सोनरूपा




सोनरूपा






सोनरूपा का जन्म उत्तर प्रदेश के बदायू जिले में हुआ. विख्यात कवि उर्मिलेश ने अपनी पुत्री सोनरूपा को बचपन से ही कविता का संस्कार प्रदान किया. सोनरूपा ने एम. जे. पी. रूहेलखंड विश्वविद्यालय बरेली से हिंदी में प्रथम श्रेणी में एम. ए. किया. फिर 'आपातकालोत्तर कविता: संवेदना और शिल्प' पर अपनी पी- एच डी.  की. संगीत में रुचि के कारण इन्होने प्रयाग संगीत समिति इलाहाबाद से 'संगीत रत्नाकर' की परीक्षा पास किया. आकाशवाणी दिल्ली, लखनऊ, बरेली एवं रामपुर केन्द्रों से कविताओं एवं गजलों का प्रसारण साथ ही गायन का भी प्रस्तुतीकरण. अब तक अनेक संस्थाओं के द्वारा सोनरूपा को पुरस्कृत किया जा चुका है. सामाजिक रूप् से भी सक्रिय सोनरूपा महिलाओं के उत्थान के लिए लगातार प्रयासरत हैं.



सोनरूपा का कवि मन अपनी सीमाओं से परिचित है. उसमें बड़बोलापन नहीं है. अपने लान के गुलाब के माध्यम से सोनरूपा का कवि मन यह कहने- पूछने से नहीं हिचकता कि तुम्हारे लफ्ज हमारे अहसासों को व्यक्त कर सकते हैं क्या? कवि की सादगी ओढी हुई नहीं है. बल्कि वह तो अपनी जिन्दगी की उलझनों तक को जिन्दगी के आसमान पर कुछ पलों का बादल मान कर उसे बेफिक्र किये रहती हैं. हां दूसरों की चिन्ता उसे जरूर परेशान करती है और यहीं एक व्यक्ति मन कवि मन में तब्दील हो जाता है.



सोनरूपा रिश्तों की अपनी बेबाक परिभाषा गढ़े जाने के पक्ष में खड़ी हैं. 'अलग अलग परिभाषा' कविता इस मायने में बिलकुल अलग प्रेम कविता है कि यह समर्पण के दायरे से अलग उनमुक्तता का अपना बिलकुल नया रूपाकार- नया वितान गढ़ती है. सोनरूपा इस बात से भलीभांति अवगत हैं कि गरीबी दूर करने की तमाम घोषणाओं के बावजूद एक आम आदमी की जिन्दगी विडम्बनाओं से भरी पड़ी है. त्यौहार जो पहले व्यक्ति के जीवन में खुशी और उल्लास लाते थे अब विपदा की तरह आते हैं जिसमें तमाम खर्चों से व्यक्ति की जिन्दगी और फटेहाल हो जाती है. गरीब जिसकी जिन्दगी के सुराख हमेशा खुले रहते हैं और जिसमें वह जिंदगी भर उलझा रहता है फिर भी वह जिन्दगी की समस्याओं से भागता नहीं बल्कि उससे आजीवन जद्दोजहद करता है.





सम्पर्क - 'नमन', अपो.- राजमहल गार्डेन
               प्रोफेसर्स कालोनी, बदायू उत्तर प्रदेश, २४३६०१





ई- मेल- sonroopa.vishal@gmail.com


ब्लाग- http://www.likhnajaroorihai.blogspot.com/ 






उसकी लापरवाहियाँ



उसकी लापरवाहियाँ
उलझन बनें
बनती रहें
उस शख्स की मस्तियाँ
उलझनों को
जिंदगी के आसमान पर कुछ पल के बादलों सा मानकर
उसे
बेफ़िक्र किये रहती हैं




मेरे लॉन के गुलाब



मेरे लॉन के गुलाब
मुझे
अपनी खुशबू ,ख़ूबसूरती ,दर्द पर लिखने नहीं देते
पूछते हैं
क्या तुम्हारे लफ़्ज हमारा अहसास बयां कर सकते हैं ?
अब क्या लिखूं ?
नामुमकिन है अब लिखना मेरे लिए .......




सुर्खियाँ



लोगों को किसी की सुर्खियाँ
अपनी शांत सी नदी में लहरों का सा मजा देती हैं
मगर
किसी कि सुर्ख़ियों के दर्द का सैलाब
लोग देखते ही नहीं या देखना चाहते ही नहीं
फिर मजे के किरकिरे होने का डर भी है शायद ...


अलग अलग परिभाषा



कहते हैं प्रेम में
हार क्या जीत क्या
लेकिन
कभी कभी
मैं प्रेम को नामंजूर भी करना चाहती हूँ
हर बार समर्पण
मुझे अपनी हार सा लगता है
शायद कुछ रिश्तों की अपनी अपनी परिभाषाएँ हैं ....



