघर्षमय रूप को या तो कूटोक्तियों से ढका है। या फिर उसकी घोर उपेक्षा की है। ठीक यही बात कवियों के बारे में सही है। लोर्का लोक के लिये युद्धरत थे। उनकी कविता में जिप्सी जनजातियों तथा सिविल गार्ड्स के बीच शत्रुता और संघर्ष के बिंब चित्र मिलते हैं। उनकी कविता में लोक में घटित अधम झगड़े टंटे, फटेहाल स्थितियाँ,  घृणित द्वेष तथा नीच प्रवृत्तियों का घना द्वंद्व है। ऐसा वर्ग द्वंद्व आधुनिक कविता के पिता कहे जाने वाले एलियट की कविता में नहीं मिलता। इतनी तरह लोकधर्मिता न तो नेरुदा में हे। न ब्रेख्त में। न नाजिम में। न एलियट के बाद के अंग्रेजी कवि आडिन ,स्पैण्डर ,लुईमैक्नीज तथा सिसिल डे लेविस में। एलियट को हर बुराई की वजह धार्मिक मूल्यों का पतन लगता है। वह यह नहीं बताते कि पूँजीवादी व्यवस्था में धर्म, सौंदर्यबोध और नैतिकता भी अन्य मानवीय मूल्यों की तरह विकृत होकर अपना सार खो देते हैं। आडंबर , चमत्कार तथा अंधविश्वासों पर जोर ज्यादा होता है। लोर्का में बिखरे खून की ध्वनियाँ सुनी जा सकती है- ‘न्यायाधीश सिविल गार्ड के साथ आते हैं/ वह जैतून के बगीचे से होके आते हैं/ रपटीला खून शांत सर्प के गीत में कराहता है/ सिविल गार्ड के सज्जन!....यह वही पुरानी व्यथा कथा है/ रोम के चार जनों की हत्या कर दी गई/ पाँच कार्थेज के लोगों की।' यहाँ लोर्का मरते आदमी की कराहटें बता रहे हैं। उन्हें बहुधा हम सुन नहीं पाते। धरती वर लाल खून की टपकन को लोर्का सुर्ख रंग से नहीं बताते। बल्कि किसी काल्पनिक शांत संगीत के द्वारा व्यक्त करते हैं। इस प्रकार मौखिक तथा दृश्य ऐंद्रिय संवेदनों से लगता है भाषा एकदम जैसे क्षीण बल हो रही है। यदि लोर्का मरते हुये आदमी के खून को परंपरति ढंग से सुर्ख तथा इसका टपकना सर्प तुल्य बताते तो शायद पाठक पर इतना सटीक प्रभाव नहीं पड़ता। इस तरह की वाग्मिता 17वी सदी की स्पानी तथा अंग्रेज़ी कवियों में मिलती है। पर लोर्का उनके संदर्भ तथा  शैली की मौलिकता से उसे अधिक रुचिकर, असरदार तथा नया बनाते हैं। इस प्रकार बिंबों की इस चमक में फ्रैंच कविता की ऐसी फैशन परस्ती नहीं है जहाँ ऐन्द्रिय संवेदनों में संभ्रम पैदा होता है। लोर्का के जनपद अन्दालूसिया की यह वह लोकधर्मी परंपरा है जिससे कविता का तीखा प्रभाव सीधे मन पर पड़ता है। इसी लोकधर्मी परंपरा को लोर्का बिना अपनी उपेक्षा की चिंता किये आगे विकसित करते गये हैं। हिंदी में लोकधर्मी कवियों की -निराला से ले कर आज तक -ऐसी उपेक्षा का इतिहास मिलता है। पर लेार्का अपनी कविता के लिये आज प्रासंगिक तथा मूल्यवान हैं। उनकी काव्य पंक्तियाँ बता देती है कि वे लोर्का की ही हैं। ऐसी काव्य पहचान तभी होती है जब कवि लोक के अंतरंग में रच बस कर उसे अपनी रगों में बहने देता है। लोर्का कहते हैं -

पूरे अरुणोदय के लिये मुर्गा
अग्निज तूर्यनाद जरूर करेगा
किरमिची रंगों में गाता हुआ 
कोमल शाखों में जैसे अरुणोदय आँच सुलगा रहा हो.....।


अपने जनपद के जिप्सियों के गान, नृत्य, हर्षेाल्लास तथा सिविल गार्डस से उनके सतत संघर्ष  को लोर्का अपनी कविता में जीवंत करते रहे हैं। तीस के दशक में लोर्का ने अमरीका की अनचाही यात्रा की। उन्होंने वहाँ के नीग्रो जाति के शोषित दमित लोगों में वही खूबियाँ देखी जो उन्हें अपने यहाँ के जिप्सियों में दिखती थी। इस यात्रा को कवि का बहुत ही महत्वपूर्ण अनुभव कहा गया है। न्यूयार्क, वर्मान्ट तथा हवाना में उनके रहने से उनकी विश्वदृष्टि ही बदल गई। यह कवि की पहली यात्रा थी। यहाँ उनका सामना धार्मिक तथा जातिगत विविधताओं से हुआ। उन्होंने पहली बार एक लोकतांत्रिक देश को देखा। एक ऐसा कवि जिसके  गहरे सरोकार हो उसे इन बातों को देख कर नये स्वन -नई दुनिया की कल्पना होगी ही। यहाँ आने से लोर्का की स्पानी रंग मंच से मानसिक दूरी बढ़ी। उन्होंने अपने परिवार वालों को लिखा -‘स्पेन में जो कुछ अस्तित्व में दिखाई पड़ता है वह मर चुका है। या तो रंगमंच को बुनियादी तौर पर बदलना चाहिये। नहीं तो यह सदा के लिये नष्ट हो जायेगा। इसका अन्य कोई समाधान नहीं है।


 न्यूआर्क तथा क्यूबा की यात्रा लोर्का ने बहुत ही कठिन समय में की थी। 30 वर्ष की उम्र में उन्होंने अपने एक मित्र को लिखा था कि वह ‘बहुत ही गहरे संकट से गुज़र’ रहे हैं। इन्ही दिनों ( 1928 ) उन्होंने अपने अनेक पत्रों में ‘संवेग संकट’ की बात भी कही है। प्रेम आदि के बारे में उनका मोह तथा संभ्रम टूटने लगे थे। उनकी विश्व विख्यात कविता, ‘द जिप्सी बैलाड्स’ ने उन्हें राष्ट्रीय ख्याति दी। तभी से उन्हें ‘जिप्सी कवि’ कहने लगे हैं। उनके निजी जीवन के कुछेक अंतर्विरोधों को स्पेन के लोग सह नहीं सके।  न्यूयार्क में आकर उन्होंने जो कवितायें लिखी उनमें सामाजिक अन्याय पर तीखे प्रहार हैं। यही नही उनमें महानगरीय कुलीन सभ्यता की कटु भर्त्सना भी है। अंदरूनी रिक्तता की आलोचना है। बल्कि इन कविताओं मे ‘तत्वमीमांसीय अकेलेपन’ के प्रति एक ‘अंधकार पूर्ण चीख’ भी सुनाई पड़ती है। लोर्का ने अमरीका की आंतरिक रिक्तता पर गहरा प्रहार किया है।

लोर्का अपने आस पास के दुख को गहरी संवेदना से देखते हैं -

‘मृत्यु के साथ जो वेदना जुड़ी है/
उसे हरेक जानता है/ 
पर सच्चा दुख चेतना में नहीं रहता/ 
न हवा में/ 
न हमारे जीवन में/ 
न इन लहराते धुओं के कगारों में/ 
सच्ची वेदना हरेक को जगाती है/ 
यह बहुत नन्ही है / 
असीम जलन / 
अन्य व्यवस्थाओं की अबोध आँखों पर .....। 

