श्रीकान्त दुबे की कहानी 'गमलबानी'

 

श्रीकान्त दुबे 


जीवन ऊपर से जितना खूबसूरत और आसान दिखाई पड़ता है, उतना आसान होता नहीं। इसे बनाने और बचाने की जद्दोजहद अत्यन्त मारक होती है। खासतौर पर महानगरों में छोटी मोटी नौकरियां कर घर परिवार चलाने की जद्दोजहद रोंगटे खड़े कर देने वाली होती है। एक सामान्य व्यक्ति किस तरह खुद को इस संघर्ष के हवाले कर जूझता रहता है इसकी एक बानगी है श्रीकान्त दुबे की कहानी 'गमलबानी'। श्रीकान्त हमारे समय के सुपरिचित कथाकारों में से हैं। हालांकि यह कहानी उन्होंने एक अन्तराल के बाद लिखी है। समय को अपनी सूक्ष्म दृष्टि से पड़ताल करने की उनकी विशिष्टता उन्हें और रचनाकारों से अलग खड़ा कर देती है। इस कहानी को हमने कथादेश के जून 2023 अंक से साभार लिया है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं श्रीकान्त दुबे की कहानी 'गमलबानी'।



'गमलबानी'


श्रीकान्त दुबे


सुख की गठरी की तरह आए थे छुट्टी के तीन दिन।


आज दूसरे दिन पत्‍नी कूलर से पानी काछ कर बाहर निकाल रही है। बीते कई साल से नगर पालिका की धमकी भरी एडवाइजरी घूमती रही थी कि यदि किसी के कूलर आदि के पानी में मच्‍छरों के लार्वा मिले, तो उसका चालान होगा। हालांकि पानी काछने की वजह कोई और ही चीज बनी। कूलर बीती रात चलते-चलते अचानक भड़क कर आगबबूला हो गया और अंदर सोये हुए हमारे कानों में तेज आवाज़ और नाकों में जलने की गंध एक साथ पहुंचे। जब तक हम उठ कर स्विच बंद करते, तब तक उसका काम तमाम हो चुका था।


कूलर बहुत महंगा था। इतना महंगा कि उसे ठीक कराने के लिए मिस्‍त्री को बुलाने पर वह उसे ठीक करने के नाम पर बहुत ज्यादा मेहनताना मांग डाला। इतना ज्‍यादा कि महीने का बजट गड़बड़ा जाए। बोला कि मोटर जल गया है, और नए मोटर की कीमत ही अठारह सौ रूपए है।


यूँ उपयोगिता के लिहाज़ से देखें तो मोटर के बिना कूलर अब कबाड़ ही है। लेकिन कबाड़ की भी उपयोगिता होती ही है। तभी तो उसके भी खरीदार हैं। बतौर कबाड़ कूलर से मिल सकने वाली कीमत की बाबत जानने की उत्‍सुकतावश मैंने मिस्‍त्री से किसी कबाड़ी के बारे में बताने को कहा, तो वह खुद ही कबाड़ी की भूमिका में आ कर बोला कि तीन सौ से ज्‍यादा कोई न देगा, पचास फालतू ले कर मुझे ही दे दो। जिस चीज के ‘तीन सौ से ज्‍यादा कोई न देगा’ उसके लिए मिस्‍त्री द्वारा साढ़े तीन सौ की पेशकश किए जाने से ही मेरे दिमाग ने ताड़ लिया कि बतौर कबाड़ भी मेरा कूलर ठीक-ठाक साथ दे कर जाएगा। इस तरह कूलर मुझे ‘अपने’ कहे जाने वाले उन अनेक  रिश्‍तेदारों से कहीं ज्‍यादा अपना लगा जो मध्‍य एशियाई देशों में कमाने जाने के लिए अंतर्राष्‍ट्रीय उड़ान भरने दिल्‍ली आते हैं और कभी ‘फ्लाईट मिस हो गई’ तो कभी ‘वीसा मिलने वाला है’ के कारणों या बहानों से हफ्तों तक यहीं रुक कर रोटी दाल तोड़ने के बाद वापस गांव जा कर हमारे घर पर निवास के सारांश के तौर पर सबसे यही बताते फिरते हैं कि बाकी सब तो ठीक था लेकिन बहू सबेरे बहुत देर से उठती है। गांव वाले भी ऐसी बातों को इतना हैरतज़दा हो सुनते हैं जैसे कोई भैंस पीपल के पेड़ पर चढ़ गई हो। यह प्रसंग इसलिए भी, कि ऐसा कुछ हाल-फिलहाल ही हुआ है, जो बार-बार पत्‍नी को याद आ जाता है और इसलिए उतनी ही बार मुझे भी जिसकी याद दिला दी जाती है। बहरहाल, कूलर। तो मन ही मन तय हुआ कि बाजार में टहल कर खुद ही कबाड़ी या पुराना लोहा खरीदने वाला खोजूंगा और पैसे के इतने अंतर पर तो बेच ही दूंगा कि हफ्ते भर की तरकारी का खर्चा हाथ आ जाए। बची गर्मियां पंखे के सहारे कट जाएंगी। वैसे भी बरसात की गर्मी में कूलर बेअसर हो जाता है।


