सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'व्यंग्य लेखन पर क्षण भर'

 

सेवाराम त्रिपाठी


व्यंग्य लेखन को पहले कभी दोयम दर्जे की विधा माना जाता था। लेकिन यह कुछ ऐसे रचनाकारों का हुनर था जिन्होंने व्यंग्य को वह ऊंचाई प्रदान की कि वह रचना की मुख्य धारा में शामिल हो गया। हरिशंकर परसाई का नाम ऐसे ही रचनाकारों में शामिल है लेकिन बदलते हुए समय के साथ कुछ लोगों ने व्यंग को सस्ते लेखन के रूप में लेने की कोशिश की है। ऐसे में गिरावट हर विधा के साथ दिखाई पड़ती है। सेवाराम त्रिपाठी उचित ही लिखते हैं कि 'अब तो व्यंग्य के बारे में बात करना भी मुश्किल होता जा रहा है। कहने का भी क्या लाभ। नक्कारखाने में तूती की आवाज़ की तरह। आलोचना की सामाजिकता खो गई है और जनतंत्र केवल कहने भर में है। व्यंग्य इन्हीं जीवन घाटियों में फंसा दिया गया है। वास्तव में उसका अर्थ गुम हो गया है। यथार्थ के संधान यहां तक पहुंच चुके हैं। यानी व्यंग्य के आचरण की तुलना में उसके चरण ज़्यादा बेहतर हैं। ज़ाहिर है कि व्यंग्य मनोरंजन, विनोद, हास्य और किसी भी सूरत में समय पास करने का न तो संसार है और नहीं ऐसा संसाधन है। वह बेहद गंभीर और अत्यंत ज़रूरी चीज़ है।' 

पहली बार की तरफ से सभी को नव वर्ष मुबारक। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सेवाराम त्रिपाठी का आलेख  'व्यंग्य  लेखन पर क्षण भर'।



'व्यंग्य  लेखन पर क्षण भर'


सेवाराम त्रिपाठी


 

नीचताओं की लपलपाती जीभें और व्यंग्य के बंधे हुए हाथ देखने के दिन आ गए। यह कोई जुमला भी नहीं है। यह ज़िंदा हक़ीक़त है या इस समय की नज़ाकत है। तथ्य यह है कि व्यंग्य की तासीर तीखी और तुर्श होती है। लेकिन उसका नज़रिया बदलाव और सुधार का ही होता है, किसी भी तरह यथास्थितिवाद का नहीं। चीज़ों को ढांकने तोपने का तो कतई नहीं। उसमें करुणा की अजश्र धारा होती है। वस्तुस्थिति यह है कि व्यंग्य चोट भर नहीं करता बल्कि किसी कुशल डॉक्टर की तरह घाव की मरहम पट्टी भी करता है और मिजाज़पुरसी भी। व्यंग्य की परिधि छोटी नहीं है। वह कोई विधा नहीं है बल्कि एक स्परिट और एक बेचैनी भरा अबूझ संसार भी है। उसे किसी नाप जोख में हमें नहीं देखना चाहिए। कविता, कहानी, उपन्यास, कथेतर गद्य या आलोचना या अन्य स्थानों में भी व्यंग्य संभव है। उसकी स्परिट को अनुभव किया जा सकता है। व्यंग्य ने अपने विकास की कई सरणियां भी देखी हैं। व्यंग्य की हैसियत कभी भी मिमियाने और गिड़गिड़ाने की नहीं  रही बल्कि दहाड़ने और गर्जना करने की रही है। यह ताक़त उसने व्यक्तिगत ईमानदारी, जनपक्षधरता, साहस और ज़मीर से अर्जित की है। यह दया का मामला नहीं है। किसी चालबाज़ी से भी नहीं। समय बदलता है तो कई चीज़ें अपना रूप और आकार भी बदलती हैं। एक ज़माने का व्यंग्य जिसे शूद्र कहा जाता था, उसने अपनी हैसियत, औकात, बनक, विश्वसनीयता और अपार संभावनाएं विकसित की और अपना जाबांज दर्ज़ा भी हासिल किया। वह एक नया मोड़ और आयाम था। सचमुच व्यंग्य लेखन की इतनी ऊंची उड़ान इसके पहले कभी नहीं देखे गए थे। इसे किसी भी तरह अनदेखा नहीं किया जा सकता। अब तो उसे कथ्य में कम भाषा व्यवहार और व्यंजना में व्यवहृत होने का चलन है। माना कि व्यंजना शक्ति में उसे निरंतर विस्तार से पाया जा सकता है लेकिन समझदारी, जनसंबद्धता और गहन अंतर्दृष्टि तो चाहिए ही। इनके अभाव में छाछ को बिलोने और मक्खन पाने की झूठी कवायद ही होगा।