लोर्का के लिये बुद्धि से अधिक कलापरक प्रेरणा पर ज्यादा भरोसा है। लोर्का का काव्य बोध बहुत गहरा है। अन्य व्यवस्थाओं में चिड़ियाँ हैं। पेड़ों के तने, जल, रेत, चंद्रमा तथा अन्य ग्रह हैं।  कहा गया है कि अन्य किसी स्पानी कवि ने वस्तुओं की अशुभता तथा बाह्य खूबियों के बारे में अपने पाठकों को इतना सजग नहीं किया जितना लोर्का ने। न्यूआर्क की कविताओं में सामाजिक अन्याय, अज्ञात प्यार,  तथा आस्था के अंत पर अधिक बलाघात है। लोर्का को न्यूआर्क में मनुष्य की मनुष्य के बारे में अज्ञता तथा विमुखता का एहसास होता रहा थां। ‘न्यूयार्क में कवि’ शीर्षक कविताओं में लोर्का पूँजीकेंद्रित समाज की तीखी निंदा करते हैं। उन्होंने सब से पहले अश्वेतों के बारे में कवितायें यहाँ बैठ कर लिखीं। न्यूआर्क में लोर्का ने अश्वेतों के प्रति जब जातिगत भेदभाव देखा तो वह बहुत दुखी हुये। उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में कहा है कि, ‘वह दुनिया बहुत क्रूर और शर्मनाक है जो लोगों को रंग के आधार पर विभाजित करती है। क्योंकि रंग तो प्रभु की कला प्रतिभा का प्रतीक है’। लोर्का दोबारा न्यूआर्क कभी नहीं गये। उनकी काव्य कृति ‘कवि अमरीका में’ (1939 - 1940) अमरीकियों  के बीच पढ़ी ही नहीं गई। कोनार्ड एकिन ने ‘लोर्का को श्रद्धांजलि’ पुस्तक में कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण बाते कहीं हैं। उन्होंने कहा है कि वह (लोर्का) हमें घृणा करता था। उसके घृणा करने के तर्क सही थे।’ लोर्का ने अमरीका वासियो को संबोधित करते हुये एक महत्वपूर्ण व्याख्यान भी दिया था। उसमें उन्होंने कहा है -‘न्यूआर्क में कवि‘ की जगह मुझे कहना चाहिये ‘कवि में न्यूआर्क है। कवि विमल और सादा। एक ऐसा कवि जिसके पास न तो प्रतिभा है। न सृजन शक्ति।........कविता तभी संभव है जब आँखों को किसी अंधकारमय रेखा के वशीभूत कर दिया जाये। और मौखिक कविता तब तक नहीं रची जा सकती जब तक हमारे कान मित्र तथा आज्ञापरायण न हों। इसी प्रकार शब्द जिस्मानी आकार लेता है।.... मैं यहाँ संघर्ष के लिये उपस्थित हुआ हूँ। सीधा सीधा संघर्ष उस भद्र लोक से जो आत्मतुष्ट हो चुका है। मैं यहाँ कोई व्याख्यान देने नहीं आया। कविता पाठ के लिये आया हूँ -मैं उस विकट राक्षस से अपने को बचाना चाहता हूँ जो मुझे तीनसौ खुले जबड़ों तथा तीन सौ निराश चेहरों से जिंदा खा सकता है। यही है मेरे संघर्ष का अर्थ।

लोर्का का कहना है कि ‘कविता की खूबियों को एक बार में कविता पढ़ के नहीं परखा जा सकता। खासतौर से ऐसी कविता जिसे मैं काव्यतथ्यों की कविता कहता हूँ। अर्थात जो निर्व्याज काव्य तर्क से समझी जा सकती है। उसके संवेगों के रचाव तथा काव्य वास्तुशिल्पीय संरचना को हम बड़े धैर्य से ही परख सकते हैं। कविता की दो खूबियाँ प्रमुख हैं। ईमानदारी तथा सहजता। उसकी ये ऐसी दो खूबियाँ हैं जो बौद्धिकों को प्राप्त करना कठिन है। पर कवियों को आसान। लोर्का ने वालस्ट्रीट को अमरीका का भयावह, निस्तेज, क्रूर हिस्सा बताया है। यहाँ दुनिया से आने वाली स्वर्ण की नदियाँ बहती हैं । इसी के साथ मनुष्य की मृत्यु जुड़ी है। जहाँ मानवीय संवेदनशीलता पूरी तरह गायब है।' आदमियों के झुण्ड दिखाई देते हैं जो अपने अतीत की तरफ से बेखबर है। पर नारकीय वर्तमान को पूजते हैं। लोर्का वहाँ स्टाक मार्केट की तवाही को बताते हुये कहते है, ‘ यह मेरा सौभाग्य है कि यहाँ स्टाक मार्केट को तवाह होते हुये मैं ने अपनी आँखों से देखा है। जहाँ अरबो -खरबों की रकम डूब गई है। जड़ पूँजी की रेलपेल जो समुद्र में सरक गई है। मैंने इससे पहले कभी इतनी आत्महत्यायें, मिर्गी के दौरे, बेहोश होते आदमियों के समूह नहीं देखे। यहाँ जैसे मैं ने साक्षात मौत का संवेदन अनुभव किया है। मृत्यु  -बिना किसी उम्मीद को सहेजे। मृत्यु जो सिवा सड़ाँध के और कुछ भी नहीं है। पूरा शानदार समारोह भयानक था। जहाँ औदात्य का नितांत अभाव देखा। इतनी अस्पताली गाढ़ियाँ मैं ने कहीं नहीं देखी जो आत्महत्या करने वाले उन शवों को बटोर रही थी जिनकी उँगलियाँ अँगूठियों से भरी थी। ध्यान रहे लोर्का पूँजीवादी व्यवस्था की हृदयहीनता, निस्तेजता, अमानवीयता तथा दर्दनाक भयावहता का रूपकीय बिंब चित्र दे रहे हैं। उन्होंने संवेदनाहीन लोगों के समूह केा ‘भीड़’ की उचित ही संज्ञा दी है। उनका कहना है कि न्यूआर्क ऐसा भी हो सकता है कोई कल्पना नहीं कर सकता सिवा वाल्ट ह्विटमैंन के जिन्होंने इस निरुद्देश्य जनसमूह में ‘अकेलापन’ खोजा था। एलियट ने भी इन बातों को नहीं उठाया जिसने जख्मी चूहों, भीगे टोपों और गँदली नदियों को अपनी कविता में नीबू की तरह निचोड़ कर दिखा दिया। लोर्का ने आगे बताया है कि किस तरह लाखों लोग शराब पीते है। निरर्थक चीखते चिल्लाते हैं। खाँसते-खखारते हैं। भोग विलास के लिये गुलछर्रे उड़ाते हैं। फिर समुद्र तट को अखबार की रद्दी से पाट कर छोड़ कर चले जाते हैं। सडकें टीन की बाल्टियों, सिग्रेट की ठूँठियों, जूतों के फटे टूटे तल्लों से पटी रहती हैं.....उत्सवों से लौटते समय  लोगों की बेतरतीब भीड़ गाती अखजती है। कौनों में या गैरीबाल्डी तथा किसी सैनिक के स्मारक पर पेशाब करती है। एक स्पानी कवि जो अपने जनपद आन्दालूसियान से आया है वह ऐसे हालात में कितना एकाकी महसूस करता होगा!

दूसरी तरफ उन्होंने एक अश्वेत लडकी को साइकिल पर जाते देखा। इससे अधिक मर्मस्पर्शीय कवि के लिये और क्या हो काता है! उसके धुँयेले पाँव।  घुमटीदार बाल, ठण्डे दाँत तथा मरियल मुरझाये गुलाबी होठ ...कवि उसके बारे में सोचते हैं कि वह क्यों इस साइकिल पर चढ़ी है! क्या यह उसी की है! या कहीं से चुराई हुई! क्या वह इस भीड़ से होकर सही सलामत गुज़र सकती है! देखते ही देखते उसने सड़क के ढलान से कलामुण्डी खाई! वह गिर गई! उसकी टाँगे और पहिये सब अलग अलग दिखाई दे रहे थे। कवि ने प्रतिरोध किया किस तरह अश्वेत छोटे बच्चों को मशीन से काट दिया जाता है। सबसे त्रासद बात जिस का उन्हों ने प्रतिरोध किया वह है अश्वेत, अश्वेत नहीं बने रहना चाहते। अपने घुँघराले बालों को कटा देते हैं। मुँह पर पाउडर पोत कर भूरे दिखना चाहते हैं। इस तरह लोर्का एक साम्राज्यवादी देश की नाक के नीचे उसकी क्रूरता, खोखलेपन तथा संवेदनहीनता को बेनकाब करते हैं। क्या एक कवि को ऐसा निर्व्याज साहस तथा पवित्र निर्भयता अर्जित नहीं करनी चाहिये! लोर्का अमरीका में उन्ही की अर्थव्यवस्था तथा सामाजिक अन्यायों की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं। यह बात बहुत पहले की है। आज भी हालात वहाँ बहुत अच्छे नहीं हैं। मुझे याद है हमारे यहाँ से जिन हिंदी कवियों ने अमरीका की यात्राये की उन्होंने वहाँ के क्रूर अंतर्विरोधों को न बता कर वहाँ का महिमा गान किया है। ऐसा लगता है जैसे वे स्वर्ग से लौटे हों! बुर्जुआ कवियों की मैं नहीं कहता। उनके पास अमरीका का महिमा गान करने के अलावा कुछ है ही नहीं।

