कैलाश मनहर की कविताएं
कैलाश मनहर |
सत्ता का अपना एक अलग चरित्र होता है। इसका नैतिकता से कुछ भी लेना देना नहीं होता। सत्ताधीश अपनी कुर्सी बचाने के लिए हमेशा प्रयत्न करते रहते हैं। इस क्रम में वे अपने लोगों को उपकृत करने का कार्य करते हैं। अलग बात है कि उपकृत करने का यह कार्य भी नैतिकता के बाने में ही करना पड़ता है। इसी क्रम में कैलाश मनहर 'संस्कारवान बलात्कारी' जैसी महत्त्वपूर्ण कविता लिखते हैं। कविता में मनहर जी लिखते हैं कि सरकार आजादी के अमृत महोत्सव पर कुछ उन कैदियों की सजा को माफ करने की घोषणा करती है जिनके संस्कार अच्छे रहे हैं। और उन्हें छोड़ भी दिया जाता है। अब एक सवाल तो उठता ही है कि बलात्कार जैसा कुकृत्य करने वाले क्या संस्कारवान भी हो सकते हैं। लेकिन सत्ता का यही तो दम खम है कि वह दिन को रात और रात को दिन बना सकती है। मनहर जी की कविताएं गहरे मूल्य बोध वाली कविताएं हैं। उनमें एक प्रबल विडम्बना बोध भी है। सहज भाव में कहने की कला इन कविताओं को और प्रभावी बनाती है। राजनीति की विद्रूपता को जिस तरह से वे रेखांकित करते हैं वह विरल है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं कैलाश मनहर की कुछ नई कविताएं।
कैलाश मनहर की कविताएं
गुलाम लोग
जय जयकार करते हैं अपनी सरकार की ग़ुलाम लोग
सरकार को ही देश समझते हैं और जब
सरकार उन्हें ठोकरें मारती है तो बड़े चाव से सहलाते
सरकार के तलवे चाटते हुये ग़ुलाम लोग
अपनी सरकार की बुराई नहीं करते कभी सपने में भी
ग़ुलाम लोग तो जूठन पर जीवित रहते हैं
अघाई सरकार की डकार से सांस ग्रहण करते हैं सदैव
ग़ुलाम लोग कभी स्वयं नहीं सोचते और
केवल सरकारी सोच की हवा फैलाते हैं चारों तरफ़ या
सरकार के इशारे पर बताई गईं अफ़वाहें
ग़ुलाम लोगों का काम होता है सरकार के फर्जीवाड़े को
सही बताना और शामिल होना स्वयं भी
हर काले क़ानून को उज्ज्वल और चमकदार बताते हुये
ग़ुलाम लोग उत्सव मनाते हैं नाचते-गाते
ये ग़ुलाम लोग हर कहीं पाये जाते हैं शहर कस्बे गाँवों में
रटे हुये अपनी रूढ़ियों के ही अँधग्रन्थ वे
सरकार के प्रति अँधभक्ति द्वारा ही पाते हैं अँधज्ञान जैसे
ग़ुलाम लोग प्राय: पूर्ण स्वामिभक्त होते हैं
मुझे क़तई कोई परेशानी नहीं ग़ुलाम लोगों से और न मैं
ग़ुलाम लोगों की ग़ुलामी से कुछ चिढ़ता हूँ
किन्तु दिक्कत तो तब होती है जब सरकार इसी तरह के
ग़ुलाम लोगों के बहुमत को आधार मानती
