राकेश मिश्र की कविताएं
राकेश मिश्र |
राजा अपने आप में ही एक निर्मम शब्द है। राज पद को पाने से ले कर इसे बचाए रखने की जुगत में राजा कुछ भी कर सकता है। पहले इस राज पद को देवत्व प्रदान कर लोगों को मूर्ख बनाने का प्रयास किया जाता था आजकल इसकी जगह 'लाभ' ने ले ली है। इस लाभ का जाल जंजाल कुछ इस तरह का होता है कि इससे पार पाना आसान नहीं। अब राजा शब्द ने भी समय को देखते हुए अपना शाब्दिक चेहरा बदल लिया है और आजकल यह कहीं राष्ट्रपति तो कहीं प्रधानमंत्री के चेहरे में तब्दील हो गया है। इनके इर्द गिर्द सरंजाम वही हैं जो पहले कभी हुआ करते थे। राजा की हुकूमत उसके समर्थकों और लाभार्थियों से पूरी हो जाती है। इसके बावजूद जो दायरे में नहीं आते उन्हें राजा दायरे में समेटने के लिए सारे जोर जुगत लगा डालता है। कवि राकेश मिश्र की नजर इस राजा पर रही है। वे खुद भी एक प्रशासनिक अधिकारी होने के नाते इससे बखूबी वाकिफ हैं। आज पहली बार पर हम राकेश मिश्र की कविताएं प्रस्तुत कर रहे हैं। कवि की कविताओं पर टिप्पणी की है चर्चित आलोचक अजय तिवारी ने। इस पोस्ट का संयोजन कवि केशव तिवारी का है।
विडम्बना की दृष्टि
राकेश मिश्र की कविताएँ
टिप्पणी : अजय तिवारी
राकेश मिश्र इस बात के साक्ष्य हैं कि उच्च प्रशासनिक जिम्मेदारियों पर रहते हुए भी कोई रचनाकार अपनी संवेदनात्मकता और सृजनात्मकता को अक्षुण्ण रख सकता है। इसके लिए कबीर की भाँति 'आपा मेटि जीवन मरै' वाली समाधि लेनी पड़ती है। विज्ञापन और आडम्बर के इस युग में यह कहने की जरूरत है कि 'आपा मिटाना' सरल नहीं है। इसके लिए अपने अहं की ही नहीं अक्सर अपने छोटे-बड़े स्वाथों की भी बलि देनी पड़ती है। हालांकि 'आपा मिटा कर' व्यक्ति सहज हो जाता है और कबीर जानते थे कि सहजता साधना की चीज है।
कविता के बारे में मेरी दो मान्यताएं शुरू से हैं। एक अच्छी कविता मनोलोक में भटकाती नहीं, जीवन में प्रत्यक्ष दिखाई देती हैं। दूसरे, उसमें लोक-जीवन का स्पर्श साफ अनुभव होता है। चाहे लय में हो, शब्द-विधान में हो या भंगिमा में हो। मसलन, रघुवीर सहाय के अनुयाई उनकी ही इस क्षमता से अनभिज्ञ हैं कि उनकी शक्ति हिंसा, हंसी हिंदी को काव्यात्मक अवधारणा बना देने में नहीं, विडम्बना के दृश्यों को सजीव करने और अवध की सांस्कृतिक लय का उपयोग करने में है। जैसे
बच्चा गोद में लिए
चलती बस में
चढ़ती स्त्री
यह दृश्य शहरों में आम दिखाई देता है लेकिन हमारी संवेदनशीलता भोथरी हो गयी है। यह हमें असहज नहीं लगता इससे हमें कोई उलझन नहीं होती। उधर गद्य के पूरे वाक्य लिखने वाले सहाय जी रामदास पर कहते है -
चौड़ी सड़क, गली पतली थी
दिन का समय घनी बदली थी
रामदास उस दिन उदास था
अन्त समय आ गया पास था।
इसमें अवधी लोक छंद लावनी का उपयोग देखा जा सकता है।
