कुमार अंबुज






इस पोस्ट के साथ पहली बार ने सौ पोस्टों का सफर पूरा किया है. हमने इस विशेष अवसर के लिए अपने प्रिय कवि कुमार अम्बुज से कविताओं के लिए अनुरोध किया जिसे अम्बुज जी ने सहर्ष स्वीकार कर हमें अपनी ये नवीनतम कवितायें उपलब्ध कराईं. अम्बुज जी के प्रति आभार व्यक्त करते हुए हम प्रस्तुत कर रहें हैं उनकी कवितायें.




इस सदी में जीवन अब 
विशाल शहरों में ही संभव है

अब यह अनंत संसार एक दस बाई दस का कमरा
जीवित रहने की मुश्किल और गंध से भरा

खिड़की से दिखती एक रेल गुजरती हैभागती हैं जिसकी रोशनियाँ
उजाला नहीं करतींभागती हैं मानो पीछा छुड़ाती हैं अॅंधेरे से
उसकी आवाज थरथराहट भरती है    लेकिन वह लोहे की आवाज है
उसकी सीटी की आवाज बाकी सबको ध्वस्त करती 

आबादी में से रेल गुजरती है रेगिस्तान पार करने के लिए
लोग जीवन में से गुजरते हैं प्रेमविहीन आयु पार करने के लिए
आखिर एक दिन प्रेम के बिना भी लोग जिंदा रहने लगते हैं
बल्कि खुश रह करनाचते-गाते जिंदा रहने लगते हैं

बचपन का गॉंव अब शहर का उपनगर है
जहॉं बैलगाड़ी से भी जाने में दुश्‍वारी थी अब मैट्रो चलती है

प्रेम की कोई प्रागैतिहासिक तस्वीर टॅंगी रहती है दीवार पर
तस्वीर पर गिरती है बारिशधूल और शीत गिरता है
रात और दिन गिरते हैंउसे ढॅंक लेता है कुहासा
उसके पीछे मकडि़याँछिपकलियाँ रहने लगती हैं
फिर चिकित्सक कहता है इन दिनों आँसुओं का सूखना आम बात है
इसके लिए तो कोई डॉक्टर दवा भी नहीं लिखता

एक दिन सब जान ही लेते हैं: प्रेम के बिना कोई मर नहीं जाता

खिड़की से गुजरती रेल दिखती है
और देर तक के लिए उसकी आवाज फिर आधिपत्य जमा लेती है

अनवरत निर्माणाधीन शहर की इस बारीकमटमैली रेत में 
मरीचिका जैसा भी कुछ नहीं चमकता
लेकिन जीवन चलता है।



मृत्युलोक और कुछ पंक्तियॉं


इसी संसार की भीड़ में दिखा वह एक चेहरा, जिसे भूला नहीं जा सकता। 
तमाम मुखौटों के बीच सचमुच का चेहरा। 
या हो सकता है कि वह इतने चेहरों के बीच एक शानदार मुखौटा रहा हो। 

उस चेहरे पर विषाद नहीं था जबकि वह इसी दुनिया में रह रहा था। 
वहाँ प्रसन्नता जैसा कुछ भाव था लेकिन वह दुख का ठीक विलोम नहीं था। 
लगता था कि वह ऐसा चेहरा है जो प्रस्तुत दुनिया के लिए उतना उपयुक्त नहीं है। 
लेकिन उसे इस चेहरे के साथ ही जीवन जीना होगा। वह इसके लिए विवश था। 
उसके चेहरे पर कोई विवशता नहीं थी, वह देखने वाले के चेहरे पर आ जाती थी।

वह बहुत से चेहरों से मिल कर बना था। 
उसे देख कर एक साथ अनेक चेहरे याद आते थे। 
वह भूले हुए लोगों की याद दिलाता था।
वह अतीत से मिलकर बना था, वर्तमान में स्पंदित था 
और तत्क्षण भविष्य की स्मृति का हिस्सा हो गया था। 
वह हर काल का समकालीन था।

वह मुझे अब कभी नहीं दिखेगा। कहीं नहीं दिखेगा। 
उसके न दिखने की व्यग्रता और फिर उत्सुकता यह संभव करेगी 
कि वह मेरे लिए हमेशा उपस्थित रहे। 
उसका गुम हो जाना याद रहेगा। 
यदि वह कभी असंभव से संयोग से दिखेगा भी तो उसका इतना जल बह चुका होगा 
और उसमें इतनी चीजें मिल चुकी होंगी कि वह चेहरा कभी नहीं दिखेगा। 
हर चीज का निर्जलीकरण होता रहता है, नदियों का, पृथ्वी का और चंद्रमा का भी। 
फिर वह तो एक कत्थई-भूरा चेहरा ही ठहरा। 