विष्णुचंद्र शर्मा जैसे लेखकों ने अमरीका की यात्रायें रस लेकर की हैं। पर वहाँ की हकीकत को बयान नहीं किया! वहाँ के कथ्य को लेकर कविताये भी यदि लिखी तो उनमें भी वह जनविरोधी यथार्थ न था जिस की तरफ लोर्का ने संकेत दिया है। नामवर सिंह तो यह कहने लगे हैं कि अमरीका को साम्राज्यवादी देश कहना ‘आकाश में घूँसे मारने’ जैसा है। ‘कृतिओर’ के माध्यम से हम इसका प्रतिरोध कर चुके हैं। बहरहाल आजके कवि को लोर्का की अटूट प्रासंगिकता तथा समकालीनता से कुछ तो सीखना चाहिये! आज के चुनौतीपूर्ण तथा जोखिम भरे इस दौर में अधिकांश हिंदी कवितायें ऐसी है जैसे यहाँ सब कुछ ठीक ठाक है। कवि को कविता सिर्फ लुत्फ लेने के लिये ही लिखनी चाहिये। कहना न होगा कि लोर्का के बिंबविधान पर उस समय के अतियथार्थवाद (सररियल्ज्मि) का प्रभाव है। उनकी कविता का बिंबविधान अत्यंत तेज, प्रबल, प्रचण्ड, तीव्र ध्वनियों से आपूर है। उनके रूपक कईबार हमें अपनी आक्रामक ध्वनियों से चकित करते हैं। यह इसलिये था क्योंकि वह लोकधर्मिता को कविता के केंद्र में लाने के लिये काव्य के बुर्जुआ बुनियादी ढाँचे को छिन्न भिन्न करने में लगे थे। हमारे यहाँ जैसे नागार्जुन, केदार बाबू, त्रिलोचन तथा मुक्तिबोध करते हैं। बुर्जुआ काव्य ढाँचे में सर्वहारा के संघर्ष को कहना मुमकिन नही जान पड़ता। उनकी कविता में नाटकीय लय और स्थापत्य वैसे ही विद्यमान हैं जैसे ब्रेख्त की कविता में। लोर्का का काव्य तेवर उत्तेजक तथा यथार्थपरक है। वह स्थानीय मिथकों का प्रयोग करके भी कविता को मिथकीय या रहस्यमय नहीं होने देते। उनकी कविता में जो चरित्र सृजित हैं उनमें कवि के स्वप्न और विचार मुखर होते हैं। पर वे स्वायत्त चरित्र बराबर बने रहते हैं। लोर्का, रिल्के की तरह मृत्यु के रूपक बहुत लाते हैं। पर यहाँ जिजीविषा और प्रखर लगने लगती है। लोर्का के यहाँ मृत्यु न तो हमारी नियति है। न आकांक्षा। वह समय के उस भयावह रूपक को कहती है जिस से मानव सभ्यता का विनाश संभव है। लोर्का ने अमरीकी समाज के संदर्भ में उस देश की नितांत संवेदनहीनता, क्रूरता तथा अमानवीयता को मृत्यु के रूपक से बताया है। रिल्के को मृत्यु जीवन की हताशा का विकल्प है। मृत्यु की ध्वनि ब्रेख्त में भी है। वहाँ वह विश्वयुद्धों के मानवीय महाविनाश का रूपक है। मैं सररियलिज़्म की बात कह रहा था। दरअसल यह बहुत ताकतवर आंदोलन था चित्रकला का। पर इससे थे कवि भी प्रभावित। यहाँ तक कि मार्क्सवादी कवि नेरुदा जैसे महान कवि पर इस आंदोलन की छाया देखी जा सकती है। इसके समर्थकों ने इसे ‘उच्चतर यथार्थ की कला अभिव्यक्ति’ कहा है। इसका रिश्ता हमारे अचेतन में उठने वाले उन भाव साहचर्यो से होता है जिन्हें हम भुला चुके है। पर जो दुस्स्वप्न की तरह हमारा पीछा करते रहते हैं। इनमें मनस्चेतना का कोई व्यवस्थित त़त्र नहीं होता। बल्कि जीवन की गहरी समस्यायें बेतरतीव बिंबों में व्यक्त होती हैं। अतः इस आन्दोलन में राजनीतिक ध्वनि भी झँकृत होती है। पर वाम विचारक इसका विरोध करते रहे हैं। उनके अनुसार इसमे बुर्जुआ समाज की छिपी विकृतियाँ व्यक्त हुई हैं। उस समय के ‘लैफ्ट रिव्यू’ के अनुसार यह आंदोलन क्रांतिकारी न था। क्यों कि इसकी अति आत्मपरकता बहुत ही अनुत्तरदायित्वपूर्ण है। बर्नार्ड शा ने इसे एक ऐसे ‘राक्षस’ की संज्ञा दी है जिसे पहले कभी न देखा। न सुना। दरअसल बुर्जुआ संस्कृति के पुरस्कर्ताओं ने इसे सामाजिक यथार्थ के विरोध में खड़ा करने के लिये कुछ चमत्कारिक शैली में चित्र बनाने शुरू किये थे। लोर्का या नेरुदा ने इस आंदोलन का उपयोग कविता में बड़े आक्रामक तथा उत्तेजक रूपकों के लिये किया है। उनका ध्येय कुलीन जड़ काव्य सौन्दर्य को तोड़ना रहा होगा। जैसे लोर्का की कविता है -

चाँद के हाथी दाँत के है दाँत/
कितना उदास और बूढ़ा दिखता है वह /
जलधाराये सूख गई हैं/ 
खेतों में हरियाली गायब है/ 
पेड़ झड़ चुके हैं/ 
उन पर न पत्ते हैं न घौंसले/ 
झुर्रियों भरी बुढ़िया -मृत्यु के दरख्तों में होकर गुज़र रही है....... 
वह मोम और तूफान के रंग बेच रही है.......।

