दीपेन्द्र सिवाच का आलेख 'प्रोफ़ेसर की डायरी, तदर्थवाद और प्रसार भारती का प्रोग्राम कैडर'

 

दीपेन्द्र सिवाच 


भारत में बेरोजगारी एक बड़ी समस्या है। इस समस्या से निजात पाने के लिए सरकारें तदर्थ नियुक्तियों का सहारा लिया करती हैं। लेकिन एक समय के बाद जब स्थाई नियुक्तियों का क्रम शुरू होता है वास्तविक खेल तब शुरू होता है। एक लंबे समय तक काम करने वाला व्यक्ति अचानक अयोग्य घोषित कर दिया जाता है। पद पर जिस नए व्यक्ति की नियुक्ति होती है उसकी योग्यता को परखने वाले जिन प्रतिमानों को देखते हैं उन पर सब खरे नहीं उतर सकते। आजकल नियुक्तियों के लिए लम्बे हाथ होने जरूरी हैं। समस्या यह है कि एक आम आदमी लम्बे हाथ कहां से लाए। छांट दिए गए व्यक्ति की मनःस्थिति को कोई संवेदनशील व्यक्ति ही समझ सकता है। डॉ लक्ष्मण यादव के साथ यही हुआ। चौदह वर्ष तक अबाध सेवा देने के बाद लक्ष्मण यादव अयोग्य हो गए। इससे प्रभावित लक्ष्मण ने एक किताब लिखी 'प्रोफेसर की डायरी'। इस किताब ने थोड़े ही समय में बिक्री के अब तक के तमाम प्रतिमान तोड़ दिए। तदर्थवाद का खेल प्रसार भारती में भी खुलेआम चल रहा है। दीपेन्द्र सिवाच ने लम्बे समय तक आकाशवाणी में अपनी सेवाएं दीं हैं और इन समस्याओं को अपनी आंखों के सामने देखा जाना है। वे संस्थाएं जिनकी स्थापना दीर्घकालिक उद्देश्यों को ले कर कभी की गई थीं, वे अब अचानक अपनी प्रासंगिकता खोने लगीं। संस्थाएं समाज के दिल की तरह काम करती हैं। और इनके साथ आज जो बर्ताव हो रहा है वह सुखद नहीं है। इन्हीं मुद्दों को ले कर दीपेन्द्र सिवाच ने एक महत्त्वपूर्ण आलेख लिखा है। इन मुद्दों के आलोक में इस समय की प्रवृत्ति को समझा जा सकता है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं दीपेन्द्र सिवाच का आलेख 'प्रोफ़ेसर की डायरी, तदर्थवाद और प्रसार भारती का प्रोग्राम कैडर'।



'प्रोफ़ेसर की डायरी, तदर्थवाद और प्रसार भारती का प्रोग्राम कैडर'


दीपेन्द्र सिवाच


डॉ लक्ष्मण यादव की किताब 'प्रोफेसर की डायरी' अभी पढ़ कर खत्म की है। यह इस किताब का चौथा संस्करण है। पहली बार किताब 08 फरवरी 2024 को प्रकाशित होती है और 29 फरवरी को इसका चौथा संस्करण आ जाता है। इसके कवर पर नीचे एक कोने में अंकित है 20 दिन में 26 हज़ार+ प्रतियां बिकी। यानी प्रतिदिन एक हज़ार से अधिक प्रतियों की बिक्री। ये एक हैरान कर देने वाला आंकड़ा है।


यूं तो अन्याय और भ्रष्टाचार अब इतना ज्यादा और इतना सामान्य हो गया है कि ऐसी कोई खबर हमें उस तरह से विचलित नहीं करती जितना कि एक इंसान को करना चाहिए। हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं, जब हमारी संवेदनाएं भोथरी हो चुकी हैं। लेकिन अगर इस किताब की लोकप्रियता को कोई पैमाना माना जाए तो ये पुस्तक इस बात की ताईद करती है, नहीं, अभी भी हमारी संवेदना मरी नहीं है। हम अभी भी अन्याय देख कर विचलित भी होते हैं और उसे देखना समझना भी चाहते हैं।


