गौरीनाथ से आशीष सिंह की बातचीत
'कर्बला दर कर्बला' गौरी नाथ द्वारा लिखा गया हमारे समय का एक महत्वपूर्ण उपन्यास है। यह महज उपन्यास ही नहीं बल्कि समय का एक जीवन्त दस्तावेज भी है। गौरी नाथ उन रचनाकारों में से हैं जो फौरी तौर पर ही कोई रचना नहीं रच देते बल्कि उसके पीछे उनका एक सुदीर्घ चिंतन और ग्राउंड लेवल का शोधकार्य भी होता है। यह उपन्यास पढ़ते हुए पाठक को खुद ब खुद महसूस होने लगता है उपन्यास प्रकाशित होने से पहले गौरी नाथ जी ने पांडुलिपि भागलपुर के वरिष्ठ पत्रकार, संस्कृतिकर्मी डॉ. चंद्रेश को भेजी। अपनी टिप्पणी में चंद्रेश जी लिखते हैं - लेखक-पत्रकार गौरीनाथ का लिखा 'कर्बला दर कर्बला' एक अलग क़िस्म का दस्तावेज़ी उपन्यास है, जो यथार्थ की खुरदुरी ज़मीन और कल्पना की रूमानी उड़ान के बीच संतुलन की जोखिम के बीच ताना-बाना बुनने की एक ईमानदार कोशिश है। पश्चिमी देशों में लीक से हट कर डॉक्युड्रामा, दस्तावेज़ी उपन्यास लिखने का चलन कोई नया नहीं है, हमारे यहाँ के लेखक इस तरह के जोखिम से थोड़ा परहेज करते हैं। गौरी नाथ ने बिहार के भागलपुर शहर को केन्द्र में रख कर लगभग दस साल के कालखण्ड में हुए उन चर्चित घटनाओं को समेटने की कोशिश की है, जिसने इस अत्यंत प्राचीन और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध शहर के चेहरे को दाग़दार बनाया है, वह चाहे कुख्यात अंधाकरण काण्ड हो या 1989 का भयानक हिन्दू-मुस्लिम दंगा।
लेखक ने यथासंभव तटस्थ भाव से इन घटनाओं का सूक्ष्म अन्वेषण कर इसके इर्द-गिर्द गल्प का ताना-बाना बुना है, जो उपन्यास के बहाने अपने आप में एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ भी है यानी दस्तावेज़ में उपन्यास की महक और उपन्यास में दस्तावेज़ की झलक।
उपन्यास का फ्लैप प्रसिद्ध उपन्यासकार अब्दुल बिस्मिल्लाह ने लिखा है। वे लिखते हैं - 'कर्बला दर कर्बला' अपने ढंग का एक अलग उपन्यास है। विमर्शों के इस दौर में यह अपना नया विमर्श चाहता है। गौरी नाथ का यह उपन्यास हमें एक भयावह दुनिया में ले जाता है। ऐसी दुनिया में जो अपराध जगत, पुलिस-प्रशासन और कट्टर धार्मिक संगठनों के गँठजोड़ से बनी है और जहाँ युवाओं के मधुर हो सकने वाले पल भी सहसा कटु हो उठते हैं।
यह भागलपुर की दास्तान है। उसी भागलपुर की, जहाँ का अँखफोड़वा काण्ड और नब्बे के दशक में महीनों चले साम्प्रदायिक दंगों ने पूरे इतिहास को ही झकझोर दिया था।
शिव और ज़रीना के सपनों की कहानी के बहाने लेखक ने ऐसी कथा बुनी है जो सत्ता और पूँजी के बल पर उत्पीड़ित और लांछित मानवता की कहानी बन गई है। 'कर्बला दर कर्बला' में कल्पना और यथार्थ से भी आगे बढ़कर तथ्यात्मकता को जिस तरह पिरोया गया है वह हिन्दी में उपन्यास-लेखन के क्षेत्र में एक साहसिक प्रयोग है।
इस उपन्यास को पढऩा एक दु:स्वप्न से गुज़रना है। मगर उस दु:स्वप्न में कोई फ़ैंटेसी नहीं, बल्कि सच्चाइयों के बनते-बिगड़ते चित्र भरे पड़े हैं। रोंगटे खड़े कर देने वाले चित्र।
इस उपन्यास के लेखन की पृष्ठभूमि को उपन्यासकार 'मुहब्बत लिखने की कोशिश' शीर्षक के अन्तर्गत खुद इस तरह रेखांकित करते हैं
भागलपुर। एक शहर जिसको वक़्त-ज़रूरत सिल्क सिटी, अपराध सिटी के बतौर याद किया जाता रहा है। 1980 के अँखफोड़वा काण्ड ने जहाँ इसको 'गंगाजल' सिटी का दाग़ दिया, वहीं 1989 के दंगे ने 'नरसंहार' की सिटी की पहचान दी। इसके बावजूद कि शहर के पाप धोने को इसके पहलू से लग कर गंगा मुसलसल बहती रही है। रामायण से पता चलता है कि कामदेव का अंग कट कर यहाँ गिरा था, तो महाभारत से जाहिर होता है कि यह अंगराज कर्ण का इलाक़ा था। यह जगह अंग महाजनपद की राजधानी रही है जो कभी चंपावती या चंपापुर कहलाती थी। पुराणों के अनुसार, भगदतपुरम इसी शहर का नाम था जो घिस कर भागलपुर कहलाने लगा। बूढ़ानाथ घाट की सीढ़ियाँ, मंदार की पहाड़ी, विक्रमशिला का प्राचीन टीला अब भी मौजूद हैं। सैकड़ों साल की कथा का गवाह आदमपुर घाट है।
उर्दू बाज़ार, सूजागंज, ख़लीफ़ाबाग़, घण्टा घर की आबोहवा में रसते-बसते बोलने-बतियाने की जो तहज़ीब विकसित हुई, सँकरी गलियों और मुहल्लों के ताने-बाने के बीच खटर-पटर, ठक-ठक, टन-टन की आवाज़ सुनते हुए जीवन में जो एक सलीक़ा हासिल हुआ, कज़्ज़न की धरती पर ठुमरी की ठुमक में जो एक ख़ास कशिश महसूस हुई, पाउडर-लिपस्टिक लेपकर सस्ते कपड़ों में खड़ी बेनूर-बेबस तवायफ़ों और जर्जर कोठों के जीवन को आते-जाते-बतियाते जोगसर में जितना जान-समझ पाया, कैशोर्य की दहलीज़ पर रंग-गंध-स्वाद और पहचान की जो सलाहियत तजुर्बे में आई—इन सब के लिए यह लेखक इस शहर का ऋण स्वीकार करता है।
लेखक यह भी स्वीकार करता है कि इस शहर ने बहुत कुछ दिया और मुहब्बत के साथ दिया। लेने के लिए अकेला 1989 का नरसंहार ही काफ़ी था! इसने जितनी जान ली, उससे ज़्यादा नफ़रत फैलायी और लोगों को दर-बदर कर दिया! एक संशय पैदा हुआ लाशों की खाद पर पनपती यहाँ की गोभी को ले कर... गंगा के पानी में इन्सानों के ख़ून मिले होने के एहसास को ले कर...