उसे देख कर कुछ अजीवित चीजें और भूदृश्य याद आये। एक ही क्षण में:
लैम्पपोस्टों वाली रात के दूसरे पहर की सड़क। 
कमलगट्टों से भरा तालाब। 
एक चारखाने की फ्रॉक। 
ब्लैक एंड व्हाईट तसवीरों का एलबम। 
बचपन का मियादी बुखार। 
स्टूल पर काँच की प्लेट और उसमें एक सेब। 
एक छोटा सा चाकू। 
छोटी सी खिड़की। 
और फूलदान।

उस स्वप्न की तरह जिसे कभी नहीं पाया गया। 
जिसे देखा गया लेकिन जिसमें रहकर कोई जीवन संभव नहीं। 
कुछ सपनों का केवल स्वप्न ही संभव है। 

वह किसी को भी एक साथ अव्यावहारिक, अराजक, 
व्यथित और शांत बना सकता था।

वह कहीं न कहीं प्रत्यक्ष है लेकिन मेरे लिए हमेशा के लिए ओझल। 
कई चीजें सिर्फ स्मृति में ही रहती हैं। 
जैसे वही उनका मृत्युलोक है।   


रास्ते की मुश्किल

आप मेज को मेज तरह और घास को घास की तरह देखते हैं
इस दुनिया में से निकल जाना चाहते हैं चमचमाते तीर की तरह
तो मुश्किल यहाँ से शुरू होती है कि फिर भी आप होना चाहते हैं कवि

कुछ पुलिस अधीक्षक होकरकुछ किराना व्यापारी संघ अध्यक्ष होकर
और कुछ तो मुख्यमंत्री होकरकुछ घर-गृहस्थी से निबट कर 
बच्चों के शादी-ब्याह से फारिग होकर होना चाहते हैं कवि 
कि जीवन में कवि न होना चुन कर भी वे सब हो जाना चाहते हैं कवि

कवि होना या वैसी आकांक्षा रखना कोई बुरी बात नहीं
लेकिन तब मुमकिन है कि वे वाणिज्यिक कर अधिकारी या फूड इंस्पेक्टर नहीं हो पाते
जैसे तमाम कवि तमाम योग्यता के बावजूद तहसीलदार भी नहीं हुए
जो हो गए वे नौकरी से निबाह नहीं पाए
और कभी किसी कवि ने इच्छा नहीं की और न अफसोस जताया
कि वह जिलाधीश क्यों नहीं हो पाया
और कुछ कवियों ने तो इतनी जोर से लात मारी कि कुर्सियाँ कोसों दूर जाकर गिरीं

यह सब पढ़-लिख करऔर जान कर भीहिन्‍दी में एम ए करकेविभागाध्यक्ष हो कर
या फिर पत्रकार से संपादक बन कर कुछ लोग तय करते हैं 
                                                 कि चलोअब कवि हुआ जाए
और जल्दी ही फैलने लगती है उनकी ख्‍याति
कविताओं के साथ छपने लगती हैं तस्वीरें
फिर भी अपने एकांत में वे जानते हैं और बाकी सब तो समझते ही हैं
कि जिन्हें होना होता है कविचित्रकारसितारवादक या कलाकार
उन्होंने गलती से भी नहीं सोचा होता है कि वे विधायक हो जाएँ या कोई ओहदेदार
या उनकी भी एक दुकान हो महाराणा प्रताप नगर में सरेबाजार 

तो आकांक्षा करना बुरा नहीं है
यह न समझना बड़ी मुश्किल है कि जिस रास्ते से आप चले ही नहीं
उस रास्ते की मंजिल तक पहुँच कैसे सकते हैं।


अकुशल

बटमारी, प्रेम और आजीविका के रास्तों से भी गुजरना होता है 
और जैसा कि कहा गया है इसमें कोई सावधानी काम नहीं आती
अकुशलता ही देती है कुछ दूर तक साथ

जहां पैर कांपते हैं और चला नहीं जाता
चलना पड़ता है उन रास्तों पर भी

जो कहते है: हमने यह रास्ता कौशल से चुना
वे याद कर सकते हैं: उन्हें इस राह पर धकेला गया था

जीवन रीतता जाता है और भरी हुई बोतल का 
ढक्कन ठीक से खोलना किसी को नहीं आता
अकसर द्रव छलकता है कमीज और पेंट की संधि पर गिरता हुआ

छोटी सी बात है लेकिन 
गिलास से पानी पिये लंबा वक्त गुजर जाता है
हर जगह बोतल मिलती है जिससे पानी पीना भी एक कुशलता है