लोर्का की कविता में परियों की कहानी जैसी सहजता है। यही वजह है कि उसकी कविता अन्य कुलीन कवियों से भिन्न और अलग दिखती है। लोर्का अपने जनपद में ही प्रसन्न रहते थे। उनके लिये वह स्वप्नों का देश जैसे था। उनके पहले काव्य संग्रह (लिब्रो द पोयमास) के बाद की कवितायें ग्रानादा जिप्सियों के गीत तथा नृत्य पर आधृत है। उस पर परंपरित लोकधर्मी कविता का असर साफ दिखाई देता है। उनमें तरह तरह की फैन्टासियाँ हैं। उनका गहरा रिश्ता आदिम समुदायों से है। उसके लिये उन्हें फ्रांसीसी तथा स्पानी उत्कृष्ट समकालीन कवियों की मान्यता प्राप्त हो चुकी थी। वैसे लोर्का किसी बाध्यता से लोकधर्मी नहीं है। उन्होंने स्पानी 17वी सदी के उत्कृष्ट साहित्य का गहन अध्ययन किया था। उनको आधुनिक फ्रांसिसी कविता का भी अच्छा ज्ञान था। बादलेयर की परंपरा से अच्छी तरह परिचित थे। पर ध्यान देने की बात है कि अपनी परंपरा के प्रति उनका दृष्टिकोण न तो शास्त्रीय था। न प्रोफेसेारियल। दरअसल लोर्का अपने जनपद की एक मिथक से संप्रेरणा लेते रहे। यह एक ऐसी देवी थी जो आधी तो परी थी। पर आधी आकृति उसकी दानव जैसी। इसे स्पानी भाषा में ‘द्विवेन्दे’ कहा गया है। यह एक  प्रतीक भर थी। लोक में जिप्सियों के बीच  इसकी मान्यता  बहुत थी। पर सच में देखा जाये तो लोर्का अपनी कविता के लिये प्रेरणा जिप्सियों के कठोर जीवन तथा उनके सतत संघर्ष से ही ले रहे थे। उनका शोषण, दमन उत्पीड़न उन्हें अंदर से खरोंच रहा था। यदि ऐसा न होता तो वह अमरीका में नीग्रो के लिये प्रतिरोध क्यों करते ! उन्हें लग रहा था कि सर्वहारा का शेाषण वैश्विक है। लोर्का इस मिथकीय देवी से एकात्म थे। कहा जाता है कि जर्मन कला की प्रेरणा काव्यदेवी (Muse) है। इटली के साहित्य की प्रेरणा ‘देवदूत’ हैं। पर स्पानी कला का स्रोत एक मात्र ‘द्विवेन्दे’ ही है। जैसा कि हम जानते हैं कि स्पेन अपने पुराने संगीत तथा कला के लिये प्रसिद्ध है। इस बात की प्रेरणा द्विवेन्दे ही है। लोक मान्यता है कि वह भोर से पहले नीबुओं के पेड़ों में आ कर गाती नाचती है। सवाल हो सकता है कि लोर्का जैसा जनपक्षधर कवि देवी को अपनी कविता की प्रेरणा क्यों मानते हैं। मेरे विचार से जिप्सियों में अंदर तक घुलने मिलने के लिये ही उन्होंने यह बात अपनाई होगी। लोर्का की ‘द्विवेन्दे’ के बारे में अपना निजी काव्य सिद्धांत है। उनके लिये यह ‘स्वतःस्फूर्त संगीत’ का प्रतीक है। लोर्का लोक संगीत को अपनी कविता में ढाल रहे थे। उसमें नाटकीयता लाने के लिये उसे नृत्य भंगिमाओं से जोड़ते हैं। उनकी ऐसी कवितायें खण्डमय हैं। उनकी कविता का मूल कथ्य जिप्सियों का जीवन है। उनका संगीत। उनके नृत्य। उनका अटूट संघर्ष।


लोर्का ने 1924 - 1927 के बीच जो कवितायें लिखी वे अधिकांश गाथा -गीत (Ballads) हैं। यह ऐसी काव्य विधा है जो लोक जीवन को बहुत ही सहजता से कह पाती है। हमारे यहा जैसे आलाह है।  राजस्थानी में ‘ढोला मारू रा दूहा’ है। लोर्का का अत्यंत प्रसिद्ध काव्य संग्रह है ‘द रोमान्सिरो जितानो’ (जिप्सियों की गीत गाथा) यह गीत गाथा के परंपरित छंदों में रची गई रचना है। इनमें अनेक मिथक गुँथे बुने हैं। इन में जिप्सियों की संक्रियायें तथा उनके जीवन संदर्भ बड़ी संश्लिष्टता से पिरोये हुये हैं। कविताओं में पुलिस दमन तथा अत्याचारों के कलात्मक बिंब हैं। नृत्य,  गान तथा देवदूतों की रुचिकर काव्य छवियाँ हैं। इन कविताओं की प्रमुख बात है इनकी सुसंगति, सामंजस्य तथा लय-ध्वनि संगति। लोर्का की कवितायें ऐंद्रियता से समृद्ध हैं। उनमें इंद्रियों की पूरी स्वायत्तता है। कविता पढ़ते समय हमारी सभी इंद्रियाँ आह्वाहित, सक्रिय तथा जाग्रत होती हैं। यहाँ प्रकाश रेशमी न होकर कर्कश है। एक दम खुरदरा और ऊबड़खाबड़। सक्रिय आदमी आक्रामक तथा उत्तेजक दिखते हैं। प्रकृति के भूदृश्यों में मनुष्य की भावनायें इच्छायें तथा आकृतियाँ व्यक्त होती हैं। जिप्सियों में अपने मूल निवास के प्रति गहरा रुझान है। वे उसे अपनी धरोहर समझते हैं। वे जानते हैं यहाँ से ही उनका अस्तित्व बना है। लोर्का की कविता उन सब बातों को बड़े रूपकीय ढंग से व्यक्त करती है जो जिप्सियों के जीवन में प्रमुख है। लेकिन वह उनके जीवन को उन्नत बनाने के लिये भी संकेत करते हैं। लोर्का कविता में जिप्सियों को सिविल गार्ड्स के विरुध्द तलवार भांजते दिखाते हैं। उन्हें अत्याचारों के विरुद्ध प्रतिरोध करते चित्रित करते हैं। उनकी स्त्रियाँ भी क्रोधित तथा खूँखार दिखती हैं। मसलन एक चरित्र है प्रीसिओसा। हवा तप्त तलवार ले कर उसका पीछा करती है। पुलिस को जगाती है। वह एक अंग्रेज अफसर के पास शरण लेती है। अंग्रेज उसे एक गिलास गर्म दूध देता है। और जिन शराब का एक छोटा भरा प्याला भी। पर वह उसे लेने से इनकार करती है। क्योंकि वह जानती है अंग्रेज की नियत ठीक नहीं है। बाहर हवा का तूफान दहाड़ रहा है। उसे उम्मीद है कि जिप्सी आ कर उसे छुडा ले जायेंगे। द्विवेन्दे के राज में घटनाये निरंकुश तथा मनमाने ढंग से घटित होती हैं। इन्हे लोर्का अपने जनपद आन्दालूसिया की जीवन क्रियायें मानते हैं। यहाँ सब एकमेक हैं। हवायें, चंद्रमा, जिप्सी, प्रेमी प्रेमिकायें, साधू सन्यासी, तस्कर -सब उस गान नृत्य में शरीक हैं। सभी रंगबिरंगी तथा तड़क भड़क की पोशाकें पहनते हैं। सब परंपरित ढंग से गाते हैं। नाचते हैं। ये सब बातें लोर्का की कविता में वहाँ की लोक संस्कृति तथा जातीय छबियों का रूप लेती हैं। एक सांग रूपक तथा मिथकीय संरचना कविता में उभरती दिखती है। पर लोर्का अपने संघर्ष तथा प्रतिरोध का तेवर कभी नहीं त्यागते।