लेकिन इतनी सुबह बाज़ार जाने का कोई फायदा नहीं है। दुकानें नहीं खुली होंगी। दुकानें भी इस वक्‍त तक खुल जातीं, लेकिन दुकानदारों का पुख्‍ता यकीन होगा कि अभी दुकान खोल कर बैठने का क्‍या फायदा, इतनी सुबह ग्राहक ही नहीं आएंगे। मतलब यदि ग्राहक इतनी सुबह सौदे की फिराक में बाजार जाते, तो दुकानें जरूर खुलतीं। मांग और आपूर्ति का सिद्धांत के चलते। लेकिन दुकानें खुली होने से ग्राहक इतनी सुबह बाजार जाते, इसमें संदेह है। संदेह क्‍या, पक्‍की बात है कि नहीं जाते, जब तक कि उन्‍हें कोई लुभावना ऑफर न मिले या उल्‍लेखनीय बचत न हो। उदाहरण के तौर पर तड़के सुबह जमने वाली फल-सब्जियों की मंडी में आस-पास के मुहल्‍लों में रहने वाले जाते ही हैं और भारी बचत करके लौटते हैं। और तो और, हमारे पड़ोस के मुहल्‍ले यानी सफदरजंग एन्‍क्‍लेव, जहां के निवासी हमारे मुहल्‍ले यानी हुमायूंपुर को पॉश दिल्‍ली की झोपरपट्टी कहते हैं, के सुविधासंपन्‍न लोग भी ताजी और सस्‍ती सब्जियों के लालच में तड़के सुबह रिलायंस फ्रेश स्‍टोर पहुंच जाते हैं।


कुछ ही रोज पहले पत्‍नी ने बताया था कि पश्चिमी दिल्‍ली में केशोपुर मंडी के पास हफ्ते में दो दिन सुबह-सुबह सेकेंड हैंड चीजों का एक बाज़ार लगता है। वहां पहने हुए जूते और कपड़ों के अलावा पुराने मोबाइल फोन, उनके चार्जर, म्‍यूजिक सिस्‍टम, पंखे आदि तक बहुत कम पैसों में मिल जाते हैं। वह उसी दिन भोर में विकासपुरी में रहने वाली अपनी मौसी के घर से लौटते हुए बस में बैठी और केशोपुर से गुज़रते हुए वह बाज़ार देख कर वहीं उतर गई और मौसी के घर से विदाई में मिली नोट का इस्‍तेमाल कर वहां से कई सारे कपड़े उठा लाई। कुछ कपड़े तो ठंड वाले भी थे। इस घनी गर्मी में ठंड के लिए मोटे कपड़े देख कर ही घुटन होने लगती थी मुझे, पर ठंड में शायद इनसे सुख हो, यह सोच कर मैंने कोई चिक-चिक नही किया और चुप रह गया।


उस दिन अचानक छ:- सात नए कपड़ों की आमद के बाद से ही कमरे में अलग सी अराजकता आन पड़ी। अटैची में इन (पुराने) नए कपड़ों को सहेजने के क्रम में अटैची में पड़े और गर्मियों में पहने जा सकने की संभावना वाले अनेक कपड़ों को बाहर निकल जाना पड़ा। पांडेय वस्‍त्रालय लिखे हुए कपड़े के झोले में जितने कपड़े आ सकते थे, उनके अलावा भी कुछ थे जो लोहे के खोखले पाये और उसके ऊपर रखे सनमाइका लगे प्‍लाई बोर्ड वाले समायोजन, जिसे हम मेज कहते, पर रखे रहते थे। इसके अलावा घर से दफ्तर तक अंदर और बाहर पहने जाने वाले कपड़े भी थे जिन्‍हें कमरे भर में कीले ठोंक-ठोंक कर यत्र-तत्र जगह दी गई थी। (पुराने) नए कपड़ों की आमद के बाद दो और कीलें भी ठोकी थीं, लेकिन फिर वे भी कम पड़ गईं। हैंगर की अनुपस्थिति में कमरे भर में कीलें ठोंक-ठोंक कर कपड़े टांगते हुए गत्‍ते में पॉलीथीन में रखी सारी कीलें खतम हो गई।