जो निपुण हैं अनेक क्रियाओं में वे जानते ही हैं 
कि विशेषज्ञ होना नए सिरे से नौसिखिया होना है

कुशलता की हद है कि फिर एक दिन एक फूल को 
क्रेन से उठाया जाता है।




कविता-कहानी लेखन. पॉंच कविता संग्रह 'किवाड़'1992,आधार प्रकाशन, पंचकूला से तथा क्रूरता'1996, 'अनंतिम'1998,'अतिक्रमण'2002 एवं 'अमीरी रेखा' 2011 में राधाकृष्‍ण प्रकाशन नयी दिल्‍ली से प्रकाशित. कहानी संग्रह 'इच्‍छाएं' भारतीय ज्ञानपीठ नयी दिल्‍ली से प्रकाशित. 'कवि ने कहा' सीरीज के अंतर्गत चुनी हुई कविताओं का एक संकलन 'किताबघर प्रकाशन, नयी दिल्‍ली' से 2012 में। गद्य की एक किताब प्रकाश्‍य 




संपर्क-
बी-103, चिनार
वुडलैंड, चूनाभट्टी, कोलार रोड
भोपाल, मध्य प्रदेश
462016     


ई-मेल : kumarambujbpl@gmail.com
मोबाइल- 09424474678

टिप्पणियाँ

  1. बहुत अच्छी कविताएँ...
    पहली बार के शतक पर बधाई एवं शुभकामनाएं!!

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    1. ambuj mere priy kavi-lekhak hain. ye kavitayen stithi tatha manahstithi ki kavitayen hain,jaha bhatkan aur sangharsh hai,jaha harsh wa vishad ke beech koi spast rekha khinchna mushkil hai,jaha badhayen hain,mushkilen hain,samsyayen hain,par unhi ke beech se raasta nikaalta jeevan-kram chalta rahta hai...

      हटाएं
  2. बहुत बहुत बधाई शतक पार करने की ..........!
    सभी कवितायें बहुत बढ़िया हैं ...कहीं महानगरीय नीरसता,कहीं जीवन की कुछ अनचाही राहें जिन्हें अपना डेस्टिनेशन समझ लिया गया .....सभी विषय सोचने पर मजबूर करते हैं !

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  3. अच्छी कविताएँ | आपका ब्लॉग पहली वार देखा , सार्थक काम कर रहे हैं | बधाई |

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  4. कुमार जी हमारे समय के सबसे महत्वपूर्ण रचनाकारों में से एक हैं ...आपने सौंवी पोस्ट के लिये उनकी कविताओं का चयन किया ,यह अत्यंत सराहनीय है | इन कविताओं में 'इस सदी में जीवन अब विशाल शहरों में ही संभव है' और 'राश्ते की मुश्किल' लाजबाब हैं | दो पंक्तियाँ मैं जरुर उद्धरित करना चाहूँगा | पहली कविता में यह कि "आखिर एक दिन प्रेम के बिना भी लोग जिन्दा रहने लगते हैं / बल्कि खुश रहकर ,नाचते गाते जिन्दा रहने लगते हैं " और दूसरी में यह कि "जिस रास्ते तक आप चले ही नहीं / उसकी मंजिल तक आप कैसे पहुँच सकते हैं |" जैसी पक्तिया हमारे समय के दस्तावेज के रूप में देखी पढ़ी जा सकती हैं |

    आपका ब्लाग इसी तरह से अपनी ऊँचाई बरकरार रखे , हमारी कामना है ...

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  5. "रास्ते की मुश्किल" कविता अच्छी लगी.मेज को मेज और घास को घास की तरह देखने वाले कवि होने का जुगाड़ करते हैं और बन भी जाते हैं, यह बात समझ में आ गयी. बहुत अच्छी तरह. संवेदना के धरातल पर. लेकिन उन सप्रयास कवि बने सफलता के रस में पगे लोगों से इतर, सहज-संवेदना से संचालित ज्यादातर सच्चे कवि भी तो कविकर्म के अलावा ढेर सारे कविता को लजाने वाले काम करते रहते हैं. अपने पसंदीदा कवियों की निजी जिन्दगी से मैं इस लिए बचता हूँ कि कविता मेरे लिए अनिवार्य है. अच्छी कविता पढ़ कर खराब टिप्पणी के लिए क्षमा.

