प्रचण्ड प्रवीर का आलेख ‘विष्णु खरे की आलोचकीय अंतर्दृष्टि’।



विष्णु खरे


विगत 19 सितम्बर 2018 को वरिष्ठ कवि- आलोचक विष्णु खरे का निधन हो गया। विष्णु जी अपनी ढब के अनूठे रचनाकार थे। लीक से अलग हट कर वे खुद की अपनी अलग लीक बनाते और उस पर चलना पसन्द करते थे। तल्ख़ टिप्पणियाँ करने से वे कभी नहीं हिचके। जीवन के अन्तिम दिनों तक विष्णु जी लगातार सक्रिय बने रहे। पहली बार की तरफ से उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं प्रचण्ड प्रवीर का आलेख ‘विष्णु खरे की आलोचकीय अंतर्दृष्टि’।




विष्णु खरे की आलोचकीय अंतर्दृष्टि    


प्रचण्ड प्रवीर


हिन्दी साहित्य के इतिहास में प्रबुद्ध और प्रखर आलोचक तीन तरह के कहे जा सकते हैं। प्रथम कोटि के आलोचक वे हैं जो कि कुछ चुनिंदा कृतियों की आलोचना करते हैं। उनका मानना होता है कि अगर आलोच्य कूड़ा हो तो फिर आलोचना का कोई अर्थ नहीं है। कृतियाँ वही चुनी जाती हैं जो आलोचक को पसंद आये तथा उसके बाद कवि के समानान्तर कर्मों के समकक्ष, शिल्प, कथ्य, मूल्य की चर्चा करते हुए लोचनों (आँखों) को बढ़ा कर देखें और दिखायें। आलोचनाका यह परिष्कृत अर्थ है। द्वितीय कोटि के वे आलोचक हैं जिनके कार्यक्षेत्र का विस्तार बहुत अधिक है। जो भी नज़रों के सामने गुज़रे हर कुछ की जाँच पड़ताल, ठोक बजा कर कहना कि कि यह चीज अच्छी है। यह काम बहुत ही दुष्कर और श्रम साध्य है। यहाँ आलोचना का मौलिक का उद्देश्य रचना का अच्छा होना या ना होना, निर्धारित करना बन जाता है। तीसरी कोटि के वे आलोचक हैं जिन्होंने अपनी प्रतिभा से खुद को आलोचक तथा हिन्दी भाषा में आलोचना को स्थापित किया। जो कुछ कृतियों पर नहीं, बल्कि कवि के सम्पूर्ण कर्मों में उल्लेखनीय बदलाव, साहित्य धारा में मानकों के प्रतिमान के स्वरूप पर व्याख्या करने हेतु रही। आलोचकों का सबसे महत्त्वपूर्ण अपेक्षित गुण उनकी विश्वसनीयता है, जो कालांतर में उसके विचारों और अनुमानों की सत्यपरकता से निर्धारित होता है। हर तरह के आलोचक के लिए बहुविध साहित्य परिचय और वैश्विक दृष्टि की अनिवार्यता अपेक्षित है। उल्लेखनीय है कि हिन्दी साहित्य में आलोचना मुख्यतया कविता की आलोचना रही है।



स्वर्गीय विष्णु खरे (1940-2018) की आलोचकीय अंतर्दृष्टि को अपूर्व विस्तार तथा बृहत्तर दृष्टि रखने वाला कहा जा सकता है। एक तरफ़ विष्णु खरे स्वयं मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय के बाद सबसे बड़े कवि के रूप में याद किये जायेंगे, दूसरी ओर उनकी विलक्षण मेधा जो उनकी आलोचनाओं में प्रकट हुई है, अविस्मरणीय है। 



बहुत से साहित्यकर्मी, विष्णु खरे की कठोर आलोचना से क्षुब्ध हो कर उन्हें पौराणिक कथाओं के महाक्रोधी दुर्वासा ऋषि की संज्ञा देते थे। यहाँ ध्यातव्य है कि कालिदास ने महाभारत में वर्णित दुष्यंत-शकुन्तला कथा में दुर्वासा ऋषि को ला कर अभिज्ञान शाकुन्तलम्को विशिष्ट बना दिया था। 


