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हेरम्ब चतुर्वेदी का आलेख 'कुंभ : परंपरा एवं आधुनिकता'

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  हेरंब चतुर्वेदी  कुम्भ मेले का जिक्र साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में बहुधा किया है। सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, महादेवी वर्मा, त्रिलोचन जैसे महत्त्वपूर्ण रचनाकारों ने इसे अपनी रचना का विषय बनाया। प्राचीन और मध्यकालीन इतिहास में कुछ धुंधले रूपों में कुम्भ का जिक्र मिलता है जिसमें व्हेनत्सांग का वर्णन सर्वाधिक उल्लेखनीय है जिसमें वह कन्नौज के सम्राट हर्षवर्धन द्वारा हर पांचवे वर्ष प्रयाग में महामोक्ष परिषद के आयोजन का जिक्र करता है।  ग्यारहवीं शताब्दी में अल बेरुनी मोक्ष की आकांक्षा में पातालपुरी मंदिर की छत से वटवृक्ष पर से त्रिवेणी संगम में कूद कर लोगों के आत्मोसर्ग का विवरण देता है। इतिहासकार प्रोफेसर हेरम्ब चतुर्वेदी के अनुसार प्रसिद्ध लेखक और विद्वान मार्क ट्वेन ने 1895 के कुंभ का वृहद चित्रण किया है। बीसवीं सदी का पहला चित्रण सिडनी लो (1906) ने दिया जो प्रिंस ऑफ़ वेल्स के साथ भारत भ्रमण पर आया था। इन दोनों ने बारहवें वर्ष के कुंभ आयोजन को प्राचीनतम काल से शुरू माना है। हेरम्ब जी ने अपने शोधपूर्ण आलेख में महाकुम्भ के ऐतिहासिक सन्दर्भ को रोचक तरीके से प...

रामजी तिवारी के उपन्यास पर यतीश कुमार की समीक्षा 'सामान्य दिखते लोगों की असामान्यता का उपन्यास'

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  भारत को आमतौर पर गांवों का देश कहा जाता है। लेकिन बीतते समय के साथ गांव अब अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। वैसे  गांवों का जीवन जितना सामान्य दिखाई पड़ता है उतना दरअसल वह होता नहीं। उस जीवन में कई तरह की जटिलता और असामान्यता होती है जिसे देखने परखने के लिए सूक्ष्म दृष्टि की आवश्यकता होती है। खुद गांव में रहते हुए  रामजी तिवारी ने इन जटिलताओं को एक उम्दा उपन्यास के रूप में ढाला है। इस उपन्यास पर एक पारखी निगाह डाली है कवि आलोचक यतीश कुमार ने। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं  रामजी तिवारी के उपन्यास पर यतीश कुमार की समीक्षा 'सामान्य दिखते लोगों की असामान्यता का उपन्यास'। 'सामान्य दिखते लोगों की असामान्यता का उपन्यास' यतीश कुमार तवे को रोटी का इंतज़ार और प्लेट को रोटी का इसके बीच खाने वाली टेबल को बाबूजी का। इंतज़ार में ज़िद की कुनमुनाहट के साथ प्रार्थना का विलंब घोलते हुए एक टेर आती है “यहाँ तो सारा खेल ही दो तीन सालों का है।” पहले पन्ने में ही यह किताब अपनी दिशा निर्धारित करती नज़र आती है। जद्दोजहद की रोटी और विडंबना की चटनी पाठक की थाली में परोसी जाएगी, ऐसा ...

रामजी तिवारी के उपन्यास पर यतीश कुमार की समीक्षा

  यतीश कुमार   तवे को रोटी का इंतज़ार और प्लेट को रोटी का इसके बीच खाने वाली टेबल को बाबूजी का। इंतज़ार में ज़िद की कुनमुनाहट के साथ प्रार्थना का विलंब घोलते हुए एक टेर आती है “यहाँ तो सारा खेल ही दो तीन सालों का है।” पहले पन्ने में ही यह किताब अपनी दिशा निर्धारित करती नज़र आती है। जद्दोजहद की रोटी और विडंबना की चटनी पाठक की थाली में परोसी जाएगी, ऐसा मैं सोच रहा हूँ पढ़ते हुए। भोगा हुआ यथार्थ रचना, गाँव-घर की असल समस्याओं को रिश्तों और भावनाओं के चश्मे से देखने का हुनर, जीवंत किरदारों को यूँ रचने का हुनर, जो आपको आपके बचपन आपके परिवेश में स्वतः ले जाए यह सब पूरी आत्मीयता के साथ मौजूद मिलेगा, जिसमें जीवन के खट्टे-मीठे, तीखे अनुभव की बाँच दिखेगी।  उपन्यास में सामान्य से दिखते लोगों के बीच की असामान्यता को सहजता से प्रस्तुत किया गया है। कोई भी वाक़या थोपा हुआ नहीं अपितु भोगा हुआ सा प्रतीत होता है। सफ़ाई को ले कर स्त्री-पुरुष के बीच के अंतर के जिस तार्किक पक्ष लेखक ने रखा है, वह उनकी तटस्थ दृष्टि का भी सूचक है। यहाँ लेखक ने जस का तस रखने की कोशिश की या यूँ कहूँ इसमें भी तटस्थता...

