अवनीश यादव की कविताएँ
अवनीश यादव |
कवि
इसीलिए औरों से अलहदा होता है कि उसकी सोच प्रायः परम्परागत सोच से अलग होती है.
समय के साथ-साथ व्यक्तियों और वस्तुओं को देखने की उसकी दृष्टि में वह संवेदनशीलता
होती है जो अन्यत्र नदारद दिखायी पड़ती है. अवनीश यादव ऐसे ही युवा कवि हैं जिसकी
झलक उनकी कविताओं में दिखायी पड़ती है. कविता के क्षेत्र में अवनीश के ये शुरुआती
कदम हैं और इन कदमों से यह उम्मीद की जा सकती है कि ये कदम दूर तक का सफ़र तय
करेंगे. इस युवा कवि का हिन्दी कविता की दुनिया में स्वागत करते हुए आज हम पहली
बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं अवनीश की कुछ नयी कविताएँ.
अवनीश यादव की कविताएँ
संतुष्टि का ताला
अक्सर घर से निकलते हुए
अपनी संतुष्टि के लिए
हम जड़ देते है, दरवाजे पर ताला
बात यहीं नहीं ख़त्म होती
पूरी संतुष्टि के लिए,
एक दो बार ताले को जब तक खींच नहीं लेते है
दरवाजे से हिलते तक नहीं
फ़िर चाबी को बटुये में डाल कर निश्चिन्त हो जाते है।
भरे चौराहे पर खरीदारी का दौर शुरू होता है
कभी इस दुकान पर कभी उस दुकान पर
इसी बीच कभी कभार याद आ जाता है
कमरा, हा! वो ताला फ़िर चाबी
थोड़ा असहज फ़िर सहज
अब ठीक है
फ़िर सोचता हूँ
इस छोटे से ताले में कितनी शक्ति है
जो पूरे घर की सुरक्षा करता है
और और - मेरे दिल को तसल्ली देता है
कई दिनो के लिए जब बँद कर के
दूसरे शहर या गाँव चला जाता हूँ
प्रहरी की तरह अपनी ड्यूटी सम्भाले
चुपचाप कुंडी में लटका
कई दिन काट लेता है , कई राते गुजार देता है
उसे भी इंतजार है शायद मेरे आने की
नहीं नहीं सिर्फ़ चाबी की
जिसका साथ पाते ही अपना मुँह खोल देता है
खुलकर सांस लेता है
फ़िर दोनो अपनी आप बीती सुनाते होंगे
शायद यहीं की
देखो न अब मेरी ड्यूटी ख़त्म हुई
आँगन में गुलज़ार हुआ
चोर उचक्कों के ख़तरे से मेरा बेड़ा पार हुआ
सच तुम दूर मत जाया करो
मेरा साहस कमजोर पड़ने लगता है
और -और - जड़, मूकबधिर हो जाता हूँ।
वैसे दिसम्बर की धूप
बहुत बुरी नहीं लग रही है
फ़िर भी तुम्हारे कुल्हड़
की चाय पी रहा हूँ!
क्योंकि मुझे तुम्हारी
चाय की स्वाद
पानी वाले दूध
निर्लज्ज चाय पत्ती
बेक़सूर चीनी
लकवा खाये अदरक
मुँह बिचकाए आँच से
ज़रा सा भी प्यार नहीं
अंशकालिक मित्रता भी नहीं
फ़िर भी मैं पी रहा हूँ
क्योंकि मुझे कुल्हड़ वालों से प्यार है।
हाँ! ध्यान रखना
यह पैसा, जो मैंने तुम्हें दिया
तुम्हारी गुनहगार चाय का नहीं
बेक़सूर कुल्हड़ का है।
कभी-कभी यूं ही पूछ लेना चाहिए
उन्हें
लगता है कि
पता पूछने का मतलब
पते पर पहुँचना ही होता है।
जनाब!