विचिन्तयन्ती यमनन्यमानसा
तपोधनं वेत्सि न मामुपस्थितम् ।
स्मरिष्यति त्वां न स बोधितोऽपि सन्
कथां प्रमत्तः प्रथमं कृतामिव ॥1॥

- अभिज्ञानशाकुन्तलम् , चतुर्थ अंक, कालिदास



अपने शाप में दुर्वासा कहते हैं, “जिसके चिन्तन में खोयी हुई तुम मेरी उपस्थिति से भी परिचित नहीं हो वह तुम्हें भूल जाएगा।दुर्वासा ने शकुन्तला को शाप शिष्टाचार की सामाजिक मर्यादा भूल जाने के कारण दिया था। महाकवि ने यह भी दिखाया कि अपराध के लिए क्षमा माँगने पर ऋषि शाप निवारण का उपाय भी बताते हैं। विष्णु जी भी बहुत से साहित्यकर्मियों को साहित्य, शील, मूल्य आदि को भूल जाने पर, काव्यगत दोष की अनदेखी करने पर बड़े कठोर प्रतीत होते हैं। पर यह क्रोध कवि और साहित्य समाज के कल्याण के लिए था।



विष्णु खरे की आलोचकीय दृष्टि दो विशिष्ट विधाओं में प्रकट होती है
१. काव्य समालोचना में
२. सिने आलोचना में ।



इसके लिए उनकी किताब आलोचना की पहली किताब’ (1982) और सिनेमा समय (2018) पढ़नी चाहिए। अपने समय के प्रमुख कवियों की कृतियों की समीक्षाओं का संकलन आलोचना की पहली किताबमें है जिसमें सन् 1966 से सन् 1982 तक प्रकाशित लेख हैं। सिनेमा समयमें अधिकांश लेख, वेब पत्रिका समालोचन पर इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में समय-समय पर प्रकाशित हुए हैं जिन पर राष्ट्रीय स्तर तक की साहित्यिक बहस हुई। यह बहस एनडीटीवी पर भी चर्चित रही, जो कि आमतौर पर हिन्दी साहित्य में नहीं होता। इन दो विधाओं में व्यक्त विष्णु खरे के आलोचना कर्म और साठ साल के लम्बे सक्रिय साहित्यिक जीवन में एकरूपता है, जिसे समझे बिना उनके काव्य कर्म को भी ठीक-ठीक समझने में बाधा आ सकती है।



आलोचना का लक्ष्य


अपनी मारक शैली और चुहलबाजी में विष्णु खरे ने एक बार कहा था कि वे हिन्दी साहित्य के सूअरहैं। छोटी-बड़ी पत्रिकाओं में छप रहे, नवोदित, वृद्ध कवियों, लेखकों, निबंधकारों आदि पर पैनी नज़र रखते हुए सारा कूड़ा कड़कट खाने पचाने में उन्हें महारथ हासिल है। यहाँ तक कि बहुचर्चित वेब पत्रिका समालोचन, जानकीपुल आदि पर भी वह बराबर नज़र बनाये रखते थे और बेलौस टिप्पणियों से बहस छेड़ते या फिर जारी बहस को नयी दिशा देते थे। वे आलोचना का मूल लक्ष्य पाठकों की उदासीनता को सरोकार में बदलने में देखते हैं, किन्तु सीमाओं के साथ। 



इस सम्बन्ध में उन्होंने अपनी पुस्तक आलोचना की पहली किताबमें लिखा है -उदासीन विशेषण सापेक्ष है जिसे हम अच्छा साहित्य या अच्छी कृति मानते हों उसके प्रति दिलचस्पी के अभाव को हम उदासीनता तो कह ही सकते हैं, आगे बढ़ कर अज्ञान, मूर्खता या असांस्कृतिकता भी कह सकते हैं।.... लेकिन उदासीनता यहाँ एक तटस्थ उदासीनता नहीं है, वह ख़ासी सोची-विचारी उदासीनता है, दरअसल वह क्रोध-भरी, तंग आई उपेक्षा है।” (पृष्ठ 12, आ. की. प. कि) एकाध बार आलोचना भले ही किसी की उदासीनता को सरोकार में बदल दे उदासीन परिवेशों का कुतूहलमय समाज अथवा समाजों में बदलना एक ऐसा काम है जो आलोचना और साहित्य को सौंपना इन दोनों का अपमान, मखौल, तथा अन्याय है।“ (पृष्ठ 14, आ. की. प. कि)