दृश्यमानता और लोक लय के बिना आत्माभिव्यक्ति वस्तुतः आत्मबद्धता से अलग नहीं होती। इस आत्माभिव्यक्ति में आत्मालोचना भी शामिल है। वह भले मुक्तिबोध की तरह अति-मुखर न हो। राकेश मिश्र की इधर सामने आई कविताओं में दृश्यमानता और आत्मालोचना के पक्ष उभर कर आए हैं। लोक लय की उपस्थिति साफ नहीं है और यह हो सकता है कि जिम्मेदारियों की व्यस्तताओं ने काव्य-शिल्प की साधना का अवकाश ज्यादा न दिया हो, फिर भी वे अपनी स्थिति और बेचैनी को बड़ी ईमानदारी से व्यक्त करते हैं। ध्यान रखिए कि वे राकेश मिश्र मजिस्ट्रेट के रूप में किसी शहर या जिले में सत्ता अथवा शक्ति के शीर्ष पर होते थे लेकिन जनसाधारण का जीवन अभावों, कष्टों, यातनाओं से घिरा होता था। इनके बीच तनाव को को वे जिस तरह अनुभव करते है, वह उन्हें अपने साथ के कवियों में विशिष्ट बनाता है। इस तनाव को एक संवेदनशील मनुष्य के रूप में अनुभव करने के नाते वे सहानुभूति का प्रदर्शन या करुणा का आडम्बर करने की जगह अपनी बेवशी का अनुभव करते हैं। 'पंख हो कर' भी 'सुनहरे पिंजड़े' में बन्द या 'पैर होते हुए भी' संशय में ठहरे की पीड़ा वास्तव में आत्मग्लानि का द्योतक है, जिसका विधान मुक्तिबोध के यहाँ विशद रूप में है। सहानुभूति उनके लिए प्रदर्शन की वस्तु नहीं है, करुणा का विषय है जो दूसरे की वेदना का सहचर और अपने कर्तव्य के प्रति चेतस बनाना है।
विडम्बना यह है कि जिनकी पीड़ा से कवि उद्वेलित होता है, वे इतनी दयनीय स्थिति में हैं कि अपनी सहज मनुष्यता भूल बैठे हैं। कवि को खिन्नता है कि उसे 'सोच ने शब्द न दिए'। उधर 'बाकी सभी ने अनाज, तेल और पैसा पाया'। और यथार्थ यह है कि 'इस तरह मुकम्मल हुई एक राज्य की हुकूमत'। यह त्रिकोणात्मक दृश्य जिसमें जिसमें कवि, विपन्न जन और राज्य सत्ता मिल कर कविता का निर्माण कर रहे हैं। राकेश मिश्र की संवेदनशीलता से उपजा विधान है। यह विडम्बना उन्हें व्यथित करती है। क्योंकि वे महानगर के 'महाकवियों की तरह करुणा के वजन का शब्द' नहीं खोजते बल्कि उसे 'क्रियात्मकता की भावना' से जोड़ते हैं। उनकी व्यथा का कारण है अभाव, उत्पीड़न के शिकार लोगों की सुविधाभोगिता जो उन्हें प्रतिरोध के लिए बढ़ने नहीं देता। साहित्य में जहाँ प्रतिरोध के स्वर हैं, वहाँ भी प्रलोभन के भ्रमजाल हैं। जनसमूह से अपने रागात्मक संबंध के नाते राकेश जी कहते हैं कि लाचार मनुष्य की वेदना को पीडा या सहानुभूति के नाम पर जाति के विमर्श में तब्दील करना संभव नहीं है जो जनसमूह अनाज, तेल या पैसा पाता है और मनुष्य की हैसियत से रहने का अधिकार भूल जाता है वह राज्य सत्ता की दृढ़ता का नया स्रोत है जो प्रशासन, न्यायालय प्रचार-साधन से अलग एक नई चीज है जिसे 'लाभार्थी' कहते हैं।
