नीलाभ की कविताएं
नीलाभ नीलाभ की कविताएं गढ़ी सराय की औरतें साँप की तरह लहरदार और ज़हरीली थी वह सड़क जिससे हो कर हम पहुँचते थे बीच शहर के एक बड़े चौक से दूसरे बड़े चौक तक जहाँ एक भीमकाय घण्टाघर था जो समय बताना भूल गया था आने-जाने वालों को 1947 के बाद से गो इसके इर्द-गिर्द अब भी वक़्तन-फ़-वक़्तन सभाएँ होतीं नारे बुलन्द करने वालों की जुलूस सजते और कचहरी तक जाते अपने ही जैसे एक आदमी को अर्ज़ी देने जो बैठ गया था गोरे साहब की कुर्सी पर अँधेरी थी यह सड़क जिस पर कुछ ख़स्ताहाल मुस्लिम होटल थे और उनसे भी ख़स्ताहाल कोठरियों की क़तारें जिन पर टाट के पर्दे पड़े होते जिनके पीछे से झलक उठती थीं रह-रह कर कुछ रहस्यमय आकृतियाँ राहगीरों को लुभाने की कोशिश में ये नहीं थीं उस चमकते तिलिस्मी लोक की अप्सराएँ जो सर्राफ़े के ऊपर मीरगंज में महफ़िलें सजाती थीं, थिरकती थीं, पाज़ेब झनकारतीं ये तो एक ख़स्ताहाल सराय की ख़स्ताहाल कोठरियों की साँवली छायाएँ थीं जाने अपने से भी ज़ियादा ख़स्ताहाल कैसे-कैसे जिस्मों को जाने कैसी-कैसी लज़्ज़तें बख़्शतीं बचपन में ’बड़े’ की बिरयानी या सालन और रोटियाँ खा...