मई 2016 में मराठी फ़िल्म सैराटपर उनका लेख एक सफलख़ूनी पलायन से 69 छिटकते प्रश्न ‘(पृष्ठ 157, सिनेमा समय) में वह समसामायिक मुद्दों के साथ-साथ शोषित-वंचितों तथा आम जनता के सामूहिक सौन्दर्यबोध पर भी प्रश्न उठाते हैं। यद्यपि विष्णु खरे रस सिद्धांत से सहमत नहीं थे, किन्तु वह स्वीकार करते थे कि सही आलोचना के केन्द्र में मानव-मूल्य ही हैं और वे मानव जीवन से पैदा हुए हैं। (पृष्ठ 19, आ. की. प. कि) यही दृष्टि अभिनव गुप्त के रस सिद्धांत की व्याख्या में वर्णित मूल्यबोध से जुड़ी है। किसी हद तक आलोचना रस का अनुसंधान करती नज़र आती है, जो कि डॉ. नगेन्द्र के रस सिद्धांत (19) में वर्णित किंचित अपूर्ण व्याख्या से भिन्न है।  



मुक्तिबोध के सन्दर्भ में लिखते हुए विष्णु जी आलोचक की भूमिका स्पष्ट करते हैं – “चूँकि आलोचक चीज़ों को समझना चाहता है और उन्हें समझाने में सहायक होना चाहता है अत: वह एक व्यवस्था-प्रिय व्यक्ति होता है, या कह लें कि एक गणितज्ञ होता है जो परिणामों से कारणों की उल्टी यात्रा करता है।” (पृष्ठ 29, आ. की. प. कि)




कवि के बारे में 


काव्य कर्म के प्रमुख उपकरण कविके सन्दर्भ में विष्णु जी सर्जनात्मकता के विस्फोट की अनियमितता को महसूस करते हुए लिखते हैं – “सृजनात्मक प्रतिभा कभी-भी समान रूप से प्रखर नहीं होती और कवि चाह कर भी प्रत्येक रचना कोफर्स्ट-रेटनहीं बना सकता। प्रत्येक कवि जानता है, यदि वह सचमुच कवि है तो, कि उसके कृतित्व में घटिया क्या है और मूल्यवान क्या है।” (पृष्ठ 115, आ. की. प. कि) यह वक्तव्य काव्य उद्गम के मूल स्वरूप और कवि की विमर्श क्षमता के अविभाज्य युग्म को दर्शाता है, जिसे शैव दर्शन में प्रतिभा’ (उसे ही भासित करना) कहा गया है। प्रतिभा के अन्य आवश्यक आयामों को उनके इन उक्तियों से समझा जा सकता है – “प्रत्येक सही साहित्यकार या तो अपने कर्त्तव्य जानता है  या वे उसके लेखन से ही पैदा होते हैं और फिर भी उस पर लाज़िमी नहीं होते।” (पृष्ठ 14, आ. की. प. कि) किसी कवि के सामने चिन्ता सिर्फ़ इसी बात की नहीं रहती वह दूसरों के प्रभाव से मुक्त रहे, बल्कि उसे वृहत्तर चिंता यह रहती है कि वह अपना स्वयं का एक व्यक्तित्व, एक आवाज़ बना पाए।” (पृष्ठ 156, आ. की. प. कि)