आज़ाद लोगों को भी ग़ुलाम बनाना चाहती है जबर्दस्ती
आज़ादी के लिये लड़ने वाले प्रतिबद्ध विचारवान लोग
जब आज़ादी पा लेते हैं किसी एक दिन
तो अधिकतर ग़ुलाम लोग दूसरे ही दिन
आज़ादी के योद्धा का पुरस्कार पाने को खड़े हो जाते हैं
पं
क्ति
ब
द्ध
खोया हुआ आदमी
एक खोये हुये आदमी से मिला मैं कल शाम
जो सब कुछ भूल चुका था और
जिसे अपने गंतव्य का भी कुछ पता नहीं था
लेकिन रात घिरने वाली है और
इस घटाटोप में तुम कहाँ रहोगे भले आदमी
मैंने अपनी चिन्ता प्रकट की तो
तनिक भी विचलित नहीं हुआ वह और कहा
मुझे बीड़ी बण्डल और माचिस
चाहिये रात भर के लिये यदि तुम दिला सको
एक बीड़ी से गुज़ार सकता हूँ मैं आधा घण्टा
और तब तक सुबह हो जायेगी
पूर्णत: निर्विकार और निर्लिप्त लगा वह मुझे
इतने तो ठिकाने हैं इस शहर में
पार्क बस अड्डे और रेलवे स्टेशन
टीनशेड छतनुमा पुलियायें और खुले बरामदे
बेघरों का घर यात्रायें ही होती हैं
मांग कर पी लूँगा किसी से सुबह की चाय भी
चार दिन काटना जिसे आ गया
वह उम्र भी काट सकता है अन्जान दुनिया में
पिता की स्मृतियों में
पिता की स्मृतियों में डूबे हुये मैं
उनके लगाये नीम के पेड़ की छाया में बैठा रहा
बहुत देर तक मज़बूत तने से पीठ सटाये हुये
सोचता रहा उनके सुबह जल्दी उठने के बारे में
चबाता नीम की कच्ची पत्तियाँ
पिता की स्मृतियों में डूबे हुये मैं
नदी तट की रेत पर टहलता रहा मद्धम गति से
सुदूर निहारते हुये उन पहाड़ों की तरफ़ कि
जिन पर प्राय: चढ़ते उतरते थे पिता घर भर के
दुख-दर्दों को भुलाने के निमित्त
पिता की स्मृतियों में डूबे हुये मैं
उस कूएँ पर भी गया
जहाँ स्नान करने जाते थे पिता बिला नागा
लोटा-डोर ले कर रोज़ाना
रगड़ रगड़ कर छुड़ाते थे देह और मन का मैल
सर्वमंगल की कामना करते हुये
पिता की स्मृतियों में डूबे हुये मैं
घर की छत पर गया अस्ताचलगामी सूरज को
अपनी आँखों में बसा लेने के लिये जबकि
मेरी साँस फूल रही थी और बहुत मुश्किल था
किन्तु तनी हुई थी फिर भी रीढ़
पिता की स्मृतियों में डूबे हुये मैं
घर-परिवार की सुरक्षा के लिये जैसे प्रतिक्षण
अपनाता रहा सभी गुण पिता की तरह से
और निभाते हुये अपने उत्तरदायित्व भरसक
पिता में ही ढल गया मैं स्वयं भी
जन से प्रजा
क्रूरतापूर्ण छल-छद्म रचते हुये मदान्ध सत्ताधीश
मनुष्यता की जड़ों में विष डाल रहे हैं
और विकास के नाम पर बेचे जाते हैं समूचा देश
धर्म के नाम पर अधर्म फैलाते हुये वे
कुटिलतापूर्वक कर रहे हैं
बहुसँख्यक ध्रुवीकरण और.