फिक्शन-नॉन फिक्शन के बीच आवाजाही करता यह अफ़साना उस भीषण नरसंहार की वीभत्सता के ऊपर मुहब्बत लिखने की छोटी-सी कोशिश-भर है।
घोषणा : प्रसंगवश इस उपन्यास में 1980 के अँखफोड़वा काण्ड से 1989 के नरसंहार के बीच के वर्षों में भागलपुर शहर पर पड़ती 1984 के दिल्ली दंगे की काली छाया, जर्मन टूरिस्ट के साथ लूट और उसकी हत्या, डीएसपी सुखदेव मेहरा की दिन-दहाड़े हत्या और बुनकरों के आंदोलन में शहीद दो युवक, अदालती कठघरे में गोली चलने, पापरी बोस अपहरण, चंपानाला एनकाउंटर, दीवारों पर चीख़ते नारे-स्लोगन, मुहर्रम-बिहुला पूजा पर फैले तनाव, रामशिला की पवित्र ईंटों के पूजन और जुलूस जैसी अनेक घटनाएँ आती हैं। इन घटनाओं को हैंडल करने वाली सरकारें हैं। धर्म के दुकानदार हैं। शासन-प्रशासन और मीडिया के कारनामे हैं। इतिहास से जुड़े इन तथ्यों-संदर्भों को इस उपन्यास में यथातथ्य रखने की कोशिश की गई है। अपनी क्षमता-भर इन तथ्यों की सत्यता परखने की पूरी कोशिश की गई है, फिर भी कोई चूक हुई हो तो वह किसी दुर्भावना या किसी के सम्मान को ठेस पहुँचाने के मक़सद से नहीं है। देश और काल वास्तविक हैं। यानी एक काल-खण्ड के इतिहास पर आधारित, लेकिन फ़ॉर्म के लिहाज़ से यह उपन्यास है। बात साफ़ कर दूँ कि सभी चरित्र जिनका शिव या ज़रीना से सीधा संवाद है, वे या उनके क्रियाकलाप काल्पनिक हैं और किसी के निजी जीवन से इसका साम्य महज़ संयोग-भर माना जाएगा।
'कर्बला दर कर्बला' उपन्यास पर युवा आलोचक आशीष सिंह ने गौरीनाथ से एक लंबी बातचीत की है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं 'कर्बला दर कर्बला' उपन्यास को केंद्र में रख कर गौरी नाथ से की गई आशीष सिंह की बातचीत।
24 अक्टूबर, 1989 की सुबह शिव ज़रा देर तक सोता रह गया था। सुबह-सुबह उसने सपना देखा कि गाँव-गाँव से चलीं रामशिला की पवित्र ईंटें भागलपुर में इस तेज़ी से गिर रही हैं मानो ईंटों की बारिश हो रही हो! घरों पर ईंटें लगातार बरस रही हैं और घर भरभराकर गिर रहे हैं! गाछ की डाल-पत्तियाँ जैसे तूफ़ानों में टूटकर बिखरती हैं उसी तरह बिखरी हैं। रंभातीं गायें ईंटों की चोट से घायल बाँ-बाँ करती भाग रही हैं। भैंस-बकरी-गधा-घोड़ा सब घायल भाग रहे हैं। 'भागो, भागो!' चिल्लाते औरत-मर्द-बच्चे धड़ाधड़ गिर रहे हैं और इधर-उधर गिरे-पड़े घायल-मरे लोगों के सिर से बहता ख़ून एक-दूसरे में मिलकर बरसाती नाले की तरह तेज़ी से गंगा में गिर रहा है। देखते-देखते गंगा का पानी पूरी तरह लाल हो गया है। मानो गंगा में पानी नहीं, सिर्फ़ ख़ून-ही-ख़ून हो! जहाँ तक नज़र जाती, पूरी धरती और रामशिला की ईंटें ख़ून से रंग गई हैं। लगातार गिर रहीं रामशिला की इन ईंटों से उपजे कोलाहल के बीच गिरते-पड़ते भाग रहे शिव की आँखें खुलीं। एक दिन पहले उसका एम.ए. का इम्तहान ख़त्म हुआ था। रात में देर तक जगकर उसने सभी सामान पैक कर लिया था कि ज़रीना के निकलते ही वह भी भागलपुर छोड़ देगा। लेकिन फ़िलवक़्त ईंटों के कोलाहल और ख़ून की धार से उपजी दहशत थी कि शिव खड़ा भी नहीं हो पा रहा था।...
('कर्बला दर कर्बला' से)
गौरीनाथ से आशीष सिंह की बातचीत
आशीष सिंह : कहानी और उपन्यास के विषय चुनने का आधार एक लेखक के लिए क्या होना चाहिए?
गौरीनाथ : मेरे ख़याल से कहानी एक सीमित दायरे के वृतांत की तरह है, तो उपन्यास उस दायरे और सीमाओं के पार जा सकने वाला महा-आख्यान है। शिल्प मात्र की दृष्टि से नहीं, सामाजिक-सांस्कृतिक विविधताओं के लिहाज से भी उपन्यास का कैनवास काफ़ी बड़ा और चुनौतीपूर्ण होता है। कहानी में जहाँ दर्द का एक टुकड़ा उद्घाटित हो सकता है, उपन्यास में देश-काल के दर्द का विशद समावेश इस तरह संभव है कि उसके ज़रिए सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक-सांस्कृतिक कारणों को इतिहास-दृष्टि के साथ सविस्तार जाना-समझा जा सकता है। यूँ यह दर्जी पर भी निर्भर करता है कि वह पायजामे के कपड़े से हाफ पैंट सिलना चाहता है या हाफ पैंट के कपड़े से पायजामा।
आशीष सिंह : साहित्य समाज की वास्तविकताओं की निशानदेही करता है? बरसों बरस से चली आ रही एक धारणा कि ‘साहित्य समाज का प्रतिचित्रण है’, इसको ‘कर्बला दर कर्बला’ या वास्तविक घटनाओं को ले कर लिखे गए उपन्यासों की रोशनी में आप कैसे देखते हैं?
गौरीनाथ : वास्तविकता से आँखें चुराने वाले काबिल बुजुर्गों से ज़्यादा काम का मेरे लिए निर्दोष आँखों वाला वह बच्चा है जो कह देता है कि राजा नंगा है। फिसलन भरे उस उपन्यास का मेरे लिए कोई महत्त्व नहीं जिसमें पठनीयता और शिल्पगत चमत्कार तो ग़ज़ब का होता है लेकिन आज के यथार्थ से उसका कोई लेना-देना नहीं। यथार्थतः, घटनाओं के वास्तविक होने या न होने से उतना फ़र्क़ नहीं पड़ता है जितना कि रचनाकार की दृष्टि और उसके जोखिम लेने के साहस से। सब्जी में तेल कितना डालना है या बिना तेल ही उबाल कर तैयार करना है, यह बनाने वाला तय करता है—खाने वाले को स्वाद और उसकी पोषकता से मतलब रहता है। ज़्यादा तीखा लगने, ज़्यादा तेल-मशाले के कारण हाजमा बिगड़ने या स्वादहीन होने जैसी तमाम बातों की शिकायत तो जायज होगी, लेकिन अगर कोई कहे कि आपने नमक बायें हाथ से क्यों डाला और चूल्हे का मुँह पूरब नहीं रख कर उत्तर क्यों रखा तो इन सनातनी शिकायतियों के सवाल का कोई जवाब नहीं हो सकता है। ‘कर्बला दर कर्बला’ में मैंने एक शहर और एक काल-खंड की वास्तविकताओं को कथ्य ज़रूर बनाया, लेकिन मेरी कोशिश यही थी कि उसमें पूरे देश-काल का यथार्थ परिलक्षित हो और वह अगली पीढ़ी के भी काम आए।
आशीष सिंह : कमोबेश ऐतिहासिक सामाजिक यथार्थ को पूरे तथ्यों के साथ जिस तरह से ‘कर्बला दर कर्बला’ उठाता है यह उसे हिन्दी के ‘झूठा-सच’ व ‘तमस’ जैसे उपन्यासों की परम्परा में ला खड़ा करता है।
साम्प्रदायिक शक्तियों का बढ़ता वर्चस्व, अल्पसंख्यक समुदाय की तकलीफ़, दुविधा, समाज में बढ़ती विभेदकारी शक्तियों और सत्ता के साथ उनकी दुरभिसंधि अब ‘कर्बला दर कर्बला’ जैसे ठोस यथार्थ से आगे बढ़ता जा रहा है। मनुष्य की कीमत पर राजनीतिक सामाजिक शक्तियों के इस हाहाकारी दौर में साहित्य कोई भूमिका निभा पा रहा है? इस उपन्यास के लेखन की पृष्ठभूमि बताते हुए आप इसकी भूमिका को कैसे परिभाषित करेंगे?
गौरीनाथ : आप यक़ीन नहीं करेंगे, पूरी तैयारी रहने के बावजूद मैं इस उपन्यास के लिखने को वर्षों टालता रहा। वरना नरसंहार की उस परिघटना के तीन दशक बीतने का इंतज़ार नहीं करता जबकि वहाँ की चीख़ें और चिरायंध गंध अक्सर मेरे अवचेतन में हड़बोंग मचाती रहती थीं। उस समय का उर्दू बाज़ार जेहन में यथावत अटका हुआ था, सपने में जब-तब मैं नया बाज़ार की गलियों में लाशों को फलाँगते हुए भाग रहा होता था और जगने पर ख़ुद को पसीने से लथपथ पाता था। जब कभी भागलपुर का ज़िक्र चलता और मैं कतरनी चिउड़ा, हास्नुहना और जवाकुसुम के फूलों के साथ वहाँ की निर्मल गंगा को याद करने की कोशिश करता, लाल-लाल पानी और लाशों की ढेर पर उपजे गोभी के फूल दहशत पैदा करते थे। ख़ैर...