दरअसल डॉ लक्षमण यादव को दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में 14 वर्षों तक एडहॉक अध्यापन करने के बाद नियमित करने के बजाय नौकरी से निकाल दिया जाता है। वे पैर छूने की संस्कृति के बजाय अपनी काबिलियत से नियमित होना चाहते हैं, और बकौल उनके पिछड़े और दलित वर्ग के लिए काबिलियत के आधार पर नौकरी पाना असम्भव नहीं तो बहुत कठिन अवश्य है। उनका एक्टिविज्म भी इसका एक कारक बना। ये किताब उनके 14 वर्षों के अध्यापन के दौरान उनके द्वारा उनकी अपनी डायरी में दर्ज़ किया गया ब्यौरा है। डायरी का पहला पन्ना अगस्त 2010 का है और आखिरी 06 दिसंबर 2023 का। 


उनकी ये पुस्तक दो मुख्य बिंदुओं पर केंद्रित है। एक, दिल्ली विश्विद्यालय में एडहॉक व्यवस्था और दो, नियुक्तियों में वंचित तबकों के लिए आरक्षण रोस्टर। लेकिन इन दो बिंदुओं पर केंद्रित होते हुए भी ये अपने समय और समाज को भी रेखांकित करती है। समकाल उसमें साथ-साथ दर्ज़ होता चलता है।


इन दो केंद्रीय बिंदुओं के इर्द गिर्द वंचित तबके और अन्याय से पीड़ित आम आदमी के दुख-दर्द और संघर्षों की छोटी-छोटी कहानियों के सूक्ष्म ब्यौरे कथ्य को अधिक मार्मिक और सघन बना देते हैं।


बहुत ही सहज और सरल भाषा में बिना किसी अभिव्यंजना के अभिधा में वे अपनी बात कहते हैं। लेकिन विषय इतना गंभीर और ज़रूरी है कि बात सीधे दिल पर चोट करती है। दरअसल ये हमारी या हमारे इर्द गिर्द रहने वाले हर व्यक्ति की व्यथा कथा है।


लेकिन इस किताब की एक सीमा है। बावजूद इसके कि किताब में एडहॉक लोगों के साथ अन्याय और कठिनाइयों की बात वे बखूबी उठाते हैं, इस समस्या के मूल में नहीं जाते और इस पर उतनी गंभीरता या विस्तार से विचार नहीं करते जितनी गंभीर ये समस्या है। या तो वे अपने प्रति अन्याय को शीघ्रातिशीघ्र सबके सामने लाने की उत्कंठा से प्रेरित होंगे या अपने प्रति हुए अन्याय से मिली सहानुभूति का लाभ लेना चाहते हो। वे दिसंबर 23 में नौकरी से निकाले जाते हैं और 8 फरवरी 2024 को किताब का पहला संस्करण आ जाता है। शायद उन्होंने इस किताब को लाने में जल्दबाजी की। एक वजह ये भी हो सकती है कि उनके लिए एडहॉक व्यवस्था से अधिक महत्वपूर्ण पिछड़े और दलित वर्ग की समस्याओं को रेखांकित करना हो।





जो भी हो एडहॉक व्यवस्था पर बात करना भी बहुत ज़रूरी है।


एडहॉक व्यवस्था


एडहॉक व्यवस्था एक पुरानी सरकारी व्यवस्था है। ये व्यवस्था सरकार की लालफीताशाही का नतीजा थी। क्योंकि सरकारी महकमों में स्थाई व्यवस्था करने में पर्याप्त समय लग जाता है। अतः जब तक स्थाई व्यवस्था हो, तब तक तदर्थ नियुक्ति से काम चलाने की व्यवस्था की गई। क्योंकि ये स्थायी नियुक्ति नहीं होती थी, इसकी चयन प्रक्रिया आसान और स्थानीय रखी गई। आगे चल कर इस व्यवस्था का भरपूर दुरुपयोग किया जाना था और इसे भ्रष्टाचार और नौकरी में बैकडोर एंट्री का जरिया भी हो जाना था। तमाम विभागों में ये एडहॉकवाद खूब चला और नाकाबिल लोग भी। ये सभी कुछ साल एडहॉक सर्विस कर न्यायालय का दरवाजा खटखटाते और और स्थाई नियुक्ति पा जाते। कहने को ये कहा जा सकता है कि स्थाई नियुक्ति में भी गड़बड़ियां हो सकती हैं और होती भी हैं। लेकिन एडहॉक व्यवस्था  इन गड़बड़ियों को करने का बहुत ही सरल और आसान रास्ता है। ये प्रक्रिया बैकडोर एंट्री यानी चोर दरवाजे से नौकरी पाने की सुविधा देती है।


