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भरत प्रसाद का उपन्यास अंश 'आधा डूबा आधा उठा हुआ द्वीप : जे.एन.यू.'

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  एक रचनाकार एक साथ कई विधाओं में सिद्धहस्त ढंग से लेखन कर सकता है। विधाओं की यह विविधता लेखक की उस दृष्टि से ही सम्भव हो पाती है जिसमें वह विस्तृत परिप्रेक्ष्य में चीजों या परिस्थितियों को अवलोकित कर पाता है।  एक साथ कई विधाओं में लेखन की समृद्ध परम्परा हिन्दी साहित्य में भी दिखाई पड़ती है। हमारे समय के सक्रिय रचनाकार भरत प्रसाद उन रचनाकारों में से एक हैं। आलोचना, कविता, कहानी, उपन्यास, संस्मरण, समीक्षा के अतिरिक्त भरत जी 'देशधारा' नामक एक पत्रिका के सम्पादक भी हैं। हाल ही में सामयिक प्रकाशन नई दिल्ली से भरत प्रसाद का उपन्यास 'काकुलम' प्रकाशित हुआ है। उपन्यासकार को बधाई देते हुए आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं इसी उपन्यास का एक रोचक अंश 'आधा डूबा आधा उठा हुआ द्वीप  :  जे.एन.यू.'  'आधा डूबा आधा उठा हुआ द्वीप  :  जे.एन.यू.'                             भरत प्रसाद   ऐन 2021 की दहलीज पर धवल की जवानी। कहिए कि आकांक्षाओं की उत्तुंग लहरों में उछलती हुई एक नाव, स्वप्नों के क्षितिज में सुदूर खोई कोई मंजिल, अनजाने, दिशाहीन तीरों के बीच छटपटाता एक पक्षी या ऊँ

रुचि बहुगुणा उनियाल का संस्मरण 'जेठ के घाम में'

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  रुचि बहुगुणा उनियाल  आमतौर पर परिवार में बेटी का जनम भारतीय परिवारों के लिए खुशी नहीं, बल्कि विषाद का कारक बन जाता है। हालांकि परिस्थितियां बदली हैं इसके बावजूद दुर्भाग्यवश आज भी कहीं कहीं इस परम्परा के अवशेष मिल जाते हैं। राजस्थान के राजपूतों के परिवार में तो बेटियों को जनम लेते ही मार डालने की भयावह कुप्रथा लम्बे समय तक प्रचलन में रही। स्त्रियों के साथ भेदभाव और हिंसा तो हमारे समाज में आज भी देखी जा सकती है। पहाड़ दूर से जितने बेहतर लगते हैं, नजदीक जाने पर वहां की अंतहीन समस्याएं उसकी विडम्बना को उजागर कर देते हैं। स्त्रियों के साथ जुड़ी कुप्रथाएं और समस्याएं वहां के जीवन में भी लम्बे समय तक अंतर्निहित रहीं। आजकल पहली बार पर महीने के तीसरे रविवार को हम रुचि  बहुगुणा उनियाल के संस्मरण पढ़ रहे हैं। इसी कड़ी में आज प्रस्तुत है रुचि बहुगुणा उनियाल के संस्मरण की नई किश्त 'जेठ के घाम में'। 'जेठ के घाम में' रुचि बहुगुणा उनियाल   जून की शुरुआत हो गई है, इस महीने सुबह-सुबह ही पारा अपना रंग दिखाने लगता है। दोपहर के समय बाहर निकलना मतलब भयंकर गर्मी से लू की चपेट में आना है। आज

लाल बहादुर वर्मा का आलेख 'बकवास और इतिहास'

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  लाल बहादुर वर्मा  जिन्हें इतिहास के 'क ख ग' के बारे में भी कुछ पता नहीं होता वह इतिहास पर बड़े आधिकारिक ढंग से बोलते हुए देखे और सुने जाते हैं। ऐसे लोग अपने पक्ष में ऐसे अकाट्य तथ्य प्रस्तुत करते हैं जिसका वजूद कहीं होता ही नहीं। यही नहीं जब से व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी चलन में आई है तब से इतिहास के तथ्यों के बारे में तो जैसे बाढ़ ही आ गई है। हमारे राजनीतिज्ञ अक्सर यह बात करते सुने जा सकते हैं कि अब तक का इतिहास गलत इतिहास है। उसे दुराग्रही लोगों ने लिखा है। अगर वे सत्ता में आएंगे तो इतिहास को सुधार देंगे। यह अलग बात है कि राजनीति आज भारत में अपने निम्नतम स्तर पर दिखाई पड़ रही है। ऐसी परिस्थिति में सुधार की बात तो राजनीति में की जानी चाहिए लेकिन इतिहास का दुर्भाग्य यह है कि वह राजनीतिज्ञों की दुर्भावना का अक्सर शिकार होता होता रहता है। जब भी कोई दल सत्ता में आता है तो वह इतिहास को अपनी तरह से लिखवाने गढ़वाने का प्रयास तुरन्त ही शुरू कर देता है। इस प्रक्रिया में तथ्यों के साथ या तो छेड़छाड़ की जाती है या फिर उन पर ध्यान न दे कर मनमाने तरीके से इतिहास लेखन किया जाता है। इस तरह देखा