कभी-कभी यू ही पूछ लेना चाहिए
गोया सफलता के बाद
भलमनसाहत का ठप्पा लगाती
लम्बे दिनों से इश्त्तरी कर
करीने से चपोत कर
रखी जुबान का
अंतस की आलमारी से
बेखौफ बाहर निकलना।
पता पूछने का मतलब
पते पर पहुँचना ही होता है।
जनाब!
कभी-कभी यू ही पूछ लेना चाहिए
गोया सफलता के बाद
भलमनसाहत का ठप्पा लगाती
लम्बे दिनों से इश्त्तरी कर
करीने से चपोत कर
रखी जुबान का
अंतस की आलमारी से
बेखौफ बाहर निकलना।
'नम्बर'
महकमा सरकारी हो
या प्राइवेट
नम्बर हमेशा पर्चियां तय करती हैं
वही बताती हैं
लक्ष्य तक पहुँचने की फिसलन और जकड़न।
कराहता हुआ वह भागता चला आ रहा था
साथ में दस -ग्यारह बरस का मासूम बालक
पोता रहा होगा
या नाती या ---
पृथ्वी की व्यास बनाती पंक्ति पर
वह केंद्र पर खड़ा रहा होगा
यानि की लक्ष्य -
त्रिज्या शेष थी!
हर आता हुआ चमकता आदमी
फीको को अक्सर धकिया देता है
शायद, इसमें उसका बड़प्पन धर्म हो
जिसे कटिबद्ध हो पूरा करने को आतुर रहता।
चमकते का ख़तरा सूँघ कर
कतार बोल उठती है,
भाई किसी को घुसने मत देना
लेकिन कतार को क्या पता नम्बर तो उसका पहले से तय
जिसमें खिड़कियों के मुँह पर बिना कतारबद्ध हुए
पहुँचने का उसका
पैदाइशी हक़ है!
प्रभाकर की प्रचंडता के समय
उसके हाथों में पर्ची होती है
जिसमें लड़के ने नाम और उम्र बखूबी पढ़ा
हँस कर दोनों सहमत होते हैं
एक पल हाथ में रखी पर्ची
सारी पीड़ा को शून्य कर देती है
जिसके लिए वह आया है
उसकी बत्तीसी की गुनगुनाहट से
सूर्य भी नज़रें झुका लेता है।
दोपहर ,
यानी दूसरे समर की तैयारी में
छाती के पास बनी थैली से पर्ची निकाल कर
इस आशा और उम्मीद से डाक्टर के पास भेजता है
अब बीमारी पर विजय अवश्य होगी
एक बार फ़िर सब कुछ पहले जैसा हो जायेगा
आखिर क्यों नहीं
डाक्टर तो दूसरे प्राणदाता होते हैं ,सोचता है!
दिल खोल कर कंधे पर बैठा कर घुमाऊँगा
पीठ पर लाद कर भेडिया बन जाऊँगा
दिल खोल कर कहानियाँ सुनाऊंगा
नाती और पोते के लिए एक बार फ़िर ---
चार बजने को है उसके नाम की कहीं कॊई भनक तक नहीं /मारे भय के अभी तक
प्यास और पेशाब को दाबकर बैठा था
कि, कहीं उसका नाम न निकल जाय
अचानक पास आकर छोटू कुछ कहता है
दादा ये लोग तो हम लोगों से लेट --- ------- ----
तभी डाक्टर समय समाप्त होने की औपचारिक घोषणा करता है
दोनों अवाक !!
एक दूसरे की नज़रों में झांकते हैं
शायद यही कहते हैं –
हाँ ! जानता हूँ, बखूबी जानता हूँ
अमीरों की पर्चियां अक्सर
गरीबों की पर्चियों को पटखनी दे देती हैं
जिसके रेफरी
डाक्टर और कम्पाउण्डर होते हैं!
सम्पर्क
मोबाईल - 09598677625
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (31-12-2018) को "जाने वाला साल" (चर्चा अंक-3202) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
बढ़िया कविताएं। "बेक़सूर कुल्हड़" और "नंबर" बहुत ही अच्छी लगीं।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन कवितायें
जवाब देंहटाएंदिल को छूने वाली कविताएं, खासकर ,बेक़सूर कुल्हड़।।।
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