यहां याद रखना चाहिए कि 'एडहॉक' एक प्रक्रिया भर नहीं है बल्कि एक मनोवृति है जिसने पूरी प्रसाशनिक व्यवस्था को बुरी तरह जकड़ रखा है। ये एक ऐसी व्यवस्था है जो शोषण को पोषित करती है। जो अंततः संस्था को और व्यक्ति को बर्बाद कर देती है। और ये संस्थाओं को बर्बाद कर रहा है। पहले सबसे आसान और बैकडोर की हिमायती प्रक्रिया एडहॉक के माध्यम से अपनी मनचाही व्यवस्था बना लो और उसके बाद उसे अनंत काल तक चलने दो।





तदर्थवाद और प्रसार भारती का प्रोग्राम कैडर'

इसका एक सबसे बड़ा उदाहरण प्रसार भारती है। इस तदर्थवाद और यथास्थितिवाद ने देश की दो प्रीमियर संचार संस्थाओं आकाशवाणी और दूरदर्शन और विशेष रूप से आकाशवाणी को बर्बादी के कगार पर पहुंचा दिया है। ये इसलिए कि एडहॉकवाद और कैजुअल अप्रोच द्वारा इन संस्थानों के कार्यक्रम निर्माण के लिए उत्तरदाई प्रोग्राम कैडर को बर्बाद किया जा रहा है और कर दिया गया है।


कैसे? आइए समझने का प्रयास करते हैं।


प्राइवेट मीडिया के आने से पहले आकाशवाणी और दूरदर्शन ही संचार माध्यम थे जो देश की 90 फीसद से ज़्यादा आबादी और क्षेत्रफल को आच्छादित करते थे। ये दोनों सरकारी विभाग थे और सरकार के नियंत्रण में थे। विपक्ष का आरोप था कि ये दोनों संस्थान पक्षपात करते हैं। ये विपक्ष को कम स्थान देते हैं और सरकार के भोपू की तरह काम करते हैं। ज़ाहिर है यह आरोप काफी हद तक सही भी था। मांग हुई कि इन संस्थाओं को स्वायत्त किया जाय बीबीसी की तर्ज़ पर। कई आयोगों और कमेटी की सिफारिशों के बाद 1990 में इन संस्थाओं को स्वायत्त बनाने वाला बिल संसद में पास हुआ और सात साल बाद 1997 में 24 नवंबर को प्रसार भारती बोर्ड का गठन हुआ। आकाशवाणी व दूरदर्शन प्रसार भारती को सौंप दिए गए।


बिल के पास होने और प्रसार भारती बोर्ड के गठन में लगभग सात साल का फासला था। लेकिन कमाल की बात ये है कि इतना समय मिलने के बावजूद इसके बोर्ड का गठन जल्दबाजी में किया गया फैसला था जिसे आधी-अधूरी तैयारी के साथ शुरू किया गया था। इसमें आगे के कर्मचारियों की भर्ती, उनकी सेवाओं, पुराने कर्मचारियों की स्थिति, उनके प्रमोशन, सेवा शर्तें आदि के बारे में कुछ भी तय नहीं हुआ था। और कमोवेश आज भी वही स्थिति है। जो भी बने या बाद में बने उनमें इतनी अनिश्चितता और अस्पष्टता थी कि वे आगे चल कर और ज़्यादा स्थिति खराब करने वाले थे।