यथार्थ के इन पहलुओं पर ध्यान दिलाने वाले राकेश जी सम्भवतः पहले कवि हैं। अपनी स्थिति के प्रति निस्संग रह कर कोई जीवन के नए पक्षों को दर्ज कर सकता है, राकेश जी यह प्रमाणित करते हैं। वे अपनी स्थिति मध्यवर्गीय जीवन के प्रति जागरूक हैं, लेकिन उससे निस्संग हैं। इसलिए वास्तविकता के जटिल पहलुओं को देख पाते हैं और नई बातों को लक्षित भी कर पाते हैं। कविता में वे अपनी स्थिति भी कहते हैं। उन्हें दो तरह के मनुष्य मिलते हैं। एक, जो सुख की देहरी पर अटके हैं। दूसरे जो दुःख का अनन्त साम्राज्य देख रहे हैं। इन दोनों के बीच कवि है जो चिंताग्रस्त है। वह न कोई प्रतीक इस्तेमाल करता है, न भाषा की वक्रता अपनाता है। सचाई से अपनी अनुभूति को प्रस्तुत कर देना भी कला है। सादगी राजेश मिश्र की शक्ति है। उनकी रचना का परिदृश्य इसी सहज इसी मध्यवर्गीय मनुष्य के अनुभव से बना है।
'मायका' मार्मिक कविता है। यूकेलिप्टस की टहनियों पर चिडिया पल भर ठहरती है - यह बिम्ब मां-पिता बिन मायके का है। जहाँ नीली चिड़िया आती तो पूरे उत्साह से है लेकिन 'बिना चहके बे-आवाज' चली जाती है। कविता में मायके लौटने का क्रिया पद है लेकिन भावचित्र सूने मायके से वापस लौटने का है। ऐसे अनुभव अब बढ़ते जा रहे है-परिवारों के इकहरे होते जाने और संबंधों के बिखराव के चलते। आश्चर्य यह है कि ज्यादातर कवि - नितान्त नगरीय परिवेश से आने वाले कवि - इन वास्तविकताओं का स्पर्श अपनी कविता नहीं करते। लेकिन राकेश जी ने 'दोहद पूर्ति' में वर्णन तो साफ साफ किया है लेकिन उसमें प्रतीकवत्ता अपने आप आ जाती है।
मछलियां बुद्धिमान होती हैं
पर उनकी देह सबको चाहिए
क्या यह कहने की बात है कि बुद्धिमान और देह के इस द्वंद्व से कवि ने हमारे दौर की एक वीभत्स सच्चाई को रेखांकित कर दिया है?
कहीं-कहीं जब संवेदना उमड़ती है, लेकिन स्पष्ट रूप नहीं ले पाती, तब कवि का आशय भी पाठक को विभ्रम में डालती है। 'देह' का आरंभ ही देखा जा सकता है।
बीमार देह जैसे
जलती देह का आकर्षण भी।
आगे इसमें आदिम बोध भी आता है। लेकिन इससे बीमार के देह के आकर्षण और जलती देह के आकर्षण का संबंध निर्मित नहीं होता। हालांकि 'दौड़' में मंडी की और भागते बकरे 'मृत्यु की नदी' जिस आसानी से पार करते हैं, वह बाजारवादी आकर्षण की विडम्बना का सही संकेत करता है।
राकेश की कुछ कविताएँ जहाँ अनुचिंतन की शैली में आत्मिक अनुभूतियों का संसार प्रस्तावित करती हैं, जैसे 'जन्मदिन' में, वहीं वर्णन की शैली में बाहर दिखती हुई प्रक्रियाओं और परिघटनाओं के जटिल अंतर्संबंधों को उद्घाटित करती है - जैसे 'गाड़ियां'। दोनों यथार्थ के दो छोर हैं। और सच्चा कवि किसी की अनदेखी या अवहेलना नहीं करता।
