संदेश

जून, 2023 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

विजय गौड़ की कहानी 'डा. जेड. ए. अंसारी होम्योपैथ'

चित्र
  विजय गौड़ जाति-भेद, नस्ल-भेद के साथ साथ सांप्रदायिकता आज के दुनिया की गम्भीर समस्याओं में से एक है। इसकी बुनावट कुछ इस अंदाज में होती है कि हमें खुद यह पता ही नहीं चलता कि हम किस समय जातिवादी, नस्लीय या फिर सांप्रदायिक हो जाते हैं। क्या यह सम्भव है कि हम एक मनुष्य के तौर पर नजर आएं। इसके लिए हमें अपने जातीय, नस्लीय या सांप्रदायिक पहचान को खत्म करना होगा। यह आसान नहीं होता। कई बार बेहद विनम्र नजर आने वाला व्यक्ति भी जातीय या सांप्रदायिक तौर पर अक्सर ही निर्मम दिखाई पड़ता है। जब हम अपने धर्म का गुणगान और बखान कर रहे होते हैं तो दूसरी तरफ हम अपने लोगों को दूसरे धर्मों के प्रति कट्टर भी बना रहे होते हैं। अक्सर धार्मिक नेता यह चिन्ता व्यक्त करते हुए नजर आते हैं कि अमुक धर्म खतरे में है। विजय गौड़ ने अपनी कहानी 'डा. जेड. ए. अंसारी होम्योपैथ' में सलीके से इस समस्या की पड़ताल की है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं विजय गौड़ की कहानी 'डा. जेड. ए. अंसारी होम्योपैथ'। डा. जेड. ए. अंसारी होम्योपैथ विजय गौड़ मां होती तो अभी अरण्डी के पत्तों को घुटनों और कुहनियों में बांध देती

सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'सच बोलने से बचती शताब्दी के नाम'

चित्र
  झूठ केवल सच का विलोम ही नहीं है अपितु उसका प्रतिकार भी है। झूठ की दिक्कत यह होती है कि आधारहीन होने के बावजूद वह सच का आधार बनने का प्रयत्न लगातार करता रहता है। इसके बावजूद झूठ सच में तब्दील नहीं हो पाता। सत्ता की विडम्बना यह है कि वह अपने को बचाए बनाए रखने के लिए झूठ गढ़ता रहता है। आज यह झूठ जैसे एक संस्कृति के रूप में तब्दील हो गया है। इसी मुद्दे पर विमर्श करते हुए सेवाराम त्रिपाठी ने एक विचारापरक आलेख लिखा है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं  सेवाराम त्रिपाठी का आलेख  'सच बोलने से बचती शताब्दी के नाम'। 'सच बोलने से बचती शताब्दी के नाम'                सेवाराम त्रिपाठी         इक्कीसवीं शताब्दी! तुमको असंख्य आकर्षणों के बावजूद स्वीकार कर पाने में भारी दिक्कत हो रही है। बाज़ार में हमारी समूची सभ्यता और संस्कृति है। पैसे के लिए ज्यादातर बिकने को तैयार बैठे। सांसद, विधायक बिक जाते हैं। न्याय, धर्म, ईमान और जीवन मूल्य बिक जाते हैं। तुमसे क्या-क्या कहूँ और क्या-क्या छिपाऊँ। राजनीति तो पहले भी बदरंग थी; अब तो वह क्रूर, काली कलूटी, हिंसक, लंपट और झूठ का भयावह गटर हो गई ह

हरिशंकर परसाई का एक व्यंग्य आलेख 'प्रेमचंद के फटे जूते'