बहरहाल, कोविड के शुरुआती दौर में जब मैं बीमार माँ के साथ कोरेंटाइन था, अकस्मात भागलपुर की वह फाइल सामने आ गई। फटी-पुरानी डायरियों के साथ अख़बारों की ढेर सारी गड्डमड्ड कतरनें थीं। एक पूरा दिन उसी के साथ बीत गया। उस बीच मैथिली के एक संपादक का कहानी के लिए लगातार फ़ोन आ रहा था, तंग करने की हद तक, तो माँ के ठीक होने के बाद एक रात तय कर लिया कि इसी पर एक लंबी कहानी लिखूँगा। रात भर उसी पर सोचते और नोट्स लेते सुबह हो गई। सुबह में चहलक़दमी करते हुए महसूस किया कि इस पर कहानी लिखने का प्रयास विषय और कथ्य दोनों के साथ अन्याय होगा—कहानी नहीं, उपन्यास लिखना ही बेहतर रहेगा। सोचते-सोचते मेरे सामने सिर्फ़ 1989 का भागलपुर दंगा नहीं, पचास के क़रीब दंगों की एक लंबी शृंखला सामने आ गई और मैं उन सबके पीछे के कारण और उन कारणों के इतिहास से जुड़े तार को गहराई से देखना-समझना चाहता था। इतिहास में जब हम झाँकते हैं तो सिर्फ़ वास्तविकता के कठोर और निर्मम रूप से ही सामना नहीं करते, वास्तविकता की अद्भुत शक्ति से भी अवगत होते हैं। भागलपुर को जब मैंने स्लाइड पर रख कर परखना शुरू किया तो अँखफोड़वा कांड से लेकर अक्टूबर 1989 के नरसंहार तक एक सहज ऐतिहासिक विकासक्रम दिखा। मुझे लगा, यह काल का लिखा उपन्यास है जिसको मुझे शब्द और तरतीब देना है। ऐसे में तथ्यों और प्रमाणों को ओझल करना इतिहास के साथ गद्दारी करने जैसा होता। उपन्यास की शुरुआत पहले मैथिली में हुई, लेकिन दो दिनों तक लिखने के बाद अहसास हुआ कि मेरा भाषा-चयन का यह निर्णय ग़लत है। अंततः जो संभव हुआ वह आपके सामने है। लगभग तीन महीने में, सितंबर 2020 में, इसका क़रीब साढ़े तीन सौ पेज का पहला ड्राफ्ट तैयार हो गया। क़रीब छह महीने बाद जब इस पर दुबारा काम शुरू किया तो तमाम अन्य ज़रूरी सुधारों के साथ, पाठकों का ख़याल करते हुए, लगभग सौ पेज कम भी हो गया।
अंतिम रूप से तैयार उपन्यास डरते-डरते भागलपुर के पत्रकार-लेखक चंद्रेश जी के पास भेजा जिनसे कभी कोई मुलाक़ात तो नहीं थी, लेकिन ‘दिनमान’ के दिनों की उनकी साहसिक रिपोर्टिंग (ख़ासकर अँखफोड़वा कांड से संदर्भित) और लगातार क़रीब साठ वर्षों से भागलपुर में हुए तमाम परिवर्तनों के एक ईमानदार गवाह के रूप में उन्हें जानता था। उन्होंने बड़ी हार्दिकता के साथ न मात्र मेरी कुछ जानकारियों की तसदीक़ करने और अंगिका में आए संवाद को दुरुस्त करने में मदद की, हौसला भी बढ़ाया। उपन्यासकार अब्दुल बिस्मिल्लाह और प्रकाश कांत तो मानो इसकी रचना-प्रक्रिया के गवाह थे। उपन्यास में बहुत सारे मगरमच्छों के ज़िक्र हैं जिनकी तरफ़ से आक्रमण और आघात के ख़तरे थे। अपने वकील की राय पर पक्के सबूत जुटाना भी ज़रूरी था। विभिन्न मामलों से जुड़े वकील, अधिकारी से लेकर आरएसएस के कार्यकर्ताओं तक से जानकारी लेनी पड़ी। ईपीडब्ल्यू, टेलीग्राफ और इंडिया टुडे आदि के आर्काइव से तो सब सहज मिल गए, लेकिन सरकार के घर में बड़ा अंधेरा दिखा। लालू-राज में बिहार सरकार के गृह मंत्रालय से ग़ायब इनक्वारी कमीशन की रिपोर्ट पाने के लिए न जाने कितने भूतपूर्व मंत्री-विधायकों की खुशामद करनी पड़ी।
याद रखें, सत्य पर आज जितने ख़तरे हैं, उतने ही गल्प पर। डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म, डॉक्यू-ड्रामा की तरह डॉक्यू-नॉवेल की परंपरा दुनिया की विकसित भाषाओं में रही है। हिंदी के कुछ महान आलोचक भले नहीं जानते, पाठकों को तथ्यों से कोई तकलीफ़ नहीं। देश-विदेश की अंग्रेज़ी-हिंदी वेब-पत्रिकाएँ और बहुत-से अख़बारों ने पहली बार मेरी किसी कृति की इस तरह चर्चा की है। हिंदी-उर्दू में भी बहुत सारे लोगों ने, लगभग पचास के क़रीब लेखकों ने, अपने-अपने ढंग से अलग-अलग जगहों पर लिखा है। अपवादस्वरूप एक-दो आलोचकों को छोड़ कर किसी लेखक-कवि या पाठक ने तथ्यों को लेकर परेशानी की कोई शिकायत नहीं की, बल्कि इसके होने के महत्त्व पर ज़रूर बात की गई है। शेफई किदवई, अब्दुल बिस्मिल्लाह, सूर्यनारायण रणसुभे, प्रकाश कांत, रविभूषण, नारायण सिंह, मो. सज्जाद, ए. अरविंदाक्षण, कमलानंद झा, संतोष सिंह, अकबर रिज़वी, चंद्ररेखा ढढ़वाल, पार्थ चौधुरी आदि ने इन बातों को विशेष रूप से रेखांकित किया है।
मैं समझता हूँ, ऐसे मामले में गल्प के साथ तथ्यों के समन्वय से साहित्य की भूमिका सार्थक होगी। कला में तथ्यों की आँच सहने की अकूत क्षमता होती है। नरसंहार की भयावहता और अराजकता को दर्शाते पाब्लो पिकासो के गुएर्निका के एक अंश को इस उपन्यास के कवर पर अकारण नहीं रखा गया है। यह पेंटिंग युद्ध विरोधी बयान की तरह है। बताइए कि क्या पिकासो की इस कलाकृति का संबंध सत्य और तथ्य से नहीं है?
आशीष सिंह : गौरीनाथ जी, कहते हैं कि 'तथ्य बहुत हठीले होते हैं।" तथ्य हमारी आंखों में चुभते हैं, बातों की ऐथेंसिटी को प्रभावित करते हैं। अब इसी उपन्यास को हम देखें जहां ‘तथ्यों’ के सम्बन्ध में हम लोगों ने कई कोणों से बात की। मैं ज्यों-ज्यों उपन्यास में उपस्थित ‘भयावह यथार्थ’ से गुजर रहा था वहां नाम सहित राजनीतिक नेताओं, तत्कालीन पुलिस अधिकारियों के बयान और पत्र-पत्रिकाओं की तिथिवार रपटें जब आंखों के सामने से गुजर रही थीं तब मन बार-बार कहता था यह जो पशेमंजर है यह तो कल की बात है, नहीं-नहीं यह तो आज भी किसी न किसी कोने में जारी है। 1989 के दंगे ने कितना कुछ छीना है, कितना कुछ ध्वंस किया है। इसकी जिम्मेदार ताकतें अलग-अलग राजनीतिक दलों से कमोबेश समान हद तक लाभ उठाती रही हैं।
क्या इन गतिविधियों में जिनकी परोक्ष-अपरोक्ष भूमिकाएं नजर आती हैं, उसका जिक्र करते हुए आप सोच पा रहे थे कि जिन तथ्यों को आप उपन्यास का विषय बना रहे हैं उनकी जड़ें आज भी बहुत गहरी हैं? इसकी कीमत भी चुकानी पड़ सकती है?