लोर्का की लोकधर्मिकता की वजह से ही उनकी कविता को उनके  कुलीन समकालीनों ने तिरस्कृत किया था। उनके विंब स्पर्शग्राह्य तथा चाक्षुष होते हैं। आलोचकों ने उन्हें ‘ऐन्द्रिय अराजकता’ कहा है। जब कि वे ऐंद्रिय संश्लिष्टता से समृद्ध हैं। ये उन अमूर्त बिंबों से अलग और भिन्न हैं जिनकी हिमायत मलार्मे ने की है। लोर्का के बिंबों का प्रभाव अघा देने वाला होता है। एक लड़की के जिस्म का वर्णन वह इस प्रकार करते हैं -यहाँ जो बिंब आये हैं वे लोर्का की बनक की उपज है -न तो कंद गुलाब न शंख की इतनी कोमल त्वचा होती है/ न दर्पण में प्रतिबिंबित चंद्रमा की प्रभा / फिसलती मछलियों की चिकनाहट लिये उसकी जंघायें /ताप और शीत से आपूर। लोर्का की कविता में अति अलंकारिक शैली कभी कभी बोझिल लगने लगती है। उनका बिम्बविधान दीर्घवृत्तीय या कहें न्यून पदीय (Elliptical) हो जाता है। उसमें प्रायोजित तकनीक की झलक दिखने लगती है। यहाँ ऐंद्रियता से अधिक वैषयकता ही है। ऐसे प्रसंगों में भाषा भी कृत्रिम तथा अलंकारिक हो जाती है। ऐसी भाषा का प्रयोग 17वी सदी के कई स्पानी मझोले कवियों ने किया है। फिर  भी लोर्का की कविता में लोकप्रियता के लोकधर्मी तत्व बराबर बने रहते हैं। यही वजह है वह अपनी जनता के बीच आत्मीय कवि तथा परिचित जन नजर आते हैं। उसमें घुले मिले सामान्य व्यक्ति। ध्यान देने की बात है कि उनके प्रगीत गृहयुद्ध के समय सैनिको द्वारा खाइयों में गाये जाते थे। बहुत सारी स्पानी गाथा गीत कविता कुलीन लोगों में भी समादृत हुई है। लोर्का ने बड़ी सहजता से सामान्य मानवीय स्वभाव , विचार तथा उनके क्रियाकलापों को कविता में व्यक्त किया है। यहाँ यौन कथ्य का अतिरेक नहीं है जैसा कुछ लोग मानते हैं। क्रूरता तथा मृत्यु इस कवि को सबसे अधिक विचलित करने वाली घटनायें हैं। इन्ही से लोर्का की कविता में गहरी मार्मिता पैदा हुई है। उनकी एक कवित में मृत्यु के नाटक का बखान इस प्रकार है। एक सिविल गार्ड एक आदिवासी का पीछा करता है। वह खून से तरबतर घर लौटता है। वह अपने घर के बरामदे में चढ़ता है। वह चाहता है घर में ही उसकी मौत हो। उसकी लड़की उसकी प्रतीक्षा करती है। वह रक्तरंजित है। उसकी मृत्यु हो चुकती है। मरते समय वह अपनी लड़की को पानी भरे तालाब के ऊपर झूला झलूते देखता है। उसे लगता है जैसे कोई चाँद का टूकड़ा हो। पूरा वर्णन चित्रोपम है। परियों की कहानियों जैसा प्रभाव पड़ता है। मृत्यु का पीछा करने वाला ऐसा विचार स्पानी मनस्चेतना की प्रमुखता है। नेरुदा में भी मृत्यु के चित्र आते ही हैं। सच में मृत्यु उस समय का एक ऐसा दुस्स्वप्नीय रूपक है जिस से कोई लेखक बच नहीं पाया है। हाँ इतना जरूर है कि मृत्य लोर्का में उनकी गहरी चिंतामय उदासी को व्यक्त करते हुये झंकृत होती है। लगता है कि यह लोर्का की मृत्यु का ही पूर्वबोध-पूर्व सूचना या पूर्वाभास तो नहीं! जैसे एक भयावह नरमेध जिसमें असंख्य स्पानी पुरुष, स्त्रियाँ और बच्चे जल्दी ही नष्ट हो जायेंगे। मृत्यु बोध के बारे में लोर्का का दूसरा महत्वपूर्ण काव्य संग्रह है ‘न्यूआर्क में कवि’। यह संग्रह उन्होंने अमरीकी प्रवास के समय तैयार किया था। जैसा कि पहले बताया गया कि अमरीका के लिये लोर्का बहुत ही बेमन गये थे। एक प्रकार से यह एक तरीका था किसी निजी संकट से बचने का। जैसे कि ब्रेख्त तथा मार्क्स जगह जगह से निवार्सन झेलते रहे। न्यूआर्क में आकर उनको उनकी जनपदीय मिथकीय देवी द्विवेन्दे उन्हे त्याग चुकी थी। यहाँ उन्होंने अतियथार्थवादी चित्रकार सल्वाडोर से प्रेरित होकर कवितायें लिखी। यह एक प्रकार से नया काव्य प्रयोग था। अतियथार्थवाद की तकनीक अपना कर उन्होंने एक नई आक्रामक तथा उत्तेजक काव्य शैली आविष्कृत की। इन कविताओं का बिंबविधान बहुत ही तीखा तथा चुभने वाला है। लगता है लोर्का अमरीकी पूँजीवादी व्यवस्था के बहुत विरुद्ध हैं। उन्हें नीग्रो की दैनीय अवस्था तथा अपने यहाँ के जिप्सियों में बहुत कुछ समानता दिख रही थी। उन्होंने परंपरति छंद का भी त्याग किया। कविता के रूप तथा शिल्प में भी परविर्तन आया। पहले उनका बिंबविधान जो अपने कथ्य के समानुकूल था वह अब ज्यादा हठी, अड़ियल, उत्तेजक तथा ज़िद्दी हो चुका था। लगता है तीखे प्रतिरोध के लिये लोर्का अपने बिंबविधान को ज़्यादा उत्तेजक बना रहे हैं।

     लोर्का के मन में महानगरीय अमरीकियों के लिये एक अजब किस्म की जुगुस्पा का भाव है। एक मानवीय विरक्ति। किसी सीमा तक एक घृणा का भाव। अमरीका में उन्हें केवल नीग्रो ही ऐसे लगे जो सामाजिक यथार्थ के बहुत करीब हैं। कहते हैं कि कवि मायकोव्स्की अमरीकी जीवन शैली तथा वहाँ की जनविरोधी पूँजी केंद्रित व्यवस्था को बहुत ही नफरत करते हैं। पर उन्होंने वहाँ के गगन चुंबी भवनों तथा विशाल जनसमूह को पसंद किया। लोर्का को इस नई व्यवस्था में नारकीय मृत्यु दिखती है। वह इसके भद्देपन तथा अमानवीय स्वभाव से बहुत ही डरे हुये तथा आतंकित लगते हैं। उनका मानना है कि यह सहज मृत्यु नहीं है। बल्कि ‘उन्निद्र पत्थरों के मरु में कैंसर से हुई मौत है’ 

 -तुम्हारी बेवकूफी ,स्टेन्टन/शेरों का पर्वत है/ जिस दिन तुम्हें कैंसर आके झिंझोड़ेगा /वहाँ जहाँ और बहुत से छूत रोगों से मर रहे हैं/ जब उसके झुलसे गुलाब/ प्यासे दर्पण में खिलेंगे...........

       लोर्का 1930 में क्यूबा होते हुये स्पेन लौट आये। अमरीकी यात्रा की सबसे बड़ी खोज वह नीग्रो की कला और जीवन को ही मानते हैं। उनके अनुसार अमरीका में मशीनों तथा स्वचालकों का ही प्रदर्शन ज़्यादा है। अमरीका प्रवास में जो कविता लोर्का ने रची उनमें नीग्रो जीवन शैली, उनकी कला, उनके संघर्ष की जीवंत लय तथा अभिव्यक्ति ही प्रमुख है। इस तरह के प्रयत्न कविता में क्यूबा तथ अमरीकी नीग्रो कवि भी खूब कर रहे थे। यह एक ऐसा लोकधर्मी यथार्थ था जो अमरीकी बुर्जुआ यथार्थ का प्रतिरोध था। जड़ कुलीन सौंदर्यबोध को ढहाने का काव्यमय उपक्रम।




     लोर्का ने अपने जीवन का उत्तरार्द्ध नाटक तथा रंगमंच में लगाया। 1931 में लोकतंत्र की स्थापना
के बाद लेार्का ने चलती फिरती नाटक मंडलियाँ तैयार कराई। उनके द्वारा गाँवों में नाटकों का मंचन हुआ। उस उपक्रम का बहुत स्वागत किया गया। गाँव के लोग जाग्रत हुये। लोर्का स्वयं ने नाटक श्रृंखला तैयार की। यह ऐसा ही प्रयत्न था जैसे कि ब्रेख्त अपने नाटकों से करना चाहते थे। फर्क था कि ब्रेख्त नाटकीय कला तथा अपनी मार्क्सवादी सोच के प्रति अधिक जागरूक रहे। लोर्का में मार्क्सवादी विचार मुखर नहीं हैं। यद्यपि उनकी पक्षधरता लोक तथा सर्वहारा के ही प्रति है। लोर्का में यदि मार्क्सवादी चिंतन की गहनता रही होती तो उनकी कविता का असर और अधिक दिशासूचक तथा असरदार हुआ होता। उसका प्रभाव ज्यादा वैश्विक होता। मुझे बराबर लगता रहा है कि भारत में लार्का को उतनी लोकप्रियता नहीं मिली जितनी ब्रेख्त, नेरुदा, नाजिम हिकमत,  मायकोव्स्की तथा आक्टोविया पाज़ को मिल सकी। पर लोर्का का कविता के लिये समर्पण तथा त्याग किसी अर्थ में उपर्युक्त कवियों के त्याग तथा समर्पण से कम नहीं है। ध्यान रहे लोर्का के नाटक गद्यपरक थे। पर जहाँ तहाँ उनमें कविता की खूबियाँ भी विद्यमान हैं। लगता है नाटकों के माध्यम से लोर्का अपने समृद्ध तथा चमत्कृत करने वाले बिंब विधान से पीछा छुड़ा रहे हैं। ब्रेख्त को ऐसा प्रयत्न इसलिये नहीं करना पड़ा क्योंकि उनकी कविता अलंकारिक बिंबविधान से पहले ही मुक्त है। लोर्का में ऐसा नहीं है। लोर्का प्रयत्नशील है किसी तरह वह यथार्थपरक गद्यमय नाटकों का मंचन करा सकें। जो बात ब्रेख्त में सहज है उसके लिये लेार्का यत्नशील हैं। यह मानना पड़ेगा कि अंत में लोर्का यथार्थपरक नाटको में सफलता पा सके। नाटक लेखन के इस दौर में लोर्का ने कविता बहुत कम लिखी। पर जो भी कवितायें उन्होंने लिखी वे उत्तम तथा उत्कृष्ट हैं। यहाँ उनकी कविताओं में अपने मित्रों के लिये शोकाकुल प्रगीति मुखर है। खासतौर पर बैल से लड़ने वाले अपने मित्र इग्नेशियों के प्रति।