आज के दौर में व्यंग्य बहुत ऊंचे उड़ रहा है। संभवतः व्यंग्य लेखन का  भाव-ताव इसीलिए आजकल बहुत ऊंचा और सुपर-डुपर क्वालिटी का होता जा रहा है। लेकिन महंगाई यहां भी आसमान पर है। यही नहीं इस समय व्यंग्य का सुपर बाज़ार एकदम तना हुआ है। उसका प्रभाव यह पड़ा कि व्यंग्य के चरण कमल जहां भी पड़ते हैं, लोग उसके चरणस्पर्श के लिए लालायित हो उठते हैं। उसकी महत्ता का यह एक कोण है लेकिन यदि उसकी साख को बट्टा लगाया जाएगा। प्रश्नांकन होंगे तो क्या किसी को उसकी कोई नोटिस भी नहीं लेनी चाहिए। उसे खुला खेल फरुक्खावादी बना दिया जाए। यह कौन सी व्यंग्य की उड़ान है। ऐसा उसके लोकप्रियता का लाभ उठाने वाले, उससे यश की कमाई करने वाले या पताकाएं फहराने वाले अपने हित साधन के लिए तैयार महारथी करना चाहते हैं। वे लोकप्रियता को हर तरह से नींबू की भांति निचोड़ लेने को तत्पर हैं। एक मुहावरा जीवन में अक्सर सुना गया होगा। अब तो व्यंग्य के बारे में बात करना भी मुश्किल होता जा रहा है। कहने का भी क्या लाभ। नक्कारखाने में तूती की आवाज़ की तरह। आलोचना की सामाजिकता खो गई है और जनतंत्र केवल कहने भर में है। व्यंग्य इन्हीं जीवन घाटियों में फंसा दिया गया है। वास्तव में उसका अर्थ गुम हो गया है। यथार्थ के संधान यहां तक पहुंच चुके हैं। यानी व्यंग्य के आचरण की तुलना में उसके चरण ज़्यादा बेहतर हैं। ज़ाहिर है कि व्यंग्य मनोरंजन, विनोद, हास्य और किसी भी सूरत में समय पास करने का न तो संसार है और नहीं ऐसा संसाधन है। वह बेहद गंभीर और अत्यंत ज़रूरी चीज़ है।




    

वैसे व्यंग्य किसी भी हालत में आनंद की चीज़ तो कतई नहीं है। मुझे लगता है कि व्यंग्य पढ़ने से हमें बेचैन होना चाहिए लेकिन कुछ लोग कहते हैं कि आजकल व्यंग्य से मज़ा आने लगता है।अच्छे और मारक क्षमता वाले व्यंग्यों को छोड़ दिया जाए तो अन्य तो आज के दौर के अधिकांश व्यंग्य पढ़ कर सभी को उतना ही हार्दिक आनंद मिलता भी है जितना कभी 'हार की जीत' कहानी में बाबा भारती को अपने घोड़े सुलतान को देख कर आता था। क्या कहा जाए जितनी विकृतियों, विसंगतियों, विरूपताओं और विडंबनाओं की बाढ़ है और जिनका सक्षमता और ताक़त के साथ प्रतिरोध होना चाहिए था, हो पाया या नहीं? यह हमारे सामने है। इसके सभी निष्कर्ष प्रत्यक्ष रूप से ग्रहण किए जा सकते हैं। कुछ व्यंग्यकारों की दुनिया को छोड़ दिया जाए तो हम ठहर से गए हैं या ठिठक कर चुप्पी की चाशनी में जलेबी खाने की तरह परम आनंद ले रहे हैं। इसी के समानांतर उसी अनुपात में हम नीचताओं की सीढियां गर्व से चढ़ते ही जा रहे हैं। व्यंग्य लेखन अब खतरे के बाहर की चीज़ हो गया है। व्यंग्य खतरे की चीज़ नहीं बल्कि सुविधा उपलब्ध करने का अक्षय कोष है। व्यंग्य से जोखम की विदाई इसका साक्षात प्रमाण भी है। हरिशंकर परसाई को व्यंग्य लेखन के कारण पीटा गया था और अब पुरस्कार और सम्मान मिलते हैं। अब तो व्यंग्य लेखन मनोविनोद या समय गुजारने वाला हो चला है। वह मनचला भी हो गया है। व्यंग्य की धार सूख रही है। वह धारेधार बहता जा रहा है। जिन ज्वलंत विषयों या मुद्दों को उठाया जाना चाहिए। वे लत्ता लपेटी में हिलग गए हैं। यूं व्यंग्य के भीतर सब कुछ घिरता है। वह सब कुछ घेरता है। उसकी पकड़ से कोई विषय बाहर नहीं है।  पाठकों की जिज्ञासाओं से बाहर हो चुका है व्यंग्य। उसमें बच बचा कर काम करने की प्रवृत्ति बढ़ी है। आक्रोश, विरोध, कटाक्ष, विसंगति, विडंबना, अंतर्विरोध, पाखण्ड और विकृतियों से भी वह दूर जाता सा महसूस किया जा रहा है।