नए कर्मचारियों की भर्ती के लिए कोई निकाय प्रसार भारती के पास नहीं था। और आज भी नहीं है। लंबे समय तक नियुक्तियां हुई ही नहीं। यूपीएससी ने ये कह कर इनकार कर दिया कि हमारा काम सरकार के विभागों के लिए नियुक्ति करना है, ना कि स्वायत्त संस्था के लिए काम करना। साल 2015 में भर्ती हुईं। ये भर्तियां बहुत ही कैज़ुअल तरीके से हुईं। इसमें इतनी ज़्यादा विसंगतियां थीं। ये भर्तियां एसएससी से करवाई गईं। इसमें प्रसारण निष्पादक की भर्ती तो ठीक है क्योंकि पहले से ही इन की भर्ती यही एजेंसी करती रही थी। लेकिन कार्यक्रम अधिकारियों की जो कि राजपत्रित अधिकारियों होते हैं, नियुक्ति भी इसी एजेंसी ने की। सबसे दयनीय बात ये थी कि इन दोनों पदों की का एक ही भर्ती एक ही एग्जाम द्वारा हुई। बस जो स्नातकोत्तर थे उन्हें पैक्स के लिए अर्ह माना गया, बाकी सब को ट्रैक्स के लिए। हुआ ये कि बहुत सारे अभ्यर्थी जो मेरिट लिस्ट में ऊपर थे वे निचले पद ट्रैक्स में चयनित हुए और जो मेरिट में नीचे थे वे ऊंचे पद पैक्स के लिए चयनित हुए। ये प्रोग्राम कैडर की प्रसार भारती की एकमात्र भर्ती थी। इसमें भी चयनित लगभग एक चौथाई लोगों ने नौकरी छोड़ दी।


इस भर्ती की गंभीरता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि कार्यक्रम अधिकारियों की पोस्ट जो कि राजपत्रित होते थे, डिग्रेड करके अराजपत्रित कर दिया गया। अब प्रसार भारती में दो तरह के कार्यक्रम अधिकारी हो गए। एक वे जो पहले से थे वे राजपत्रित थे। दूसरे वे जिन्हें प्रसार भारती ने चुना, वे अराजपत्रित रह गए। एक ही कैडर या पद पर दो तरह के अधिकारी।


एक और तो नई भर्तियां प्रोग्राम कैडर में नहीं हुई तो दूसरी और लगातार लोग सेवानिवृत होते रहे। इससे कई तरह की विसंगतियां पैदा हुईं।


एक, प्रोग्राम कैडर में लोगों की भारी कमी हो गई। जो लोग बचे उन पर काम का बोझ बहुत अधिक बढ़ गया। स्वाभाविक था कार्यक्रम की गुणवत्ता प्रभावित हुई।


दो, संस्थान का मूलभूत स्वरूप ही बदल गया। बीबीसी की तर्ज़ पर बनाया गया प्रसार भारती उसके एकदम उलट गया। बीबीसी में कुल मैन पॉवर का 80 फीसद कार्यक्रम के लोगों का है और 20 फीसद में बाकी सब लोग। यहां कार्यक्रम के लोग 20 फीसद भी नहीं बचे। देश भर में 400 से भी ज़्यादा केंद्रों पर कुल मिला कर लगभग दो हज़ार भी कार्यक्रम कैडर के लोग नहीं हैं।

 

कमाल की बात ये है कि प्रसार भारती ने करोड़ों रुपए खर्च करके एक प्राइवेट कंपनी शायद अर्नेस्ट यंग से प्रसार भारती में मैन पावर ऑडिट कराया। पर इतना खर्च करने के बाद भी आज तक उस रिपोर्ट को लागू करना तो दूर, उसे पब्लिश तक नहीं किया गया। ये तदर्थवाद का एक और उदाहरण है।


दूसरी और कार्यक्रम कैडर में ना के बराबर हुई भर्ती होने के कारण बहुत सारे पद रिक्त पड़े रह गए और अंततः उनको खत्म कर दिया गया या दूसरे कैडर की भेंट चढ़ा दिया गया।