गौरीनाथ : बेशक मेरे सामने भविष्य के बहुत से डरावने संकेत उभर रहे थे और आज भी उभर रहे हैं। कला का काम भविष्य के उन संकेतों को पकड़ना और उसको ऐतिहासिक-संदर्भों में परखना भी होता है, लेकिन इन सावधानियों के साथ कि साधारण मनुष्य के संघर्ष की ख़ूबसूरती अप्रतिहत रहे और कठिन से कठिन दौर में भी उसके संघर्ष का जज्बा बना रहे।
आज ऑशविट्ज़ की मुक्ति के 79 साल हो रहे हैं और हमारे देश में डिटेन्शन सेंटर सिर्फ़ ग्वालपाड़ा में नहीं, पाँच-छह और बन गए हैं और कई बन ही रहे हैं। फ़िलहाल जिस भी रूप में डिक्टेटरशिप है उसके विरुद्ध आक्रोश भी तो कहीं जमा हो रहा है। संकट बढ़ने पर उससे मुक़ाबला करने के लिए सच्चे आख्यानों की भी तो ज़रूरत पड़ेगी? जो लोग आज सरकार में हैं वह सिर्फ़ अपने बूते पर नहीं, ये उन सबके पापों की फ़सल भी काट रहे हैं जिन्होंने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से तब किसी और के पापों की फ़सल काटी थी। आमजन के लेखक को जोखिम उठाकर भी वह लिखना चाहिए, जिसको लिखने से अमूमन वे सब बचते हैं जिन्हें किसी-न-किसी सत्ता में मलाई काटनी होती है।
आशीष सिंह : “इस पेशे में मुस्लिम ज्यादा जरूर हैं लेकिन हिन्दुओं की संख्या भी पैंतीस-चालीस प्रतिशत से कम नहीं। यूं महाजन और माफिया हिंदू ही ज्यादा हैं। सबसे ज्यादा मुनाफा मारवाड़ी, महाजन, कोआपरेटिव वाले और दलाल-सप्लायर कमाते हैं और रहते भी हैं हमेशा सेफ जोन में।” ‘कर्बला दर कर्बला’ उपन्यास में एक पात्र के मुख से उपजे ये शब्द बहुत कुछ कहते हैं। अक्सर राजनीतिक और आर्थिक हमले एक-दूसरे के पूरक होते हैं और आज तो हमारे समाज में बहुत खुले रूप में दिखाई देने लगे हैं।
भारत के विभाजन और साम्प्रदायिकता को केन्द्र में रख कर लिखे गए हिन्दी उपन्यासों खासकर ‘आधा गांव’, ‘तमस’, ‘झूठा सच’, ‘काले कोस’ आदि में सामाजिक-सांस्कृतिक टकराहटों के बीच आर्थिक स्थिति अपना अहम रोल निभाती है। भू-आर्थिक अन्तर्विरोध कैसे सामाजिक-सांस्कृतिक संघर्षों को बढ़ाने में अपना योगदान देते हैं अक्सर ऐसे पहलुओं को कम रेखांकित किया जाता है। ‘कर्बला दर कर्बला’ में अर्थ सम्बन्धी सवाल बहुत गहरे से तैरता चला आता है। वह चाहे गांव के निजी सम्बन्धों में देखने को मिल रहा हो या भागलपुर सिल्क उत्पादन केंद्र के अधिकांश मालिकानों के प्रति उभरती नयी सामाजिक ताकतों का नजरिया हो जो सामाजिक-सांस्कृतिक व राजनीतिक भेद के रूप में जगह बनाता मिलता है। दंगों के पीछे आर्थिक राजनीति भी काम करती है, यह उपन्यास इस ओर विशेष संकेत करता मिलता है। क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि जब उपन्यासों की चर्चा की जाती है तो उसके आर्थिक वजहों की अनदेखी होती दिखती है?
गौरीनाथ : हिंदी आलोचना में अनदेखी तो बहुत जगह है, यह कोई नई बात नहीं। सांप्रदायिकता की पृष्ठभूमि पर कई अच्छे उपन्यास लिखे गए हैं। ऊपर आपने जिन नामों की चर्चा की है उनके साथ मैं ‘टोपी शुक्ला’ को भी रखना चाहूँगा। जहाँ तक हिंदी आलोचना में दंगे के पीछे भूमि हड़पने या व्यापार पर वर्चस्व बनाने जैसे प्रमुख आर्थिक कारणों की पड़ताल की बात है, मुझे ऐसी कोई गंभीर कोशिश नज़र नहीं आई है। यूँ यह मेरे पढ़ने की सीमा भी हो सकती है। चूँकि मुझे साफ़ तौर पर दिखा कि दंगों के पीछे आर्थिक कारणों की बड़ी भूमिका रही है इसलिए मैंने इस पक्ष को बेहतर ढंग से पूरे तफ़सील के साथ रखने की कोशिश की है।
आशीष सिंह : अक्सर कहा जाता रहा है कि भारत तमाम जातियों, संस्कृतियों व आचार-विचार वाले लोगों का समुच्चय है। यहां किसी किसिम की एकाधिकारवादी सोच बहुत दूर तक अपनी जगह नहीं बना सकती। और साम्प्रदायिक शक्तियों को ज्यादातर प्रश्रय उच्च जातियों की ओर से मिलता है। इस उपन्यास की रोशनी में आज का यथार्थ इस माने हुए ‘सत्य’ को झुठलाता नज़र आ रहा है। जब हम भागलपुर दंगे में शामिल लोगों के जातिगत समीकरण को देखते हैं तो जो तस्वीर सामने आती है, वह बेहद डरावनी है मानो भागलपुर एक प्रयोग-स्थली है जिसका प्रयोग साम्प्रदायिक शक्तियों ने आगे चल कर कई बार किया। “बड़े हाथ मारने, बंगालियों की प्रापर्टी हड़पने में भूमिहार-दबंग आगे रहे हैं। अब इनकी नजर सिल्क का व्यापार हथियाने पर है। बुनकर बुनकरी करें, व्यापार इनके हाथ रहे।” आगे हम देखते हैं कि महज उच्च जातियां ही नहीं बल्कि अपराध और साम्प्रदायिक उन्माद में गंगोता, बेलदार, तांती, मण्डल, कुशवाहा जैसी जातियां भी न सिर्फ लूट में शामिल होती हैं बल्कि उन्हें ‘खून चखने की आदत लग गई’ लगता है। आखिर मेहनत करके जीने वाली व मध्यजातियों का इस कत्लोगारत में शामिल होना क्या दिखाता है? एक बड़े मेहनतकश हिस्से का साम्प्रदायीकरण होने की जड़ें कहां हैं?
गौरीनाथ : ‘कर्बला दर कर्बला’ में इस संदर्भ में विस्तृत चर्चा है और तथ्यों-संदर्भों के साथ है इसलिए अलग से ज़्यादा कुछ कहने की ज़रूरत नहीं। दिहाड़ी ले कर दंगों में मार-काट करने जैसी मध्य जातियों की सहभागिता से जुड़ी बातें मेरे लिए भी परेशान करनेवाली थीं। निश्चित रूप से सांप्रदायिकता की जड़ें हमारे समाज और व्यवस्था के भीतर ही हैं जिनका इस्तेमाल राजनीतिक पार्टियाँ निर्ममता से करती हैं। ग़ौर करें तो पाएंगे कि महज शारीरिक बीमारियों के वायरस ही संक्रामक नहीं होते, सोच भी संक्रामक होते हैं। ब्राह्मणवाद के रोग से ग्रसित ग़ैर-ब्राह्मण भी समाज में बहुतेरे मिलेंगे और सुविधाएं पाने के लिए हर कुकर्म करते मिलेंगे।
आशीष सिंह : हिन्दुत्व का कार्ड कोई एक पार्टी नहीं खेलती। समय-समय पर हर पार्टी अपना दांव आजमाती है। सन् 89 के दंगे में कांग्रेस की भूमिका पर सवाल उठे हैं। यह उपन्यास बताता है कि मिस्टर क्लीन पर आरएसएस का पर्याप्त दबाव काम कर रहा था। क्या उस समय जनता दल व वामपंथी दलों की भी कोई अप्रत्यक्ष भूमिका रही है? एक जगह आपने बादल का आह्वान करते कवि का भी जिक्र किया है। इससे प्रतीकात्मक ही सही बौद्धिक जमात की भूमिका भी संदेह के घेरे में आती है? यह उपन्यास बताता है कि यह महज़ दंगा नहीं बल्कि एकतरफा कत्लेआम था। लोगों में इतना भय व्याप्त था कि जो पुलिस वाले साम्प्रदायिक सोच के नहीं थे वे भी उस वक्त किसी मुसलमान की मदद करने के जुर्म से बचना चाहते थे! क्या ऐसा दबाव तब लेखक-कवियों पर भी था?