रिश्तों का दफ्तर



रिश्तों के दफ़्तर में
सुबह से शाम तक
हाजिरी की थकान से पस्त इंसान को
घर (खुद ) में भी सुकून कहाँ
किसी को समर्पण
किसी का समर्पण
जरूरी है सुकून के लिए
और हाजिरी में समर्पण की गुंजाइश है क्या ?




गरीब की जेब का सूराख



गरीब की फटी जेब के सूराख से
रेत की तरह
त्यौहार बिना गाये-बजाये
बीवी की पांच ग़ज की साड़ी
बच्चों की भूख कि निवाले
माँ-बाप के दर्द के मरहम
बड़ी आसानी से निकल जाते हैं
भले ही किस्मत नहीं खुल पाती जिंदगी भर उसकी
पर सूराख हमेशा खुले रहते हैं ....





डायरी



तुम हो मेरे अंतर की सहचरी
जब कभी मुखर हो जाऊं मै उद्देलित हो
जब कभी संभल न पाऊं मैं एकांकी हो
जब व्यक्त न कर पाऊं मैं मन की टीस को तब
खोलूँ तुमको,लिख डालूँ अपने मन का सच


डायरी
तुम हो मेरे अंतर की सहचरी
मेरे 'मैं' की प्रतिभागी तुम
मेरे सुख की सहभागी तुम
जब व्यक्त न कर पाऊं मैं सुख के गीत को तब
खोलूँ तुमको,लिख डालूँ अपने मन का सच


डायरी
तुम हो मेरे अन्तर की सहचरी
तुम सह्तीं मेरे शब्द-वाण
तुम सुनतीं मेरी व्यथा-कथा
जब व्यक्त न कर पाऊं मैं जग की रीत को तब
खोलूँ तुमको,लिख डालूँ अपने मन का सच


डायरी
तुम हो मेरे अन्तर की सहचरी.............


***         ***          ***

टिप्पणियाँ

  1. बहुत खूबसूरत कवितायें सोनरूपा जी बधाई और शुभकामनायें

    जवाब देंहटाएं
  2. 'रिश्तों का दफ्तर अच्छी लगी

    जवाब देंहटाएं
  3. सोनरूपा की ये छोटी-छोटी कविताएं उम्दा एवं प्रभावशाली है. यह जानकर और भी खुशी हुई कि वे वरिष्ठ कवि उर्मिलेश जी की सुपुत्री हैं. भविष्य के लिए शुभकामनाएं - प्रदीप जिलवाने

    जवाब देंहटाएं
  4. कविताये पसंद आयी..आपको बधाई..इसे जारी रखे..

    जवाब देंहटाएं
  5. प्रेम मोहन लखोटिया -
    इन कविताओं का पढ़ना एक सुखद अनुभूति दे गया। लगा कहीं कहीं मेरा मन साथ साथ गुनगुना रहा है।

    जवाब देंहटाएं
  6. Good Job...All poem are awesome...nice thought..

    जवाब देंहटाएं
  7. इतनी अच्छी-अच्छी रचनाओं को एक साथ यहाँ पाकर और भी अच्छा लगा......

    जवाब देंहटाएं
  8. आपकी कविताओं की सरल भाषा ,नई वैचारिक अभिव्यक्ति एवं सामाजिक कर्ताव्यबोधों को उजागर करती हुई कोशिश हमेशा सफल रहती है ................रीतू शर्मा

    जवाब देंहटाएं
  9. koshish achchi hai agar ye ibtada hai to inteha kitni umda hogi kuch bhi kahna abhi mushkil hai phir bhi tareef ke qabil hain aap ki kavitaen...Masoom Raza.

    जवाब देंहटाएं
  10. ... बहुत विशेष और अद्वितीय है...!!!धन्यवाद,
    Vartan Swami

    जवाब देंहटाएं
  11. the essence of words are natural, the feel is real and the punch is perfectly hitting.

    Reality is "the message is conveyed"

    Congrats for being active in the que ....

    जवाब देंहटाएं
  12. congrats very nice to see thi page you are such person who carries & alive budaun poetry in modern platform

    जवाब देंहटाएं
  13. first four creations r amazing..these r real expressions sure.but be happy n keep it up,god bless u.

    जवाब देंहटाएं
  14. बहुत अच्छा लिखा है इसे जारी रखना...........बधाई

    जवाब देंहटाएं
  15. Congrats, for expressing your thoughts and composed your genius on the pages, it’s pregnant with meaning and full of romantic sensuous flavour . “mere laan ke gulab mujhe apni khusboo, khubsoorti, dard par likhne nahi dete”. It’s amaging with giving rapture of olfactory sense, which usually locked my mind and imagination, I feel of opium drunken.
    Dhruva Harsh (D.phil)
    University of Allahabad

    जवाब देंहटाएं
  16. अच्छा लगा आपकी कविताओं को यहाँ एक साथ पढ़कर..

    जवाब देंहटाएं
  17. sundar kavitayein, rishton ke daftar mein to bahut achchi lagi, laun ke gulaab bhi, bina gaane bajane guzar jane waalaa gareeb ka tyohaar bhi, badhai, dhanyawad

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'।

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'