   

लोकप्रियता ने हमें भीतर तक झांझर कर दिया है। वैसे लोकप्रियता की अपनी दुनिया है और उसकी अपनी वास्तविकता भी है। जो कुछ व्यंग्य अपवाद हैं, वे अच्छे भी हैं और सच्चे भी। बाकी को तो कंबल में लपेट-लपेट कर हम धुनते हुए ठठा कर हँस रहे हैं। अच्छी स्थिति यह है कि इधर हमारा व्यंग्य राजनीति से निरंतर मुठभेड़ कर रहा है। वह कहता है कि क्या तुम्हीं भर गिर सकते हो। हम भी तुम्हारे सहयात्री हैं। हम तुमसे ज़्यादा गिरने की ख्वाहिश रखते हैं। पार्टनर! हमें किसी भी सूरत में कम न समझो। हम भी तुम्हारे साथ-साथ हैं। तुम्हारे यहां भर प्रशंसा पुराण नहीं है हमें भी प्रशंसा करने में किसी भी सूरत में पीछे न समझो। किसी भ्रम में न रहो। आजकल व्यंग्य ने अपनी हैसियत का इसी प्रकार विकास किया है। वह भी छाती फुला कर अपने जलवे बिखेरने में लगा है। सच तो यह है कि व्यंग्य लेखन असमंजस की दुनिया नहीं है। तथ्य यह है कि अब वह असमंजस की ओर से प्रायः बच बचा कर निकलता है। गर्व से कहिए कि हम भी व्यंग्य हैं कोई ऐरा-गैरा, नत्थू खैरा नहीं। जैसे इस दौर में हमनें भारतीय लोकतंत्र की तरह उच्चतम क्वालिटी का विकास किया है। व्यंग्य डबल पार्सनेल्टी और डबल स्टेंडर्ड में फंस कर अपनी तीखी धार को कमोडिटी में ढाल रहा है। उसका प्रापर पर्सपेक्टिव यानी सही परिप्रेक्ष्य होता है। व्यंग्य तो हर कहीं है। मेरी छोटी सी टीप पर एक मित्र बहुत संजीदा हैं। उनका कहना है कि व्यंग्य पर कोई टिप्पणी नहीं करनी चाहिए। कुछ लोग केवल अपनी ही बातें कहते हैं और अपने मन चाहे एरिया की बातें ही सुनते हैं। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ का एक कथन देखने लायक है - ”हमारे समाज के साथ एक समस्या है कि हम दूसरों की बात नहीं सुन रहे हैं …जो हम सुनना चाहते हैं वही सुनने की आदत को विराम देना हमें अपने आसपास की दुनिया के बारे में नई समझ विकसित करने का अवसर प्रदान करता है।”





यह बात इसलिए कहना ज़रूरी है कि कुछ साथी जब व्यंग्य पर प्रश्नांकन होते हैं तो छाती पीटने लगते हैं, मानों उन्हीं पर कुदाल चलाई जा रही है। जो बातें कही जा रही हैं, उसकी इयत्ता, समग्र विकास और मूल्यांकन के संदर्भ में हैं। व्यंग्य की इस अनमोल दुनिया के लिए सभी साथियों को  क़मर कसना ही पड़ेगा अन्यथा वह मुंहदिखाईं की दुनिया में तब्दील हो जाएगा। व्यंग्य लेखकों को गंभीरतापूर्वक किसी व्यापक परिवर्तन के लिए एकजुट तो होना ही चाहिए। शायद नहीं निश्चित तौर पर तभी हम विकास के बहिर्मुखी पथ पर जा सकते हैं। यह सिद्धांत कथन नहीं बल्कि हमारे प्रायोगिक रास्ते और परीक्षण की दिशाएं हैं।


व्यंग्यकारों को अपना उपनिवेश बनाना छोड़ कर  समय, समाज, देश-दुनिया और तरह-तरह की विडंबनाओं, विसंगतियों अंतर्विरोधों पाखंडों द्वंद्वों और वास्तविकताओं की रोशनी में अपने कर्तव्य निर्धारित करने चाहिए। चाहिए में ही दुनिया घूम रही है बल्कि हमें होने की ओर बढ़ना है। अंत में युवा आदिवासी कवयित्री जसिंता केरकेट्टा की कविता का यह अंश भी पढ़ना ज़रूरी लगता है -


”उसने स्त्री की  कुचली आत्मा को 

राजनीति की सड़क पर लिटा दिया है

सबूतों को कहीं झाड़ियों में छिपा दिया है 

और हत्यारों की आर्थिक स्थिति  ठीक करने में

जी जान से जुटा हुआ है

उसने सजा की मांग करती

चौराहों पर चीखती तख्तियों  को

अपने लिए किसी ढाल में बदल लिया है 

और इस ढाल के पीछे उसका चेहरा छिप गया है।”


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(11 दिसंबर 2023)


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)


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