खण्डित कर रहे हैं सामाजिक सौहाद्र
तमाम प्रतीकों और चिह्नों का करते हुये अपनी
सत्ता की सलामती के लिये दुरुपयोग
हर बार ढूँढ़ लाते हैं वे कोई ख़तरनाक वितण्डा
रंग उनका फूल उनका झण्डा उनका
सत्ता उनकी देश उनका देश की संस्थायें भी उनकी
मन उनका मन की बात उनकी सभी
न्यायालय उनके और न्याय भी उनके पक्ष में सदैव
हम बने केवल उनके अनुसरणकर्ता
नया शिगूफ़ा अब यह है कि झण्डा लगाना है
देशभक्ति की नई परिभाषा गढ़ते हुये
जबर्दस्ती बेच रहे हैं बीस बीस रुपये में झण्डे
उनकी तथाकथित अपील को आदेश मानना
नितांत अनिवार्य बता रहे हैं अँधभक्त
जो कि आवश्यक है देशद्रोही न कहलाने हेतु
सोच में पड़ा हुआ है मेरा कवि कि पता नहीं कब
जनतंत्र को बना दिया उन्होंने प्रजातंत्र
और इस स्वतंत्र देश में हम बन गये जन से प्रजा
उदासी और तनाव
उदासी को दूर रखना सीखिये आप
हर कोई कहता है
तनाव में रहना अच्छा नहीं है बिल्कुल भी
पता नहीं कौन सी
बात कर जाती है अकस्मात उदास
पता नहीं कहाँ से
आ जाता है कोई अकारण-सा तनाव कि
सम्भल कर रहते
भी बेचैन हो उठते हैं मनोमस्तिष्क
प्रेम नहीं करते स्वजन तो क्या कि
आप भी मत करो
रहने दो उन्हें अपने अलगाव में सुरक्षित
निर्लिप्त रहो आप
झूठ बोलते हैं अधिकतर रिश्तेदार
तो बोलने दो उन्हें
आप स्वयं बने रहो सत्य पर संकल्पित
आपकी ज़मीन से
बेदख़ल कर रहे हैं वे तो त्याग दो
अब कैसे समझाऊँ मैं कि स्वजनों
के प्रेम बिना जीना
या झूठे रिश्तेदारों से रिश्ता बनाये हुये
सत्य पर संकल्पित
रहते भी अपनी ज़मीन से बेदख़ल
हो कर त्याग देना
कितना तो विडम्बनापूर्ण है जीवन में
उदासी छाने और
तनाव की स्थितियों से बचे रहना
उदासी से दूर रह पाना वास्तव में
सम्भव भी है क्या
जब तनाव देते हों हमारे अपने ही
तदर्थ
अभी तो बहुत हैं मेरी पोटली में बाजरे के दाने
बिखेरता रहूँगा इन्हें छत पर
आती रहेंगी चिड़ियायें और
चहचहाता रहेगा मेरा मन चिड़ियाओं के साथ
बचा कर रखे हैं ढ़ेर सारे गैंदे के सूखे हुये फूल
बीजों की तरह डालूँगा इन्हें
रास्तों के बगल की मिट्टी में
कि फूलों की तरह खिल सके मेरा यह जीवन
स्मृतियों में सुरक्षित रखे हैं पूर्वजों के पद-चिह्न
कि जब भी कुछ सोचता हूँ
पाँव स्वत:स्फूर्त हो उठते हैं
चलने के लिये आगत की उद्देश्यपूर्ण यात्रा पर
अभी तक तो बनी हुई हैं संभावनायें कि कभी
तो अवश्य उमग कर बहेगी
विलुप्त नदी माधववेणी कि
हर शाम जाता हूँ टहलने उधर इसी उम्मीद में
जब भी होती है आशंका कि समय साथ नहीं
देगा
और मर जायेंगी संवेदनायें
जब
नहीं सुनेगा कोई मेरा दु:ख
तदर्थ बचे हुये हैं आँखों में थोड़े-से जल-कण
चाहना
दृश्य में उभरती है घर की ड्योढी में
बाँई तरफ़ चाकी पीसती हुई माँ
गुनगुना रही है कोई विहानिया गीत
गोदी में लेटा हुआ लगभग
दो वर्ष की उम्र का बालक
चाकी के गरण्ड में गिर रहा है गुनगुना चून
माँ की गोदी के गुनगुनेपन की तरह
विहानिया गीत की लय से सम्बद्ध
कितनी निश्चिन्त और सुहावनी है यह नींद