मु्झे पता था कि कपड़े टांगने के लिए कीलों का यह अकाल पत्‍नी की उस नई आदत के चलते आया है जिसमें उसने भी अपने सूट आदि पहनने के बाद मोड़ कर रखने की बजाय खूँटी पर टांगना शुरू कर दिया है। चूंकि मैं अपने कपड़ों के मामले में सदा से ऐसा करता आया हूँ, इसलिए यदि ऐसा करना गलत भी हो, तो पत्‍नी की तुलना में कहीं ज्‍यादा बड़ा गुनहगार मैं खुद हुआ। इसलिए चुपचाप मैं समाधान पर विचार करने लगा। समाधान एक कोने पर सटती दो दीवारों पर कीलें ठोंक कर उनके बीच एक रस्सी की अलगनी बाँध देना था। जिसके लिए एक और कील की जरूरत थी। पहले से लगी कीलें निकालने पर हर बार एक टुकड़ा पलस्‍तर बाहर आ जाता था। ऐसा और होने पर कमरा खाली करते वक्‍त मकान मालिक सिक्‍युरिटी डिपॉजिट से कई सैकड़े की राशि इस नुकसान के मद में काट लेता। इसलिए एक कील खरीदने के लिए पास की गली के हार्डवेयर की दुकान पर पहुँचा। हार्डवेयर की दुकान पर पहुँच कर सीधे पांच रूपए की कीलें मांग लिया। पांच रूपए की कीलें मांगने की भी दो वजहें थी। एक तो यह, कि दुकान पर एक कील मांगने पर दुकानदार मुझे एक कील दे कर कमाए जाने वाले लाभ के नगण्‍य होने की गणना कर तथा यूं मुझे एक कील दे देने को व्‍यवसाय के बदले भलाई का एक काम मात्र मान उस वक्‍त ऐसा कोई काम करने के बदले अन्‍य ग्राहकों को सामान दे कर प्रचुर मुनाफा कमाने के मूड में हो और मुझे ‘नहीं है’ कह कर या फिर सिर हिलाने भर के इनकार से चलता कर दे। पॉश दिल्‍ली के खुदरा दुकानदार भी कम से कम इतने सिर चढ़े तो होते ही हैं कि एक बार यदि इनकार कर दिया, तो चाहे जो भी हो जाय, पलटते नहीं हैं। यहां घूम-घूम कर रहने के लिए कमरे ढूंढते हुए अकसर ऐसा देखने को मिलता है। एक बार तो यहीं के एक दुकानदार से कमरे के बारे में पूछ बैठा था और दुकानदार ने काठ की सी सख्‍ती के साथ ‘नहीं है’ कह दिया। फिर तुरंत ही भीतर से उसकी मां की आवाज़ आई, कि ‘सैकेंड फ्लोर वाला वन रूम सेट खाली तो हो रहा है, कर ले बात।’ मैं कुछ देर तक उम्‍मीदवार खड़ा रहा, फिर अतिरिक्‍त विनम्रता की चादर ओढ़ कर उससे दुबारा पूछा, लेकिन वह नहीं पलटा तो नहीं ही पलटा। दूसरी वजह यह, कि यदि दुकानदार, चमत्‍कारिक तरीके से ही सही, एक कील देने को राजी भी हो जाता, तो उस स्थिति में उस कील कीमत क्‍या लगाता? अठन्‍नी और चवन्‍नी के प्रचलन से बाहर होने के समय में कम से कम एक रुपया तो देना ही पड़ता। ऐसे में पाँच रूपए में कम से कम बारह-पंद्रह कीलें मिल जाना फायदे का सौदा था। वैसे भी जीवन में कील कांटों की प्रासंगिकता इन दिनों इतनी बढ़ गई है कि कमरे की फर्श के चीजों और चिरकुटों से भर जाने के बाद अब दीवारों पर ही संभावना है, जहाँ किसी भी चीज को नागरिकता पाने के लिए सिर्फ एक कील की जरूरत होती है।





