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रवीन्द्र कालिया की कहानी 'सिर्फ एक दिन’

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  युवावस्था के दिन अजीब से होते हैं। जहां एक तरफ किसी भी बात को कर गुजरने का अदम्य उत्साह होता है वहीं दूसरी तरफ भविष्य की चिन्ता भी सताती रहती है। कम नौकरियां और उसके लिए ढेर सारा आवेदन, युवाओं को हतोत्साहित करता है। रही सही कसर निकाल देती है भ्रष्ट व्यवस्था जिसमें कुछ लोग अयोग्य होते हुए भी नौकरी पाने के सारे हथकंडे अपनाते हुए अन्ततः उसे पा ही लेते हैं। ऐसे में वे युवा जो सामान्य परिवार से आते हैं, एक हताशा जन्म लेती है। युवावस्था के इस संत्रास को रवीन्द्र कालिया ने अपनी कहानी 'सिर्फ एक दिन’ में बेहतर तरीके से व्यक्त किया है। कहानी पढ़ते हुए जो बोझिल सा माहौल लगता है वह हमारे देश दुनिया का यथार्थ भी तो है। रवीन्द्र कालिया इसे अपनी पहली प्रकाशित कहानी बताते थे। हालांकि उनका मानना था कि ‘नौ साल छोटी पत्नी’ उनके द्वारा लिखी गई पहली साहित्यिक कहानी है। कल 11 नवम्बर को कालिया जी का जन्मदिन था। उनकी स्मृति को हम नमन करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी पहली कहानी। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं  रवीन्द्र कालिया की कहानी 'सिर्फ एक दिन’।                                          

प्रचण्ड प्रवीर की कहानी 'बेताल की शरारत'

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  प्रचण्ड प्रवीर  धार्मिक विश्वास एवम परंपराएं मूलतः आस्था पर आधारित होती हैं। इनका तर्क से कुछ भी लेना देना नहीं होता। विज्ञान का मानना है कि हर घटना के लिए कोई न कोई कारण जिम्मेदार होता है जबकि धर्मभीरू लोग उसके पीछे देवी देवता या भूत प्रेत को जिम्मेदार मानते हैं। प्रचण्ड प्रवीर की कहानी 'बेताल की शरारत' ऐसी ही कहानी है जिसमें खराब खाना बनने के पीछे छठ माता के रुष्ठ होने को माना जाता है। प्रवीर बखूबी कहानी को बरतते हैं और इसके पीछे के वास्तविक कारण को उभरते हैं जो इन मान्यताओं को हास्यास्पद बना देती है। 'कल की बात' शृंखला के अन्तर्गत प्रवीर ने महत्त्वपूर्ण कहानियां लिखी है जिसे ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए।  आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं  प्रचण्ड प्रवीर की कहानी 'बेताल की शरारत'। कल की बात – 262 'बेताल की शरारत' प्रचण्ड प्रवीर कल की बात है। जैसे ही मैंने मौसी के घर मेँ डाला लिए कदम रखा, किसलय ने राहत की साँस लेते हुए कहा, “हो गयी छठ पूजा।" पीछे-पीछे किसलय की बड़ी और मेरी मौसेरी बहन कोमल, उनकी छोटी बहन सुरभि,  किसलय की पत्नी प्रमिला, कोमल और सुरभि के

शिवम चौबे की कविताएं

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  शिवम चौबे  एक कवि इस जीवन और संसार को अपनी अलहदा आंखों से देखता है और अपनी संवेदनाओं के हवाले से कविताओं में दर्ज करता है। कवि की इस स्वानुभूति में समयनुभूति शामिल होती है जिससे उसकी अनुभूतियां सार्वजनिक बन जाती हैं। बोगी' हो 'लेटर बॉक्स' हो या 'स्टेशन' ये महज जगहें नहीं रह जाते, बल्कि जीवन से अनुप्राणित स्थल बन जाते हैं। 'नाम' महज नाम नहीं रह जाता बल्कि ' सुबह के सूरज की तरह उगता है' और ' जीवन के कण-कण में/  उम्मीद सा फैल जाता है'। शिवम चौबे ऐसे ही कवि हैं जिनकी सघन संवेदनाओं से गुजरते हुए हम अपने जीवन के आस पास को अनुभव करने लगते हैं।  'वाचन पुनर्वाचन' शृंखला की यह दसवीं कड़ी है जिसके अन्तर्गत आज शिवम चौबे की कविताएं प्रस्तुत की जा रही हैं। इस शृंखला में अब तक हम प्रज्वल चतुर्वेदी,  पूजा कुमारी, सबिता एकांशी, केतन यादव, प्रियंका यादव, पूर्णिमा साहू, आशुतोष प्रसिद्ध,, हर्षिता त्रिपाठी और  सात्विक श्रीवास्तव  की कविताएं पढ़ चुके हैं। ' वाचन पुनर्वाचन' शृंखला के संयोजक हैं प्रदीप्त प्रीत। कवि बसन्त त्रिपाठी की इस शृंखला को प्