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जुलाई, 2023 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

शंभुनाथ का आलेख 'प्रेमचंद : भूलने से पहले'

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  प्रेमचंद का नाम आते ही हिन्दी साहित्य का एक नया पन्ना खुल जाता है। प्रेमचंद ने हिन्दी साहित्य को उसकी वह अर्थवत्ता प्रदान की, जो सीधे उसे किसानों और मजदूरों से जोड़ती थी। यह वह वर्ग था जो आर्थिक तौर पर महत्त्वपूर्ण होते हुए भी राजनीतिक तौर पर उपेक्षित था। हिन्दी साहित्य भी उसी राजनीतिक ढर्रे पर चल रहा था। लेकिन प्रेमचंद ने पुरानी परंपरा को तोड़ा और वह लकीर खींच दी जो हिन्दी के साहित्यकारों के लिए आधारभूमि बन गई। शंभूनाथ जी ने  प्रेमचंद जयंती के अवसर पर ही  ’वागर्थ’ के  जुलाई-2023 अंक का  संपादकीय लिखा है। आज प्रेमचंद की स्मृति को नमन करते हुए हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं शंभूनाथ का आलेख 'प्रेमचंद : भूलने से पहले'। 'प्रेमचंद : भूलने से पहले' शंभुनाथ हमारा समय प्रेमचंद को भूलने के दौर में है। 1960-70 के दशक में आधुनिकतावादी उभार के समय प्रेमचंद को बैलगाड़ी के जमाने का कथाकार कहा जा रहा था। वे सामान्यतः याद नहीं किए जाते, क्योंकि लोगों की चेतना पर प्राचीन-नए दबाव बढ़ गए हैं। बहुत कौशल से अंधेरे में समा चुकी चीजों पर उजाला चढ़ाया जा रहा है और पहले जो उजाले में था, उसे

भुवनेश्वर की प्रख्यात कहानी 'भेड़िये'

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  भुवनेश्वर हिन्दी साहित्य में भुवनेश्वर (1910-1957) नाम के उम्दा कहानीकार हुए हैं। उनका पूरा नाम भुवनेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव था।  हालांकि उन्हें छोटा जीवन मिला लेकिन इसी अल्पावधि में उन्होंने कई उम्दा रचनाएँ हिन्दी साहित्य को प्रदान कीं। वे लीक से अलग हट कर लिखने वाले ऐसे लेखक थे जिन्हें उनकी रचनाओं के जरिए ही आसानी से पहचाना जा सकता है। उनकी कहानियां मध्य वर्ग के जीवन के कटु यथार्थ को सामने रखती हैं। प्रख्यात  कथाकार मुंशी प्रेमचंद भुवनेश्वर की कहानियों के खासे प्रशंसक थे और अपनी पत्रिका 'हंस' में भुवनेश्वर को नियमित रूप से प्रकाशित करते रहते थे। वह प्रलेस के प्रथम सम्मेलन म़े भी आमंत्रित थे। भुवनेश्वर को नयी कहानी का प्रणेता भी माना गया। उनकी एक चर्चित और मानीखेज कहानी है 'भेड़िए'। यह कहानी हँस के अप्रैल 1938 में प्रकाशित हुई थी। अगर हम अपने समय, समाज और परिप्रेक्ष्य को देखें तो यह कहानी आज भी प्रासंगिक लगती है। कैसे भेड़िए हर जगह आज भी घात लगाए बैठे हैं और लगातार आम आदमी का शातिर तरीके से पीछा कर रहे हैं। हम पहली बार फोन पर कालजयी कहानियों की एक श्रृंखला लगातार प्रस

ज्योतिष जोशी द्वारा लिखा गया आलेख 'यथार्थ से टकराती कविता का लोक'

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  भरत प्रसाद  काव्य कर्म ऊपर से जितना आसान दिखता है उतना ही आंतरिक तौर पर कठिन कर्म है। कवि उस पीड़ा को मानसिक स्तर पर झेलता है जो उसे सामान्यतया स्वीकार्य नहीं होता। इसी क्रम में वह प्रतिरोध की भाषा गढ़ता है और उसे शब्दों में ढालता है। भरत प्रसाद हमारे समय के ऐसे ही कवि हैं जिनमें प्रतिरोधी चेतना सहज ही देखी जा सकती है। प्रसिद्ध आलोचक, कथाकार, कला-मर्मी ज्योतिष जोशी समकालीन परिदृश्य में अपनी दृष्टि की निरंतरता के लिए जाने जाते हैं। इन्होंने भरत प्रसाद के कवि कर्म की एक सुचिन्तित पड़ताल की है। बकौल ज्योतिष जोशी - 'भरत प्रसाद के तीन कविता संग्रह प्रकाशित है- ‘एक पेड़ की आत्मकथा, ‘बूँद-बूँद रोती नदी’ और 'पुकारता हूँ कबीर'। इन तीनों ही संग्रहों में भरत प्रसाद का कवि प्रतिरोध की अपनी जमीन पर खड़ा है और जनधर्मी सरोकारों से आबद्ध है।' आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं ज्योतिष जोशी द्वारा लिखा गया आलेख 'यथार्थ से टकराती कविता का लोक'।                                                                                                                                यथार्थ से टकर