अड़सठ की उम्र में चाहना वैसी ही नींद
कितना तो मूर्खतापूर्ण
किन्तु चाहना तो चाहना ही है हरेक रात
सोचता हूँ कि अन्तिम नींद भी आये
माँ की गोद में सिर रखे हुये
जब मैं देखता होऊँ जीवन का स्वप्न
श्लील-अश्लील
इधर अमलतास की छाया में पनपते प्रेम को
अश्लील करार देते हुये
उस थानेदार ने बहुत शालीनता के साथ
मंत्री जी के चरण स्पर्श किये
और पी. ए. की जेब में रखते हुये
वेश्यालय की उगाही से प्राप्त नोटों की गड्डी
थाने पहुँच कर
कुछेक गालियाँ दी मातहतों को और आँखें
मूंद कर विश्राम किया
मेज पर टाँगें फैलाये हुये बरामदे के बीच में
उधर वह एक अकेला कवि कैलाश मनहर
चिन्तित होता रहा हिन्दी कविता में
श्लील और अश्लील को ले कर बने
फ़ालतू पाखण्ड की मान्यताओं को तोड़ता
राजधानी की समृद्ध कॉलोनी में रहने वाले
किसी प्रोफेसर कवि को जब
याद नहीं आ रही हो
गाँव-देहात की वह विस्मृत भाषा कि जिसे
बोलते हुये पुकारते होंगे
उसके पिता अपने बेटे को और नहीं सुनने
पर अकस्मात क्रोधित हो कर
कर पड़ते होंगे वे अश्लीलतम शब्द-प्रयोग
तो ऐसी स्थिति में वह प्रोफेसर
कवि चाहता हो कि वे बने रहें पूर्ण शालीन
संस्कारवान बलात्कारी
बलात्कारी थे इसलिये सज़ा हुई उम्र क़ैद की
लेकिन बहुत ही संस्कारवान थे
इसलिये सरकार ने सज़ा माफ़ कर दी
अच्छे आचरण के कारण सज़ा
माफ़ी की सिफ़ारिश की थी जेल प्रशासन ने
और हर किसी को पता था यह
कि सब कुछ केन्द्र के कहे से हुआ था
जेल प्रशासन भी तो सरकार का ही अंग था
सरकार ने सरकार से सिफ़ारिश की अन्तत:
सरकार ने सरकार की सिफ़ारिश मान ली
और संस्कारवान बन गये तमाम बलात्कारी
दिखावटी औपचारिकता हुई
न्यायालय से पूछने की भी और न्यायाधीश
जो स्वयं सरकार की कृपा से न्यायाधीश थे
सरकारी निर्णय से सहमत हो गये बिके हुये
या डरे हुये हत्या हो जाने से
जेल से छूटने पर ज़िन्दाबाद के नारे लगाये
बलात्कारियों के समर्थकों ने
फूल मालायें पहनाईं मित्रों और परिजनों ने
बहिनों ने तिलक लगाये और
पत्नियों ने मालायें पहना के आरती उतारी
माँओं ने आशीर्वाद दिये और
पिताओं ने आयुष्मान भव कहा गर्व सहित
उधर एक समूह में खड़ी कुछेक लड़कियाँ
आपस में बतिया रहीं थीं कि
"वह बिल्कुल मेरी दीदी जैसी सुन्दर थी री"
"नहीं मेरी बुआ जैसी थी वह"
"नहीं री वह तो बिल्कुल मुझ जैसी ही थी"
और समर्थकों की पार्टी-महासभा में कहा
प्रधान ने सगर्व कि आज़ादी
के अमृत महोत्सव वर्ष पर उम्र क़ैद के
सज़ा भोग रहे क़ैदियों को अच्छे संस्कारों
के आधार पर रिहा करते हुये
प्रदेश सरकार ने किया है ज़रूरी कार्य
जिससे और भी महान बनेगा हमारा धर्म
चिन्तनशील कवितायें
इधर की कवितायें दुरूह बहुत हैं
पाठकों और श्रोताओं से दूर बहुत हैं
गेयता तो है ही नहीं कविताओं में
याद नहीं रहती आजकल की कवितायें
संश्लिष्ट बहुत हैं और
सिर से गुज़र जाती हैं बिना प्रभाव छोड़े
किन्तु तुम भी तो बताओ
मित्र
तुम्हारी सुरुचियाँ क्या हैं?
