सुशील कुमार पाण्डेय की कविताएं
सुशील कुमार पाण्डेय |
किसी भी व्यक्ति के लिए माता पिता की अहमियत सबसे अलग होती है। यह रिश्ता केवल जैविक ही नहीं होता, बल्कि भावात्मक और संवेदनात्मक होता है। दुनिया का हर पिता अपनी सन्तान को हर तरह के संकटों से दूर कर उसे एक बेहतरीन जिन्दगी देना चाहता है। हर पिता अपनी सन्तान को वह राह देना चाहता है, जिस पर चलते हुए वह अपना जीवन बेहतर तरीके से बिता सके। पिता दुनिया की हर तरह की दिक्कतों को खुद झेल कर, यथासंभव अपने अन्दर जज्ब कर, अपनी सन्तान को हर तरह का सुख देना चाहता है। जब तक पिता हमारे साथ और पास रहते हैं, हम उनकी अहमियत को जान समझ नहीं पाते। लेकिन जब सन्तान की पीठ पर से पिता का हाथ हटता है, इस रिश्ते की अहमियत समझ आने लगती है। यह रिश्ता ऐसा होता है जिसे शब्दबद्ध करना आसान नहीं होता। लेकिन कवि तो वही होता है जो मुश्किल को भी आसान बना देता है। दुनिया का शायद ही कोई ऐसा कवि होगा जिसने मां या पिता पर कविता न लिखी हो। सुशील कुमार पाण्डेय ने अपनी कविता 'अब वह खिड़की न खुलती' के माध्यम से उन पिता की स्मृतियों को सघनता के साथ याद किया है, जिन्होंने हाल ही में इस दुनिया को अलविदा कहा है। ब्लॉग पर सुशील की कविताएं पहली बार ही प्रकाशित हो रही हैं। नवागत का स्वागत करते हुए आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं कवि सुशील कुमार पाण्डेय की कविताएं।
सुशील कुमार पाण्डेय की कविताएं
प्रयास जारी है
जिंदगी के पन्नों में,
अभिनय, का प्रयास जारी है,
अभिमान, स्वाभिमान मिटा कर,
समझौतों का प्रयास जारी है
सही, गलत के मूल्य पता नही,
अपनी समझ मे,
सही रहने का प्रयास जारी है।
रोजी, रोटी, जिम्मेदारियां, उत्तरदायित्व,
इन सब में,
उलझने व निकलने का, द्वंद जारी है।
बच्चों की परवरिश,
माता पिता की याद दिलाती,
उनका महत्त्व, समझने का प्रयास जारी है।
हर रोज सीख मिलती यहां,
सीख और समझ का, संघर्ष जारी है।
जिंदगी के पन्नों में,
अभिनय का प्रयास जारी है।
कैसे कैसे रूप बना रखे हैं
लोगों ने,
कैसे कैसे रूप बना रखे हैं,
अपनी सुविधानुसार,
मुखौटे लगा रखे हैं
शब्द भी निकलते,
मौके के अनुसार,
पढ़ाई लिखाई की,
वाट लगा रखे हैं।
बैठना उस जगह,
जहां उनके चापलूस हो,
उनकी हँसी में हँसी और,
एक साथ ही मायूस हो,
पढ़ाई लिखाई में कमजोर गणित वाले भी,
गणित लगा रखे हैं।
सच, झूठ, न्याय ,अन्याय,
सभी को पता,
लेकिन, समझदार भी,
अपनों के अन्याय को भी,
न्याय कहते,
और दूसरे के न्याय को,
अन्याय बना रखे हैं।
सब एक दूसरे को समझ रहे,
समझ कर भी नासमझ बन रहे,
शतरंज की बिसात में,
सारी गोटियां अपनी ही,
पढ़ाई वाली पी-एच डी से, भले न वास्ता हो,
लेकिन जिंदगी में,
रोज रिसर्च पेपर, प्रकाशित करा रखे हैं।
लोगो ने कैसे कैसे रूप बना रखे हैं।
बहाने ही मिलते नहीं
मुस्कुराने के हजार बहाने,
