राजकिशोर राजन

राजकिशोर राजन










पिता का नाम : स्व. राधाकृष्ण सिंह
जन्म तिथि : 25.08.1967
शिक्षा : एम.ए (हिंदी) एवं पत्रकारिता में डिप्लोमा



प्रकाशित कृतियाँ :
'बस क्षण भर के लिए', 'नूरानी बाग' एवं ‘ढील हेरती लड़की’ काव्य पुस्तकें प्रकाशित ।


आरसी प्रसाद सिंह साहित्य सम्मान ।
बिहार राष्ट्रभाषा परिषद द्वारा सम्मान एवं अन्य संगठनों द्वारा पुरस्कार ।
कुछ कविताओं का अंग्रेजी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद


आजीविका टयूशन से लेकर अखबार तक


अन्य : विगत डेढ़ दशक से देश के प्रतिष्ठ पत्र-पत्रिकाओं - माध्यम, अक्षर पर्व, दस्तावेज, पाखी, वसुधा, जनसत्ता, हिन्दुस्तान आदि में कविताएं प्रकाशित ।

आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से कविताओं का प्रकाशन ।

रंगमंच के क्षेत्र में भी सक्रियता, कई नाटकों का लेखन व निर्देशन ।
कुछेक पत्रिकाओं का संपादन ।


संप्रति : राजभाषा विभाग, पूर्व मध्य रेल, हाजीपुर में कार्यरत ।


स्थायी निवास का पता :
ग्राम - चाँदपरना, पोस्ट - सिधवलिया, जिला - गोपालगंज,
बिहार - 841423


वर्तमान पता-  
59 एल आई सी कॉलोनी, कंकड़बाग,
पटना - 800020.


मोबाईल - 09905395614
ई-मेल – rajan.rajkishor56@gmail.com


 

सपने में रोटी




नींद में बच्चा
बच्चे के हाथ में रोटी



रोते-रोते सोया है बच्चा
लड़ते-झगड़ते उसे मिली थी रोटी



नींद में रह-रह, चिंहुक उठता
कभी करवट बदलता
पर हाथ से, छूटती नहीं रोटी



कौन समझाएगा उसे
तुम्हारी रोटी, धूल से सनी
उस पर बैठ रही मक्खियाँ
नहीं रही ये खाने लायक
फेंक दो यह रोटी



दिल्ली से बहुत दूर
हमारे चाँदपरना गाँव का वह बच्चा
नींद में बुदबुदाता



बच्चे के सपने में रोटी ।


ऊर्वरिस्तान से लौटते



जहाँ लोगों के स्वभाव में ही अभाव है
इन जगहों का नाम
अपने देश में ऊर्वरिस्तान है



आदमी मिलेगा तो किताब के पन्ने-सा
जिसके हर पन्ने पर दुख, अफसोस
और नफरत है
सियासत के किस्से, गफलत है
यहाँ आदमी हँसते-हँसते रूआँसा
और आखिरकार ईश्वर को सुमिर शांत हो जाएगा



औरतें मिलेंगी दुनिया भर की शिकायत
आँसू और गोद में नवजात शिशु के साथ
लड़कियाँ रंग-बिरंगे सपनों को
कज्जल आँखांे में लगाये
लड़के, दिल्ली-मुंबई-दुबई की ओर टकटकी लगाये
जूता सिलाई से लेकर चंडी पाठ तक का हुनर सीखते
बस्ती अलस उनींदे
मकान आसमान की तरफ देखते



अंतर्विरोध इतना, सब कुछ में
कि जो जाए सुलझाने, उलझ जाए खुद ही
मित्रो ! यही वह भू-भाग है
जहाँ मिलते उपन्यास के पात्र
कहानियों के प्लॉट
कविता के लिए आबो-हवा
मगर आज तक ऊर्वरिस्तान को नहीं ज्ञात
वे किताबों में जिन्दा लोग हैं
हैं, नायक-नायिका
और उन्हें सब कुछ भूल
बिसार दुख-दर्द
कुछ देर के लिए सही
हो जाना चाहिए प्रसन्न



और अपने ऊर्वरिस्तान के किस्मत पर
निसार होना चाहिए ।

 
उचर तो कागा




नहीं रही धनमातो काकी
इतवारी फुआ
कहाँ गई रूक्मिणी भौजी, सत्ती काकी
जो बुढ़ा रहे बेटे को भी
गोदी का लाल समझतीं
प्यार-दुलार-हुलास से डाँटती
जब तक अर्थी नहीं उठ जाती
बेटे को दुनियादारी समझातीं