दुकानदार ने अपने सहायक लड़के को पाँच रूपए की कीलें देने को कह दिया तथा लड़का भी शेष ग्राहकों के सौदों की कीमतों के क्रम में लोगों को सामान देता गया। यूँ, सबसे बाद में मेरा नंबर आने वाला था। इस दौरान मेरी नजर यूँ ही दुकानदार के सामने लगे एलईडी स्‍क्रीन पर चली गई। स्‍क्रीन चार वर्गाकार खानों में बँटा था तथा हरेक खाने में दुकान के विभिन्‍न हिस्‍सों के ऊपर लगे क्‍लोज्‍ड सर्किट कैमरे को दिखने वाली लाइव तस्‍वीरें दिखाई देती थीं। दुकान के काउंटर तथा सामने खड़े ग्राहकों की तस्‍वीरें सबसे नीचे वाले कोने में दिखती थीं जिनमें दुकानदार समेत ग्राहकों के सिर ही स्‍क्रीन पर दिखाई दे रहे थे। लेकिन कैमरे का फोकस जिस पर सबसे ज्‍यादा पड़ता था वह काफी हद तक खल्‍वाट था। बालों की बाहरी सीमारेखा यानी हेयरलाइन के मुकम्‍मल होने के बावजूद अंदर के क्षेत्र की सतह पर बालों की तादात उतनी ही रह गई थी जितनी मटर और सरसो के संयुक्‍त खेत से मटर के पौधे निकाल दिए जाने के बाद सरसो के पौधों की बचती है। ऊपर और पीछे की सतहों के मिलान बिंदु वाले हिस्‍से पर न मटर बचे थे न ही सरसो और वहाँ पूनम के पूरे चांद जैसा एक वृत्‍त दिखाई दे रहा था। मैं स्‍क्रीन से नज़र हटा अपने आस-पास के ग्राहकों में किसी ऐसे सिर वाले व्‍यक्ति को ढूंढने लगा, जो नहीं दिखाई दिया। विवश हो कर यह मान लेना पड़ा कि खल्‍वाट सिर वाला शख्‍स खुद मैं ही हूँ। सहसा मेरी पैंट की जेब से छोटी कंघी निकल आने पर हर बार ही पत्‍नी के हंस पड़ने का सबब मुझे याद आया और लगा कि उसका हंसना जायज है। इसी उम्र में केशहीन हो जाने का दुख बाल्‍टी में लटकते तौलिए में नमीं की तरह मेरे भीतर फैलता गया। उस दु:ख से उपजा अनमनापन मुझे एक नीम बेखुदी में पहुंचा दिया और दुकान के सहायक लड़के द्वारा मुझे कीलें देना और उन्‍हें ला कर दीवारों में ठोंक कर अलगनी बांध उन पर कपड़े टांग देने के सारे काम मैं मानो पलक झपकने भर के समय में पूरा कर लिया।



मोड़ कर कोने में रखी गुदड़ी वाली चारपाई पर लेटे हुए मेरे दिमाग में कमरे के बाहर पसरी लंबी छत, जिस पर गिरने वाली सूरज की समूची रौशनी मानो परावर्तित हो कर मेरे कमरे में ही आती और गर्मी बरसाती रहती, पर रखे गमलों को देखने का विचार आया। लेकिन चारपाई पर लेटे रहने का जड़त्‍व हावी था और मैं कुछ देर बाद उधर जाने का निर्णय कर लेटा ही रह गया। कुछ सोचते हुए।