एक बात ये भी कि प्रसारण के घंटे बढ़ाए जा रहे हैं। उसके लिए और ज्यादा कार्यक्रमों के निर्माण की जरूरत है। दूसरी ओर प्रोग्राम कैडर में लोग लगातार कम हो रहे हैं। इसका सीधा प्रभाव ये हुआ कि जो बचे लोग थे उन पर काम का अतिरिक्त बोझ पड़ा। ये बोझ थोड़ा नहीं बहुत अधिक था। इससे कार्यक्रमों की गुणवत्ता पर फ़र्क पड़ना स्वाभाविक था।


प्रोग्राम कैडर का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है कि पहले आकाशवाणी का महानिदेशक प्रोग्राम कैडर का ही होता था। आज की तारीख में प्रोग्राम का कोई भी व्यक्ति उप निदेशक से ऊपर के पद पर नहीं है। वे भी गिनती के बीसेक। इसका कारण ये है कि कार्यक्रम के अधिकारियों के प्रमोशन किए ही नहीं गए या उसमें इतने अड़ंगे लगा दिए गए कि वे हुए ही नहीं। इससे पैंतीस साल की नौकरी वाले लोग बिना किसी प्रमोशन या एक प्रमोशन के साथ रिटायर होते गए। ऊपर के पदों पर वे जा ही नहीं पाए। कमाल की बात ये कि जो प्रमोशन भी हुए वे रेगुलर नहीं होते बल्कि एडहॉक होते हैं और उसी से सेवानिवृत होते जाते हैं। यहां उल्लेखनीय ये है कि बाकी कैडर में नियमित रूप से प्रमोशन होते रहे और वो भी रेगुलर ना कि एडहॉक।


प्रोग्राम कैडर के लोगों का प्रमोशन ना होने का परिणाम ये हुआ कि कार्यक्रम कैडर के इन ऊपर के सभी पदों पर या तो अभियांत्रिकी कैडर के लोग आ गए या फिर बाहर से प्रतिनियुक्ति पर आए लोग बैठा दिए गए। मजे की बात ये है कि निर्णय लेने वाले इन महत्वपूर्ण पदों पर प्रतिनियुक्ति या अभियांत्रिकी कैडर के लोगों की कार्यक्रमों की अंतर्दृष्टि निश्चित रूप से निश्चित रूप से प्रश्नचिह्न लगा रहता है। 


इससे दो तरह की समस्या हुईं। एक, या तो ये अधिकारियों कार्यक्रम की तरफ से उदासीन रहे। इससे कार्यक्रम के मसले उपेक्षित होते गए। दो, या उनका गैर जरूरी हस्तक्षेप हुआ। इससे एक ओर प्रोग्राम कैडर के लोगों को अपनी साख और अधिकार बचाने के लिए अतिरिक्त ऊर्जा खर्च करनी पड़ी, दूसरी ओर कार्यक्रम और उसके मसले उपेक्षित होते गए। इसका असर स्वाभाविक रूप से कार्यक्रमों की गुणवत्ता पर पड़ना था।


आखिर ये प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर प्रोग्राम कैडर में मैन पावर की कमी को कैसे पूरा किया जा रहा है।


दरअसल इसके लिए भी बहुत ही कैजुअल तरीका प्रयुक्त किया जा रहा है। ये कमी कैजुअल मैन पावर के द्वारा पूरी की जा रही है। ये भी एक तरह का एडहॉकवाद का ही एक रूप है। जो कैजुएल्स का पैनल बनता है,उसमें युवाओं के लिए जीवन यापन की बड़ी संभावना नहीं बनती है। उनकी महीने में अधिकतम छ बुकिंग हो सकती है। और कम से कम सालों साल कोई बुकिंग नहीं। आप एक तरफ नए लोगों को ट्रेंड करने में अपने रिसोर्सेज को खर्चते हैं और वो बेहतर अवसर पाते ही दूसरी जगह चला जाता है। इतना खर्च करने और मेहनत करने के बाद टैलेंट बाहर चला गया। कैजुअल में बहुत सारा ऐसा टैलेंट होता है जिसे अगर बेहतर अवसर प्रसार भारती में मिले तो वे बहुत अच्छा कर सकते हैं और प्रोग्राम कैडर को बेहतरीन बनाया जा सकता है। लेकिन जब बोर्ड का पूर्णकालिक प्रोग्रामर के प्रति ही रवैया कैजुअल हो तो कैजुअल मैनपावर की कौन कहे।