गौरीनाथ : कांग्रेस ने अपनी क़ब्र ख़ुद खोदी थी। जनता दल और वामपंथियों के सच को उपन्यास में अनदेखा नहीं किया गया है। जनता दल की सरकार तो उसी नरसंहार की खाद पर पल्लवित-पुष्पित हुई थी और लालू जी ने भागलपुर के मामले को लंबे अरसे तक दबाते-भुनाते हुए उसका भरपूर दोहन किया था। जो लोग मासूमियत से कहते हैं कि लालू जी के समय में कोई दंगा नहीं हुआ, वे सीतामढ़ी दंगा भी भूल जाते हैं। वाम-दलों को कमोबेश चुप रहने का अपराधी तो माना ही जा सकता है। जहाँ तक लेखक-कवियों की बात है, अधिकांश के सोच में दोहरापन मिलता है। बिहार में 1967 में उर्दू के मसले को ले कर हुए दंगे ने बहुत से स्वनामधन्य रचनाकारों की असलियत उजागर कर दी थी।
आशीष सिंह : अंखफोड़वा कांड से लेकर बाबरी मस्जिद विध्वंस तक एक लहूलुहान लकीर खिंचती चली आयी है। जैसा कि आपने उपन्यास का शीर्षक ही ‘कर्बला दर कर्बला’ रखा है, वह खुद बहुत कुछ कहता नजर आता है। इसके बावजूद क्या आपको अब भी लगता है कि आपने कुछ चीजें रोक ली हैं, चाहते हुए भी नहीं दर्ज की?
गौरीनाथ : वहाँ हज़ारों पीड़ित हुए जिनमें से कई हज़ार के एफआईआर भी दर्ज नहीं हो पाए। मेरी स्मृति में विभिन्न फाइलों में दबी रह गई हज़ारों के बयानों की अनुगूँज है। हज़ारों पीड़ितों की आत्मकथा आ जाए तब भी शायद कुछ न कुछ शेष रहेगा। लेकिन जो बताना आवश्यक था, उसको सेन्सर कर के मैंने रोक नहीं रखा है। दरअसल रचना के भीतर जितना कुछ होता है, उसके बाहर उससे ज़्यादा होता है जिसको पाठक पढ़ते हुए अपने ढंग से मन-ही-मन भरते चलते हैं—ऐसी गुंजाइश जहाँ जितनी अधिक होती है वह रचना/ कला उतनी सार्थक।
आशीष सिंह : “विश्वविद्यालय प्रतिभाओं की कत्लगाह हैं” किसी ने कभी कहा था तो दूसरी तरफ ‘विश्वविद्यालय वे रणांगन हैं जहां पूरे समाज की धड़कनें सुनी जा सकती हैं’। गौरीनाथ जी! परिसर केंद्रित कहानियों की तुलना में हम हिन्दी उपन्यासों का नाम लें तो हमारी गिनती कुछ गिने-चुने नामों तक सिमटती जा रही है, मसलन ‘अपना मोर्चा’ (काशीनाथ सिंह), ‘गली आगे मुड़ती है’ (शिव प्रसाद सिंह), ‘परिशिष्ट’ (गिरिराज किशोर) आदि। उसी क्रम में ‘कर्बला दर कर्बला’ शिक्षा जगत में प्रवेश कर रही अराजकता, अपराधीकरण, दिशाहीन छात्र आंदोलन और साम्प्रदायिक शक्तियों की परिसर में बढ़ती भागीदारी की शिनाख्त करती है। छात्रों को समाज में चल रहे संघर्ष से सम्बद्ध करते हुए दिखाती है। सत्तर-अस्सी के दशक तक हम देखते हैं कि छात्र सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों में भी बराबर की भागीदारी करते मिलते थे जबकि आज हमारे हिन्दी उपन्यासों में छात्रों की उपस्थिति नदारद है। ऐसा क्यों है?
गौरीनाथ : उत्तर-औद्योगिक समाज की कुछ स्थायी बीमारियाँ रहीं जिन्होंने हमारे विश्वविद्यालयों को ही नहीं, धीरे-धीरे पूरे समाज के ताने-बाने को प्रभावित करना शुरू कर दिया था। रही-सही जो कुछ सामाजिकता और सौजन्यता जीवन में बची थी उसको नष्ट करने वाले तत्वों को प्रश्रय देने के लिए हमारी सरकारों ने उदारीकरण के बाद स्थिति ज़्यादा अनुकूल कर दी। आज कोई भी राजनीतिक पार्टी सक्षम छात्र राजनीति को पनपने ही नहीं देना चाहती है। सबको पिछलग्गू छात्र-नेता चाहिए। ऐसे में विश्वविद्यालय प्रतिभाओं का कब्रगाह ही तो बन सकता है! कल्पना कीजिए, कल को जब सिर्फ़ प्राइवेट यूनिवर्सिटी रहेगी तब कितनी विकट स्थिति होगी? छात्र नेताओं को कोर्ट ले जाते समय पिटाई करने वाले वकीलों की करतूत याद कीजिए और अनुमान कीजिए कि देश के भीतर कितनी सड़ांध है। ऐसे में यहाँ के छात्रों में हमारे उन लेखकों की रुचि क्यों होगी जो अपने बच्चों को विदेश भेजने के सपने पाले हों?
आशीष सिंह : उपन्यास के मुख्य पात्र शिव, जरीना आदि साहित्यिक वैचारिक तौर पर काफी समृद्ध दिखाई देते हैं। सामाजिक जांच-पड़ताल का मामला हो या राजनीतिक निर्णयों के निहितार्थ को स्पष्ट तौर पर समझ लेने का मामला हो। वे पर्याप्त एडवांस एलीमेंट के तौर पर सामने हैं। जरीना का एक सम्वाद याद आता है कि “बड़ा लेखक होने के लिए पहले खुद को बर्बाद करना पड़ता है।” वैसे तो यह बातचीत शरत चन्द्र के बारे में है, लेकिन क्या इसे एक लेखकीय वक्तव्य माना जाए?
गौरीनाथ : चरित्रों का सृजनकर्ता लेखक ज़रूर होता है, लेकिन वह हमेशा लेखक की उंगली पकड़ कर नहीं चलता है। एक सीमा के बाद वह चरित्र रचना की त्वरा के संग ख़ुद अपने व्यक्तित्व को दिशा देने की काबिलियत अख्तियार कर लेता है और कई बार लेखक से जिरह करते हुए उसको डांटने की स्थिति में भी आ जाता है। रचना और चरित्रों के साथ लेखक जितना अधिक जूझता है वह रचना लेखक को उतनी ही समृद्धि देती है।
मेरे क़रीबी दोस्तों की तरफ़ से सबसे ज़्यादा ये पूछे जाते हैं कि—शिव में मैं कितना हूँ? भागलपुर छूटने के बाद ज़रीना फिर मिली कि नहीं और अब वह कहाँ है? आशीष भाई, इसी तरह आप पूछ रहे हैं न कि ज़रीना के इस संवाद को मेरा लेखकीय वक्तव्य माना जाए?
आशीष सिंह : उपन्यास मुदित के संगीत, प्रेम और लगभग उपेक्षित जीवन से शुरू होता है जिसकी एक परिणति दबंगों द्वारा उसके दमन से होती है। एक स्वाभाविक जीवन अन्ततः पहचान खोकर जीने को अभिशप्त मिलता है। वहीं शिव और जरीना का प्रेम सामाजिक हदबंदियों और चुनौतियों के बीच अपनी जगह बनाता है लेकिन अन्ततः वे भी अपनी पहचान की तलाश करते मिलते हैं। एक तरफ व्यक्तिगत प्रयास से अपनी जिंदगी जीने की कोशिश करता मुदित है तो औरों की मुक्ति में अपनी सामाजिक मुक्ति तलाशता शिव है। उपन्यासकार मुदित से जुड़े अधखुले पन्नों को क्यों नहीं खोल रहा है? और शिव सामाजिक मुक्ति की राह खोजता कहां जाकर टिकता है? जनसरोकारी पत्रकारिता करता शिव अपने आसपास की बिल्लियों के जबड़ों में फंसे कबूतरों को देखते रहने को अभिशप्त है। मुहब्बत लिखने की कोशिश में क्या आपके के ये दोनों पात्र किसी अन्य भूमिका में उपस्थित हैं या उनकी औपन्यासिक परिणति उपन्यासकार के हाथ के बाहर का मामला है?