एक रोज की बात है, दफ्तर से आने के बाद मैं टीवी पर न्‍यूज चैनल लगा विज्ञापन रूपी समाचारों के बाद समाचारों के बीच ठसाठस भरे विज्ञापन देखते हुए बैठा हुआ था। पत्‍नी ने ताड़ लिया था कि फुरसत में हूँ, सो साबुत प्‍याज और टमाटर समेत एक थाली चाकू के साथ सामने रख गई। अचानक से मुझे पिछली शाम सब्जियां खरीदते समय ठेले वाले से हुआ वह तीखा संवाद याद आ गया, जो उससे कुछ हरी मिर्चें मांगने पर शुरू हो गया था। ‘पैसे क्या पेड़ पर उगते हैं’ की तर्ज़ पर उसने सबसे पहले यह पूछा कि, ‘मिर्चें क्या पेड़ पर उगती हैं?’ मैंने उसके कहे को दुरुस्त करते हुए ज़वाब दिया, ‘पेड़ पर तो नहीं, लेकिन पौधों पर ज़रूर उगती हैं’। उसने अपरिमित हिकारत से भर कर मेरी तरफ देखा और बोला, ‘टमाटर भी रख दो और आगे बढ़ो... जाने कहाँ से आ जाते हैं... कंजर...’ मैंने अपनी इन दिनों की आदत बतौर उसे उपभोक्ता कानून का छोटा सा पाठ पढ़ाने की जुगत करने की बजाय अपनी न बची इज्ज़त को बचा कर आगे बढ़ लेना श्रेयष्कर समझा और दूसरी दूकान से टमाटर खरीद घर लौट आया। लेकिन सब्जी वाले से हुए उस संवाद ने वहां से मेरे कमरे तक के डेढ़ किलोमीटर के पैदल सफ़र के दौरान मेरे अन्दर इतना मंथन किया कि मैं अपनी ज़रुरत भर की हरी मिर्चें खुद अपने कमरे पर उगाने को लेकर दृढ़प्रतिज्ञ हो चुका था। दशकों पहले गांव में पिता के सहयोगी के रूप में किए खेती किसानी के काम की याद ने इस निमित्‍त मेरे भीतर आत्‍मविश्‍वास जगाया। हरी मिर्च, टमाटर, भिंडी और पालक आदि जैसी सब्जियां उगाना तो दूर, धान रोपने, हाथा मार कर गेंहूं सींचने और गन्‍ने तथा बंडे के ऊंचे-ऊंचे मेढ़े बनाने जैसे तकनीकी काम का भी अनुभव जज्‍ब था मेरे भीतर। यह और बात थी कि जरूरत पड़ने पर अब शायद ही इन सब में से कुछ भी कर पाऊं।


दिमाग में तो गमले में तैयार होने वाली हरी मिर्च से लेकर टमाटर, बैंगन और भिंडी जैसी कितनी ही सब्जियों के चित्र उग आए थे, लेकिन पायलट परियोजना के तौर पर फिलहाल हरी मिर्चें लगाने का निर्णय किया। आर. के. पुरम के चर्च रोड के कोने वाली नर्सरी में गमले का भाव पूछा, तो उसने सबसे छोटे गमले की कीमत सत्‍तर रुपए बताई और मिट्टी डालने के तीस रुपए अलग से। वह मिट्टी के पैसे अलग से न मांग कर अगर मिट्टी समेत गमले की कीमत सीधे सौ रुपए मांग लेता, तो शायद मुझे दिक्‍कत न होती। लेकिन मिट्टी भी पैसे दे कर खरीदने की बात ने मुझे झटका दिया और मैं लौट आया। किचन के डिब्‍बों में से पांच किलो के सरसो के तेल वाला डिब्‍बा खाली किया और गैस के बर्नर पर चाकू गर्म कर डिब्‍बे की अनुप्रस्‍थ काट संपन्‍न करते हुए गमले का वैकल्पिक प्रबंध यानी एक तदर्थ गमला तैयार किया। लेकिन सबसे बड़ी चुनौती इसके आगे थी। ‘मिट्टी कहां से लाऊं’ की चुनौती।


मेरी रहनवारी के कमरे के सामने की पूरी छत कंक्रीट की बनी थी। नीचे के तीन तलों वाला पूरा भवन रेत, सीमेंट, ईंटों और टाइल्‍स आदि से निर्मित था। घर से निकलते ही सामने तथा आस-पास दिखने वाले सारे भवन ऐसे ही और उनके बीच से निकलती घुटती सड़क भी कंक्रीट और सीमेंट की। वह सड़क जिस चौड़ी सड़क से जा कर मिले, वह भी तारकोल, गिट्टी आदि की और फिर उससे आगे की और सड़कें भी। आस-पास वनस्‍पतियों के नाम पर जो पेड़ दिखें, उनके चारो ओर भी कंक्रीट के ही चबूतरे बने थे और उनके भीतर जो मिट्टी दबी थी, उसे भी बेशकीमती रत्‍नों की तरह से छुपा कर ऊपर से कंक्रीट का पलस्‍तर कर दिया गया था। हाथ में पॉलीथील की थैली ले घूमते हुए मैं हुमायूँपुर के इलाके से सफदरजंग एन्‍क्‍लेव के किसी लेन तक आ गया। यहां आ कर बड़ी-बड़ी कोठियों के सामने की चारदीवारी के समानांतर प्राय: कंक्रीट से ही घेर कर छोड़ी गई डेढ़-दो फीट की चौड़ाई वाली मिट्टी की पट्टियां दिखाई देने लगीं, जिनमें उगे विदेशी मूल वाले रेसिडेंट फॉरेनर पौधे-पेड़ ही अपने हिस्‍से की मिट्टी के अडि़यल पहरेदार की तरह घूर रहे थे। मिट्टी के लिए इनमें से किसी कोठी के सामने ठहरना खतरे से खाली नहीं था जहां से गुज़रते हुए ऐसे ही ठहर जाने पर भी असहज़ कर देने वाली एक झुरझुरी पैदा होती है कि कहीं कोई पूछ न दे कि ‘क्‍या बात है, क्‍यों रुके हो यहां?’ और आधार कार्ड दिखाने की मांग कर दे। क्‍या पता यहां की मिट्टी और उसमें उगने वाली मिर्चें भी मेरे ऊपर रौब जमाने वाली ही हों। यह सब सोचते और आगे निकल गया।