मेरा परिचय राकेश मिश्र से कवि के रूप में ही हुआ। वे नोएडा में सहायक कलेक्टर थे। और उनके तीन संग्रहों पर चर्चा थी। बाद में अमेठी से जिला मजिस्ट्रेट के रूप में रिटायर हुए। राकेश जी के चार संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और उन्हें साहित्य में समादर भी प्राप्त हुआ है। मेरे मन में है कि एक-दो संग्रह और निकल जाएं तो उनका एक बेहतर चयन निकाला जाय। यहां उनकी मेरे पसंद की कुछ कविताएँ प्रस्तुत हैं।
अजय तिवारी |
राकेश मिश्र की कविताएं
राजा
जिनके पंख थे
उड़ सकते थे
पर सुनहले पिंजड़े थे चारो ओर
जिनके पैर थे
भाग सकते थे
पर संशय में ठहरे रहे
अधिकांश की ज़ुबानें थीं
बोल सकते थे
पर सोच ने शब्द न दिये
बाक़ी सभी ने
अनाज तेल और पैसा पाया
इस तरह मुकम्मल हुई
एक राजा की हुकूमत।
फ़ोन की घंटियाँ
श्रावण शिवरात्रि की शाम
माँ पिता निहारते बैठे हैं
डूबता सूरज और लाल भूरा आकाश
प्रसाद के छोटे पेड़ों का डब्बा
उनके सामने करता हूँ
माँ की काँपती उँगलियाँ
प्रसाद को छू कर ख़ाली लौटती हैं
अभ्यासवश मुँह की ओर
पिता अपने मसूढों से कोशिश करते हैं
मेरे पास कोई गीत नहीं
जिसे गुनगुना कर
मैं भर सकूँ
अपने मन का निचाटपन
देर रात सपनों में बजती है
फ़ोन की घंटी
मैं हड़बड़ा कर झाँकता हूँ
माँ पिता का कमरा
दोनों गहरी नींद में हैं
लौट कर अपने बिस्तर पर
सोचता हूँ उन सपनों को
जिनमें नहीं बजती हैं
फ़ोन की घंटियाँ।
पुनर्जन्म
एक देह थी माँ
उसने अनुमति दी होगी
अपनी देह को
मुझे पैदा करने की
सुख की देहरी पर
अटके हुए लोग
समझ नहीं सकेंगे
दुःख का अनन्त साम्राज्य
वे नहीं समझेंगे
अपनी संततियों के लिए
क्यों पुनर्जन्म चाहती हैं
माताएँ।
देह
बीमार देह जैसे
जलती देह का आकर्षण भी
कम नहीं होता
झांकता है आदिम बोध
जैसे मिल जाएगा
कुछ खोया हुआ
जबकि जल रहे हैं
हाथ और अंगुलियों के शंख
कलाई की मणिबंध रेखाएँ
जलते हुए हाथों की जल जाती है
जीवन रेखा भी
भाग्य रेखा जल चुकी होती है
जीवन रेखा से पहले।
दोहद पूर्ति
मछलियाँ
बुद्धिमान होती हैं
पर उनकी देह चाहिए सबको
उनकी आँखों की तरलता
संगीत की चपलता
स्त्री जैसे सहज है
अपने सैकड़ों बच्चों के साथ
टहलती माँ मछली
भर देना चाहती है
पूरा सरोवर
मछलियों से
मछुआरे पहचानते हैं
माँ मछली
लिंग निरपेक्ष होते हैं
मत्स्य जाल
मानसून के बाजारों में
बिक रहे मत्स्य डिम्ब
दोहद पूर्ति के प्रतीक हैं
दौड़
बकरा मंडी की और दौड़ लगाते
बकरों को देखो
कितनी आसानी से पार करते हैं
मृत्यु की नदी।
जन्मदिन
पानी ठेलने जैसा रहा
जीवन
हर बार लौटता प्रवाह
मेरी ओर
ज़्यादा मिट्टी और भार ले कर
नीरसता का उत्सव रह गयीं
सह यात्रायें
स्मृतियों में वास है
देह के स्वाद का
इतने वर्ष रीते
कोई क्रमांक न दे सका
अनगिन भावों की भ्रूण हत्याओं को
स्त्रियों को धमकाना आज भी
सर्वाधिक प्रयुक्त व्यवहार है
उन्हें मनाने का
ख़त्म नहीं होता हत्यारों की
वरिष्ठता सूचियों का विवाद
एक विकसित सभ्यता है
शहद के लुटेरों की
एक उम्र है
जो कभी मना नहीं करती
आगे बढ़ने से!