गौरीनाथ : पुराने विद्वानों ने रात और नदी को सबसे रहस्यमय कहा है। मुझे अनिश्चितताओं से भरे हुए सामान्य (संघर्षशील) लोगों के जीवन में ज़्यादा रहस्य छुपा हुआ मिलता है, जिनके संघर्ष ख़ूबसूरत होते हैं।
मुदित, शिव या ज़रीना के संघर्षपूर्ण राह में उसके जीवन की अंतिम परिणति तय करने वाला मैं कौन होता हूँ? लेखक अपने चरित्रों का अंतरंग ज़रूर होता, भाग्यविधाता नहीं होता है। ख़ुद मेरे या आपके साथ कल क्या होगा, हम-आप नहीं जानते हैं। ज़रीना, शिव, मुदित जैसे इन चरित्रों के बारे में मैं यही कह सकता हूँ कि ये हमारे-आपके अड़ोस-पड़ोस के जीते-जागते चरित्र हैं। कल हज़रतगंज में जो आपसे किताब की दुकान का पता पूछ रहा था, क्या पता वह शिव रहा हो। शाहबानों मामले पर विदेशी अख़बारों में लगातार लिखने वाली लड़की का असली नाम ज़रीना भी हो सकता है। शहर के नुक्कड़ पर असंख्य मुदित रोज़ मिलेंगे, कभी उसकी गुमटी में बैठ कर देखिए, वे राग तिलक कामोद में गा कर सुनाएंगे—‘दुखवा का से कहूँ मोर सजनी...’
आशीष सिंह : ‘कर्बला दर कर्बला’ पढ़ते हुए मेरा पाठकीय मन सवाल करता है कि शिव अपने गांव-घर की तल्ख़ हकीकतों के सामने देर तक खड़ा क्यों नहीं होता? एक शहरी पढ़ीस मन क्या नजदीकी सम्बन्धों के अन्तर्विरोध को देख-भर पाता है? क्या यह शहरी बौद्धिक वर्ग का प्रतिनिधि स्वभाव है जो तमाम ईमानदारी के बावजूद उस दलदल में प्रवेश करने से बचता है?
गौरीनाथ : शहर-गाँव के विवाद में जाने से बेहतर होगा कि यहाँ उसके ठोस यथार्थ पर बात हो। बचने या लड़ने की प्रवृत्ति आज दोनों जगह लगभग समान है। फिर मैंने शिव को शहरी या ग्रामीण के खाँचे में न बाँध कर, व्यापक समाज के प्रतिनिधि मामूली इन्सान के रूप में स्वतंत्र खड़ा करने की कोशिश की है। लड़ता-भिड़ता, गिरता-उठता एक अदना भारतीय चरित्र। वह भगत सिंह या गणेश शंकर विद्यार्थी नहीं है। नायक का युग चला गया। वह एक सामान्य नागरिक है जो दोस्ती, प्रेम, भाईचारे का निर्वाह करते हुए अपनी क्षमता और योग्यता-भर लड़ते हुए कुछ करना और उसका न्यूनतम प्रतिफल न्याय-संगत ढंग से पाना चाहता है। वह किसी प्रगतिशील पार्टी लाइन पर खड़ा कॉमरेड भी नहीं है। वह सौ की भीड़ से अकेले लड़ने को उद्यत फ़िल्मी हीरो नहीं। वह हमारे देश के लाखों-करोड़ों ऐसे छात्र-नौजवानों का प्रतिनिधि है जो क्षमता-भर संघर्ष करते हुए अपने अनुकूल जीवन अमन-चैन से जीना और अपने हिस्से का प्रेम पाना चाहता है। यह ख़्वाहिश न बहुत बड़ी है न छोटी। शिव की भाभी को अपनी लड़ाई लड़ने ख़ुद आगे आना होगा। क्या ज़रीना की खोज के लिए शिव का दर-दर भटकना पलायन है? याद रखें कि ज़रीना शिव की शक्ति है, उसके बिना वह अधूरा। यूँ समाज में परिवर्तन शिव, ज़रीना या उन जैसे औपन्यासिक पात्र नहीं लाएंगे, चाहे वे कितने ही क्रांतिकारी हों। शिव या ज़रीना के संघर्षपूर्ण हालात को समझ कर यदि कोई पाठक अंश-मात्र भी संवेदित होता है और उसके भीतर का इन्सान ज़रा भी जगता है तो लेखक के लिए यह उस चरित्र के निरूपण की बड़ी सार्थकता होगी।
आशीष सिंह : ‘कर्बला दर कर्बला’ का विषय उपन्यास के शिल्प-गठन को पार करते हुए औपन्यासिक फिक्शन के कलेवर में ढलता नजर आता है। इस तरह के उपन्यास हिन्दी में कम ही लिखे गए हैं। विषय को प्रामाणिकता प्रदान करने के लिए जितने स्तर पर काम किया गया है वह उपन्यास से गुजरते हुए समझ में आता है। लेकिन यह प्रामाणिकता का आग्रह, सूचनाओं का संजाल क्या उपन्यास की स्वाभाविक पठनीयता में बाधा नहीं बनता? इस मुद्दे पर आपका क्या कहना है?
गौरीनाथ : मुझे कतई ऐसा नहीं लगता। चौबीस घंटे के न्यूज़ चैनलों पर सूचनाओं के नाम पर प्रॉपगेंडा से परेशान हो चुका हमारा जन-मानस, गल्प के साथ ही (भी) सही, सच जानने के लिए ज़्यादा व्याकुल रहता है। कृपया अफ़वाह को हवा न दें। आप बताएं कि उपन्यास में सूचनाओं का संजाल कहाँ है? उपन्यास के जो चरित्र हैं, वे अपने सामान्य दैनंदिन जीवन में हैं और उसी दैनंदिन में सारी घटनाएं घटित होती हैं। विश्वविद्यालय, शहर, छात्र-छात्रावास, गली-मोहल्ले के नियमित से जीवन के सारे प्रसंग हैं—पढ़ाई-लिखाई, वाद-विवाद, लड़ाई-झगड़े, हँसी-मज़ाक़, नेह-बिछोह... हाँ, उपसंहार के एक अध्याय ‘नरसंहार : खेल या कारोबार’ को संक्षिप्त रखने के लिए दो-तीन दोस्तों के बीच मुलाक़ात-क्रम की बातचीत में अपेक्षाकृत कुछ ज़्यादा सूचनाएँ आती हैं, लेकिन क्या ऐसा हमारे सहज जीवन-प्रवाह में घटित नहीं होता? आशीष जी, अपने पत्रकार-दोस्तों के साथ क्या आप कभी किसी घटना को ले कर ऐसी बातचीत नहीं करते हैं? अब आप यह मत पूछिएगा कि ‘उपसंहार’ कहाँ है? ‘उपसंहार’ के लिए मैंने चचा ग़ालिब से शब्द उधार लेते हुए ‘कुरेदते हो जो अब राख...’ लिखा है। ‘राख कुरेदने’ का क्या मतलब?
बहरहाल, उपन्यास में पठनीयता ज़रूरी है लेकिन कई बार किसी अवधारणात्मक प्रसंग को रखने से पहले यदि पाठ-गति तेज़ रही यानी बहाव ज़्यादा रहा तो पाठक कथा-प्रसंग में सीधे बहकर या फिसल कर उपन्यासकार की सांकेतिक बातों की गंभीरता को नज़रअंदाज़ भी कर सकता है। इस तरह के ख़तरे के प्रति सजग रहते हुए बड़े उपन्यासों में कहीं-कहीं उपन्यासकार को जानबूझकर भी गति कम करना पड़ता है। यह पॉपुलर साहित्य का फंडा है कि पाठक एक बार पढ़ना शुरू करे तो फिसलता चला जाए—अंत से पहले कहीं रुके नहीं और उसके सोचने के लिए कथा के लटके-झटके के अलावा कोई वैचारिक पहलू न हो। माफ़ करें दोस्त, इस तरह से फिसलाने वाले उपन्यास या कोई अन्य गद्य लिखने में मेरी रुचि नहीं है।
युग-सत्य से गहन जुड़ाव के लिए, अपने समय के कठोर यथार्थ से मुठभेड़ के लिए उपन्यास के पाठक को कहीं-कहीं ठहरना और ख़ूब सोचना होगा, पीछे के पन्ने पर भी जाना होगा।
आशीष सिंह : ‘कर्बला दर कर्बला’ की संरचना-प्रविधि प्रयोगधर्मी किस्म की है, वह चाहे अर्थ-गर्भित शीर्षकों-उपशीर्षकों में उसके निबंधन का मामला हो—अंगिका, मैथिली, पंजाबी, बांग्ला या संथाली आदि में आए गीतों-संवादों की प्रस्तुति का मामला हो या सामासिक संस्कृति का स्वरूप लिए पात्रों के चयन का। क्या ऐसा नहीं लगता कि तमाम बोलियों-उपबोलियों की आवाजें पूरे समाज को किसी एक रंग-बोली से घेर देनेवाली आवाजों के विरुद्ध हैं? उपन्यास की आन्तरिक व ढांचागत संरचना का यह स्वरूप बनाने का आइडिया आपको कैसे सूझा?