हो बेटा पड़ोस के शहर में भी
उसे परदेशी मानतीं
डूबते सूरज देव के हाथ
आशीष रोज परदेश भिजवातीं



इन दिनों बेटा इतना समझदार
कि समझाता माँ को
और माँ इतनी जानकार
कि सात-समन्दर पार को भी
स्वदेश मानती



अब न उठती हूक न फूटती रूलाई
आधी रात को
न माएं उचरातीं
कि उचर तो कागा........
कब आयेगा मेरा, गोदी का लाल



माएं अब कर लेतीं फोन
या बेटे लैपटॉप पर
आमने-सामने कर लेते बात



कागा से छूट गये हम
कि हमसे छूट गया कागा ।




नरक



न प्यार
न घृणा



न दोस्ती
न दुश्मनी



न अपना
न पराया



न निकट
न दूर



फिर भी, साथ-साथ



तुम ही कहो दोस्त !
यह दुनिया कैसी है तुम्हारी !




एक संतुलित आदमी के नाम



वे न तो कभी क्रोधित होंगे
न भरेंगे कभी अँकवारी में
न देंगे कभी सीधा-सपाट उत्तर
न स्वीकारेंगे मन-प्राण से



वे जब भी मिलेंगे
चकित कर देंगे, रंग-ढंग से
आपको लगेगा
इस आदमी का साथ है
पिछले जन्मों से



उनका संतुलन
आपको अन्वेषक बना देगा
आपकी उम्र कट जायेगी
यह जानने में
कि वे दोस्त हैं या दुश्मन ।




विषाद



उसने तारीफ की
कलाईयों में जँचती कत्थई चूड़ियों
पाँवों में खिले महावर
दमकती लाल बिंदी
चंपई रंग की साड़ी
और जामुनी नेल पॉलिस की



उसने तारीफ की
नये फैशन के चप्पलों से लेकर
उँगलियों में पहनी सलीकेदार अँगूठियों तक की



कानों में झूलते झुमकों पर तो
वह मुग्ध ही हो गया



मगर यह नहीं कहा
कि तुम सुन्दर लगती हो ।




जंतर-मंतर



दिल्ली में जो है मंतर
उसके खिलाफ गणमान्य
जाना चाहते करने अनशन
दिल्ली के ही जंतर-मंतर



उनको भरोसा, वहीं से होगी
हर समस्या छू-मंतर
वहीं तप करने से
इन्द्रासन हिलेगा
देवराज आ पूछेंगे
तुम्हारी इच्छा क्या है ?
और तंत्र से लोक का
वहीं से किया जा सकता उद्धार



वाह रे दिल्ली
वाह रे तेरा मंतर ।




मिट्टी




जो कुछ था पास
उसे तुम्हें दिया



तुमने प्यार से मुझे
सूँघ लिया



हुआ रोम-रोम पुलकित
 देह झंकृत
मिट्टी का बना मैं
मिट्टीधर्मी हुआ ।



तारीख




एक तुम थी माँ
कि मुझे आज तक पता नहीं चला
अपने जन्म की सही तारीख



जब-जब तुमसे पूछा
तुम एक ही कथा दोहराती रही
कि उन दिनों महीनों से निकली नहीं थी धूप
हो रही थी रूक-रूक कर बारिश
खेतों में डूब गई थी फसलें
भात के साथ सब्जी देखने तक को
तरस गए थे लोग



मैं हर बार पछताता
आखिर किस लिए चाहिए?
मुझे जन्म की सही तारीख
बहुतों की तरह नामालुम रहे तो हर्ज क्या है !