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  6. कुमार अम्बुज जी को पढ़ना हर बार अपने भीतर से गुजरना है ....उस युग,उस बाज़ार,उस माहौल से बीतना जिसे शब्दों की विस्मृत निरस्ती के बावजूद कई कई बार कई कई तरह से जिया और बिताया गया रेल की तरह रेल की बत्तियों और अंधेरों की तरह |भीड़ के बीच से अलग करती ज़रा छूती हुई सी उनकी कवितायेँ /कहानी हाथ पकडकर वापस लौटा ले जाती हैं हमें ज़माने,उम्र और रिश्तों के पड़ावों, को पार कराती और खडा कर देती हैं हमारे वुजूद के आईने के सामने ''जहाँ हम महसूस करते हैं चेहरों और मुखौटों के फर्क को|''वह बहुत से चेहरों से बना था,उसे देखकर एकसाथ अनेक चेहरे याद आते थे ''|

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  7. कुमार अंबुज की सभी चारो कविताऍं अद्भुत हैं। अभी इनके रस का ठीक ठीक बयान नहीं कर सकता। अभी तो इतना ही कि ‘अमीरी रेखा’ के बाद एक साथ चार कविताऍं इतनी जानदार कि इन्‍हें पढ़न कर ‘अमीरी रेखा’ पढ़ जाने से भी कई गुना सुख मिला। ‘अमीरी रेखा’ में वह कविता जिसमें बिल्‍डर के लिए यह पृथ्‍वी अधखाया फल जैसा बिम्‍ब है,उसे पढ़ने जैसा। इनका प्रिंट आउट लिया है कि इन्‍हें सहेज कर रख सकूँ और एकाधिक बार बॉंच सकूँ। बधाई ।

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  8. अम्बुजजी की कविताएँ अपने समय को तीसरी नजर से देखने में हमारी मदद करती हैं। हमारे लिए यह सुखद है कि हम उस समय में लिख पढ रहे हैं, जब ऐसे ही कुछ कवि बहुत प्रतिबद्धता से सृजन कर रहे हैं। जब भी इस दौर के कवियों का जिक्र होगा उनमें अम्बुज का नाम बहुत आदर से लिया जाएगा।

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  9. Apne samay k akelepan. Madhyawargiya chalakion ko kholti ye kawitayen. kawi ki chinta k sath aap kab samil ho jate han pata nahi chalta.yahi kamal ha in kawitaon ka. Pahlee bar ko lambi yatra ki badhai..... केशव तिवारी

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  10. kumar ambuj ji mere priy kaviyon me hai.aur upar k kavitayen to kaljayi hai...... अरविन्द

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  11. Mere priya kavi ko mujh tak pahunchane ke liye abhaar !,,,, विमल चन्द्र पाण्डेय

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  12. पहली बार को शतक मुबारक हो .........कुमार अम्बुज जी से बेहतर क्या हो सकता था इस खास मौके पर ...........वे उन चंद कवियों में से हैं जिनका हाथ हमारे समय की नब्ज़ पर है ......इन कवितायों के लिए संतोष भाई आपका आभार |

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  13. संतोष चतुर्वेदी जी अपने ब्लॉग के माध्यम से बहुत ही महत्वपूर्ण काम कर रहें हैं. हाल ही में १०० वें पोस्ट के रूप में kumar ambuj जी की कविता पोस्ट की. बहुत ही अच्छी कविता हैं. संतोष जी को बधाई .....सन्तोष एलेक्स

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  14. संतोष चतुर्वेदी जी अपने ब्लॉग के माध्यम से बहुत ही महत्वपूर्ण काम कर रहें हैं. हाल ही में १०० वें पोस्ट के रूप में kumar ambuj जी की कविता पोस्ट की. बहुत ही अच्छी कविता हैं. संतोष जी को बधाई .
    सन्तोष एलेक्स

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  15. ये एक अजीब तरह का संत्राप है की कवी होना कोई उपाधि है /कुमार अम्भुज न जाने किया विचार करके परिभाषा घड़ रहे हैं काव्य का तत्व भी गायब है शायद अधिक सम्प्रेश्नियता के कारन /उन्हें खुद को पुनर्व्यवस्थित करना चाहिए /

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  16. कुमार अम्बुज जी को पढ़ना हमेशा एक अलग अनुभव होता है। अक्सर ऐसा हुआ है कि अम्बुज जी की कोई कविता या कुछ पंक्तियां उस विशेष समय में मेरे सामने आती हैं जब मैं अपने जीवन की किसी पेचीदगी से उलझ रहा होता हूँ और उससे पार पाने की कोशिश चल रही होती है। ऐसे में उनका लेखन कभी एक सहारे के रूप में, कभी एक सलाह के रूप में तो कभी एक समाधान के रूप में मिल जाता है। ये जैसे नियति का मौन समर्थन है मेरे लिए।
    आज पढ़ी कविताओं में से एक पंक्ति उद्धरित करना चाहूंगा जो मेरे लिए सहारा भी है, सलाह भी है और समाधान भी... "एक दिन सब जान ही लेते हैं कि प्रेम के बिना कोई मर नहीं जाता'...
    शत शत नमन।

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