यद्यपि काव्य परम्परा, समाज परिवेश और इतिहास, सर्जन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं किन्तु काव्य स्वातंत्र्य को रेखांकित करते हुए विष्णु जी इस सत्य से अवगत कराते हैं - लेकिन हर्ष का विषय है कि प्रत्येक अच्छा कवि पारम्परिक अर्थों में कवि नहीं होता और सदैव पारंपरिक कविता न लिखता हुआ कुछ और भी होना-लिखना चाहता है। किसी कवि की प्रतिनिधि रचनाएँ वे नहीं हैं जिनमें उसने पारम्परिक अनुभूतियों को कुछ अधिक अच्छे ढंग से लिखा है बल्कि वे हैं जिनमें वह अपनी मान्यताएँ, प्रतिक्रियाएँ, अपने हस्ताक्षर तथा अपनी विजय और पराजयों को छोड़ आया है।” (पृष्ठ 121, आ. की. प. कि)



यह पाठकों में आमतौर पर असंतोष पाया जाता है कि कवि का व्यक्तित्व उनके अनुकूल न हो कर निराशाजनक रहा। काव्यकर्म के अतिरिक्त कवि कुछ और भी हो सकता है, जिसे आलोचकों को समझना चहिये - आश्चर्य का विषय है कि आलोचना में सदैव व्यक्तित्व को एक ठहरी हुई, तर्कबद्ध या शाश्वत वस्तु मान लिया जाता है और फिर इस फ़ैलेसीके सहारे कवि पर या तो अजीबो-ग़रीब आरोप लगाए जाते हैं या भ्रांत प्रशंसा की जाती है। मनुष्य न रॉबट है और न कम्प्यूटर, वह पुच्छलतारा भी नहीं है कि उसके आचार-व्यवहार में कोई गणित खोजा जा सके। आदमियों की वह नस्ल जिसे कवि कहा जा सकता है प्रारम्भ से ही अविश्वसनीय तथा तर्क से परे मानी गई है किन्तु सारे कवि अलग-अलग किन्हीं मूल्यों के एक स्तर पर पहुँचते हैं और कमोबेश वे उनकी कविताओं में एक अनुपात में परिलक्षित होते हैं। यह भी ध्यान रहे कि कवि महान्, संवेदनशील, सरलहृदय, दयालु होने के साथ-साथ लफंगे, शरारती, विदूषक और धोखेबाज़ भी होते हैं (आख़िर वे भी आदमी हैं) और इसलिए कवि के वक्तव्य को फ़ेस वैल्यूपर ग्रहण करना अपने विवेक को जोखिम में डालना है।” (पृष्ठ 112, आ. की. प. कि)



कुँवर नारायण के सम्बन्ध में लिखते समय विष्णु जी कवि के अडिग संकल्पशक्ति पर जोर डालते हैं, जो बहुधा अंहकार और बुद्धि के नियंत्रण से बाहर चली जाती है – “लेकिन अच्छा कवि बहुत ज़िद्दी होता है और कविता लिखते समय अपने विवेक और शक्ति के अलावा किसी और को नहीं मानता- मानना चाहता भी है तो भी उसका सर्जनात्मक विवेक और ऊर्जा उस पर बाज़ी मार ले जाते हैं।”  (पृष्ठ 86, आ. की. प. कि) यह विशिष्ट दृष्टि है कि काव्यकर्म बुद्धि से नहीं चलता।



कविता के मानदण्डों पर


काव्य कर्म किसी काल खण्ड से सम्बद्ध होता है। यही बात सिनेमा पर भी लागू होती है। हर युग में कविता की एक प्रमुख प्रवृत्ति होती है और अधिकांश कवियों की शक्ति उसे अभिव्यक्त करने में जुटी होती है। “ (पृष्ठ 135, आ. की. प. कि) साहित्य रचना में तुरंत प्रसिद्धि पाना या तुरंत मूल्यांकन पाना अविवेक का परिचय है। सच्चा आलोचक इस बात की चिंता करता है कि दीर्घ अवधि में समाज को, कला को, पाठकों को क्या मिला और जो मिला वह मूल्यवान है या नहीं