एक हैं, हमारे समय की ऐश्वर्या राय बच्चन जैसी माएं
जिनके गर्भाधान की खबर
बन जाती, सबसे बड़ी खबर
बकायदा किया जाता ऐलान
कि जान ले दुनिया-जहान



पहले तो लगता था
दुनिया भर की माएं एक जैसी होती हैं
पर अब जा के जाना
माँ पहले होती है औरत
और दुनिया की हर औरत होती है, एक-दूसरे से कुछ अलग



एक तुम थी माँ
जिसको जब भी देखा, माँ देखा
भाई-बहनों को पालते-पोसते
हँसते देखा, रोते देखा
रात में चिंहुक चिहुँक कर जागते देखा
भरी दुपहर में बैठे-बैठे सोते देखा
महीने में एक-दो बार
बाबूजी के साथ हँसते-बोलते देखा
अपनी दुनिया में मग्न तुमने जरूरत नहीं समझी
कागज पर कहीं लिखा के रख लूँ
अपने बच्चों की जन्म की तारीख
अगर मृत्यु की निश्चित नहीं तारीख
क्या जरूरत, हो जन्म की तारीख
माँ, तुमने अनजाने दी बहुत बड़ी सीख



अब मैं खुश हूँ
चलो अच्छा है
नहीं, मेरे जन्म की तारीख



तुम कितनी जानकार थी माँ ।



लोकतंत्र का पहला पाठ




बाघ-बकरी
कुकुर-सियार
घोड़ा-हाथी
गाय और सांढ़



जीवन-मरण, हानि-लाभ
यश-अपयश का कर त्याग
बहती गंगा में करें स्नान
एक साथ



फिर करें, सूर्य नमस्कार
कि हमारा लोकतंत्र
न हो अम्लान ।


बेनीमाधोपुर




यहाँ दूर-दूर तक
आम, ताड़ और शीशम के पेड़
कहीं-कहीं बरसों से उम्मीद पर खड़े कुछ खपरैल के मकान



यहाँ की हर चीज
जस की तस
जैसे अनंत काल से



बस का हॉर्न सुन
दूर-दूर से टा-टा करते बच्चे
बेपरवाह, उड़ती धूल से



महिलाएं आँचल संभालती
विरक्त भाव से
जैसे कि कोई आ गया हो
सामने अपरिचित मर्द किसी दूसरे गाँव का
बूढ़े अलस भाव से देख
घुमा लेते उपेक्षा से सिर



बस के गुजरते, धूल छँटते
वीरानी फिर घिर जाती
कोई सूत्र ढूँढ़ने लग जाता
शेष दुनिया के साथ
बेनीमाधोपुर ।




तालसोनापुर



दुनिया के हर शहर में
एक गाँव होता
जिसका नाम तालसोनापुर होता



उस गाँव में
भागती हुई, बेचैन दुनिया से अलग
भाव का भूखा, प्यार में डूबा
एक देवदास होता



वहाँ एक पारो होती
अल्लड़ हवा-सी
ताल-तलैया, बाग-बगीचों में
प्रेम की रिमझिम बारिश में भीगते



होता चिड़ियों का कलरव
भरी दुपहरी में भी
रंग-बिरंगी तितलियाँ
करती फूलों से अठखेलियाँ



उस प्रेम कहानी पर
गाँव के सभी निसार होते



न जाने क्यों !
तालसोनापुर की बहुत याद आ रही है
कि हमारी दुनिया का नाम कभी
तालसोनापुर हो तो, कैसा हो !!

 

टिप्पणियाँ

  1. पहली बार पढ़ी हैं कविताएं राजकिशोर राजन की, और वे भी "पहली बार" में. इन्हें पढकर पहला भाव यह आया कि अब तक क्यों इनकी कविताओं से, और फिर राजन से अपरिचय बना रह गया. मन को छूती हैं ये कविताएं, सोचने को विवश भी करती हैं. अपनी धरती-अपने लोग केंद्र में हैं, फिर भी बड़े प्रश्न हैं, जो यहां सहज रूप से उकेरे मिलते हैं.

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  2. Kavita likhna, chahe doosare logon ki rai mein kaisa bhi kaam kyon na ho, meri samajh se anubhav ko sashakt aur sundar tareeke se abhivyakt karna hai. "EK SANTULIT AADMEE KE NAAM" aur " VISHAD" bahut achhi kavitayen hain.
    Badhai.
    Ashutosh singh
    Chakradharpur, Jharkhand

    जवाब देंहटाएं
  3. meri kavitayen aapko pasand aayin mujhe khusi hui.Aabhari huin aapka................
    aapka Rajkishor rajan

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  4. Imaandaar pramanik abhivyakti . Lokdharam, Janpakshdharta aur kavitaee in kavitaon kee visheshta hai... raajkishore raajan jee kee kavitain padvane ke liye pahaleebar blog ka dhanyavaad

    जवाब देंहटाएं

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