     लोर्का ने एक बार द्विवेन्दे पर व्याख्यान देते हुये कहा था कि स्पेन में ‘मृत्यु ही राष्ट्रीय उत्सव’ है। इसका ज्वलंत उदाहरण है बैलों से मनुष्य का लड़ना। उनका कहना है कि बैल का एक ‘परिक्रमा पथ’ होता है। उसी तरह लड़ने बाले का भी। परिक्रमा पथ और परिक्रमा पथ के मध्य होता है ‘जोखिम बिंदु’। यह बिंदु ही मनुष्य और बैल की लड़ाई में उस खतरनाक खेल का चरमबिंदु होता है। न्यूआर्क प्रवास में जो कवितायें लोर्का ने लिखी उनमें दिशाहीन संत्रास है। आत्मदया का भी भाव ज़्यादा है। दया भाव उनके लिये जिनकी मृत्यु हो चुकी है। संत्रास जिस हालत में मृत्यु हुई है। इस प्रकार लोर्का की कविता में करुणा का भाव पैदा हुआ जो पहले की कविता में नहीं है। यहाँ कवि स्वयं तटस्थ है। यानि कवि कर्म अब ‘तटस्थ संबद्धता’ के बुनियादी नियम से परिचालित है। कहना न होगा कि लोर्का में कई बार भारी मुमूर्षा का भाव भी व्यक्त हुआ है। यही वजह है कि उनके आनन्दपरक गीतों में भी शोक-विषाद का आस्वादपरक लय ध्वनि है। यद्यपि लोर्का ईसाई धर्म में यकीन करते थे। पर मृत्यु उनके लिये जीवन का अंत ही थी। यानि मनुष्य जीवन भर संघर्षरत रहकर भी पराजय देखता है। संदेह नहीं लोर्का की कविता अद्यांत मनुष्य के शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ है। यह प्रक्रिया कभी न तो थमी। न लोर्का अपने पथ से विचलत हुये।

     लोर्का ने नेरुदा की तरह अतियथार्थवादी कला आंदोलन के प्रभाव में कवितायें लिखी हैं। पर उनकी कविता में उस आंदोलन की अतियाँ दिखाई नहीं देती। यह इसलिये मुमकिन हुआ क्योंकि लोर्का सदा लोक से जुड़े रहे। जहाँ इस आंदोलन का असर है वहाँ उनकी कविता का बिंब विधान स्वप्नपरक है। कुछ उलझा हुआ भीं। इन कविताओं की तुलना अंग्रेजी के प्रख्यात आधुनिक कवि डलन टामस की कविताओं से की जा सकती है। लोर्का कवि टामस की तरह ही नये बिंब विधान का बड़े कौशल से सृजन कर रहे हैं। उनका यह बिंब विधान धुँधलेपन तथा संघर्ष से प्रभावित हैं। रक्तपात के बिंब ज्यादा हैं। मनुष्य की मृत्यु की चित्र छवियाँ भी।

   लोर्का की योरुप में ख्याति उनकी मृत्यु के क्षणों में प्रसरित हुई। वह उन लोकधर्मी सर्जकों का प्रतीक चिन्ह बन चुके हैं जिन को प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ तथा पतनशील राजनीतिक शक्तियाँ नष्ट करती है। यही वजह है कि लोर्का का बुर्जुआ समाज में आज तक सम्यक मूल्यांकन नहीं हो पाया। यह नियति हर उस समर्पित तथा लोकपक्षधर कवि की है जो अपनी संघर्षशील जनता के पक्ष में संघर्ष करता है। या तो उसे नष्ट कर दिया जाता है या फिर उसे उपेक्षित कर अंधकार में ढकेल दिया जाता है। हमारे यहाँ निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन केदार बाबू,  मुक्तिबोध तथा आज के बहुत से कवि इस नियति को झेलते रहे हैं। बुर्जुआ तथा प्रतिगामी आलोचना ऐसे कवियों को सतही राजनीतिक कवि कहकर उनका असफल तिरस्कार करती रहते हैं। पर एक बहुत बड़ा पक्षधर वर्ग उन्हें अपने चित्त में बसाये रहता है। जब लोकधर्मी लोकतंत्र की स्थापना होती है तब उनका सही मूल्यांकन हो पाता है।  ध्यान रहे सारे विरोध, उपेक्षा तथा अवमानना के बावजूद जनपक्षधर कवि अपने ही बलपर अपना स्थान बना लेते हैं। खैर , लोर्का उस कुंठित तथा प्रतिगामी दृष्टि का शिकार हुये यह इतिहास की क्रूर विडंबना है। पर उनके अभ्युदय को कोई रोक नहीं पाया। ब्रेख्त, नाजिम तथा नेरुदा आदि ने भी बुर्जुआ सत्ता की क्रूरतायें झेली है। पर उन्हें भी कोई प्रतिक्रियावादी ताकत विश्व क्षितिज पर उगने से रोक नहीं पाई। जो ऐसी लोकधर्मी समाजोन्मुख यशस्वी काव्य प्रतिभाओं के लिये कुचक्र रचते हैं उन्हें समय का चक्र कूड़ेदान में फेंक देता है ।........ लोर्का ने नाटक सृजन में जो सफलता पाई वह अप्रतिम है। पर कविता के क्षेत्र में उनका अवदान कम नहीं है। लोकधर्मी कवि कर्म के लिये कितने जोखिम उठा के रचना कर्म संभव हों पाता है यह हम लोर्का के जीवन तथा कविता से सीख सकते हैं। बड़ी कविता तिकड़मों और छल छदमों से नही सिरजी जाती। वह सृजित होती है लोक के साथे एकात्म होने से।

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                            लोर्का की कवितायें

क्यूबा की लय पर थिरकते अश्वेत


जैसे ही पूर्ण चंद्रोदय हुआ
मैं सैन्ट्यागो जा रहा हूँ
क्यूबा! काले जल के यान में बैठा
मैं सैन्ट्यागो जा रहा हूँ
छतों से ऊपर उझकते वृक्ष गायेंगे
मैं सैन्ट्यागो जा रहा हूँ
जबकि खजूर सफेद सारस होना चाहता है
मैं सैन्ट्यागो जा रहा हूँ
जबकि केले के वृक्ष समुद्र की ततैया
मैं सैन्ट्यागो जा रहा हूँ
रोमियो और जूलियट के गुलाबों को लिये
मैं सैन्ट्यागो जा रहा हूँ
कैसे लगते हैं कागज़ी समुद्र और रजत सिक्के
मैं सैन्ट्यागो जा रहा हूँ
ओह क्यूबा .... ओह सूखे बीजों की लय
मैं सैन्ट्यागो जा रहा हूँ
ओह अग्निमय मध्य भाग
ओह काठ की बूँद
मैं सैन्ट्यागो जा रहा हूँ
वृक्षों के तनों की वीणा
मगरमच्छ
तंबाकू के खिले पौधे
मैं सैन्ट्यागो जा रहा हूँ
मैं ने सदा कहा था
काले जल के यान में सवार हो कर
मैं सैन्ट्यागो जरूर जाऊँगा
अँधेरे मे है मेरा प्रवाल
मैं सैन्ट्यागो जा रहा हूँ
समुद्र रेत में डूबा लगता है
मैं सैन्ट्यागो जा रहा हूँ
रजत ताप
सड़े फल
मैं सैन्टयागो जरूर जाउँगा
ओह..... ईख की गौजातीय शीतलता
ओह... क्यूबा
ओह .... मेरी दर्द भरी कराहट
यह मिट्टी की वक्रता
मैं सैन्ट्यागो जा रहा हूँ।      
        