विष्णु जी कवि की कविता यात्रा के दो महत्त्वपूर्ण गुण आत्मालोचनऔरहास-क्षमतामानते हैं।  (पृष्ठ 62, आ. की. प. कि) हालांकि मौलिकता या नवीनता काव्यकर्म में अभीष्ट लक्षण है किन्तु वह आगाह करते हैं कि इस बात से किसी को असहमति नहीं हो सकती कि नयापन और अलगपन अपने-आप में कोई मूल्य नहीं है। वह फैशन भी हो सकता है और विदूषकता भी।” (पृष्ठ 166, आ. की. प. कि) इन्हीं अर्थ में वह कवियों और रचनाकारों केवल अनुकरणमात्र से बचने के लिए कहते हैं। प्रश्न पुराना है किन्तु अभी भी जायज है कि आखिर यथार्थ चित्रण का किया क्या जाए?” (पृष्ठ 139, आ. की. प. कि) पल-पल परिवर्तितवेश अच्छी कविता का मानदण्ड नहीं माना जा सकता किन्तु यह भी सत्य है कि ऐसे कवियों में, जो स्वयं को नहीं बदलते, अधिकांश घटिया है। ईमानदार कवि के लिए बदलाव मुकरनानहीं, जागरूक उत्तरदायित्व भाव है। (पृष्ठ 29, आ. की. प. कि)



रचनाकर्म के बहुत बड़े सत्य को मुक्तिबोध के संदर्भ में विष्णु जी उजागर करते हैं -कविता में यूनिटी (एकता) शिल्प की भी हो सकती है और अभिव्यक्ति की भी यानी हो सकता है कि विभिन्न विषयोंपर लिखी गई कविताओं का शिल्प एक-सा ही हो, अथवा शिल्प के साथ प्रयोगकिये गयें हों किन्तु विषयएक ही रहे।” (पृष्ठ 30, आ. की. प. कि) स्तल बहुल रचना के विषय में विष्णु जी कहते हैं कि उनका सही मूल्यांकन कवि की अन्य कविताओं को समानान्तर रख कर ही सम्भव है। (पृष्ठ 36, आ. की. प. कि) कमोबेश यही बातें अंद्रेइ तार्कोव्स्की, बेला टार, ब्रेसों, पसोलिनी जैसे फ़िल्म निर्देशकों के सम्बन्ध में कही जा सकती है। आज वैश्विक कृतियाँ, विशेषकर फ़िल्में स्तर बहुल रचना (स्ट्रेटिफ़िकेशन) है। यही समझ कला की जटिलता को सरल करने में सहायक होती है।



आलोचना के क्रम में कुछ कवियों पर कटाक्ष करते हुए उन्होंने कवियों के प्रवृत्तिगत दोषों को रेखांकित किया है - यदि कवि अपनी कविता की व्याख्या करने के लिए इस तरह व्याकुल होता है तो इसका यही अर्थ हो सकता है कि या तो उसे पाठक के विवेक पर भरोसा नहीं है अथवा अपनी कृति के सामर्थ्य पर।” (पृष्ठ 27, आ. की. प. कि)  प्रत्येक कवि का यह भरसक प्रयास रहता है कि उसकी कविताएँ एक प्रभाव छोड़ने में सफल रहें, किन्तु जब उसकी दिलचस्पी इसमें हो जाती है कि यह सिलसिला कभी टूटने न दिया जाए तो बात साफ़ हो जाती हे कि उसके लिए प्रभाव तथा उसके उपकरण ज्यादा महत्त्वपूर्ण चुके हैं, कथ्य नहीं।”  (पृष्ठ 138, आ. की. प. कि) 



हिन्दी पत्रिकाओं में बहुतायत में मिलती सामाजिक कविताओं के दोष के सम्बन्ध में वे आगाह करते हैं - साहित्य समाज का दर्पण है या नहीं एक फूहड़ प्रश्न है, किन्तु यह सत्य है कि कवि न चाहे तो भी समाज में रहने तथा उससे प्रभावित होने (भले ही रिमोट-कंट्रोल से) के लिए अभिशप्त है ...।सामाजिकविषयों पर लिखी गयी कविता, यदि वह फूँक-फूँक कर नहीं लिखी गई है तो तुरन्त एक ढर्रे का शिकार होती है और उसका अधिकांश हिस्सा अख़बारनवीसी बन कर रह जाता है।” (पृष्ठ 137, आ. की. प. कि)