लेकिन,
वह बहाने ही,
मिलते नहीं।
जिंदगी के बहुत से सवाल,
आसान हो कर भी,
हल, हो पाते नहीं।
जो नासमझ बन, जी रहा,
वह फिर भी मस्त है,
जो समझदार बन गया,
उसे ही लोग, समझते नहीं।
निगाहें खोज रही,
हर रोज कुछ न कुछ,
जो मिल जाय,
वह निगाहों में होते नहीं,
मुस्कुराने के हजार बहाने,
वह बहाने ही,
मिलते नहीं।
अब वह खिड़की न खुलती
(पिता के लिए)
जिससे आहट हुआ करती थी,
किसी के आने की,
बाहर बैठे लोगों के बात करने की,
घर मे मालिक की तरह
ध्यान देने और सुनने का अलग अंदाज,
अब खत्म हो गया,
चेहरा देख कर, समस्या समझ लेने वाला,
वह शख्स, अब न रहा,
घर, बाहर, कमरा, खिड़की,
सब मे सन्नाटा पसरा है,
जो घाव मिला, वह बहुत गहरा है
अब देखने से भी,
वह नजर ही न दिखती,
अब वह खिड़की न खुलती..............
उनकी उपस्थिति,
जोड़े रखती थी, शहर और गांव को
घर जाने का एक कारण,
खत्म हो गया,
घर बुलाने वाला ही,
दूर चला गया।
जिंदगी गयी तो बहुत कुछ ले गयी,
जिसकी जिंदगी में,
समस्या, संघर्ष, जुझारूपन था,
प्रतिकूल स्थितियों में भी,
जो सब का पालक था,
अब तो बस सामान की,
पर्ची रह गयी।
जिसके सपने,
जिम्मेदारियों में उलझे रह गए,
फिर भी वह,
मुस्कुराते रह गए,
जन्म मरण के संघर्ष से,
हम बाहर न ला सके,
एक परीक्षा में ही,
सब फेल हो गए।
अब किससे नजर मिलाऊँ,
समझ न आता,
बेटा बेटा कहने वाला,
अब न दिखता,
अब मैं सिर्फ बाप,
उनका जाना यह इशारा कर गया।
जाना हर किसी को,
हर कोई यही समझा रहा,
लेकिन सिर्फ छः दिन में, सब खत्म
यह नहीं समझ आ रहा,
कुछ बोलना चाह रहे थे,
लेकिन हम समझ न सके,
बस उनकी नजरों में देखते रह गए,
फिर पलक हमेशा के लिए बन्द हो गयी।
अब शहर से गाँव कौन,
बुलायेगा?
अब उस कमरे से,
कौन मुस्कुराएगा?
ठंडी में अलाव कैसे जलेगा?
अब खिड़की से सब कुछ कैसे दिखेगा?
भैया भैया कह कर,
हालचाल कौन लेगा?
चुपके से अब काल कौन करेगा?
बहुत सारे,
प्रश्नों का उत्तर चला गया।
उनका कमरा, बिस्तर,बक्से की चाबी,
कमरे की खिड़की,
चहल पहल वाला दुवार,
सब जैसे कुछ पूछ रहे,
की सांसों के साथ ले गए थे,
तो यू ही क्यों चले आये?
लेकिन अनुत्तरित हैं हम,
सब कुछ खत्म हो चुका,
अक्सर खुली रहने वाली खिड़की
अब नहीं खुलती।
अब वह खिड़की नहीं खुलती।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
मोबाइल : 8601444378
बहुत ही उत्कृष्ट रचनाएं, आपके उज्ज्वल भविष्य की अनंत शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद
हटाएंबहुत अच्छा लगा सुशील जी आपकी कविताएं पढ़कर। आपकी लिखने की शैली और विषय पर अदभुत पकड़ आपके लेखन को शानदार बनाती है। आनंद आ जाता है आपको पढ़कर।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद
हटाएंसुन्दर रचनाएं
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद सर
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