        

वाल्ट ह्विट्मैंन के प्रति संबोधन गीत

पूर्वी नदी ... ब्रोंक्स के पास
कमर मटका के लड़के गा रहे हैं
पहियों , तेल , चमड़ा
और हथोड़ो के साथ
वे गा रहे हैं
नव्वै हज़ार खनिक चट्टानों से
चाँदी का खनन करते हैं
बच्चे निसैनियों ...परिदृश्यों का
रेखांकन करते हैं
उनमें से कोई अच्छी तरह
सो नहीं पाता
कोई भी नदी होना नहीं चाहता
कोई चौड़े पत्ते पसंद नहीं करता
न समुद्र किनारे की
नीली जीभ
पूर्वी नदी के पास ...क्वीन्सबौरो
लड़के कारखानों में श्रमरत हैं
सुन्नत के गुलाबों को
यूहीदी देवता के लिये बेचते हैं
पुलो पर
छतों पर
आकाश का मुँह रिक्त है
अमरीकी भैंसों को हवा हाँकती है
उनमें से कोई भी थमा नहीं है
उनमें से कोई बादल होना नहीं चाहता
उनमें से किसी ने पुष्पविहीन घास के
नहीं देखा
न ढपली के पीताभ पहिये को
जैसे ही चंद्रोदय होता है
घिर्रियाँ कातना बुनना
शुरू करती है
सुइयों का किनारा
स्मृति को आ घेरेगा
जो निठल्ल है
उनकी अर्थियाँ उठेंगी
न्युआर्क, .ओह .....  कितना कीचड़ है
न्यूआर्क .... तार ही तार और मृत्यु
तुम्हारे चेहरे पर
कौन से फरिश्ते की कांति है
जिसकी सिद्ध वाणी
गेंहूँ के सत्य को गायेगी
तुम्हारे भयावह स्वप्न में  है
कौन सा नन्हा आहत -
सफेद - लाल - बैंजनी रंग वाला नक्षत्र सा फूल
एक क्षण को भी नहीं -
वाल्ट ह्विटमैंन प्रियदर्शी
वृद्ध पुरुष
तितलियों भरी तुम्हार डाढ़ी को
देखना केसे चूक गया
तुम्हारे खुरदरे खद्दर कंधे
चंद्रमा ने उधेड़ डाले हैं
सूर्यदेव जैसी पवित्र जंघायें नहीं हैं तुम्हारी
राख के स्तम्भ जैसी है
तुम्हारी काव्य वाणी
वृद्ध पुरुष .... कोहरे की तरह सुंदर
तुम्हारी मर्म भेदक कराहट
आहत मादा पक्षी की तरह
जिसकी योनि को सुई से छेदा गया हो
विलासी लम्पटों के शत्रु ... तुम
अंगूरी मदिरा के विरोधी
मोटे खुरदरे कपड़े से ढकी देहों के प्रेमी
एक क्षण भी नहीं देख पाया
तुम्हारा पौरुषेय सौंदर्य
कौन हैं वे कोइलों के पहाड़ों में ...
सूचनापट ...विज्ञापन तख्ते
रेल पथ
नदी होने का देखा जिन्होंने सपना
वह कौन है
जो अनजान तेंदुए की अर्थवान पीड़ा
अंकुरित करेगा तुम्हारे हृदय में
प्रियदर्शी ...ओ  वाल्ट ह्विटमैंन- वृद्ध पुरुष
मदिरालयों की ढरकाऊ छतों के नीचे
इकट्ठे हुये लोग
गुच्छ गुच्छ निकलते गंदी मोरियों से
कार चालक के काँपते पैरों के बीच से
नृत्यशाला के फर्श
भीगे हैं ठर्रा शराब से
लकड़ियों का गठ्ठर
वाल्ट ह्विटमैंन तुम ने बराबर उधर संकेत किया है
वह भी कोई है
सह ठीक है
वे तुम्हारी चमकीली डाढ़ी पर
सुस्ताते है
सुनहरे केश वाली स्त्रियाँ उत्तर से
श्याम स्त्रियाँ मरुओं से
चीखों और चेष्टाअें के हुजूम
बिल्लियों तथा साँपों की तरह
लकड़ियों का गठ्ठर, वाल्ट ह्विटमैंन,
लकड़ियों का गठ्ठर
डबडबाई आँखें से उदास
देह है सहने को कोड़ों की मार
जूतों की ठोकरें
चीतों केा पालने वालों के दाँत
वह कोई है
यह ठीक है
कालौंच से दगीली उँगलियाँ
तुम्हारे स्वप्नों के छोरों की तरफ
संकेत करती है
जब कोई दोस्त सेब खाता है
उसे पैट्रौल का स्वाद आता है
सूर्य लड़कों की ठूँठियों में गाता है
जो खेलते हैं
पुलों के नीचे
तुम खरौंची हुई आँखों की तलाश
क्यों नही करते
उस स्याह जलमग्न झाबर की
जहाँ कोई बच्चों को डुबो रहा है
देखो जमी हुई लार को
मेंढक के चिरे पेट की वक्रताओं को
लकड़ी के गठ्ठे रखे गये है
कार में
चबूतरों पर
जबकि चंद्रमा भय की सड़को पर
कोड़ें बरसा रहा है
तुमने नदी की तरह
नंगी देह को तलाशा
बैल और स्वप्न
जो पहियों और सदावहार झाड़ी के साथ होंगे
तुम्हारी गहन व्यथा के स्रोत
मृत्यु की सदावहार झाड़ी के
चिकने पत्ते
सफेद ,सुर्ख गुलाबी फूलों के साथ
कौन कराहता है
छिपी ज्वलनशील अलक्ष्य रेखा में
यह ठीक है
यदि आदमी भविष्य के खूनी वन में
आनंद नहीं ले पाता
आकाश के वे तट
जीवन का निषेध है जहाँ
वे नक्षत्र जिन्हें प्रभात में
हरबार नहीं करनी चाहिये चेष्टा उगने की
गहन पीड़ा , गहन पीड़ा
तप्तः क्षोभ
और स्वप्न
ओ मेरे सखा
यह दुनिया है गहन पीड़ा
गहन पीड़ा
गहन पीड़ा
शहर की घड़ियों के नीचे
हमारे जिस्म सड़ चुके हैं
युद्ध आँसुओं में व्यक्त होते हैं
लाखों भूरे चूहों में
धनिक अपनी पत्नियों को
देते हैं निस्तेज सजीले उपहार
जीवन न तो भव्य है
न प्रिय न पवित्र
यदि चाहे तो
मनुष्य सक्षम है
प्रवाल की धारयिों ....या दिव्य
नग्न जिस्म से
अपनी इच्छा को दिशा देने में
आने वाले क्षण में
प्रेम और समय पत्थर हो जायेंगे
वह हवा भी
जो औंगती है टहनियों में
वृद्ध वाल्ट ह्विटमैंन
इसी से मैं उस लड़के के विरुद्ध
कोई आवाज नहीं उठाता
जो अपने तकिया पर
लड़की का नाम लिखता है
न उसके जो अलमारी की छाया में
दुलहन न की पोशाक पहनता है
न उन नृत्यशालाओं में जाने वाले
एकाकी मनुष्यों के विरुद्ध
जो बड़ी घृणा से
पानी पीते हैं वैश्याओं का
न उन के विरुद्ध
जिनकी आँखों में नई ताजगी है
जो एक दूसरे को चुप चुप प्यार करके
अपने होठों को जलाते है
लेकिन हाँ -
मैं उनके विरुद्ध बोलता हूँ
शहरी लकड़ी के गठ्ठों के विरुद्ध
सजी धजी निष्प्राण देहें
प्रदूषित विचार
कीचड़ की चुड़ैल मातायें
रतजगे शत्रु
उस प्यार के
जो हमें मुकुट पहनाता है आनंद के
मैं सदा ही उनके विरुद्ध हूँ
जो बच्चों को
घृणित मृत्यु की दुखद बूँदे देते हैं
सदा तुम्हारे विरुद्ध हूँ -
ओ  उत्तरी अमरीका की दिखावटी परियो
दुनिया की लकड़ियों के गठ्ठर
पिण्डुकों के हत्यारे
स्त्रियों के दास
वे उनके शयन कक्ष की कुतियाँ
सार्वजनिक चौराहों पर प्रदर्शित करती है स्वयं को
बेहाल - विदग्ध प्रेमिकाओं की तरह
या घात लगाये बैठी विषैले भूदृश्यों के बीच
कोई ठौर ठिकाना नही है
महामृत्यु छलकती है तुम्हारी आँखें से
कीचड़ के किनारे
बादामी फूलों को चुनते हुये
न कोई ठौर , न कोई ठिकाना ...सावधान -
चकराये हुये विशुद्ध, क्लैसिकल,  प्रख्यात प्रार्थियों को
तुम्हारे लिये रंगरेलियों के द्वार
बंद करने दो
तुम प्रियदर्शी , वाल्ट ह्विटमैंन
अपनी डाढ़ी को अटल किये
हथेलियों को पसारे सोते रहो
नरम मिट्टी या वर्फ
समानधर्माओं को टेरती है तुम्हारी वाणी
तुम्हारे अशरीरी चिंकारा की रक्षा के लिये
सोते रहो....कुछ नहीं रहा शेष
नृत्यमय दीवारों से
घास के वन काँपते हैं
अमरीका अपने को
मशीनों के विलाप में डुबोता है
मैं चाहता हूँ -
गहन रात से उमड़ी तेज़ हवा
उन शिला लेखों के मेहरावों से
उन फूलों को उड़ा ले जाये
जहाँ तुम चिरनिद्राआ में सोते हो
एक अश्वेत बच्चा
स्वर्ण पिपासु श्वेतों को बताये
अन्न का राज्य आ चुका है।