सिनेमा पर बहुविध दृष्टि की आवश्यकता


विष्णु जी सिनेमा में साहित्य के आने की वकालत करते हैं, साथ ही यह भी बताते हैं कि विदेशों में जहाँ किताबें पढ़ी जाती और वहाँ साहित्य-सिनेमा का सम्बन्ध कैसा है। यह निराशा का विषय है कि हिन्दी सिनेमा विश्व स्तर की फ़िल्मों के सामने बौनी नज़र आती हैं। इसके कई कारण हैं। साधारण कारण तो यह गिनाये जा सकते हैं कि दर्शकों का अज्ञान, प्रतिभाशील और संस्कृत निर्देशकों का अभाव आदि। किन्तु यह समस्या बहुस्तरीय है। हमारे यहाँ सिनेमा जो पढ़ाया ही कम जाता है, और जहाँ पढ़ाया भी जाता है वह बेहद अफसोसनाक है। 



यह अब निर्विवाद से रूप से स्थापित हो चुका है कि भारतीय फ़िल्मों में राजनैतिक और वैचारिक जोख़िम लेने की माद्दा नहीं है। इसका कारण साहसशून्य और विचाररूप से असमृद्ध निर्देशक हैं, जो काले धन से मुनाफा कमाने के लिए फ़िल्में बनाते हैं। वह राजनैतिक चाटुकारिता से वशीभूत हो कर, मानव कल्याण का वृहत उद्देश्य और वैचारिक ईमानदारी का रास्ता छोड़ देते हैं। सिनेमा समयमें भारत की सिने संस्कृति के विविध पहलू, जैसे कि फ़िल्म पत्रिकास्क्रीनका बिकना, फ़िल्म पत्रकारिता और पत्रकारों का पुनरावलोकन, भारतीय सिनेमा का इतिहास, महत्त्वपूर्ण निर्देशकों की अनदेखी (ख़्वाजा अहमद अब्बास की जन्म शती न मनाना), समर्थ कलाकारों का हाशियों पर चले जाना, गोवा फ़िल्म समारोह की निरर्थकता पर चर्चा करते हुए वह एक ऐसे संस्कृति के अनुपस्थिति का संकेत करते हैं जो एक स्वस्थ समाज की दरकार हैं।



जब तक कोई समाज़ सृजन नहीं करेगा, वह न प्रबुद्ध हो सकता है न ही सुखी हो सकता है। सिनेमा पर लिखी उनकी आलोचना का फ़लक इतना विस्तृत है कि उसमें विश्व-स्तरीय अभिनेता, निर्देशक, पटकथा लेखक, संगीतज्ञ, राजनीति, इतिहास, दर्शन जैसे बहुतेरे ज्ञान के क्षेत्रों से परिचय होने की आवश्यकता है। विष्णु जी अपनी अपूर्व मेधा से इतने प्रतिमानों और पहलुओं की व्याख्या करते हुए समसामायिक विषयों पर ऐसे चले आते हैं, कि हम हतप्रभ से यह सोचने लगते हैं कि ऐसा भी होता है, हमने क्यों न सोचा?



यह हमें याद रखना चाहिए कि विष्णु जी हिन्दी के एकमात्र समीक्षक हैं, जिन्हेंकॉन’, ‘ला रोशेलऔर रोत्तरदम जैसे विश्व-स्तरीय फ़िल्म समारोहों में आधिकारिक रूप से आमन्त्रित किया गया। वे भारतीय फ़िल्मोत्सव में राष्ट्रीय पैनोरैमा खंड के लिए फ़िल्म चयनकर्त्ता में भी रहे। (पृष्ठ 8, सिनेमा समय)