मायका
यूकेलिप्टस के सूखे शिखर की
टहनियों पर फुदकती
पल भर ठहरती
बिन चहके बे-आवाज
वह नन्हीं सी नीली चिड़िया
माँ- पिता बिन
मायके लौटी है आज।
गाड़ियाँ
जिनके पिता नहीं ख़रीद सकते
बड़ी लक्ज़री गाड़ियाँ
वो लड़के भी चर्चा करते हैं
लक्ज़री गाड़ियों के टायर साइज़
हैच बैक या सिडान
इंजन क्षमता और फ़ीचर्स के बारे में
देश के बाहर बन रही गाड़ियाँ भी
लड़कों की सामान्य बातचीत में होतीं हैं
बात बात पर गाड़ियों के फ़ीचर्स पर
बहस करते लड़के
अनमने से होते हैं अपने पास से गुजरती
दो छोटी, छोटे बाल, मोटी-पतली
गोरी-साँवली, बातूनी अथवा चुप रहने वाली
हम उम्र लड़कियों से
जबकि अचूक पैनेपन से सधी
उनकी दृष्टि
चित्रवत अंकित करती है
सहसा गुजर गयी लक्जरी गाडिय़ों को
फिर देर तक तुलनात्मक चर्चा करते है
लड़के
उसके फीचर्स पर
दिन की चर्चा स्मृतियों को संजोये
आती है रात
लड़कों के सपनों में गतिमान होती हैं
लक्ज़री गाड़ियाँ
रात को गाड़ियों के चौड़े पहियों की
चरचराहट भरी चीख
चौंका कर जगा देती है लड़कों को
जैसे सपनों में बची हो कोई भीषण दुर्घटना
असहज होती है
पसीने से तरबतर लड़कों की देह
उत्तरोत्तर बढते गति के रोमांच से
गति और दुर्घटना के बीच
कहीं दुबकी होती है
लड़कों की नींद
लड़कों के सपनों में लड़कियों की जगह
कब आ गयीं रूमानी लक्ज़री गाड़ियाँ
नहीं जानते
लड़कों के माता-पिता।
बहुत सुंदर कविताएँ हैं। सहज और प्रवाहमय। बिल्कुल जीवन जैसे ही। यदि आप मेरी पसन्द कहें तो मैं " जन्मदिन" कविता को अपने दिल के सबसे करीब पाता हूँ।
जवाब देंहटाएंपहली बार ब्लाॅग का शुक्रिया। इन कविताओं को पढवाने के लिए।
और राकेश जी को बहुत बधाई। इतनी प्यारी कविताओं को लिखने लिए।
रामजी तिवारी
बलिया
मन को झकझोर देने वाली खुद से
जवाब देंहटाएंसवाल करने वाली दिल के करीब बहुत सुंदर कविताएं
स्मृतियों में वास है देह के स्वाद का ।
बहुत बहुत बधाई आदरणीय
हार्दिक शुभकामनाएं ।र
रेखा श्रीवास्तव
बहुत मार्मिक और मानीखेज कविताएँ। छोटे कलेवर की बड़ी कविताएँ।।
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