       --0--

न्यूयार्क

अनन्त संख्याओं के नीचे
बत्तख के खून की एक बूँद
विभाजनों के नीचे
कोमल रक्त की नदी
एक नदी - जो नगरों के शयन कक्षों से
गाती हुई बहती है
न्यूआर्क में धन, सीमेंट या हवा
उसके अरुणोदय को
भद्दा बनाती है
मैं जानता हूँ पहाड़ स्थित है
ज्ञान चक्षु भी
लेकिन मैं यहाँ आसमान देखने नहीं आया
आया हूँ देखने विषादग्रसित जीवन को
वह जीवन -
जो झरनों पर लगी मशीनों को चलाता है
वह आत्मा
जो विषधर की जीभ को देखती है
हर रोज़ न्युआर्क में
वे लाखों बत्तखों को जिब्ह करते हैं
लाखों खस्सी सुअरों को
हज़ारों हजार कबूतरों को
निष्प्राण लोगों के स्वाद के लिये
लाखों गाये
लाखों मैंमने
लाखों मुर्गेा को
जो आकाश की धज्जियाँ उड़ा देता है
ब्लेड को पैनाते समय
सिसकना सुनना भी जरूरी है
अरुणोदय के रोकने से अच्छा है
पागल कुत्तो को मारा जाये
अछोर दूध की गाढ़ियाँ
तुम ही स्वयं में धरती हो
अब मझे क्या करना है
भूदृश्यों को तरतीब दूँ
उन प्रेमियों को जीवंत रखना
जो क्षणों में तस्वीरें लगने लगते हैं
लकड़ी के टुकड़े
मुँह में खून का निवाला
नहीं, नहीं -
मैं इस सबकी निंदा करता हूँ
उस साजिश की भी
जो इन उजाड़ दफ्तरों में
चलती रहती है
जो हमारी किसी गहन पीड़ा को
उजासित नहीं करती
जो वन योजनाओं को मिटाती है
मैं तैयार हूँ
उन भूखी भैराई गायों का
चारा बनने को
वे जो रँभा रँभा कर पेट भरती है
ओह...हडसन नदी
तेल के नशे में डूबी है

     --0--

टहनियों के बीच नृत्य

एक पत्ती गिरी
एक पल में दूसरी गिरी
फिर तीसरी भी
जैसे एक मछली चंद्रमा पर तैरी
पानी कुछ क्षणों को ही सोता है
लेकिन सफेद समुद्र सोता है
अनंत काल तक
वृक्ष की टहनी में 
एक मृत स्त्री
खदान की लड़की उगती रही
देवदारू से उसके फल तक
देवदारू चिड़ियों के गान की तलाश में
चलता ही गया
गाँव के पूरे इलाके में
आहत बुलबुल चीखती रही
उसके साथ मैं भी
क्यों पहली पत्ती गिरी
फिर दूसरी
और फिर तीसरी
एक रबे का सिरा
कागज की वायलन
वर्फ इस दुनिया में
अपनी जगह बना सका
यदि वर्फ महीने भर सोता रहे
टहनियाँ इस दुनिया से लड़ती रहें
एक के बाद एक
दो के बाद दो
तीन के बाद तीन
ओह....अदृश्य मांस का सख्त सफेद द्रव्य
ओह...बिना चींटियों के
अरुणोदय का रसातल
वृक्षों की सरसराहट के साथ
स्त्रियों की सिसकियों के संग
मेंढकों की टर्राहट के बीच
शहद का पीताभ रस
एक परछाई का धड़
दिखाई दिया जयपत्र पहने
हवा के लिये आकाश
दीवार की तरह होगा कठोर
सब झुकी टहनियाँ
नाचती हुई जायेंगी
एक बाद एक
दो के बाद दो
सूर्य के चारों ओर
तीन के बाद मीन
ओह ...सफेद द्रव्य के टुकड़ों को सोने दो।

      --0--

मृत्यु

वे कितनी कठोर मेहनत करते हैं
कुत्ता बनने को
घोड़ा कितनी मेहनत करता है
कुत्ता एक अबाबील बनने को
मधुमक्खी झेलती है हर जोखिम
घोड़ा बनने को
और घोड़ा ... गुलाब के फूल से झटक कर
तानता है तीखा बाण
एक पीला गुलाब
इसके होठों से उभरता है
और गुलाब....
रोशनी और चीखों के कितने झुण्ड
ईख के गन्ने की गाँठों में
जीवित रहते है
और चीनी
अपने रतजगे में
कितनी तलवारों के स्वप्न देखती है
घुड़सवारों के बिना क्या है चंद्रमा
कैसी नग्नता ....
नित्य लजाता सा जिस्म वे तलाशते हैं
और मैं -
छत के छज्जे से
एक अग्निज फरिश्ते की प्रतीक्षा करता हूँ
लेकिन प्लास्टर का मेहराव
कितना फेला फूटा है
कितना अदृश्य
कितना सूक्ष्म
बिना किसी मेहनत के ही
होता है प्राप्त।


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विजेन्द्र जी वरिष्ठ कवि एवं 'कृतिओर' पत्रिका के संस्थापक सम्पादक हैं।

संपर्क-
मोबाईल-
09928242515

टिप्पणियाँ

  1. वाकई बहुत बढ़िया। लोर्का पर शोधपूर्ण आलेख। कई नयी प्रतिस्थापनाएं मालूम चलती हैं। हिंदी में लोर्का बहुत कम उपलब्ध हैं। आसान शब्दावली में लोर्का के बारे में इतनी महत्वपूर्ण जानकारी व उनकी कवितायेँ विश्व साहित्य के साथ न केवल हमें जोडती हैं बल्कि विश्व साहित्य के तमाम रुझानों को भी साफ करती हैं।
    विजेन्द्रजी की लगातार मेहनत एवं लगन को में सलाम करता हूँ।

    जवाब देंहटाएं
  2. बेहद उपयोगी लेख है। मैं पिछले तीस-पैंतीस साल से लोर्का पर फ़िदा हूँ। उनके जीवन के बारे में विस्तार से एक क़िताब लिखना चाहता हूँ। आप महत्त्वपूर्ण काम कर रहे हैं कि इस तरह के कवियों पर इतनी अच्छी सामग्री प्रकाशित कर रहे हैं।

    जवाब देंहटाएं
  3. हार्दिक धन्यवाद.....हिन्दी पाठकों के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण ....

    जवाब देंहटाएं
  4. Vijendra jee aap ek etihasik kaam kar rahe hain.Aapka bahut bahut dhanyavaad. Abhaar Santosh jee.

    जवाब देंहटाएं
  5. Very enriching content about lorka. Got a chance to know about his creative height and struggle. Thanks to vijendar sir and chaturvedi sir.

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