महत्त्वपूर्ण प्रतिमान


बतौर आलोचक, विष्णु जी अपने समय की हिन्दी कविता में महत्त्वपूर्ण कवियों में गजानंद माधव मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, कुँवर नारायण और केदार नाथ सिंह को रखते हैं। वे रघुवीर सहाय के सम्बन्ध में लिखते हैं – “रघुवीर सहाय की कविताएँ वह अप्रिय और अलोकप्रिय कार्य करती हैं वे हमेशा गरीब रिश्तेदार की तरह ऐन ड्राइंग-रूम में उस वक्त चली आती हैं, जब आप साहित्य-संगीत-कलाप्रेमी उपमन्त्री से देश की हालत पर दो-चार हो रहे होते हैं।” (पृष्ठ 82, आ. की. प. कि) कुँवर नारायण पर लेख में वह यह स्थापित करते हैं कि घटिया रचनाकार इतिहास को गरिमामंडित या मोहक बनाने जाता है। वह उसकी कल्पित भव्यता से रोमांचित होता है और किसी तथाकथित स्वर्णयुग को पुनरुज्जीवित करता है। दूसरे क़िस्म का रचनाकार इतिहास को प्रासंगिक बनाने के लिए उसे इस्तेमाल करता है उसकी जो विचारधारा हो उसमें खोजने की कोशिश करता है या उसे उस पर आरोपित करता है।" (पृष्ठ 92, आ. की. प. कि)



दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन की अभिनय की प्रशंसा करते हुए, वह सत्यजित राय, बलराज साहनी, ख्वाजा अहमद अब्बास के अवदान को याद करते हैं। सिनेमा आलोचना में वह सम-सामायिक फ़िल्मों मोहनजोदारो’, ‘बाहुबली’, ‘सैराट’ , ‘पीकेजैसी व्यावसायिक दृष्टि से सफल फ़िल्मों की चर्चा करते हुए वह विश्व स्तर पर उल्लेखनीय फ़िल्मों को इंगित करते हुए यह बताते हैं कि सिनेमा के प्रतिमान इतने विस्तृत और व्यापक हैं कि जिसमें गहरे अनुसंधान की आवश्यकता है। कविता और उपन्यास की तुलना में फ़िल्मों के प्रतिमान कितने देखे और विचारे जाएँगे यह कहना कठिन है। सिनेमा समाज की तत्कालिकता पर सवार है, जिसे आमतौर पर समाज का ध्यान अनायास ही जाता है। महत्त्वपूर्ण प्रतिमान युगप्रवर्तक मूल्यों और उसके प्रभाव से पहचाने जाते हैं।



एक सजग आलोचकीय दृष्टि मूल्यों से संचालित होती है। जीवन के विभिन्न आयामों में व्यावहारिक, आदर्श, सात्विक, नैतिक मूल्यों और मूल्यबोधों की विकासशीलता गुँथी हुई हैं। विष्णु खरे हिन्दी साहित्य के विशिष्ट कवि होते हुए मीर तक़ी मीरकी तरह बेहतरीन इसलाहदेने वाले, व्लदीमिर नाबोकोव और हेनरी जेम्स की तर्ज़ पर, भाषा के महत्त्वपूर्ण सर्जक और प्रखर आलोचक के रूप में ध्रुव तारे की तरह प्रतिष्ठित हुए हैं। उनकी सूक्ष्म अंतर्दृष्टि भारतीय वाङ्मय से कितनी प्रेरित थी यह ठीक से नहीं कहा जा सकता है, किन्तु वह आचार्य आनन्दवर्धन और आचार्य अभिनवगुप्त की काव्य परम्परा से अविच्छिन्न नहीं दीखते है, यह निश्चित है।

(आजकल के नवम्बर 2018 अंक से साभार.)