स्वप्निल श्रीवास्तव का आलेख 'महाकुम्भ – आस्था का विराट जन समुद्र'

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  स्वप्निल श्रीवास्तव इलाहाबाद का महाकुम्भ भीड़ की दृष्टि से अब तक का सबसे बड़ा आयोजन साबित हुआ है। अभी तक की जानकारी के अनुसार लगभग छप्पन करोड़ लोगों ने इस महाकुम्भ में स्नान किया है। इस तरह यह आस्था का विराट जन समुद्र अनवरत लहरें ले रहा है। इस बार के महाकुम्भ की खासियत यह है कि इसमें दो तरह के स्नानार्थी शामिल हुए। पहले किस्म के स्नानार्थी वी आई पी हैं जिन्हें संगम स्नान करने में कोई दिक्कत नहीं हुई। जिन्हें सारी तरह की सुविधाएं प्राप्त हुई। ये ऐसे स्नानार्थी हैं जिनके लिए कायदे कानून कोई मायने नहीं रखते।  दूसरे तरह के वे स्नानार्थी हैं जो सामान्य जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन्हें तमाम तरह की असुविधाओं का सामना करना पड़ा। बीसों किलोमीटर पैदल चलना पड़ा। इन्हें कहा गया कि जहां नदी मिले वहीं संगम समझ कर नहा लें। जाम लगने पर स्नानार्थियों से कहा गया कि भीड़ के मद्देनजर वे वापस अपने घरों को लौट जाएं। कवि स्वप्निल श्रीवास्तव कुम्भ मेले में गए थे और अपनी आपबीती को एक आलेख में व्यक्त किया है। महाकुम्भ विशेष के अन्तर्गत आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं  स्वप्निल श्...

शर्मिला जालान का आलेख ‘ऐ लड़की’: एक पुनर्पाठ

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  कृष्णा सोबती कृष्णा सोबती की कहानी 'ऐ लड़की' हिन्दी की कालजयी कहानियों में से एक है। कहानी के औपन्यासिक स्वरूप को देखते हुए कुछ लोग इसे उचित ही लघु उपन्यास की संज्ञा देते हैं। यह कहानी दरअसल दो पीढ़ियों की स्त्रियों के बीच रिश्ते और संवाद की मार्मिक कहानी है। दो पीढ़ियों का अभिप्राय होता है अलग-अलग जीवन मूल्य और अलग-अलग नैतिकताएं। खासकर स्त्रियों के सन्दर्भ में यह और भी महत्त्वपूर्ण है।  इस कहानी में एक मां का अपनी पुत्री के साथ ममतामयी रिश्ता तो है ही, साथ ही साथ द्वंदात्मक रिश्ता भी है। यह द्वंद्व पीढ़ी का द्वंद्व है, जिसे शर्मिला जालान ने अपने इस आलेख में खुबसूरती से उभारने का प्रयत्न किया है। ऊपर से देखने पर लगता है कि यह कहानी  मृत्यु की प्रतीक्षा में एक बूढ़ी स्त्री की है लेकिन वह उसकी समूची ज़िंदगी के आर-पार की कथा व्यथा है, जिसे अपने मरने के पहले अपनी अचूक जिजीविषा से वह याद करती है। इसे पढ़ते हुए  कविता के इलाक़े से गद्य का अहसास होता है। मां का अनुभव मृत्यु के क्षेत्र से जीवन का चुपचाप उठाकर लाए-सहेजे गए अनुभव में तब्दील हो जाता है।  शर्मिला जालान ...

उमाकांत मालवीय का आलेख 'कुम्भ मेलाः एक आहट'

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  उमाकांत मालवीय  हमारे यहां जन सामान्य के बीच एक कथानक प्रचलित है 'कौआ कान ले गया'। कौवे के पीछे जी छोड़ कर भागने वाले अपना वह कान महसूसने की भी कोशिश नहीं करते जो उनके पास ही होता है। महाकुम्भ के 144 साल बाद के दुर्लभ आयोजन के झूठे नैरेटिव पर जनता इस समय पूरी तरह लहालोट है। माघ बीतने के बाद भी जनता पूरी तरह आस्थामय है। इलाहाबाद भीड़ से लबालब भरा हुआ है। वैसे पढ़े लिखे तमाम हिन्दुओं का भी यह मानना है कि 144 साल का यह सौभाग्य बस उनके जीवन को ही मिला है, तो क्यों न इसका फायदा उठा लिया जाए। हालांकि शंकराचार्य तक नहीं जानते कि 144 साल वाली बात कहाँ से आई। बहरहाल अफवाह होने के बावजूद 144 साल वाली यह बात अनाड़ी से ले कर विद्वान तक अधिकृत तरीके से कह रहा है। अब बात चूंकि आस्था और धर्म की है तो सवाल उठाने वाले विधर्मी ही नजर आते हैं।  144 वर्ष बाद महाकुम्भ के विरल संयोग का जो मिथ रचा गया है, वह पिछले कई कुम्भ मेलों में कई बार दोहराया जा चुका है। आगे भी निश्चित रूप से दोहराया जाता रहेगा। किसे फुरसत है कोई भी तहकीकात करने की, अमृत बटोर लेने की बात जो है। लेकिन कम से कम दो महाकुम्भ...