गौरीनाथ : मुझे जो जीवन मिला उसमें विभिन्न जाति-धर्म-लिंग, भाषा-क्षेत्र, पेशा, आय और वय के संघर्षशील साथियों का भरपूर साथ मिला। मुझे हमेशा लगता है कि इन सबसे मिल कर ही मेरा परिवार बड़ा होता है। भागलपुर में हमारे जो दोस्त थे उनमें कई इस तरह के थे और ख़ूब पढ़ने-लड़ने वाले थे। पुलिस थाने से सुशील जैसे महत्त्वपूर्ण दलित साथी उपन्यास में अकारण नहीं आ जाते। मैंने भागलपुर में जितने नुक्कड़ नाटक यूँ ही आते-जाते देखे, शेष जीवन में फिर नहीं देखे। वहीं रहने वाले कथाकार पंकज मित्र ने उपन्यास पढ़ने के बाद इस बात की विशेष तसदीक की जो कि तब वहाँ नुक्कड़ नाटक करते थे।
यह तो जाहिर है कि एक भाषा, एक धर्म, एक रंग जैसी परिकल्पनाओं वाला समाज बनाने की कोशिश का खुले तौर पर यहाँ मुखालफत है। इसकी शिल्प-संरचना में बहुलता या सामासिक संस्कृति का समावेश स्वाभाविक रूप से हुआ है जो तब वहाँ की ज़िंदगी में आम बात थी। यहाँ लाइब्रेरी की किताबों को साक्षी रख कर जीवन-साथी स्वीकार की जाती है, तो गुरुद्वारे में सेवा दे कर प्रसन्नता महसूस होती है और कालीबाड़ी मंदिर के जवाकुसुम पर अटकी जल-बूँदें आबेजमजम की तरह नज़र आती है। जहाँ तक शीर्षकों की बात है, यह पाठ-सुविधा के लिए है जो पहले भी मुझे कुछ मैथिली, हिंदी, अंग्रेज़ी उपन्यासों में देखने को मिला था। मैथिली में मैंने ‘दाग’ उपन्यास भी छह शीर्षकों में लिखा है। प्रयोग जैसा यहाँ कुछ है तो पाठकों की सुविधा के लिए है, चौंकाने के लिए बिल्कुल नहीं।
आशीष सिंह : ‘कर्बला दर कर्बला’ उपन्यास और ‘हिन्दू’ कहानी लिखने के बावजूद क्या आपको लगता है कि अपने समय को ठीक से दर्ज नहीं किया गया है? अभिव्यक्ति की आवाज शब्दों में ढलने से पहले तमाम चेहरों से मुखातिब होती लगती है? हर बार शब्दों में कटौती करनी पड़ती है या बहुत सहजता से आपकी अभिव्यक्ति शब्दों में रूपांतरित होती जाती है?
गौरीनाथ : किसी एक के लिखे में कतई एक काल-खण्ड का मुकम्मल दर्ज नहीं हो सकता है। हर दौर में बहुत कुछ ऐसा घटित होता है जिस पर साहसिक ढंग से लिखने वालों की ज़रूरत हमेशा बनी रहेगी। कला के काम में निरन्तरता ज़रूरी है।
निश्चित रूप से अपनी बात कहते समय वे तमाम चेहरे सामने आते हैं जिनकी दाढ़ में लगे ख़ून पलभर को डराते हैं, लेकिन यहीं हमें साहस करना होता है और अपनी जिम्मेदारी के प्रति सजग होना होता है। हमें यह भी ख़याल रखना पड़ता है कि बात हवाहवाई न हो। एक बात और, ‘झूठा सच’ की पहले आपने चर्चा की थी तो उसमें प्रधानमंत्री नेहरू की जो चर्चा है वह खतरे रहित पूरी तरह पॉजेटिव है। इसके उलट ‘कर्बला दर कर्बला’ में प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद हों, इंदिरा गांधी-राजीव गांधी या भागवत झा आजाद-शिवचन्द्र झा अथवा लालू यादव जैसी शख्सियत हों—उनके चेहरे पर के मुखौटों को हटाया गया है। आरएसएस-विहिप, एबीवीपी, बजरंग दल आदि के कारनामों को उजागर किया गया है। ऐसा करते समय मेरे सामने गौरी लंकेश, कलबुर्गी, दाभोलकर, पंसारे आदि का बलिदान संबल दे रहा था। लगातार तथ्यों को साहस के साथ रख रही अरुंधति राय हमें प्रेरित करती रहीं। ये तमाम प्रेरणाएँ और संबल हैं कि अपनी बात सच-सच कहने-लिखने में आने वाली बाधाओं के मुक़ाबिल मैं खड़ा रह पाता हूँ।
आशीष सिंह : ‘कर्बला दर कर्बला’ उपन्यास पढ़ते हुए भारतीय राष्ट्र-राज्य की पुलिस की ‘तटस्थ’ भूमिका ज्यादा चौंकाती नहीं है। लगता है, यही तो अमूमन कई बार दिखाई देता रहा। जबकि बौद्धिक जगत की तथाकथित तटस्थता ज्यादा परेशान करती है। गौरीनाथ जी! बौद्धिक जमात की तथाकथित तटस्थता और शाश्वत चिंताओं से ओतप्रोत लेखन का सवाल हर बार प्रश्नों के घेरे में क्यों आता है?
गौरीनाथ : हमारे यहाँ पुलिस जवानों की नियुक्ति में शारीरिक बल पर ज़्यादा ज़ोर रहता है, मानसिक क्षमता और सोच को आंकने पर कम। पुलिस प्रशिक्षण में भी उसको जाति-धर्म से ऊपर एक जिम्मेदार और संवेदनशील इंसान बनाने की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं होती। इसी तरह बौद्धिक जमात में यशकामी और शाश्वत चिंताओं में डूबे लेखक-कवि ज़्यादा सफल मिलते हैं। बादल को घिरते देखने वाले ‘जनकवि’ अल्पसंख्यक तबके के प्रति विष-वमन करते समय इतने ‘विचारवान’ हो जाते हैं कि संघ की गोद में जा बैठते हैं। सितंबर, 1967 के ‘दिनमान’ के अंकों में छपी फणीश्वरनाथ रेणु की रिपोर्ट उनकी रचनावली में देखिए। हिंदी साहित्य की विडंबना है कि भेदभावपूर्ण सोच के बौद्धिक शाश्वत चिंता करते हुए महान हो जाते हैं। पाठ्यक्रम में प्रवेश, प्रशंसा और पुरस्कारों से लेखक की बहुत सारी कमियाँ ढक जाती हैं। सत्ता और व्यवस्था के विरुद्ध लिखने-बोलने से फिर ये किनारा कर लेते हैं। मोटे तौर पर हमारा बौद्धिक जगत चालाक लोगों का एक ऐसा समुदाय है जो अपना अधिकांश समय सुरक्षित पनाहगाह की खोज में खपाता है।
आशीष सिंह : इस उपन्यास को ले कर अच्छी-खासी बहस रही। इसकी विषयवस्तु को ले कर क्या कोई ऐसी प्रतिक्रिया आयी जिसको सुनते हुए आपको लगा हो कि हां! इस बात को इस तरह से कहा जा सकता था या जो कहा गया और जैसे भी कहा गया उसके अलावा और कोई रास्ता इस उपन्यासकार के पास नहीं था? ‘मरा हूं हजार मरण’ तब सरफराज, मुन्नी बेगम, बीबी वलीमा जैसे तमाम लोगों की कहानी लिख पाया हूं जिनने इस दंगे में न सिर्फ अपना परिवार बल्कि अपनी रिहाइश तक गंवाई है। इस ख़ून के दलदल से गुजरना सहज नहीं रहा होगा। और एक रचनाकार के तौर पर कहें तो यही कहना होगा कि ‘एक अच्छी कृति अपने पुराने सांचे को तोड़ देती है’ यह कथन हर बार वस्तु और रूप के अन्तर्सम्बन्धों को ताजा करता रहता है। ‘कर्बला दर कर्बला’ को पुनः लिखना पड़े तो क्या ऐसा ही फिर लिखेंगे?