अब मैं दक्षिणी दिल्‍ली के विख्‍यात डियर पार्क में था। सड़कें तो इस पार्क में भी कंक्रीट की ही बनी थीं, लेकिन उन्‍हें कच्‍चे मार्गों जैसा दिखाने के लिए उन पर पत्‍थर के चूरे वाले मौरंग की रेत डाली गई थी, जो चप्‍पल के नीचे पड़ने पर किर्र किर्र की ध्‍वनि पैदा करती। इसमें अपनी चप्‍पल से उत्‍पन्‍न ध्‍वनि से अधिक दूसरों के जूतों से उत्‍पन्‍न किर्र किर्र से चिढ़ सी होती थी। लंबे समय से दिल्‍ली में रहते हुए मैं खुद को अनेक, अथवा संभवत: सभी, प्रकार की चिढ़ पर विजय प्राप्‍त कर लिया हुआ मानता था। चिढ़ मसलन तेज धूप में पसीने से लस्‍त पस्‍त हो हेलमेट के भीतर भाप में उबलता हुआ सिर ले कर घंटों तक ट्रैफिक के जाम में रेंगते रहने से उपजी चिढ़। मेट्रो के रूट में आने वाले इंटरचेंज स्‍टेशनों पर होने वाली कचूमरकाढ़ भीड़ में भीड़ के हवाले हो सामान की तरह डिब्‍बे के भीतर या फिर डिब्‍बे से बाहर फेंक दिए जाने की चिढ़। हर अजनबी को ‘आप’ कहने और उसके संबोधन के पीछे ‘जी’ लगाने की तहज़ीब वाली बनावट लिए हर अजनबी से ‘तूँ’ और ‘तेरे को’ आदि सुनने की चिढ़। ऐसी और भी अनेक प्रकार की चिढ़ के प्रति सहज हो चुकने के बावजूद सेहत बनाने के लिए दौड़ते-भागते लोगों के जूतों की किर्र-किर्र वाली यह चिढ़ चुभ सी रही थी। लिहाजा मौका मिलते ही मैंने विशुद्ध मिट्टी वाली एक कच्‍ची सी पगडंडी की ओर रुख किया। पगडंडी के दोनों ही तरफ ढेर सारे फूलों के पौधे थे। हर पौधे के आस-पास उसके हिस्‍से की ढेर सारी मिट्टी थी। हालांकि, यह सारे पौधे अंतत: पार्क की देख-रेख करने वाले प्राधिकरण अथवा निगम के अधीन एक योजना के तहत लगाए हुए, वस्‍तुत: गुलाम पौधे ही थे, लेकिन उनमें खिले फूल, वास्‍तविक फूलों जैसे ही मुस्‍कुरा रहे थे।