लगातार विकट होते जाते इस समय में
चिन्तनशील कवितायें ही
तुम्हारे विवेक को जाग्रत कर सकती हैं
ऐसी तो सामान्य भी न हो कविता
कि ताली बजाने लगे कुसंस्कारित भी
सत्ता के छाते नीचे बैठा बिना वर्षा
अवसाद के विरुद्ध
धीमा ज़हर है अवसाद कि
धीरे धीरे हमें हताश करता रहता है और
मृत्यु की तरफ़ ले जाता है
हम अपने चारों ओर खिले जीवन में
फूलों की अनदेखी करने लगते हैं
और कांटे चुभोते रहते हैं
अन्तरात्मा की सतहों पर निराशा के
बहुत कठिन है उसके हमले से बचना
किन्तु असम्भव नहीं कि जब
उम्मीद के रास्ते हमारे सामने खुले हों
यह जो पेड़ है हमारे सामने
पतझड़ में ठूँठ लगता है
किन्तु वसंत उसकी धरोहर है
अवसाद को मार सकती है सिर्फ़
उम्मीद भरे जीवन की कामना
दृष्टिबोध में हो यदि खिलता हुआ वसंत
बहुत ही सरल होता है अवसाद का अंत
अ
अ से अनार और
अमरूद बताने के साथ शुरू हुई थी मेरी शिक्षा
बचपन में लेकिन
जब मैं बड़ा हुआ तो अ से अनाज भी समझने
लगा था साथ ही
अचानक से होते
हुये अभियुक्त एवं अपराधी में भी दिखने लगा
अन्यत्र और अनन्त
में भी था पूरी अस्मिता के साथ वह जबकि ज्ञात नहीं
कि अपनापे सहित
कितनी ही संज्ञाओं में अनावश्यक अनुपस्थित भी था
देवनागरी लिपि में
हिन्दी वर्णमाला का पहला अक्षर अ जिसे कि बोलने
में पूर्णत: समर्थ थे
गूँगे बच्चे और भाषा से अनभिज्ञ महामूढ़मति पागल
भी अबाध रूप से
मुझे अचरज हो रहा था
यह सब देख-सुन कर अपनी अस्त-व्यस्तता के
बावज़ूद कि अधिकतम
जिसे अन्य में देखना चाहिये था उसे देखने हेतु
अपने को प्रकट कर रहे
थे हम जैसे कि अपहरण में शामिल थे असमय
अन्याय और अत्याचार
अभिन्न रूप से प्रयुक्त होता था वह अ स्वर मेरे
अल्पानुभव के अनुसार
अभाव उपसर्ग में भी असरदार बन रहा था वह
अद्भुत रूप से अनभिज्ञ
अर्थ में अनेक शब्दों द्वारा अभिव्यक्त करने को
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
बहुत बहुत धन्यवाद
जवाब देंहटाएंप्रहार करती प्रखर कविताएं,मनहरजी एवं पहली बार, दोनों को बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छा है
जवाब देंहटाएंमेरे प्रिय कवि मनहर जी एक संवेदनशील, सरल हृदयी एवं आमजन के कवि हैं। अपने आसपास होने वाली घटनाओं पर बड़ी पैनी दृष्टि रखते हैं। संस्कारवान बलात्कारी और श्लील-अश्लील ऐसी ही कविता की बानगी है। मनहर जी अपनी माटी, अपनी बोली-बानी, गीत गवनई के लिए भी बहुत संवेदनशील है। मनहर जी को बहुत-बहुत बधाई एवं 'पहली बार' को साधुवाद!
जवाब देंहटाएंमेरे प्रिय कवि मनहर जी एक संवेदनशील, सरल हृदयी एवं आमजन के कवि हैं। अपने आसपास होने वाली घटनाओं पर बड़ी पैनी दृष्टि रखते हैं। संस्कारवान बलात्कारी और श्लील-अश्लील ऐसी ही कविता की बानगी है। मनहर जी अपनी माटी, अपनी बोली-बानी, गीत गवनई के लिए भी बहुत संवेदनशील है। मनहर जी को बहुत-बहुत बधाई एवं 'पहली बार' को साधुवाद!
जवाब देंहटाएंमोहन लाल यादव
बेबाक और निर्भीक... आज के यथार्थ को उकेरती कविताएँ
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