प्रचण्ड प्रवीर
सम्पर्क
ई-मेल : prachand@gmail.com

परिचय 

प्रचण्ड प्रवीर बिहार के मुँगेर जिले में जन्मे और पले बढ़े हैं. इन्होंने सन् २००५ में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली से रासायनिक अभियांत्रिकी में प्रौद्योगिकी स्नातक की उपाधि ग्रहण की. सन् २०१० में हार्पर हिन्दी से प्रकाशित इनके पहले उपन्यास 'अल्पाहारी गृहत्यागी: आई आई टी से पहले' ने कई युवा हिन्दी लेखकों को प्रेरित किया. दख़ल प्रकाशन से, सन् २०१६ में प्रकाशित इनकी दूसरी पुस्तक, 'अभिनव सिनेमा: रस सिद्धांत के आलोक में विश्व सिनेमा का परिचय', हिन्दी के वरिष्ठ आलोचकों द्वारा बेहद सराही गई. इन दिनों प्रचण्ड प्रवीर गुड़गाँव में एक रिस्क मैनेजमेण्ट फर्म में काम करते हैं.​​
प्रचण्ड प्रवीर बिहार के मुंगेर ज़िले में जन्मे और पले-बढ़े हैं। इन्होंने सन् 2005 में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली से रासायनिक अभियान्त्रिकी में प्रौद्योगिकी स्नातक की उपाधि ग्रहण की। सन् 2010 में प्रकाशित इनके पहले उपन्यास ‘अल्पाहारी गृहत्यागी : आई. आई. टी. से पहले’ ने कई युवा हिन्दी लेखकों को प्रेरित किया। नयी अध्ययन-दिशा देने के लिए सिनेमा अध्ययन और हिन्दी के वरिष्ठ आलोचकों ने सन् 2016 में प्रकाशित इनकी कथेतर पुस्तक ‘अभिनव सिनेमा :रस सिद्धान्त के आलोक में विश्व-सिनेमा का परिचय’ की प्रशंसा की। सन् 2016 में ही इनका पहला कथा संग्रह ‘जाना नहीं दिल से दूर’ प्रकाशित हुआ, जिसे हिन्दी कहानी-कला में एक नये चरण को प्रारम्भ करने का श्रेय दिया जाता है। इनका पहला अंग्रेज़ी कहानी संग्रह ‘Bhootnath Meets Bhairavi’ (भूतनाथ मीट्स भैरवी) सन् 2017 में प्रकाशित हुआ।

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प्रचण्ड प्रवीर बिहार के मुंगेर ज़िले में जन्मे और पले-बढ़े हैं। इन्होंने सन् 2005 में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली से रासायनिक अभियान्त्रिकी में प्रौद्योगिकी स्नातक की उपाधि ग्रहण की। सन् 2010 में प्रकाशित इनके पहले उपन्यास ‘अल्पाहारी गृहत्यागी : आई. आई. टी. से पहले’ ने कई युवा हिन्दी लेखकों को प्रेरित किया। नयी अध्ययन-दिशा देने के लिए सिनेमा अध्ययन और हिन्दी के वरिष्ठ आलोचकों ने सन् 2016 में प्रकाशित इनकी कथेतर पुस्तक ‘अभिनव सिनेमा :रस सिद्धान्त के आलोक में विश्व-सिनेमा का परिचय’ की प्रशंसा की। सन् 2016 में ही इनका पहला कथा संग्रह ‘जाना नहीं दिल से दूर’ प्रकाशित हुआ, जिसे हिन्दी कहानी-कला में एक नये चरण को प्रारम्भ करने का श्रेय दिया जाता है। इनका पहला अंग्रेज़ी कहानी संग्रह ‘Bhootnath Meets Bhairavi’ (भूतनाथ मीट्स भैरवी) सन् 2017 में प्रकाशित हुआ।

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टिप्पणियाँ

  1. यह लेख साहित्य और संस्कृति की अग्रणी मासिक पत्रिका 'आजकल' के लिए संपादक से चर्चा के बाद लिखा गया था। लेख 'आजकल' के नवंबर 2018 अंक में प्रकाशित हो चुका है। 'आजकल' का नवंबर अंक इस लेख के लेखक सहित सभी संबद्ध लोगों को 20 अक्तूबर तक मिल चुका था। अतः सामान्य शिष्टाचार के तहत लेखक से यह उम्मीद की जाती है कि वे आपको इसकी जानकारी दें और 'पहली बार' को इससे अपने पाठकों को अवगत कराना चाहिए। यह चूक अब भी दुरुस्त की जा सकती है। - राकेशरेणु, वरिष्ठ संपादक, 'आजकल'

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  2. जी, बिल्कुल। यह तथ्य मेरी जानकारी में है। इस सामान्य शिष्टाचार के हम भी पक्षधर हैं। जल्द ही इस सूचना को ब्लॉग पर जोड़ा जा रहा है।

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (27-10-2018) को "पावन करवाचौथ" (चर्चा अंक-3137) (चर्चा अंक-3123) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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