चित्र
  यह महान व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई का जन्म शताब्दी वर्ष है। इस क्रम में हम पहली बार पर उनसे सम्बन्धित आलेख या स्वयं परसाई जी की रचनाएँ वर्ष भर प्रस्तुत करते रहेंगे। इस क्रम को हम पहले ही प्रोफेसर सेवाराम त्रिपाठी के आलेखों की श्रृंखला से आरम्भ कर चुके हैं। आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं  हरिशंकर परसाई का एक व्यंग्य आलेख 'प्रेमचंद के फटे जूते'। इसके साथ हम आलोचक कृष्ण मोहन की एक संक्षिप्त टिप्पणी भी से रहे हैं जो उन्होंने अपनी फेसबुक वाल पर साझा किया था। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं हरिशंकर परसाई का एक व्यंग्य आलेख 'प्रेमचंद के फटे जूते'। अगर किसी को यह लगता है कि हरिशंकर परसाई ने "प्रेमचंद के फटे जूते" नामक रचना में उनकी गरीबी का हवाला दिया है तो उसे यह फिर से पढ़ना चाहिए। इसमें जूते के फटने के कारणों पर परसाई ने काफी गौर किया है लेकिन एक बार भी उनकी गरीबी का संकेत नहीं किया है। फोटो खिंचवाते समय भी पोशाक और छवि का ध्यान न रखने की प्रवृत्ति को जरूर महत्व दिया है, जिसकी प्रासंगिकता आज के छविकेंद्रित युग में स्वयंसिद्ध है। दूसरी बात उन्होंने अपने व्यंग्य प्रेमी स्

भरत प्रसाद की लंबी कविता 'माई की दुनिया'

चित्र
  भरत प्रसाद  मां दुनिया का सबसे प्यारा और न्यारा रिश्ता है। यह स्त्रीत्व को सही मायनों में उसका वास्तविक अर्थ प्रदान करता है। दुनिया का शायद ही कोई कवि होगा जिसने मां पर कविताएं न लिखी हों। मां स्वयं में ही एक महाकाव्य होती है जिससे कविताओं के तमाम सोते फूटते रहते हैं। भरत प्रसाद ने मां पर एक लम्बी कविता लिखी है। आज पहली बार का 12वां स्थापना दिवस भी है। आज के इस महत्त्वपूर्ण दिन पर आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं भरत प्रसाद की कविता 'माई की दुनिया'।              माई की दुनिया (मां के अस्तित्व  को समर्पित)  भरत प्रसाद             एक   मेरे रोवाँ-रोवाँ दर्ज है तुम्हारी मौन ममता की वर्णमाला कौर उठाया हूँ जब-जब टाइम बेटाइम चूल्हे से लड़ता तुम्हारा पसीनाया चेहरा नाच गया है समूचे शरीर में। तुम्हारे लिए कलम उठाते ही समुद्र भर असमर्थता भर उठती है अक्षर किस रौशनी का नाम हैं रोज-रोज डांट-डपट में बरसती तुम्हारी चिंता-फिकिर से जाना। तुम्हारे बगैर एक पल भी न जी पाने की जिद्द अब कहाँ खो गयी? कहाँ विलुप्त हो गयीं ? तुम्हारे सिवा कोई ईश्वर-फिश्वर न मानने वाली आंखें। आखिर मिट क्यों गयी? हर माई मे

अनिल जनविजय की कविताएं

चित्र
  अनिल जनविजय  अनिल जनविजय का जन्म 28 जुलाई 1957 को बरेली, उत्तर प्रदेश में हुआ। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से हिंदी और फिर रूसी भाषा और साहित्य में एम.ए. किया। 1982 में उच्च अध्ययन के लिए सोवियत सरकार की छात्रवृत्ति पाकर मास्को विश्वविद्यालय पहुँचे और फिर 1989 में मास्को स्थित गोर्की लिटरेरी इंस्टीट्यूट से सर्जनात्मक लेखन में एम.ए. किया।  कविता लेखन की शुरुआत 1976 से हुई और जल्द ही पत्रिकाओं में प्रकाशित भी होने लगे। 1982 में ‘कविता नहीं है यह’ काव्य-पुस्तिका और 1990 में ‘माँ, बापू कब आएँगे’ काव्य-संग्रह प्रकाशित हुआ। दूसरा काव्य-संग्रह ‘राम जी भली करें’ 2004 में प्रकाशित हुआ।  उनकी प्रतिष्ठा विदेशी कविताओं के अनुवादक के रूप में भी है। 2003 में येगेनी येव्तुशेंको की कविताओं का अनुवाद 'धूप खिली थी और रिमझिम वर्षा' शीर्षक से और 2004 में इवान बूनिन की कविताओं का अनुवाद 'चमकदार आसमानी आभा' शीर्षक से प्रकाशित हुई। रूसी कवियों के अलावे उन्होंने अफ़्रीकी, कोरियाई, जापानी, चीनी, अरबी, लातिनी अमेरिकी व इतालवी, फ़िलिस्तीनी, उक्राइनी, लातवियाई, लिथुआनियाई, उज़्बेकी, अरमेनियाई कव