उस कच्‍ची पगडंडी पर आगे बढ़ते हुए जल्‍द ही मुझे पगडंडी का दूसरा छोर दिखने लगा, जहां फिर से उसी किर्र-किर्र की ध्‍वनि उत्‍पन्‍न करने वाली रेत बिछी कंक्रीट की सड़क का घेरा था। इस प्रकार मैं उस कच्‍ची पगडंडी के लगभग बीचोबीच था। मैं जिस काम के लिए यहां तक आया था, उसके लिए इससे अच्‍छी जगह और कोई नहीं होने वाली थी। लेकिन संकट यह था, कि उस कच्‍ची पगडंडी पर भी लोगों की आवाजाही उतनी ही थी। पगडंडी के किनारे पौधों के बीच झुक कर पॉलीथीन में मिट्टी भरते हुए मुझे कोई देख न सके, ऐसा नहीं हो सकता था। हालांकि मैं चाहता यही था। कुछ देर तक एक जगह खड़ा रहने, फिर कुछ दूर आगे और फिर थोड़ी दूर पीछे हो जाने के बाद मुझे महसूस हुआ कि आगे मुझे जो कुछ भी करना है, इस तरह की हरकतें कर मैं उसे और अधिक संदिग्‍ध बना रहा था, जिस पर गौर करने वाला कोई भी शख्‍स मुझे टोके अथवा मुझसे सवाल किए बिना नहीं रहता। यूँ, अचानक से समूचा संकोच झाड़ कर पगडंडी की दायीं तरफ पौधों के बीच झुक कर ताजी गोड़ी गई मिट्टी के ढेले जल्‍दी जल्‍दी पॉलीथीन के थैले में भरने लगा और थैला भर जाने के बाद उठने के पहले अपनी दायीं तरफ, यानी पगडंडी पर पीछे की ओर देखा। अचानक मेरी नजर मेरी तरफ आ रहे एक अधेड़ आदमी से मिल गई, जो महज कुछ ही सेकेंड में मेरे पास से हो कर गुजर जाने वाला था। मैं उसे बिना किसी संवाद के गुजर जाने देने के लिए थोड़ी और देर तक ढेले चुनता रहा और उसके चले जाने के बाद उठ कर मिट्टी का थैला लटकाए वापस पार्क से बाहर जाने वाली दिशा में चलने लगा। मैं एक बड़ी जंग में फतह हासिल कर घर लौट रहा था, इस तथ्‍य को जानते हुए भी, कि उन दिनों की, और सब दिनों की भी मेरी सबसे करीबी शख्‍स मेरी पत्‍नी न तो मेरी इस विजय श्री को कोई भाव देगी और न ही इसके लिए किए मेरे संघर्षों की कथा सुनने में उसकी कोई दिलचस्‍पी होगी।


तो इस तरह पार्क से लाई मिट्टी को डिब्‍बा काट कर बनाए गमले में भर कर उसके नम हो जाने जितना पानी डाल कर उसमें सूखी लाल मिर्च के बीज बिखेर कर छोड़ दिया गया था। उस दिन के बाद वाली सुबह में आंखें खुलते ही मैं भाग कर उस गमले के पास गया, लेकिन देखने को नमी के असर में ठीक से बैठ गई मिट्टी के अलावा वहां कुछ भी नया नहीं था। मेरा यह कौतूहल भी दशकों की धूल के नीचे दबे मेरे बचपन की उन सुबहों के कौतूहल सरीखा, जब छुहारे के बीज जमीन में दबा कर मैं उनके अंकुर देखने के इंतजार में महीनों सो कर उठते ही घर के पिछवाड़े की ओर भागता था।


करीब हफ्ते भर बाद वहां तिनके की लकीर जैसी कुछ संरचनाएं अपने सिर पर मिट्टी का सूक्ष्‍म ढेला लिए उठती दिखाई दीं जो अगले कुछ दिनों में धीरे-धीरे धानी हुईं और फिर बहुत छोटे हरे पत्‍ते धरने लगीं। इस बीच एक खुशी की बात यह भी हुई कि पत्‍नी भी उन अंकुरों को देख कर खुश हुई। उन कोमल पत्‍तों को धरने वाले कोमलतर तने में मजबूती आने तक उसकी हिफाज़त कितना जरूरी था, लगे हाथों मैं इस पर एक वक्‍तव्‍य भी पत्‍नी को सुना डाला, जिसमें अधिक पानी डालने से नए उगे पौधों के सड़ जाने की हिदायत सबसे अहम थी। कुछ ही दिनों में हम दो हरी हथेलियों को जड़ों से सटाए और अंगुलियों की तरफ से खोले अनेक नन्‍हें पौधों के स्‍वामी हो गए थे, और अपने वंशबेल के आगे बढ़ने पर जैसे रहने के लिए घर में कमरे कम पड़ने लगते हैं, उन पौधों के मामले में भी हमें नए घरों की जरूरत महसूस होने लगी। मतलब नए गमले।


