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हरिशंकर परसाई का व्यंग्य 'वह जो आदमी है न'

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हरिशंकर परसाई व्यंग्य को हिन्दी साहित्य की एक अहम विधा के तौर पर स्थापित करने में हरिशंकर परसाई का योगदान अहम है। परसाई जी आम आदमी की सोच और मानसिकता से भलीभांति परिचित थे और आम आदमी के नब्ज पर अच्छी खासी पकड़ थी। निन्दा रस एक ऐसा रस है जिसमें अधिकांश लोग रुचि लेते हैं। किसी की निन्दा किए बिना जैसे चैन ही नहीं पड़ता। आजकल नेहरू जी लोगों की जुबान पर हैं। उनकी निन्दा पानी पी पी कर की जा रही है। इससे निंदकों को खासा सुकून मिलता है और रात को अच्छी नींद आती है। परसाई जी लिखते हैं "निंदा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं। निंदा खून साफ करती है, पाचन-क्रिया ठीक करती है, बल और स्फूर्ति देती है। निंदा से मांसपेशियाँ पुष्ट होती हैं। निंदा पायरिया का तो शर्तिया इलाज है। संतों को परनिंदा की मनाही होती है, इसलिए वे स्वनिंदा करके स्वास्थ्य अच्छा रखते हैं। ‘मौसम कौन कुटिल खल कामी’- यह संत की विनय और आत्मग्लानि नहीं है, टॉनिक है। संत बड़ा कांइयाँ होता है। हम समझते हैं, वह आत्मस्वीकृति कर रहा है, पर वास्तव में वह विटामिन और प्रोटीन खा रहा है।" आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं हरिशंकर परसाई का व्...

रामचंद्र गुहा का आलेख 'गांधी बनाम लेनिन'

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  राम चन्द्र गुहा महात्मा गांधी और लेनिन विश्व इतिहास के दो ऐसे व्यक्तित्व हैं जो अपने जीवन काल में ही किंवदंती बन गए थे। गांधी ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद से भारत को आजाद कराया जबकि लेनिन ने रूस को निरंकुश जारशाही से मुक्त कराया।  दोनों महापुरुषों के रास्ते और साधन एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न थे लेकिन लक्ष्य एक था अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करना। दोनों के ऊपर समकालीन कवियों और लेखकों ने अपनी कलम चलाई और दोनों अपने यहां के लोक गीतों और लोक कथाओं के नायक जल्द ही बन गए। अप्रैल 1921 में श्रीपाद अमृत डांगे ने 60 पृष्ठों की एक पुस्तिका प्रकाशित की, जिसका शीर्षक था 'गांधी बनाम लेनिन'। चार वर्ष पश्चात, अमेरिकी मेथोडिस्ट पादरी हैरी वार्ड ने अप्रैल 1925 में 'द वर्ल्ड टुमारो' पत्रिका में 'लेनिन और गांधी' शीर्षक से एक विचारपूर्ण आलेख प्रकाशित किया। ऑस्ट्रियाई विचारक रेने फ्यूलोप-मिलर ने भी 1927 ई में इसी शीर्षक से मूल रूप से फ्रेंच भाषा में एक किताब लिखी। आज जब दुनिया भर में कट्टरवादी ताकतें अपने पांव पसारती जा रही हैं, लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं संकट में नजर आ रही हैं। इसी ...

राजीव जोशी की कहानी 'वो गुलाब'

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  राजीव जोशी सामान्यतया 'हां' और 'ना' जैसे शब्द छोटे दिखते हैं। लेकिन कई बार परिस्थितियां कुछ ऐसी होती हैं कि इन शब्दों को कह बोल पाना बहुत कठिन होता है। खासकर उन महिलाओं के लिए जिनके  'हां' या 'ना'  की परवाह यह समाज करता ही नहीं और उसकी व्याख्या कुछ अपने तरीके से ही कर लेता है। युवा कहानीकार राजीव जोशी की कहानी वो गुलाब इस परिप्रेक्ष्य को करीने से उद्घाटित करती है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं  राजीव जोशी की कहानी 'वो गुलाब'। वो गुलाब राजीव जोशी ढक्कन खुलते ही गुलाब के तरोताजा फूल की महक नाक तक पहुंची। डिब्बे में देखा तो एक मरून गुलाब अपनी डण्डी को चारों ओर गोल घुमाए, तीन-चार पत्तियों के साथ पड़ा था। एकदम फिट्ट। बड़ी जिज्ञासा से मैंने वह छोटा डिब्बा खोला था। टिफिन केस के डिब्बों से छोटे साइज का यह डिब्बा किसी टैक्सी गाड़ी में लटक कर आए यात्री की तरह केस बैग के किनारे ठूँसा हुआ, मेरे पास पहुंचा था। वैसे तो सबसे पहले टेबल में यही उतरा था लेकिन फिर वहीं पड़ा रह गया। भूख इतनी लगी थी कि बड़े डिब्बों की तरफ पहले हाथ गया। फिर जो खुला उसके पास गले से उतरत...

परांस-9 : मनोज शर्मा की कविताएं

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  कमल जीत चौधरी  इस दुनिया में मनुष्य ने अपने आस पास के तमाम चीजों के नामकरण किए हैं। पेड़-पौधों, और फूलों-फलों के नाम इसी क्रम में रखे गए। लेकिन तमाम फूल ऐसे भी हैं जिनका अस्तित्व तो है लेकिन उनका नामकरण नहीं हो पाया। इन फूलों का भी अपना अस्तित्व हुआ। इन की भी अपनी जिंदगी है। मनोज शर्मा ऐसे ही अनाम फूलों के कवि हैं। उन अनाम फूलों की खुशी और उन्हें समुचित सम्मान देने वाले कवि हैं। इस बार 'परांस' के कवि हैं मनोज शर्मा। बीते 29 अप्रैल 2025 को अचानक उनके देहांत की जब खबर आई हम हतप्रभ रह गए। कमल जीत चौधरी का यह आलेख एक तरह से मनोज शर्मा के प्रति आदरांजलि भी है।  अप्रैल 2025 से कवि कमल जीत चौधरी जम्मू कश्मीर के कवियों को सामने लाने का दायित्व संभाल रहे हैं। इस शृंखला को उन्होंने जम्मू अंचल का एक प्यारा सा नाम दिया है 'परांस'। परांस को हम हर महीने के तीसरे रविवार को प्रस्तुत कर रहे हैं। अपरिहार्य कारणों से इस महीने यह कॉलम चौथे रविवार को प्रस्तुत किया जा रहा है। इस कॉलम के अन्तर्गत अभी तक हम अमिता मेहता, कुमार कृष्ण शर्मा, विकास डोगरा, अदिति शर्मा, सुधीर महाजन, दीपक, शाश्विता...