प्रसार भारती के एडहॉकवाद का एक बड़ा उदाहरण ये है कि वो एक निश्चित निर्णय अभी तक नहीं ले पाया है। और प्रोग्राम कैडर की ये सबसे बड़ी दुविधा हो गई है। ये चयन प्रसार भारती को ' पब्लिक ब्रॉडकास्टर' बनाए रखने और 'कमाऊ संस्था' बनाने के बीच का चयन है। एक तरफ वे इस पर से पब्लिक ब्रॉडकास्टर होने का ठप्पा भी नहीं हटाना चाहते हैं और दूसरी और उससे कमाई भी करना चाहते हैं। एक तरफ वे सरकार का भोंपू भी बने रहते हैं और दूसरी तरफ अपने को स्वायत्त संस्था का लेबल भी देना चाहते हैं। एक तरफ प्रोग्राम कैडर को साठ सत्तर साल पुराने पब्लिक ब्रॉडकास्टर वाले एआईआर मैनुअल से बांधने रखा गया है, तो दूसरी ओर उनके लिए साल दर साल राजस्व अर्जन के बड़े बड़े लक्ष्य तय किए जा रहे हैं। प्रोग्राम कैडर है कि उसे समझ ही नहीं आता वो पब्लिक कल्याण के लिए कार्यक्रम करे या राजस्व अर्जन के लिए।


बोर्ड की कैजुअल और एडहॉक दृष्टि और विचारों की विसंगति का सबसे अच्छा उदाहरण उसकी नवनिर्मित क्लस्टर व्यवस्था है। एक तरफ सब कुछ केंद्रीकृत किया जा रहा है। स्थानीय महत्व के निर्णय तक अब केंद्र स्तर पर निदेशालय या प्रसार भारती बोर्ड/सचिवालय को दे दिए गए हैं। कार्यक्रम को स्थानीय स्तर से खत्म करके राज्य स्तर पर और केंद्र स्तर पर करने का प्रयास किया जा रहा है। इसकी शुरुआत मध्य प्रदेश से हुई। जहां स्थानीय केंद्रों के कार्यक्रम चंक खत्म करके मध्य प्रदेश रेडियो के नाम से राज्य स्तरीय कार्यक्रम शुरू किया गया। स्वाभाविक है इससे स्थानीय प्रतिभाओं के अवसर कम हुए। ऐसा हर जगह होने की योजना थी, लेकिन हो हल्ला हो जाने के कारण योजना खटाई में पड़ गई। दूसरी तरफ दो चार केंद्रों को मिला कर एक क्लस्टर व्यवस्था की गई है। यानी हर राज्य में अब कई क्लस्टर ऑफिस भी काम करने लगे हैं। कहा ये गया कि इससे निर्णय लेने की शक्ति को विकेंद्रित किया जा रहा है। लेकिन हुआ उलटा। केंद्रों  के अधिकार क्लस्टर को सौंप दिए गए। निर्णयों में अनावश्यक देरी होने लग गई लालफीताशाही चरम पर पहुंच गई।


कुल मिला कर प्रसार भारती में प्रोग्राम कैडर बहुत दयनीय स्थिति में है। प्रसार भारती बोर्ड और उसके नियंताओं के एडहॉक़िज़्म ने उसे रसातल में पहुंचा दिया है। प्रोग्राम कैडर अपनी अस्वाभाविक मौत मर रहा है। इसे तत्काल प्राणवायु पहुंचाने की नितान्त आवश्यकता है। जान लीजिए प्रोग्राम कैडर की मृत्यु दरअसल देश के दो प्रीमियर संचार संस्थानों की मौत भी है। क्योंकि इनकी प्राणवायु कार्यक्रम और गुणवत्ता वाले कार्यक्रम ही है। और प्रोग्राम कैडर के बीमार होने का मतलब इन संस्थानों का बीमार होना और कैडर की मृत्यु इन संस्थानों की मृत्यु है।



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मोबाइल : 9935616945

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