रसोई की विविध जरूरतों से जुड़ी विभिन्‍न चीजों के खाली पड़े अथवा खाली किए गए डिब्‍बे लेकर चार और तदर्थ गमले तैयार किए गए। अभिजात्‍य और अतिपोषित वनस्‍पतियों और लोगों की उस सुरम्‍य जमघट यानी डियर पार्क जा कर, पुराने अनुभव का प्रयोग करते हुए पुन: प्‍लास्टिक की थैलियों में मिट्टी लाई गई और पुराने गमले से पौधों को निकाल, इस तरह से, उनके चार नए कुनबे बनाए गए। किसानी के मेरे स्‍मृति आधारित अनुभव के आधार पर एक कुनबे में दो पौधे सटा कर लगाए गए, और, दो-तीन रोज की निगरानी के बाद इस बात की तस्‍दीक भी हो गई कि सभी के सभी पौधे लग भी गए।  

         




आज का दिन उस दिन के बाद के कई दिनों के बाद का दिन था। पत्‍नी ने तब से अब तक न जाने किन स्रोतों की मार्फत न जाने कब, अप्रत्‍याशित तरीके से, आने वाले ढेर सारे पैसों के बाद के दिनों के बारे में एक योजना बना ली थी। योजना में हमारे कमरे के सामने वाली खाली छत का ज्‍यादातर हिस्‍सा सुंदर-सुंदर गमलों से भरा हुआ था, जिनमें भिंडी, टमाटर, बैगन आदि के पौधों से लटकती रंग बिरंगी सब्जियां दिखाई दे रही थीं और पत्‍नी शाम को एक डलिया ले कर जरूरत के अनुसार उनमें से कुछेक को तोड़ रही थी। पास में एक क्‍यारी के गमलों में गुलाब, गुड़हल और डहेलिया आदि के फूलों से सजे कुछ फूलों के भी पौधे भी थे। योजना के अंतर्गत पत्‍नी अब किसी फलदार पौधे, जैसे संतरे या सेब की बोनसाई का भी एक पौधा भी ले आने की योजना बना रही थी।

         

ऐसी योजनाओं से भरी योजना वाली उसकी कल्‍पना-यात्रा का मैं अचानक अपनी इस तथ्‍यात्‍मक टीप के साथ पटाक्षेप कर दिया कि बोनसाई पौधे ऐसी खुली धूप में नहीं रखे जाते। यह बोल देने के ठीक बाद मुझे ख्‍याल आया कि मैंने बागवानी की तर्ज़ पर गमलबानी करने की उसकी कल्‍पना में ख़लल डाल कर ग़लत किया है, वह भी तड़के सुबह। पत्‍नी का मुंह बिदक गया। यूं, यह कोई नई बात नहीं थी।

         

इन दिनों की अपनी आदत बतौर मैं उठते ही उचक कर बाहर छत की तरफ गया और जो देखने को मिला, उसे देख हतप्रभ रह गया। पांच में से दो गमलों के तीन पौधे मिट्टी से कुछ मिलीमीटर ऊपर से कट कर गिरे हुए थे तथा एक पौधा तने से सटा हुआ ही झूल गया था। शेष तीन में से दो गमलों के चारो पौधे जड़ समेत उखाड़ दिए गए थे और वहां से नदारद थे। हताशा और क्षोभ से सराबोर मैं आस-पास नजरें फेरता गया तो दूर रेलिंग पर एक कबूतर दिखाई दिया। गायब पौधों में से एक उसकी चोंच में दबा हुआ था। मैंने निहायत बुझे लहज़े में, लेकिन ऊंची आवाज में पत्‍नी को पुकारा। कुछ गड़बड़ होने का संदेश मेरी उस पुकार में भी चस्‍पा था, जिसे पढ़ कर पत्‍नी भागते हुए आई और गमले का हाल देख हैरत में मुंह पर हाथ रख ली। मैं उसे बताया यह करतूत कबूतरों की है, तो वह जन्‍मेजय के नागयज्ञ की तरह कबूतर यज्ञ जैसा कुछ करने की इच्‍छा से लबरेज़ कबूतरों के खिलाफ एक सिलसिले में कई सारे फैसले ले डाली। एक आखिरी गमले के दो में से एक पौधा बचा हुआ था, जिसे गमले समेत उठा कर आंचल से ढंकते हुए वह अपने कमरे की ओर लेती गई।


उम्‍मीद की आखिरी किरण को बचाने के शिल्‍प में।

 


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स विजेन्द्र जी की हैं।)


सम्पर्क


मोबाइल :  8744004463



 

 

टिप्पणियाँ

  1. बहुत दिनों बाद एक प्रभावशाली कहानी पढ़ने को मिली। लेखक और संपादक, दोनों को बधाई।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'