गौरीनाथ : इतनी चर्चाओं के बावजूद मैं मुतमइन नहीं हूँ कि उपन्यास अच्छा लिखा गया है! संतुष्ट तो मैं अभी तक अपनी किसी रचना से नहीं हूँ। भागलपुर से जुड़े कुछ दोस्तों और दूरदराज के पाठकों ने लिसा, अफ़्सां, ज़ुबैदा, रितेश, नबेंदु, गुलमोहर भैया, मित्रा सर, पुजारी काका आदि अनेक चरित्रों के बारे में विस्तार से जानने की इच्छा रखते हुए कई सवाल किए, लेकिन उन सब को संतुष्ट करने लग जाऊँ तो यह उपन्यास न हो कर ईडी का फाइल हो जाएगा और पूरी ज़िंदगी लगा कर भी काम अधूरा रहेगा।
अब यह जैसा भी लिखा गया, मेरी कलम से इस उपन्यास का यही रूप अंतिम है। फिर से उतनी लाशों को देखना और उन चीख़ों को बार-बार सुनना बहुत कठिन है। हो सकता है, भविष्य में इस विषय पर और बेहतर लिखने वाले कोई युवा आए और वह इसको फिर से लिखे; ऐसी उम्मीद पालने में कोई बुराई नज़र नहीं आती है।
आशीष सिंह : सामाजिक विभेदनकारी परिघटनाओं को अपने कथ्य का विषय बनाते हुए इधर जो उपन्यास लिखे गए उनकी गिनती की जा सकती है। निकट अतीत को विषय बनाते हुए आज के यथार्थ को बयां करती रचनाओं पर बात कम होती है। मैं सिन्धियों को अपनी जड़ों से उखाड़ दिये जाने पर लिखे गए उपन्यास ‘बस्तियों का कारवां’ (हरीचरन प्रकाश), अन्तरधार्मिक सम्बन्धों, साम्प्रदायिक सोच और अपने को पहचानने की कोशिश कराती ‘ताबीज’ (शीला रोहेकर) और आपके ‘कर्बला दर कर्बला’ का जिक्र सबसे पहले करना चाहूंगा। इनकी केन्द्रीय विषयवस्तु हमें अपने वर्तमान की वर्चस्वशाली ताकतों के कारनामों को, इनकी जड़ों, शाखा-प्रशाखाओं की ओर इशारा करती हैं। हालांकि यह मांग रचना से बाहर का मामला है फिर भी मेरा नागरिक मन इन दु:स्वप्नों से झांकते भविष्य के स्वप्नों की कामना करता है। न तो सामने मौजूद यथार्थ और न ही रचनात्मक यथार्थ क्रूर और नंगे समय को चीरते दीखता है। बेहतर मनुष्य की तलाश करते शिव जैसे लोगों का कारवां लगभग ठिठका और ठहर-सा नहीं गया है? आखिर कुछ वजहें तो होंगी ही कि सामूहिक गतिविधियों से होते हुए अन्ततः पत्रकारिता ही क्यों एक विकल्प बन कर सामने आती है? और कल की आतंककारी ताकतें आज सर्वव्यापी भूमिका में? क्या साहित्य की जरूरत है इस समाज को? इसकी भूमिका में किसी बदलाव की जरूरत महसूस कर रहे हैं आप?
गौरीनाथ : विकल्पहीन नहीं है दुनिया, यह समाजवादी चिंतक किशन पटनायक की एक किताब का नाम है और एक हौसला भी। निराश न हों मित्र, शिव या ज़रीना जैसे युवाओं का कारवां रुकने वाला नहीं है। इसी तरह सम्पूर्ण पत्रकारिता जगत से निराश होने की कोई वजह नहीं। साहित्य के क्षेत्र में भी फ़िलहाल एक ठहराव और पतनशीलता बड़े पैमाने पर नज़र आती, लेकिन यह सम्पूर्ण सत्य नहीं है। हरीचरन प्रकाश, शीला रोहेकर आदि सहित ऐसे बहुत से रचनाकार समान रूप से चिंतित हैं। अंधेरे की भी एक उम्र होती है। गहरे सामाजिक जुड़ाव वाले लेखक को भवभूति की तरह का धैर्य रखना होता है,
"उत्पत्स्यते हि मम कोsपि समानधर्मा,
कालोsह्ययं निरवधि: विपुला च पृथ्वी "
समय गतिशील यानी अनंत है और पृथ्वी बड़ी है, समानधर्मा ज़रूर जनम लेंगे।
आशीष सिंह : क्या किसी नए उपन्यास पर आप काम कर रहे हैं? यदि हां, तो वह किस विषय पर है?
गौरीनाथ : एक उपन्यास पिछले दस वर्षों से मन में चल रहा था। 2015 में उसके काफ़ी हिस्से लिख चुकने के बाद रुक गया इसलिए कि उसकी कहन-शैली पसंद नहीं आई। 2022 में ‘कर्बला दर कर्बला’ का आना उसके लिए रियाज़ की तरह सार्थक रहा। इधर के दो सालों में उसको नए सिरे से लगभग पूरा कर लिया है, लेकिन ज़रा ठहर कर अभी उसको और देखना-पढ़ना और तराशना चाहता हूँ। पाठकों के सामने उसके आने में हो सकता है दो-चार साल और लग जाए। (इसका एक अंश ‘परिकथा’ के सौवें अंक में छपा भी है।–सं.)
विषय! कोसी है, पानी और पर्यावरण है। बाक़ी सबके केंद्र में बस एक ही तत्व है—न्याय और मुहब्बत।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
('परिकथा 'अंक 106 में प्रकाशित)
सम्पर्क
आशीष सिंह :
मोबाइल : 8739015727
हां आशीष जी के लिये इस साक्षात्कार को पढ़कर लगता है कि गौरी नाथ जी ने बड़े श्रम पूर्वक यह उपन्यास लिखा है।
जवाब देंहटाएंऔर उपन्यास का जिस तरह का कथ्य है उसके अनुसार आशीष जी की यह बात सही लगती है कि यह उपन्यास तमस और झूठा सच की परंपरा में रखा जा सकता हैं।
आशीष जी की यह बात भी सही है कि इस तरह के उपन्यास हिंदी में कम ही लिखे गए हैं ।
गौरी नाथ जी बधाई के पात्र है। उनकी मेहनत पर नतमस्तक होता हूं
।
साक्षात्कार में बीच-बीच में कवि विजेंद्र जी की पेंटिंग्स का बढ़िया इस्तेमाल हुआ है।
अभिनंदन आशीष जी और बधाइयां गौरी नाथ जी।
बेहतरीन
जवाब देंहटाएंउपन्यास 'कर्बला दर कर्बला' को समझने में मददगार बातचीत. जितनी ही बेबाक उतनी ही सुरुचिपूर्ण प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत बधाई गौरीनाथ जी. बहुत बढ़िया...दीर्घ और सभी पहलुओं को समेटता और संजोता साक्षात्कार...बधाई आशीष जी और गौरीनाथ जी
जवाब देंहटाएंएक ऐसे समय में जहां नाम लेना खतरे से खाली नहीं है वहां इन्होंने किसी को नहीं बख्शा है। साक्षात्कार में कहीं कोई दुराव छिपाव नहीं है। गौरीनाथ जी और आशीष सिंह को बहुत शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंगौरीनाथ का उपन्यास छपते ही पढा था। उससे भी संतोष नहीं हुआ तो विस्तार से उस पर लिखा भी। उन्हीं दिनों परिकथा में छपा था। लक्षित विषय पर बिल्कुल नए ढंग और नये तेवर का उपन्यास है-कर्बला दर कर्बला। यह एक साहसिक उपन्यास है। समय बीतने के साथ लोग इसका महत्त्व समझेंगे।
जवाब देंहटाएंसचमुच बहुत महत्वपूर्ण उपन्यास है 'कर्बला दर कर्बला ' । आपकी समीक्षा 'परिकथा' के किस अंक में प्रकाशित हुआ है। मैं भी पढ़ना चाहता हूं।
हटाएंपूरी बातचीत पढ़ गया। आशीष ने 'कर्बला दर कर्बला' उपन्यास में गहरी पैठ बनाने के बाद सवाल रचे हैं। उनकी कोशिश रही है कि पाठकों की बहुकोणीय जिज्ञासाओं व अकुलाहटों तक को उपन्यासकार से जवाब और जिसका विषय बनाया जाये।
जवाब देंहटाएंगौरीनाथ ने बहुत सधेपन से जवाब दिये हैं और कहीं-बचते हुए भी ऐसी सन्तुलित भाषा में जवाब दिये हैं कि वे। खुलकर बोलने के बोलने लग जाने के बजाय लगभग सही जवाब की एक माकूल शैली अख्तियार कर ली है।
अब की पत्रकारिता-लेखन में;फेसबुक पर भी,भाषा को लेकर सजगता और संवेदनशीलता के प्रति असावधानी ही नहीं क्षरण भी बढे़ हैं,जो यहां भी हैं।
ऊपर की टिप्पणी मैंने--बक़लम बन्धु कुशावर्ती,दर्ज़ की है।
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